Wednesday, December 11, 2013

दिल्‍ली का इंकार


गोलिएथ जैसी भीमकायपुराने वजनदार कवचसे लदीधीमी और लगभग अंधी भारतीय पारंपरिक राजनीति का मुकाबला छोटे लेकिन चुस्त,  सचेतनसक्रिय युवा व मध्‍यवर्गीय डेविड से है 

ह भी दिसंबर ही था। 2011 का दिसंबर। जब लोकपाल पर संसद में बहस के दौरान मुख्‍यधारा की राजनीति को पहली बार खौफजदा, बदहवास और चिढ़ा हुआ देखा गया था। ठीक दो साल बाद वही राजनीति दिल्‍ली के चुनाव नतीजे देखकर आक्रामक विस्‍मय और अनमने स्‍वीकार के साथ खुद से पूछ रही है कि क्‍या परिवर्तन शुरु हो गया है?  लोकपाल बहस में गरजते नेता कह रहे थे कि सारे पुण्य-परिवर्तनों के रास्‍ते पारंपरिक राजनीतिक दलों के दालान से गुजरते हैं। जिसे बदलाव चाहिए उसे दलीय राजनीति के दलदल में उतर कर दो दो हाथ करने चाहिए। रवायती राजनीति एक स्‍वयंसेवी आंदोलन को दलीय सियासत के फार्मेट में आने के लिए इसलिए ललकार रही थी क्‍यों कि उसे लगता था कि इस नक्‍कारखाने में आते ही बदलाव की कोशिश तूती बन जाएगी। आम आदमी पार्टी ने दलीय राजनीति पुराने मॉडल की सीमा में रहते हुए बदलाव की व्‍यापक अपेक्षायें स्‍थापित कर दी हैं और चुनावी सियासत के बावजूद राजनीति की पारंपरिक डिजाइन से इंकार को मुखर कर दिया है। दिल्‍ली में आप की सफलता से नगरीय राजनीति की एक नई धारा शुरु होती है जो तीसरे विकल्‍पों की सालों पुरानी बहस को  नया संदर्भ दे रही है।
देश की कास्‍मोपॉलिटन राजधानी में महज डेढ़ साल साल पुराने दल के हैरतअंगेज चुनावी प्रदर्शन को शीला दीक्षित के प्रति वोटरों के तात्‍कालिक गुस्‍से का इजहार का मानना फिर उसी गलती को दोहराना होगा जो अन्‍ना के आंदोलन के दौरान हुई थी, जब स्वयंसेवी संगठनों के पीछे सड़क पर आए लाखों लोगों ने राजनीति की मुख्यधारा को कोने में टिका दिया लेकिन सियासत के सर रेत
में ही घुसे रहे। दिल्‍ली में आप की जीत, ऐसे जीवंत प्रतीकों और ठोस परिप्रेक्ष्‍यों ने बुनी है जो सियासत के पुराने विमर्श से बिल्‍कुल अलग हैं। इन्‍हें नकार कर बदलाव के ताने बाने को समझना मुश्किल है।
भारत में न तो आंदोलनों से निकले दलों का कोई टोटा रहा है और न ही छोटी पार्टियों का इतिहास छोटा है। आम आदमी पार्टी का संदर्भ इसलिए फर्क है क्‍यों कि वह एक ऐसे आंदोलन से निकली जिसका जो किसी छोटे राज्‍य को बनाने, हक मांगने या पहचान हासिल करने से नहीं बल्कि भ्रष्‍टाचार के उस दर्द से जुड़ता था, जिसकी स्‍वीकार्यता देश व काल की सीमाओं को लांघती है। शीला दीक्षित तो राष्‍ट्रव्‍यापी परिवर्तन की उस बड़ी मांग के सामने फंस कर इसलिए निबट गईं क्‍यों कि एक आंदोलन से उपजी राजनीतिक पार्टी का यह पहला चुनावी मोर्चा था। दिल्‍ली एक बड़ा प्रतीक है। लोकपाल जैसा कोई आंदोलन अगर दिल्‍ली के बाहर से उठा होता और बाद में राजनीतिक दल में बदल गया होता तो उसकी जीत हार शायद इतनी अर्थपूर्ण नहीं होती। इस आंदोलनजन्‍य पार्टी का दिल्‍ली में उभरना और जीतना इसलिए बड़े संदेश देता है क्‍यों कि यह जीत उस विराट आग्रह के पक्ष में जनसमर्थन को स्‍थापित करती है, 2011 में जिसका निशाना केंद्र सरकार थी। इसलिए दिल्‍ली के नतीजे आधुनिक राजनीति का प्रतीक हैं जबकि मध्य प्रदेश या राजस्‍थान में भाजपा की जीत सियासत के पुराने डिजाइन का दोहराव भर है। 
आम आदमी पार्टी की चुनावी सफलता से नेताओं को जरुर डरना चाहिए। याद कीजिये लोकपाल आंदोलन के दौरान दिल्ली के रामलीला मैदान से लेकर मुंबई के आजाद मैदान तक हवा में लहराती हजारों मुट्ठियां, जो लोकतंत्र में महाप्रतापी संसद स्थिति, उपयोगिता, योगदान, नेतृत्व, दूरदर्शिता, सक्रियता और मूल्यांकन पर प्रश्नचिन्ह लगा रही थीं और सत्‍ता पक्ष व विपक्ष संसदीय गरिमा का तर्क देकर संविधान दिखाते हुए पारदर्शिता कोशिशों को रोकने में लगा था। वह आंदोलन उस संसद से देश की ऊब का प्रत्‍यक्ष प्रदर्शन था जो चलती ही नहीं है या जिसके सदस्‍यों का आचरण शर्म से भर देता है। आप का पूर्वज यानी जनलोकपाल का आंदोलन इसी संसद से मुखातिब था जिसमें सत्ता पक्ष व विपक्ष, दोनों शामिल हैं। दिल्‍ली का वोट उस आंदोलन का चुनावी प्रतिफल है इसलिए दिल्‍ली के चुनावी नतीजों से एक नया लोकतांत्रिक  मोहभंग मुखर हो उठा है।
भारतीय राजनीति अब डेविड और गोलिएथ के मिथक की मानिंद है। गोलिएथ जैसी भीमकाय, पुराने वजनदार कवच से लदी, धीमी और लगभग अंधी पारंपरिक राजनीति का मुकाबला छोटे लेकिन चुस्त, सचेतन, सक्रिय युवा व मध्‍यवर्गीय डेविड से है, जिसकी गुलेल दूर तक मार करती है। भारत के गोलिएथ अभी भी भाड़े की भीड़ वाली रैली छाप मानसिकता में है। जबकि 15 लोकसभाएं बना चुके युवा मुल्क के पास इतिहास, तथ्य व अनुभवों का अंबार है। दशकों से लोकशाही देख रहे लोग संसदीय लोकतंत्र के पैटर्न से वाकिफ हैं जहां कुर्सी लपकने व कुर्सी खींचने के बोरियत भरे खेल बड़े बदलावों की मुहिम का गला घोंट देते हैं और भ्रष्‍टाचार के एक विराट भोज में सभी दल छक कर खाते हैं। लोगों ने शुरुआत तो सिविल सिविल सोसाइटी के पैमानों से ही की थी जिसमें सत्ता बदले बिना व्यवस्था बदलने की कोशिश की जाती है । लेकिन जब बात नहीं बनी तो अब संदेश चुनावी भाषा में भी आ गया जिस पर नेता सबसे ज्‍यादा भरोसा करते हैं।
दिल्‍ली के लोग चाहते तो आप को बहुमत दे देते लेकिन जनता केजरीवाल से भी ज्‍यादा समझदार है। दूध के जले लोग आप के छाछ को भी फूंक फूंक कर पीना चाहते हैं। सत्‍ता के प्रलोभन और वक्‍त की कसौटी पर अब केजरीवाल भी कसे जाएंगे। किसी को इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि भारत के लोग परिवर्तन का मतलब नहीं समझते। दिल्‍ली के चुनाव नतीजों से पारदर्शिता के आग्रह चुनावी राजनीति के केंद्र में लौट आए हैं, जो सभी दलों को चुभते हैं। दिल्‍ली बता दिया है कि परिवर्तन वह नहीं है जिसे रैलियों के सर्कस से स्‍थापित करने की कोशिश की जाती है लोगों की निगाहें तो बड़े बदलाव पर हैं। शायद यही वजह है कि दिल्‍ली के नतीजों के बाद सियासत के महानायकी जुलूसों में एक अनोखा सन्‍नाटा पसर गया है।


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