भारत की कितनी मूल्य वृद्धि ऐसी है जो केवल भ्रष्टाचार की गोद में पल रही है ?
भारत में कितने उत्पाद इसलिए महंगे हैं कि क्यों
कि उनकी कीमत में कट- कमीशन का खर्च शामिल होता है ? बिजली
को महंगा करने में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं का भ्रष्टाचार कितना जिम्मेदार है ? कितने स्कूल सिर्फ इसलिए महंगे हैं क्यों कि
उन्हें खोलने चलाने की एक अवैध लागत है ? कितनी महंगाई सरकारी
स्कीमों भ्रष्ट तंत्र पर खर्च के कारण बढी है जिसके लिए सरकार कर्ज लेती है और रिजर्व
बैंक से करेंसी छापता है।.... पता नहीं भारत
की कितनी मूल्य वृद्धि ऐसी है जो केवल भ्रष्टाचार की गोद में पल रही है ? ताजा आर्थिक-राजनीतिक बहसों से यह सवाल इसलिए
नदारद हैं क्यों कि भ्रष्टाचार व महंगाई का सीधा रिश्ता स्थापित होते ही राजनीति
के हमाम में हड़बोंग और तेज हो जाएगी। अलबत्ता सियासी दलों की ताल ठोंक रैलियों के
बीच जनता ने भ्रष्टाचार व महंगाई के रिश्ते को जोड़ना शुरु कर दिया है।
महंगाई एक मौद्रिक समस्या है, जो मांग आपूर्ति के
असंतुलन से उपजती है जबकि भ्रष्टाचार निजी फायदे के लिए सरकारी ताकत का दुरुपयोग
है। दोनों के बीच सीधे रिश्ते का रसायन जटिल है लेकिन अर्थविद इस समझने पर, काम
कर रहे हैं। इस रिश्ते को परखने वाले कुछ ग्लोबल पैमानों की रोशनी में भारत की जिद्दी
महंगाई की जड़
में भ्रष्टाचार साफ दिखता है। टर्की के अर्थशास्त्रियों हाशिम, अहमत व कॉसकुन ने 2002 से 2010 के दौरान ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के करप्शन परसेप्शंस इंडेक्स पर, 97 देशों की रैकिंग व महंगाई दर के बीच तुलना से पाया कि भ्रष्टाचार बढ़ने से महंगाई बढ़ती है। इसी पैमाने की रोशनी में भारत का ताजा रिकार्ड सनसनीखेज है। भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत की रैकिंग 2006 में 70 पर थी जो बीते साल 94 पर पहुंच गई। ताजा महंगाई ने भी 2007 से गति पकड़ी है और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।
में भ्रष्टाचार साफ दिखता है। टर्की के अर्थशास्त्रियों हाशिम, अहमत व कॉसकुन ने 2002 से 2010 के दौरान ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के करप्शन परसेप्शंस इंडेक्स पर, 97 देशों की रैकिंग व महंगाई दर के बीच तुलना से पाया कि भ्रष्टाचार बढ़ने से महंगाई बढ़ती है। इसी पैमाने की रोशनी में भारत का ताजा रिकार्ड सनसनीखेज है। भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत की रैकिंग 2006 में 70 पर थी जो बीते साल 94 पर पहुंच गई। ताजा महंगाई ने भी 2007 से गति पकड़ी है और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।
इस रिश्ते को नापने की मौद्रिक कसौटी पर भी भारत
में महंगाई और लूट के बीच गहर संबंध दिखता है। किसी देश में मुद्रा प्रसार (मनी
सप्लाई) की दर यदि उत्पादन बढ़ने की गति से ज्यादा हो तो मुद्रास्फीति पैदा होती
है। विकासशील देशों में सरकारों के भारी खर्च बैंकों से कर्ज पर चलते हैं जिनके
लिए केंद्रीय बैंक नोट छाप कर मनी सप्लाई बढ़ाते हैं। तेहरान व लंदन के अर्थविद तेहमुर
रहमानी व हाना यूसूफी का शोध बताता है कि मनी सप्लाई उन स्कीमों की वजह से बढ़ती
है जिनमें लूटराज होता है। भारत में पिछले छह सात साल केंद्र व राज्य सरकारों के लोकलुभावन
खर्च और मनी सप्लाई की हैरतअंगेज उड़ान के हैं। दिसंबर 2013 में मनी सप्लाई 92000
अरब रुपये के सर्वोच्च स्तर पर थी जो जनवरी 2006 में 25000 अरब रुपये थी। 2008 के
बाद से भारत में एक तरफ सरकारी स्कीमों पर खर्च व मनी सप्लाई बढ़ी तो दूसरी तरफ किस्म
किस्म के घोटाले व महंगाई में इजाफा हुआ।
भारत में भ्रष्टाचार के सभी आयाम मौजूद हैं। 2जी,
कोयला, सीडब्लूजी सहित राज्यों के घोटालों वाला ग्रांड करप्शन बड़ी परियोजनाओं
को महंगा करता है जबकि चाय पानी वाला छोटा भ्रष्टाचार दैनिक खपत के बाजार को। कहीं
भ्रष्टाचार परियोजनायें रोक कर किल्लत व कीमत बढ़ाता है तो कहीं उत्पादकता कम करता
है। विश्व बैंक मानता है कि विकासशील देशों में भ्रष्टाचार के कारण परियोजनायें
20 फीसद तक महंगी होती हैं। भारत तो इस वजह से परियोजनाओं की लागत 35 से 40 फीसद
तक बढ़ रही है। यही तो वह इंडिया कॉस्ट, ब्राजील कॉस्ट या मलेशिया कॉस्ट है जो
बाद में महंगाई बनकर लोगों को निचोड़ती है। पिछले चौंसठ साल में देश की अहम राजनीतिक
करवटों की बुनियाद भारी महंगाई ने तैयार की है। 1967 के आम चुनाव में कांग्रेस की
पहली बड़ी हार, 1974-75 में आंदोलन व आपातकाल, 1991 का संकट व 1996 में कांग्रेस
की हार, 1996 से 99 के बीच दो आम चुनाव और 2011 से शुरु हुए ताजा जनअसंतोष की पृष्ठभूमि
में 10 फीसदी से ऊपर की महंगाई ही रही है। नए फार्मूलों की रोशनी में लगता है कि
इस महंगाई की जड़ में पर्याप्त भ्रष्टाचार भी था।
बिजली का उत्पादन बढने से लोगों को पर्याप्त
बिजली नहीं मिली लेकिन बिल कई गुना बढ़ गया? रिकार्ड उपज के
बावजूद आटा दाल सब्जी सस्ते नहीं होते ? उत्पादन में वृद्धि
के बाद भी हर उत्पाद महंगा ही क्यों होता जाता है ? उद्योगों पर रियायतें बरसती हैं, खेती पर टैक्स
नहीं लगता, लेकिन महंगाई कम नहीं होती !! यह भोले व आम आदमी
छाप सवाल कतई नहीं हैं। यह एक सचेतन देश के सवाल हैं जो केवल वीआईपीवाद की राजनीति
व काले पैसे के चुनाव से ही नहीं ऊबा हैं। वह देश नए लाइसेंस राज को भी समझने की
कोशिश में है, जिसमें नेता सिर्फ चहेतों को विकास का ठेका दे देते हैं। गुजरात में
चिमन भाई पटेल की सरकार निजीकरण व ग्रोथ लेकर आई थी लेकिन वह देश की सबसे भ्रष्ट सरकारों
में एक थी। यही पैटर्न दिल्ली की शीला सरकार के संदर्भ में दिखा है। आम लोग निजीकरण,
उदारीकरण के पीछे छिपे नेता कंपनी को गठजोड़ की गुत्थी खोल रहे हैं और जो अंतत:
महंगी सेवा या उत्पाद बन कर जनता की जेब खाली करता है।
दिल्ली में बिजली कंपनियों के ऑडिट के जरिये भारत
में निजीकरण की पड़ताल का दूसरा दौर शुरु हो रहा है। ऑडिट के पहले दौर में 2जी,
सीडब्लूजी और कोयला घोटाले निकले जो क्रोनी कैपलिटिज्म का सच सामने लाते थे,
दूसरे ऑडिट शायद यह बतायेंगे सियासत को
साध कर कंपनियों ने कीमतें बढ़ाने के मनमाने फार्मूले बना लिए। जनता, भ्रष्टाचार
व महंगाई की जोड़ी के खिलाफ एक विराट सूझ की की प्रतीक्षा में है लेकिन पुरानी राजनीति
के भाजपाई -कांग्रेसी सूरमाओं के पास ऐसा कोई बिग आइडिया नहीं है और उनकी मुसीबत
यह है कि भ्रष्टाचार व महंगाई को लेकर तेजी से बढ़ती जन समझ पारंपरिक राजनीति से लोगों
की चिढ़ मजबूती दे रही है।
3 comments:
जटिल अर्थशास्त्र को बहुत ही सरल तरीके से समझाया है आपने। शानदार
3 साल पहले लिखा गया यह लेख आज भी उतना ही सामयिक है।
महाराष्ट्र के सिंचाई घोटाला पर लिखा हुआ आपका एक पुराना लेख क्या कहीं उपलब्ध है..?
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