Monday, January 27, 2014

मौद्रिक रोमांच

काले धन व महंगाई  की बहसों में रिजर्व बैंक ने धमाकेदार इंट्री ली है। वह काली अर्थव्‍यवस्‍था से निबटने के लिए अपने तरीके आजमा रहा है और महंगाई से बेफिक्र राजनीति को नए फार्मूलों में बांध रहा है।

रिजर्व बैंक जैसा कोई केंद्रीय नियामक जब राजनीतिक व व्‍यवस्‍थागत चुनौतियों से अपने तरीके जूझने लगता है तो सियासत के कबूतरों के बीच बिल्लियां दौड़ जाती हैं। रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन ने यही किया है। 2005 से पहले के सभी करेंसी नोट का प्रचलन समाप्‍त करने के साथ रिजर्व बैंक ने काला धन को रोकने की बहस को मौद्रिक रोमांच से भर दिया है। जबकि दूसरी तरफ ब्‍याज दरें तय करने के लिए थोक की जगह खुदरा महंगाई को आधार बनाने की तैयारी शुरु हो गई है जो न केवल मौद्रिक व्‍यवस्‍था में एक बड़ा क्रांतिकारी बदलाव है बल्कि इसके बाद उपभोक्‍ता महंगाई पर नियंत्रण अगले कई वर्षों तक देश का सबसे बड़ा आर्थिक राजनीतिक सवाल बन जाएगा। यह कदम उस वक्‍त सामने आए हैं जब काले धन के सबसे बड़े उत्‍सव यानी आम चुनाव की तैयारी चल रही है और भारी महंगाई की तोहमतें सियासत का दम घोंट रही हैं। दोनों फैसलों का फलित यह है कि देश में कर्ज लंबे समय तक महंगा रहेगा। यानी कि आर्थिक पारदर्शिता में बढ़त और महंगाई में कमी के बिना सस्‍ते कर्ज की उम्‍मीद बेमानी है।
काले धन व महंगाई पर इस मौद्रिक एक्टिविज्‍म ने वित्‍त मंत्रालय से लेकर राजनीतिक दलों तक ठंड की लहर दौड़ा दी है। पुराने नोट प्रचलन से अचानक बाहर करने का नुस्‍खा पुराना है। नकली नोटों की समस्‍या से निबटने के लिए दुनिया के बैंक ऐसा करते रहे हैं। पाकिस्तान ने पिछले साल एक नवंबर से 50 व 1000 रुपये  पुराने नोटों का प्रचलन अचानक बंद किया, 500 के नोट के साथ यही पहले हो चुका है। कुछ अफ्रीकी देशों में भी हाल में पुरानी करेंसी को यकायक प्रचलन से बाहर किया गया है। सभी जगह पुराने नोट एक निर्धारित समय तक वैध रखकर, बैंकों में बदले जाते हैं। भारत में नकली करेंसी बड़ी व पुरानी चुनौती है लेकिन रिजर्व बैंक ने जिस तादाद में सभी तरह के पुराने नोटों  प्रचलन रोकने की मुनादी की है, वह अप्रत्‍याशित व अर्थपूर्ण है।  
काले धन की बहस के बीच व चुनाव से ठीक पहले आए इस आदेश को लेकर इस कदर हैरत व बेचैनी है कि बीते सप्‍ताह एक कार्यक्रम में सीबीआई के निदेशक रंजीत सिन्‍हा तक चुनाव में काले धन के इस्‍तेमाल जोड़ते नजर आए। हालांकि रिजर्व बैंक गवर्नर ने नए नोटों को ज्‍यादा सुरक्षित बताकर बात आई गई की। यकीनन यह डिमॉनेटाइजेशन नहीं है जो 1977 में मोरार जी देसाई की सरकार ने किया था जब काले धन को रोकने के लिए ऊंचे मूल्‍य के नोट बंद हुए थे। लेकिन हकीकत यह भी है कि भारत में 2005 के अंत में करीब 3.18 लाख करोड़ रुपये के बड़े (1000,500,100) नोट प्रचलन में थे। इसलिए अगर सिर्फ बड़े नोटों को आधार माना जाए तो भी इस साल 31 मार्च के बाद इतनी मुद्रा प्रचलन से एकमुश्‍त बाहर हो जाएगी और चुनाव से पहले बहुतों का खेल बिगाड़ेगी। रिजर्व बैंक का यह कदम साहसिक है जिसे नैतिक  समर्थन भी मिलेगा लेकिन अगर इतने बडे पैमाने पर नोट बदलने की व्‍यवस्था में गफलत हुई तो इस फैसले से चिढ़े लोगों के विरोध को ताकत मिल जाएगी।  
महंगाई को लेकर रिजर्व बैंक की नई सक्रियता क्रांतिकारी है। रिजर्व बैंक अब तक थोक मुद्रास्‍फी‍ति को आधार बनाकर मुद्रा आपूर्ति और ब्‍याज दरें तय करता है। उरजित पटेल कमेटी ने सिफारिश है कि मौद्रिक नीति का आधार तो खुदरा महंगाई होनी चाहिए जो उपभोक्‍ताओं से जुड़ी है। भारत में थोक महंगाई की मौजूदा सालाना औसत दर 6.2 फीसद है जबकि व खुदरा महंगाई 9.9 फीसद पर है। यदि उपभोक्‍ता महंगाई आधार बनी तो रिजर्व बैंक की रेपो रेट ही दस फीसद के करीब होगी, जो कि बाजार में कर्ज पर ब्‍याज दर तय करने का आधार होती है। यह नया फार्मूला अगले कुछ माह में अमल में आएगा और सरकार को महंगाई पर निर्णायक रुप से गंभीर होने के लिए बाध्‍य करेगा। यही वजह थी कि वित्‍त मंत्रालय सबसे पहले असहज हुआ है। नया फार्मूला, यह स्‍थापित करता है कि उपभोक्‍ता महंगाई ही भारत की सबसे बड़ी समस्‍या है, जिस पर नियंत्रण मौद्रिक व आर्थिक नीतियों का बुनियादी मकसद होना चाहिए अर्थात ब्‍याज दरें कम रखने के लिए उपभोक्‍ता महंगाई पर काबू चाहिए। खुदरा महंगाई में सरकारी घाटे में कमी, प्रशासनिक पहलू व भ्रष्‍टाचार भी शामिल है और इन सभी मोर्चों पर सरकारें नाकाम रही हैं इसलिए यह प्रस्‍ताव आने वाली सरकार को जबर्दस्‍त नैतिक दबाव में घेरेगा, जो ग्रोथ के लिए कर्ज सस्‍ता कराने की कोशिश करेगी, जबकि रिजर्व बैंक उपभोक्‍ता महंगाई कमी की असफलता को आधार बनाकर ब्‍याज दर ऊंची रखेगा।  
रिजर्व की इस क्रांतिकारी मु्द्रा से दूरगामी फायदे तो हैं लेकिन तात्‍कालिक तौर पर इससे ब्‍याज दरें बढ़ेंगी। पुराने नोटों का प्रचलन रुकने से नकदी सोने, डॉलर या जायदाद में जाने लगी है, जो मनी सप्‍लाई में कमी से ब्‍याज दरों में इजाफे की वजह बनेगी। ठीक इसी तरह खुदरा महंगाई पर तेज नियंत्रण मुश्किल है इसलिए ब्‍याज दर कम होना भी संभव नहीं है। अर्थात सब्सिडी में कमी जैसे कदमों की तरह यह सुधार भी शुरुआत में बहुत चुभेगा। लेकिन अब हम दर्द निवारण के लिए दर्द सहने को अभिशप्‍त है।  
अदालतें, स्वयंसेवी संगठन और नियामक जनता की नब्‍ज ज्‍यादा बेहतर ढंग से समझ रहे हैं, जबकि नेता अपनी अकड़ में जकड़ कर लोगों के गुस्‍से की उपेक्षा करते हैं। काले धन व महंगाई  की बहसों में रिजर्व बैंक ने धमाकेदार इंट्री ली है। वह काली अर्थव्‍यवस्‍था से निबटने के लिए अपने तरीके आजमा रहा है और महंगाई से बेफिक्र राजनीति को नए फार्मूलों में बांध रहा है। सीएजी व सुप्रीम कोर्ट की तरह अपनी संवैधानिक स्‍वायत्‍तता का इस्‍तेमाल करते 79 साल के बुजुर्ग रिजर्व बैंक के यह रोमांचक व क्रांतिकारी तेवर, भारत के 65 वें गणतंत्र को शुभ और संभावनामय बना रहे हैं। 

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