Friday, June 26, 2020

तेरी दोस्ती का सवाल है !


गलवान घाटी के शहीदों को याद करने के बाद ताऊ से रहा नहीं गया. युद्ध संस्मरणों की जीवंत पुस्तक बन चुके ताऊ ने भर्राई आवाज में पूछ ही लिया कि कोई बतावेगा कि चीन ने कब धोखा नहीं दिया, फिर भी वह किस्म-किस्म के सामान लेकर हमारे घर में कैसे घुस गया?

ताऊ के एक सवाल में तीन सवाल छिपे हैं, जिन्हें मसूद अजहर, डोकलाम से लेकर लद्दाख तक चीन के धोखे, निरंतर देखने वाला हर कोई भारतीय पूछना चाहेगा.

पहला सवालः सुरक्षा संबंधी संवेदनीशलता के बावजूद पिछले पांच-छह साल में चीनी टेलीकॉम कंपनियां भारतीय बाजार पर कैसे छा गईं, खासतौर पर उस वक्त बड़े देश चीन की दूरसंचार कंपनियों पर सामूहिक शक कर रहे थे और चीनी 5जी को रोक रहे थे?

दूसरा सवाल: चीन की सरकारी कंपनियां जो चीन की सेना से रिश्ता रखती हैं उन्हें संवेदनशील और रणनीति इलाकों से जुड़ी परियोजनाओं में निवेश की छूट कैसे मिली? क्यों चाइना स्टेट कंस्ट्रक्शन इंजीनिरिंग कॉर्पोरेशन, चाइना रेलवे कंस्ट्रक्शन, चाइना रोलिंग स्टॉक कॉर्पोरेशन रेलवे, हाइवे और टाउनशि के प्रोजेक्ट में सक्रिय हैं? न्यूक्लियर, बिजली (टर्बाइन, मशीनरी) और प्रतिरक्षा (बुलेट प्रूफ जैकेट का कच्चा माल) में चीन का सीधा दखल भी इसी सवाल का हिस्सा है.

तीसरा सवालः चीन से सामान मंगाना ठीक था लेकिन हम पूंजी क्यों मंगाने लगे? संवेदनशील डिजिटल इकोनॉमी में चीन की दखल कैसे स्वीकार कर ली?

चीन पर स्थायी शक करने वाले भारतीय कूटनीतिक तंत्र की रहनुमाई में ही ड्रैगन का व्यापारी से निवेशक में बदल जाना आश्चर्यजनक है. 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले तक दिल्ली के कूटनीति हलकों में यह वकालत करने वाले अक्सर मिल जाते थे कि चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा खासा बड़ा है. यानी चीन को निर्यात कम है और आयात ज्यादा. इसकी भरपाई के लिए चीन को सीधे निवेश की छूट मिलनी चाहि ताकि भारत में तकनीक और पूंजी सके. अलबत्ता भरोसे की कमी के चलते चीन से सीधे निवेश का मौका नहीं मिला.

2014 के बाद निवेश का पैटर्न बताता है कि शायद नई सरकार ने यह सुझाव मान लिया और तमाम शक-शुबहों के बावजूद चीन भारत में निवेशक बन गया. दूरसंचार क्षेत्र इसका सबसे प्रत्यक्ष उदाहरण है.

आज हर हाथ में चीनी कंपनियों के मोबाइल देखने वाले क्या भरोसा करेंगे कि 2010-2011 में जब कंपनियां नेटवर्क के लिए चीनी उपकरणों निर्भर थीं तब संदेह इतना गहरा था कि भारत ने चीन के दूरसंचार उपकरणों पर प्रतिबंध लगा दिया था?

2014 के बाद अचानक चीनी दूरसंचार उपरकण निर्माता टिड्डी की तरह भारत पर कैसे छा गए? इलेक्ट्राॅनिक्स मैन्युफैक्चरिंग पर पूंजी सब्सिडी (लागत के एक हिस्से की वापसी) और कर रियायत की स्कीमें पहले से थीं लेकिन शायद तत्कालीन सरकार चीन के निवेश को लेकर सहज नहीं थी इसलिए चीनी मोबाइल ब्रांड नहीं सके.
मेक इन इंडिया के बाद यह दरवाजा खुला और शिओमी, ओप्पो, वीवो, वन प्लस आदि प्रमुख ब्रांड की उत्पादन इकाइयों के साथ भारत चीनी मोबाइल के उत्पादन का बड़ा उत्पादन केंद्र बन गया. यह निवेश सरकार की सफलताओं की फेहरिस्त में केवल सबसे ऊपर है बल्किकोविड के बाद इसमें नई रियायतें जोड़ी गई हैं.

सनद रहे कि इसी दौरान (2018) अमेरिका में सरकारी एजेंसियों को हुआवे जेडटीई से किसी तरह की खरीद से रोक दिया गया. अमेरिका के बाद ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, ब्रिटेन और न्यूजीलैंड ने भी इन कंपनियों से दूरी बनाई लेकि भारत में लोगों के हाथ में ओप्पो-वीवो हैं, नेटवर्क को हुआवे और जेडटीई चला रहे हैं और ऐप्लिकेशन के पीछे अलीबाबा टेनसेंट की पूंजी है.

विदेश व्यापार और निवेश नीति को करीब से देखने वालों के लिए भारत में रणनीतिक तौर पर संवेदनशील कारोबारों में चीन की पूंजी का आना हाल के वर्षों के लिए सबसे बड़ा रहस्य है. पिछली सरकारों के दौरान चीन पर संदेह का आलम यह था कि 2010 में तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने चीन से निवेश तो दूर, आयात तक सीमित करने के लिए प्रमुख मंत्रालयों की कार्यशाला बुलाई थी. कोशि यह थी कि इनके विकल्प तलाशे जा सकें. 

इन सवालों का सीधा जवाब हमें शायद ही मिले कि चीन से रिश्तों में यह करवट, पिछली गुजरात सरकार और चीन के बीच गर्मजोशी की देन थी या पश्चिमी देशों की उपेक्षा के कारण चीन को इतनी जगह दे दी गई या फिर कोई और वजह थी जिसके कारण चीनी कंपनियां भारत में खुलकर धमाचौकड़ी करने लगीं. अलबत्ता हमें इतना जरूर पता है कि 2014 के बाद का समय भारत चीन के कारोबारी रिश्तों का स्वर्ण युग है और इसी की छाया में चीन ने फिर धोखा दिया है. मजबूरी इस हद तक है कि सरकार उसके आर्थिक दखल को सीमित करने का जोखि भी नहीं उठा सकती.

ठीक ही कहा था सुन त्जु ने कि श्रेष्ठ लड़ाके युद्ध से पहले ही जीत जाते हैं.


3 comments:

Nikhil said...

Aap behter patrakar hai..Or apko dil se dhanyawad ummid hai ki ap ishi terha se apne lekh hum tak pahuchate rhoge.

Unknown said...

Sir I liked your thoughts. अर्ज किया है, कड़वी लगती है उन्हें वो हर बात जो सच से ताल्लुक रखती है। शायद कमी हममें ही है जनाब जो हमें सच कहने की हर बार तलब लगती है।

Anonymous said...

अब‌ तो diplomacy चौपट हो चुकी है ‌। सारे populist नेता हैं लेकिन professional कोई भी नहीं । अब तो भगवान मालिक है , media आसानी ‌से मुद्दे दबा देती है या narrative change कर‌ देती है।
जिन लोगों को‌ जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए था उनकी पूजा की जा रही है।