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Monday, February 27, 2017

सीएजी से कौन डरता है?


सरकारें जीएसटी से सीएजी को क्यों दूर रखना चाहती हैं ? 


जीएसटी यानी भारत के सबसे बड़े कर सुधार पर संवैधानिक ऑडिटर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की निगहबानी नहीं होगी!

यदि संसद ने दखल न दिया तो सीएजी जीएसटी से केंद्र व राज्यों को होने वाले नुक्सान-फायदे पर सवाल नहीं उठा पाएगा! 

डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि सीएजी सुप्रीम कोर्ट से ज्यादा महत्वपूर्ण संस्था है. इसे केंद्र और राज्यों के राजस्व को प्रमाणित करने का संवैधानिक अधिकार है मगर इसे जीएसटी में राजस्व को लेकर सूचनाएं मांगने का अधिकार भी नहीं मिलने वाला. राज्य सरकारें भी कब चाहती हैं कि कोई उनकी निगरानी करे. 

क्या यह पिछली सरकार में सीएजी की सक्रियता से उपजा डर है?

या फिर संवैधानिक संस्थाओं की भूमिका सीमित करने का कोई बड़ा आयोजन?

जीएसटी सरकारों (केंद्र व राज्य) के राजस्व से संबंधित है, जो ऑडिट के संवैधानिक नियमों का हिस्सा हैं. इसी आधार पर सीएजी ने 2जी और कोयला घोटालों की जांच की थी, क्योंकि उनसे मिला राजस्व सरकारी खजाने में आया था.

जीएसटी कानून के प्रारंभिक प्रारूप की धारा 65 के तहत सीएजी को यह अधिकार था कि वह जीएसटी काउंसिल से सूचनाएं तलब कर सकता है. 

पिछले साल अक्तूबर में, केंद्र सरकार के नेतृत्व में चुपचाप इस प्रावधान को हटाने की कवायद शुरू हुई.  सीएजी ने पत्र लिखकर अनुरोध किया था कि धारा 65 को न हटाया जाए क्योंकि संवैधानिक नियमों के टैक्स मामलों का ऑडिट सीएजी की जिंम्मेदारी है. अलबत्ता जीएसटी काउंसिल की ताजा बैठक में केंद्र और राज्य सीएजी को जीएसटी से दूर रखने पर राजी हो गए.  

इस फैसले के बाद केंद्र व राज्यों के राजस्व में संवैधानिक ऑडिटर की भूमिका बेहद सीमित हो जाएगी.   

सरकारें जीएसटी से सीएजी को क्यों दूर रखना चाहती हैं, इस पर शक लाजिमी है. जबकि जिस फॉर्मूले के तहत राज्यों को जीएसटी से होने वाले नुक्सान की भरपाई करेगी, उसके राजस्व के आंकड़ों को प्रमाणित करने का अधिकार सीएजी के पास है.

विवाद जीएसटी नेटवर्क को लेकर भी है, सीएजी को जिसका ऑडिट करने की इजाजत नहीं मिल रही है. 
  • यह नेटवर्क एक निजी कंपनी  (51 फीसदी हिस्सा बैंकों व वित्तीय कंपनियों का और 49 फीसदी सरकार का) के मातहत है जो केंद्र व राज्यों के टैक्स सिस्टम को जोडऩे वाला विशाल कंप्यूटर नेटवर्क बनाएगी व चलाएगी, कर जुटाएगी और राजस्व का बंटवारा करेगी. 
  • इस कंपनी में केंद्र व राज्य सरकारें 4000 करोड़ रु. लगा चुकी हैं. वित्त मंत्रालय का व्यय विभाग इस पर सवाल उठा रहा है. जीएसटी का नेटवर्क बना रही एक कंपनी पर सर्विस टैक्स चोरी का मामला भी बना है, अलबत्ता वित्त मंत्रालय इस नेटवर्क के सीएजी ऑडिट को तैयार नहीं है. 


हैरत नहीं कि सीएजी को जीएसटी से दूर रखने का ऐलान करते हुए वित्त मंत्री ने आयकर कानून का जिक्र किया, जहां सीएजी को विशेष अधिकार नहीं मिले हैं. इनकम टैक्स को लेकर तो सीएजी और सरकार के बीच एक जंग सी छिड़ी है जो सुर्खियों का हिस्सा नहीं बनती. 

सीएजी के गलियारों में सीएजी नब्‍बे के दशक के अंतिम वर्षों किस्से याद किए जा रहे हैं जब सरकार स्वैच्छिक आय घोषणा योजना (वीडीआइएस) लेकर आई थी और वित्त मंत्रालय ने उसके ऑडिट की छूट नहीं दी थी. तब बाकायदा ऑडिटर ने आयकर अधिकारियों के खिलाफ पुलिस में शिकायत की थी. इस समय भी हालात कुछ ऐसे ही हैं.  

सीएजी ताजा इनकम डिस्क्लोजर स्कीम का ऑडिट करना चाहता है लेकिन वित्त मंत्रालय तैयार नहीं है. आयकर कानून में सीएजी के अधिकार सीमित होने के कारण वित्त मंत्रालय इनकम टैक्स के आंकड़े नहीं देता जिस पर हर साल खींचतान होती है.  

यकीनन, पिछले दो साल में सीएजी ने कोई बड़ा चैंकाने वाला ऑडिट नहीं किया (करने नहीं दिया गया) है लेकिन इसके बाद भी तीन मौकों पर सीएजी ने सरकार को असहज किया हैः 

पहला, जब सीएजी ने एलपीजी सिलेंडर छोडऩे की योजना से 22,000 करोड़ रु. की बचत के दावे को खोखला साबित किया था. 

दूसरा, जब सीएजी ने कोयला ब्लॉक नीलामी में छेद पाए थे. 

तीसरा, केजी बेसिन में गुजरात सरकार (2005) के निवेश पर सवाल उठाए थे.


आंबेडकर सीएजी को संघीय वित्तीय अनुशासन रीढ़ बनाने जा रहे थे इसलिए संविधान सभा ने लंबी बहस के बाद राज्यों के लिए अलग-अलग सीएजी बनाने का प्रस्ताव नहीं माना. वे तो चाहते थे कि सीएजी का स्टाफ नियुक्त करने का अधिकार भी सरकार के पास नहीं होना चाहिए लेकिन अब पारदर्शिता के स्थापित संवैधानिक पैमाने भी सरकारों को डराने लगे हैं, खास तौर पर वे लोग कुछ ज्यादा ही डरे हैं जो साफ-सुथरी और ईमानदार राजनीति का बिगुल बजाते हुए सत्ता में आए थे.  

Sunday, February 12, 2017

नोटबंदी का बजट


नोटबंदी के नतीजों पर सरकार में सन्‍नाटे के बावजूद कुछ तथ्‍य

 सामने आ ही गए हैं

हिम्मतवर सरकारें अगर बड़े फैसले लेती हैं तो उन्हें फैसलों के नतीजे बताने से हिचकना नहीं चाहिए. नोटबंदी ने रोजगार से लेकर कारोबार तक सबका बजट बिगाड़ दिया तो इससे सरकार को भरपूर टैक्स या फिर रिजर्व बैंक से मोटा लाभांश जरूर मिलने वाला होगा! लेकिन बजट भी गुजर गया अलबत्ता नोटबंदी के फायदे-नुक्सान को लेकर न तो सरकार का बोल फूटा, न ही रिजर्व बैंक ने आंकड़े बताने की जहमत उठाई.

नोटबंदी को बिसारने की तमाम कोशिशों के बावजूद बजट और आर्थिक समीक्षा नोटबंदी से जुड़े कुछ तथ्य सामने लाती है. अगर उन्हें एक सूत्र में बांधा जाए तो हमें एहसास हो जाएगा कि नोटबंदी पर बेखुदी बेसबब नहीं है, कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है.
तीर!
कहावत है जिसकी नाप-जोख नहीं हो सकती, उसे संभालना भी असंभव है. वित्त मंत्री कह चुके हैं कि नकद काले धन का कोई ठोस आकलन उपलब्ध नहीं है. तो 500 और 1000 के नोट बंद करने और 86 फीसदी नकदी को एकमुश्त अवैध करार देने का इतना बड़ा निर्णय किस आकलन पर आधारित था?
आर्थिक समीक्षा की मानें तो करेंसी नोटों का सॉयल रेट (नोटों के गंदे होने और कटने-फटने की दर) इस फैसले का आधार था. सॉयल रेट नोटों के इस्तेमाल की जानकारी देता है. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, 500 रु. से नीचे के मूल्य वाले नोट में सॉयल रेट 33 फीसदी सालाना है यानी 33 फीसदी गंदे कटे-फटे नोट हर साल बदल जाते हैं. 500 रु. के नोट में सॉयल रेट 22 और 1000 रु. के नोट में 11 फीसदी है.
समीक्षा ने दुनिया के अन्य देशों में सॉयल रेट को भारत में बड़े नोटों के प्रचलन पर लागू करते हुए निष्कर्ष निकाला है कि नोटबंदी से पहले करीब 3 लाख करोड़ रु. के बड़े नोट ऐसे थे जिनका भरपूर इस्तेमाल लेन-देन में नहीं होता था. इस राशि को क्या काली नकदी माना जा सकता है जो जीडीपी के दो फीसदी के बराबर है?
इस सवाल पर समीक्षा मौन है अलबत्ता वह नकदी के दो आयाम बताती है.
सफेद धनः रसीद काटकर और टैक्स की घोषणा के बाद कर्मचारियों को दिया गया नकद वेतन या घरों में आकस्मिकता के लिए रखा गया धन.
काला धनः छोटी कंपनियां या व्यापारी नकद में धन रखते हैं और चुनाव में चंदा देते हैं. 
निशाना!
बजट के आंकड़े नोटबंदी के निशाने पर बैठने का प्रमाण नहीं देते. टैक्स के आंकड़ों में एकमुश्त कोई बहुत बड़ी रकम मिलने का आकलन नहीं है, अलबत्ता आंकड़े इतना जरूर बताते हैं कि आयकर संग्रह में बढ़त की दर तेज रहेगी. नोटबंदी के बाद एडवांस टैक्स भुगतान लगभग 35 फीसदी बढ़ा है. अगले साल आयकर संग्रह में लगभग 25 फीसदी की बढ़त की उम्मीद है. यदि आकलन सही उतरे तो दो साल में करीब 1.5 लाख करोड़ रु. का अतिरिक्त आयकर मिल सकता है.
रिजर्व बैंक ने नहीं बताया है कि बड़े नोटों में कितना धन बैंकिंग सिस्टम से बाहर रह गया है इसलिए रिजर्व बैंक से मोटा लाभांश मिलने का आकलन उपलब्ध नहीं है
नुक्सान 
''नोटबंदी से नहीं कोई मंदी" का दम भरने के बावजूद सरकार ने मान लिया है कि ग्रोथ की गाड़ी पटरी से उतर गई है. आर्थिक समीक्षा बताती है कि नोटबंदी के चलते इस साल आर्थिक विकास दर में करीब एक फीसदी (पिछले साल 7.6) की गिरावट होगी. अगले साल भी विकास दर सात फीसदी से नीचे रहेगी. नोटबंदी से रोजगार घटा है, खेती में आय को चोट लगी है और नकद पर आधारित असंगठित क्षेत्र में बड़ा नुक्सान हुआ, लेकिन इसके आंकड़े सरकार के पास उपलब्ध नहीं हैं.
सरकार मान रही है कि नकदी का प्रवाह सामान्य होने के बाद बैंकों से जमा तेजी से बाहर निकलेगी, नोटबंदी से सरकार-रिजर्व बैंक की साख को धक्का लगा है और लोगों में भविष्य के प्रति असमंजस बढ़ा है.
हिसाब-किताब
नोटबंदी मौद्रिक फैसला था इसलिए फायदे-नुक्सान को आंकड़ों में नापना होगा. बजट और समीक्षा को खंगालने पर हमें इसके सिर्फ दो ठोस आंकड़े मिलते हैं.
फायदा
नोटबंदी के बाद इस साल के चार महीनों में और अगले साल के दौरान आयकर संग्रह में लगभग 1.5 लाख करोड़ रु. की बढ़त हो सकती है.
नुक्सान  
2016-17 में नोटबंदी से जीडीपी में एक फीसदी की कमी आएगी जो कि 1.5 लाख करोड़ रु. के आसपास है. रिजर्व बैंक के लिए नोटों की छपाई की लागत और बाजार में नकदी का प्रवाह संतुलित करने के लिए जारी बॉन्डों पर ब्याज को भी इसमें जोडऩा होगा.

अगर परोक्ष नुक्सान को गिनती में न लिया जाए तो  भी आयकर राजस्व में बढ़ोतरी का अनुमान जीडीपी के नुक्सान के बिल्कुल बराबर है.

बाकी आप खुद समझदार हैं.


Monday, January 23, 2017

नए टैक्स से पहले


 किस किस तरह के सेस हमसे वसूले जा रहे हैं और सरकार कभी नहीं बताती कि उनका इस्‍तेमाल कहां हो रहा है। 

जीएसटी उस दिन से ही उलझ गया था जब केंद्र सरकार ने वैसा जीएसटी बनाने का इरादा छोड़ दिया था जैसा कि उसे होना चाहिए था. नतीजतनसंसद के गतिरोध को तेजी से पार कर जाने वाला जीएसटी धीमा पड़ता हुआ टल गया है. जुलाई अगली समय सीमा है जो अप्रैल से ज्यादा कठिन दिखती है.
जीएसटी का मतलब है इसके आगे-पीछे कोई दूसरा टैक्ससेस (उपकर) या ड्यूटी नहीं. सिर्फ अकेला पारदर्शी एक या दो टैक्स दरों वाला जीएसटी. लेकिन पांच टैक्स रेट वाला जीएसटी बनाने के बाद केंद्र सरकार इस पर सेस लगाने की तैयारी में जुट गई. यह सेस की सनक ही ढलान की शुरुआत थी क्योंकि अगर केंद्र सरकार टैक्स पर टैक्स थोपने का लालच छोडऩे को तैयार नहीं है तो राज्य क्यों पीछे रहें?

नया बजट विलंबित जीएसटी की छाया में बन रहा है जो जीएसटी की जमीन तैयार करेगा. हम नए सेस और टैक्स की तरफ बढ़ेंइससे पहले यह जानना जरूरी है कि भारत में सेस का मकडज़ाल कितना जटिल है. जो सेस हमसे वसूले गए हैंउनके इस्तेमाल पर सरकार कभी कुछ नहीं बताती. पिछले माह जब लोग बैंकों की लाइनों में लगे थे और संसद ठप थीनियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की एक रिपोर्ट आई थी जो केंद्र सरकार के सेस-राज का सबसे ताजा खुलासा है.

मोबाइल वाला टैक्स
बहुतों को यह जानकारी नहीं होगी कि मोबाइल ऑपरेटर गांवों में फोन और इंटरनेट पहुंचाने के लिए अपने राजस्व पर एक विशेष टैक्स देते हैं. जिसे यूनिवर्सल एक्सेस लेवी कहा जाता है. यह टैक्स हमारे टेलीफोन बिल पर ही लगता है. इसके खर्च के लिए यूनिवर्सल ऑब्लिगेशन फंड (यूएसओ फंड) बनाया गया है.
सीएजी के मुताबिकइस लेवी से 2002-03 से 2015-16 के बीच 66,117 करोड़ रु. जुटाए गएजिसमें केवल 39,133 करोड़ रु. यूएसओ फंड को दिए गए. क्या सरकार इस सवाल का जवाब देगी अगर गांवों में फोन पहुंच चुका है तो फिर यह लेवी क्यों वसूली जा रही है और अगर यह पैसा जमा है तो इसका इस्तेमाल मोबाइल नेटवर्क ठीक करने व कॉल ड्राप रोकने में क्यों नहीं हो सकता?

पढ़ाई वाला टैक्स
2006-07 में उच्च शिक्षा व माध्यमिक शिक्षा का स्तर आधुनिक बनाने के लिए इनकम टैक्स पर एक फीसदी का खास सेस लगाया गया था. 2015-16 तक इस सेस से 64,228 करोड़ रु. जुटाए गए. सीएजी बताता है कि इसके इस्तेमाल के लिए सरकार ने न तो कोई फंड बनाया और न ही किसी स्कीम को यह पैसा दिया. अगर शिक्षा के लिए पर्याप्त धन है तो फिर टैक्सपेयर पर बोझ क्योंदेश को इसके इस्तेमाल का हिसाब क्यों नहीं मिलता?
प्राथमिक शिक्षा के तहत सर्व शिक्षा अभियान और मिड डे मील का पैसा जुटाने के लिए इनकम टैक्स पर दो फीसदी का प्राथमिक शिक्षा सेस भी लगता हैजिसके इस्तेमाल के लिए प्राथमिक शिक्षा कोश बना है. इस कोष को 2004-2015 के बीच जुटाई गई पूरी राशि नहीं दी गई है.

धुआं मिटाने वाला टैक्स
बिजली के साफ-सुथरे और धुआं रहित उत्पादन की परियोजनाओं के लिए 2010-11 में एक क्लीन एनर्जी फंड बना था. इस फंड के वास्ते देशी कोयले के खनन और विदेशी कोयले के आयात पर सेस लगाया जाता हैजो बिजली महंगी करता है. 2010 से 2015 के बीच सरकार ने इस सेस से 15,174 करोड़ रु. जुटाए लेकिन एनर्जी फंड को मिले केवल 8,916 करोड रु. अलबत्ता, 2016 के बजट में सरकार ने इसका नाम बदल क्लीन एन्वायर्नमेंट सेस करते हुए सेस की दर दोगुनी कर दी.

रिसर्च वाला टैक्स
सीएजी की रिपोर्ट में एक और सेस की पोल खोली गई है. हमें शायद ही पता हो कि तकनीकों के आयात (इंपोर्ट ड्यूटी) पर सरकार मोटा सेस लगाती है. रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट सेस कानून 1986 से लागू है जिसके तहत घरेलू तकनीक के शोध का खर्चा जुटाने के लिए तकनीकी आयात पर 5 फीसदी सेस लगता है. सेस की राशि टेक्नोलॉजी डेवलपमेंट बोर्ड की दी जाती है. 1996-97 से 2014-15 तक इस सेस से 5,783 करोड़ रु. जुटाए गए लेकिन बोर्ड के तहत फंड को मिले 549 करोड रु.

सिर्फ यही नहीं

सड़कों के विकास के लिए पेट्रोल-डीजल पर लगने वाला रोड डेवलपमेंट सेस भी पूरी तरह रोड फंड को नहीं मिलता.

पिछली सरकारों के लगाए सेस न तो कम थेन ही उनके हिसाब में गफलत ठीक हो पाई थी लेकिन मोदी सरकार ने अपने तीन बजटों में तीन नए सेस ठूंस दिए. सर्विस टैक्स पर कृषि कल्याण सेस और स्वच्छ भारत सेस लगाया गया जबकि कारों पर 2.5 फीसदी से लेकर 4 फीसदी तक इन्फ्रास्ट्रक्चर सेस चिपक गया. पिछले दो साल में सरकार ने कभी नहीं बताया कि सफाई और खेती के नाम पर लगे सेस का पैसा आखिर किन परियोजनाओं में जा रहा है?

जीएसटी के पटरी से उतरने को लेकर राज्यों को मत कोसिए. इस सुधार को केंद्र सरकार ने ही सिर के बल खड़ा कर दिया है. सेस टैक्स नहीं हैं. यह टैक्सेशन का अपारदर्शी हिस्सा हैं. इन्हें लगाया किसी नाम से जाता है और इस्तेमाल कहीं और होता है. राज्यों को इस पर आपत्ति है क्योंकि सेस उस टैक्स पूल से बाहर रहते हैं जिसमें राज्यों का हिस्सा होता है. केंद्र सरकार का कुल सेस संग्रह 2015-16 में 55 फीसदी बढ़ा है. बीते बरस केंद्र सरकार के पास करीब 1.06 लाख करोड़ रु. का राजस्व संग्रह ऐसा था जिसमें राज्यों का कोई हिस्सा नहीं है.

जीएसटी फायदे तो बाद में लाएगा लेकिन इससे पहले टैक्स की चुभन में बढ़ोतरी और सेस परिवार में किसी नए सदस्य का आगमन होने की पूरी संभावना है. जीएसटी के तहत 18 फीसदी का सर्विस टैक्स लगने वाला है नतीजतन 2017 के बजट में सर्विस टैक्स की दर 1 से 1.5 फीसदी तक बढ़ सकती है या फिर नए सेस लग सकते हैं. इसलिए बजट में राहत की उम्मीद करते हुए किसी बड़े झटके के लिए खुद को तैयार रखना समझदारी होगी. 

Monday, October 31, 2016

जीएसटी को बचाइए


जीएसटी में वही खोट भरे जाने लगे हैं जिन्‍हें दूर करने लिए इसे गढ़ा जा रहा था.
गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स से हमारा सम्‍मोहन उसी वक्त खत्म हो जाना चाहिए था जब सरकार ने तीन स्तरीय जीएसटी लाने का फैसला किया था. दकियानूसी जीएसटी मॉडल कानून देखने के बाद जीएसटी को लेकर उत्साह को नियंत्रित करने का दूसरा मौका आया था. ढीले-ढाले संविधान संशोधन विधेयक को संसद की मंजूरी के बाद तो जीएसटी को लेकर अपेक्षाएं तर्कसंगत हो ही जानी चाहिए थीं. लेकिन जीएसटी जैसे जटिल और संवेदनशील सुधार को लेकर रोमांटिक होना भारी पड़ रहा है. संसद की मंजूरी के तीन महीने के भीतर उस जीएसटी को बचाने की जरूरत आन पड़ी है जिसे हम भारत का सबसे महान सुधार मान रहे हैं.

संसद से निकलने के बाद जीएसटी में वही खोट पैवस्त होने लगे हैं जिन्‍हें ख त्‍म करने के लिए जीएसटी को गढ़ा जा रहा था. जीएसटी काउंसिल की दूसरी बैठक के बाद ही संदेह गहराने लगा था, क्योंकि इस बैठक में काउंसिल ने करदाताओं की राय लिए बिना जीएसटी में पंजीकरण व रिटर्न के नियम तय कर दिए जो पुराने ड्राफ्ट कानून की तर्ज पर हैं और करदाताओं की मुसीबत बनेंगे.

पिछले सप्ताह काउंसिल की तीसरी बैठक के बाद आशंकाओं का जिन्न बोतल से बाहर आ गया. जीएसटी में बहुत-सी दरों वाला टैक्स ढांचा थोपे जाने का डर पहले दिन से था. काउंसिल की ताजा बैठक में आशय का प्रस्ताव चर्चा के लिए आया है. केंद्र सरकार जीएसटी के ऊपर सेस यानी उपकर भी लगाना चाहती है, जीएसटी जैसे आधुनिक कर ढांचे में जिसकी उम्मीद कभी नहीं की जाती.
काउंसिल की तीन बैठकों के बाद जीएसटी का जो प्रारूप उभर रहा है वह उम्मीदों को नहीं, बल्कि आशंकाओं को बढ़ाने वाला हैः
  • केंद्र सरकार ने जीएसटी काउंसिल की बैठक में गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स के लिए चार दरों का प्रस्ताव रखा है. ये दरें 6, 12,18 और 26 फीसदी होंगी. सोने के लिए चार फीसदी की दर अलग से होगी. अर्थात् कुल पांच दरों का ढांचा सामने है.
  •   मौजूदा व्यवस्था में आम खपत के बहुत से सामान व उत्पाद वैट या एक्साइज ड्यूटी से मुक्त हैं. कुछ उत्पादों पर 3, 5 और 9 फीसदी वैट लगता है जबकि कुछ पर 6 फीसदी एक्साइज ड्यूटी है. जीएसटी कर प्रणाली के तहत 3 से 9 फीसदी वैट और 6 फीसदी एक्साइज वाले सभी उत्पाद 6 फीसदी की पहली जीएसटी दर के अंतर्गत होंगे. जीरो ड्यूटी सामान की प्रणाली शायद नहीं रहेगी इसलिए टैक्स की यह दर महंगाई बढ़ाने की तरफ झुकी हो सकती है.
  •   केंद्र सरकार ने जीएसटी के दो स्टैंडर्ड रेट प्रस्तावित किए हैं. यह अनोखा और अप्रत्याशित है. जीएसटी की पूरे देश में एक दर की उक्वमीद थी. यहां चार दरों का रखा जा रहा है, जिसमें दो स्टैंडर्ड रेट होंगे. बारह फीसदी के तहत कुछ जरूरी सामान रखे जा सकते हैं. यह जीएसटी में पेचीदगी का नया चरम है. 
  • यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि ज्यादातर उत्पाद और सेवाएं 18 फीसद दर के अंतर्गत होंगी क्योंकि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के मुताबिक जीएसटी में गुड्स और सर्विसेज के लिए एक समान दर की प्रणाली है. इस व्यवस्था के तहत सेवाओं पर टैक्स दर वर्तमान के 15 फीसदी (सेस सहित) से बढ़कर 18 फीसदी हो जाएगी. यानी इन दरों के इस स्तर पर जीएसटी खासा महंगा पड़ सकता है.
  • चौथी दर 26 फीसदी की है जो तंबाकू, महंगी कारों, एयरेटेड ड्रिंक, लग्जरी सामान पर लगेगी. ऐश्वर्य पर लगने वाले इस कर को सिन टैक्स कहा जा रहा है. इस वर्ग के कई उत्पादों पर दरें 26 फीसदी से ऊंची हैं जबकि कुछ पर इसी स्तर से थोड़ा नीचे हैं. इस दर के तहत उपभोक्ता कीमतों पर असर कमोबेश सीमित रहेगा.
  •   समझना मुश्किल है कि सोने पर सिर्फ 4 फीसदी का टैक्स किस गरीब के फायदे के लिए है. इस समय पर सोने पर केवल एक फीसदी का वैट और ज्वेलरी पर एक फीसदी एक्साइज है, जिसे बढ़ाकर कम से कम से 6 फीसदी किया जा सकता था.   
  • किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि सरकार एक पारदर्शी कर ढांचे की वकालत करते हुए जीएसटी ला रही है, और पिछले दरवाजे से जीएसटी की पीक रेट (26 फीसदी) पर सेस लगाने का प्रस्ताव पेश कर देगी. सेस न केवल अपारदर्शी हैं बल्कि कोऑपरेटिव फेडरलिज्म के खिलाफ हैं क्योंकि राज्यों को इनमें हिस्सा नहीं मिलता है.

केंद्र सरकार सेस के जरिए राज्यों को जीएसटी के नुक्सान से भरपाई के लिए संसाधन जुटाना चाहती है. अलबत्ता राज्य यह चाहेंगे कि जीएसटी की पीक रेट 30 से 35 फीसदी कर दी जाए, जिसमें उन्हें ज्यादा संसाधन मिलेंगे. इसी सेस ने जीएसटी काउंसिल की पिछली बैठक को पटरी से उतार दिया और कोई फैसला नहीं हो सका.

अगर जीएसटी 4 या 5 कर दरों के ढांचे और सेस के साथ आता है तो यह इनपुट टैक्स क्रेडिट को बुरी तरह पेचीदा बना देगा जो कि जीएसटी सिस्टम की जान है. इस व्यवस्था में उत्पादन या आपूर्ति के दौरान कच्चे माल या सेवा पर चुकाए गए टैक्स की वापसी होती है. यही व्यवस्था एक उत्पादन या सेवा पर बार-बार टैक्स का असर खत्म करती है और महंगाई रोकती है.

केंद्र सरकार जीएसटी को लेकर कुछ ज्यादा ही जल्दी में है. जीएसटी से देश की सूरत और सीरत बदल जाने के प्रचार में इसके प्रावधानों पर विचार विमर्श और तैयारी खेत रही है. व्यापारी, उद्यमी, उपभोक्ता, कर प्रशासन जीएसटी गढऩे की प्रक्रिया से बाहर हैं. जीएसटी काउंसिल की बैठक में मौजूद राज्यों के मंत्री इसके प्रावधानों पर खुलकर सवाल नहीं उठा रहे हैं या फिर उनके सवाल शांत कर दिए गए हैं. 

जीएसटी काउंसिल की तीन बैठकों को देखते हुए लगता है कि मानो यह सुधार केवल केंद्र और राज्यों के राजस्व की चिंता तक सीमित हो गया है. करदाताओं के लिए कई पंजीकरण और कई रिटर्न भरने के नियम पहले ही मंजूर हो चुके हैं. अब बारी बहुत-सी टैक्स दरों की है जो जीएसटी को खामियों से भरे पुराने वैट जैसा बना देगी.

गुड्स एंड सर्विसेज टैक्‍स का वर्तमान ढांचा कारोबारी सहजता की अंत्‍येष्टि करने, कर नियमों के पालन की लागत (कंप्लायंस कॉस्ट) बढ़ाने और महंगाई को नए दांत देने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है. क्या हम जीएसटी बचा पाएंगे या फिर हम इस सुधार के बोझ तले दबा ही दिए जाएंगे?

Wednesday, September 21, 2016

बजट बंद होने से दौड़ेगी रेल ?


रेल बजट का आम बजट में विलय दरअसल भारतीय रेल के पुनर्गठन का आखिरी मौका है


राजधानी दिल्ली में रेल भवन के गलियारे रहस्यमय हो चले हैं. असमंजस तो रेल भवन से महज आधा किलोमीटर दूर रायसीना हिल्स की उत्तरी इमारत में भी कम नहीं है जो वित्त मंत्रालय के नाम से जानी जाती है. 93 साल पुराना रेल बजट, 2017 से वित्त मंत्री अरुण जेटली का सिरदर्द हो जाएगा. रेल मंत्री सुरेश प्रभु बेचैन हैंवे रेल बजट के आम बजट में विलय के सवालों पर खीझ उठते हैं. अलबत्ता उनके स्टाफ से लेकर सुदूर इलाकों तक फैले रेल नेटवर्क का हर छोटा-बड़ा कारिंदा दो बजटों के मिलन की हर आहट पर कान लगाए हैक्योंकि रेल बजट का आम बजट में विलय आजादी के बाद रेलवे के सबसे बड़े पुनर्गठन का रास्ता खोल सकता है.

सुरेश प्रभु की बेचैनी लाजिमी है. तमाम कोशिशों के बावजूद वे रेलवे की माली हालत सुधार नहीं पाए हैं. बीते एक माह में उन्होंने रेलवे की दो सबसे फायदेमंद सेवाओं को निचोड़ लिया. पहले कोयले पर माल भाड़ा बढ़ा. रेलवे का लगभग 50 फीसदी ढुलाई राजस्व कोयले से आता है. फिर प्रीमियम ट्रेनों में सर्ज प्राइसिंग यानी मांग के हिसाब से महंगे किराये बढ़ाने की नीति लागू हो गई. गहरे वित्तीय संकट में फंसी रेलवे अपनी प्रतिस्पर्धात्मकता खत्म करने पर मजबूर है. रेलवे अपना माल और यात्री कारोबार अन्य क्षेत्रों को सौंपना चाहती है ताकि घाटा कम किया जा सके. रेल मंत्री ने भाड़ा और किराये बढ़ाकरवित्त मंत्री की तकलीफें कम करने की कोशिश की हैजो रेलवे का बोझ अपनी पीठ पर उठाएंगे.

रेलवे और वित्त मंत्रालय के रिश्ते पेचीदा हैं. रेलवे कोई कंपनी नहीं हैफिर भी सरकार को लाभांश देती है. रेलवे घाटे में हैइसलिए यह लाभांश नहीं बल्कि बजट से मिलने वाले कर्ज पर ब्याज है. एक हाथ से रेलवे सरकार को ''लाभांश" देती है तो दूसरे हाथ से आम बजट से मदद लेती है. यह मदद रेलवे नेटवर्क के विस्तार और आधुनिकीकरण के लिए हैक्योंकि दैनिक खर्चोंवेतनपेंशन और ब्याज चुकाने के बाद रेलवे के पास नेटवर्क विस्तार के लिए संसाधन नहीं बचते. रेलवे के तहत कई कंपनियां हैंजिन्हें अलग से केंद्रीय खजाने से वित्तीय मदद मिलती है.

बजट से मदद के अलावा रेलवे को भारी कर्ज लेना पड़ता हैजिसके लिए इंडियन रेलवे फाइनेंस कॉर्पोरेशन है. भारत में रेलवे अकेला सरकारी विभाग है जिसके पास कर्ज उगाहने वाली कंपनी हैजो रेलवे को वैगन-डिब्बा आदि के लिए कर्ज संसाधन देती है. प्रभु के नेतृत्व में रेलवे ने जीवन बीमा निगम से भी कर्ज लिया हैजो खासा महंगा है.

रेलवे सिर्फ परियोजनाओं के लिए ही आम बजट की मोहताज नहीं हैबल्कि उसके मौजूदा संचालन भी भारी घाटे वाले हैं. यह घाटा सस्ते यात्री किराये (34,000 करोड़ रु.) और उन परियोजनाओं का नतीजा है जो रणनीतिक या सामाजिक जरूरतों से जुड़ी हैं. इसके अलावा रेलवे को लंबित परियोजनाओं के लिए 4.83 लाख करोड़ रु. और वेतन आयोग के लिए 30,000 करोड़ रु. चाहिए.

रेल बजट के आम बजट में विलय के साथ यह सारा घाटादेनदारीकर्ज आदि आदर्श तौर पर अरुण जेटली की जिम्मेदारी बन जाएगा. रेल मंत्री रेलवे के राजनैतिक दबावों और लाभांश चुकाने की जिम्‍मेदारियों से मुक्त हो जाएंगे और रेल मंत्रालय दरअसल डाक विभाग जैसा हो जाएगाजिसका घाटा और खर्चे केंद्रीय बजट का हिस्सा हैं. अलबत्ता रेलवे डाक विभाग नहीं है. भारत के सबसे बड़े ट्रांसपोर्टर की जिम्मेदारियांदेनदारियां और वित्तीय मुसीबतें भीमकाय हैं. उसका घाटादेनदारियांपेंशनवेतन खर्चे अपनाने के बाद बजट का कचूमर निकल जाएगाराजकोषीय घाटे को पंख लग जाएंगे. सो बजटों के विलय के बाद रेलवे का पुनर्गठन अपरिहार्य है. यह बात अलग है कि सरकार इस अनिवार्यता को स्वीकारने से डर रही है.

बजट-विलय के बाद रेलवे के पुनर्गठन के चार आयाम होने चाहिएः

पहलाः अकाउंटिंग सुधारों के जरिए रेलवे की सामाजिक जिम्मेदारियों और वाणिज्यिक कारोबार को अलग-अलग करना होगा और चुनिंदा सामाजिक सेवाओं और प्रोजेक्ट के लिए बजट से सब्सिडी निर्धारित करनी होगी. शेष रेलवे को माल भाड़ा और किराया बढ़ाकर वाणिज्यिक तौर पर मुनाफे में लाना होगा. किराये तय करने के लिए स्वतंत्र नियामक का गठन इस सुधार का हिस्सा होगा.
दूसराः रेलवे के अस्पताल और स्कूल जैसे कामों को बंद किया जाए या बेच दिया जाए ताकि खर्च बच सकें.
तीसराः देबरॉय समिति की सिफारिशों के आधार पर रेलवे के ट्रांसपोर्ट संचालन और बुनियादी ढांचे को अलग कंपनियों में बदला जाए और रेलवे के सार्वजनिक उपक्रमों के लिए एक होल्डिंग कंपनी बनाई जाए.
चौथाः रेलवे की नई कंपनियों में निजी निवेश आमंत्रित किया जाए या उन्हें विनिवेश के जरिए शेयर बाजार में सूचीबद्ध कराया जाए जैसा कि दूरसंचार सेवा विभाग को बीएसएनएल में बदल कर किया गया था.

बजटों के विलय के साथ रेलवे अपने सौ साल पुराने इतिहास की तरफ लौटती दिख रही है. 1880 से पहले लगभग आधा दर्जन निजी कंपनियां रेल सेवा चलाती थीं. ब्रिटिश सरकार ने अगले 40 साल तक इनका अधिग्रहण किया और रेलवे को विशाल सरकारी ट्रांसपोर्टर में बदल दिया. इस पुनर्गठन के बाद 1921 में एकवर्थ समिति की सिफारिश के आधार पर स्वतंत्र रेलवे बजट की परंपरा प्रारंभ हुईजिसमें रेलवे का वाणिज्यिक स्वरूप बनाए रखने के लिए केंद्र सरकार की ओर से ''रेलवे की लाभांश व्यवस्था" तय की गई थी. अब बजट मिलन के बाद रेलवे को समग्र कंपनीकरण की तरफ लौटना होगा ताकि इसे वाणिज्यिक और सामाजिक रूप से लाभप्रद और सक्षम बनाया जा सके. डिब्बा पहियाइंजनकैटरिंगरिजर्वेशन के लिए अलग-अलग कंपनियां पहले से हैंसबसे बड़े संचालनों यानी परिवहन और बुनियादी ढांचे के लिए कंपनियों का गठन अगला कदम होना चाहिए.

पर अंदेशा है कि राजनैतिक चुनौतियों के डर से सरकार रेल बजट की परंपरा बंद करने तक सीमित न रह जाए. रेल बजट का आम बजट में विलय भारतीय रेल को बदलने का आखिरी मौका है. अब सियासी नेतृत्व को रेलवे के पुनर्गठन की कड़वी गोली चबानी ही पड़ेगी वरना रेलवे का बोझ जेटली की वित्तीय सफलताओं को ध्वस्त कर देगा.