भारत में एक राजनेता था। आर्थिक नब्ज पर उसकी उंगलियां
चुस्त थीं मगर सियासत और वक्त की नब्ज से हाथ अक्सर फिसल जाता था। 1991 में उसके
पहले आर्थिक सुधारों को लेकर देश बहुत आगे निकल गया मगर उस की पार्टी कहीं पीछे
छूट गई। बहुत कुछ गंवाने के बाद 2012 में जब दूसरे सुधारो का कौल लिया तो उसकी राजनीतिक ताकत छीज चुकी थी और जनता को इनके फायदे दिखाने
का वकत नहीं बचा था। अफसोस!
उस राजनेता के साहसी सुधार
उसकी पार्टी की सियासत के काम कभी नहीं आए।... आज से एक दशक बाद जब इतिहास में आप
यह पढ़ें तो समझियेगा कि डा. मनमोहन सिंह और कांग्रेस का जिक्र हो रहा है। आर्थिक
सुधारों के डॉक्टर के समय और सियासत के साथ सुधारों की केमिस्ट्री नहीं बना पाते। उनके सुधारों का लाभ उनके राजनीतिक विपक्ष को ही मिलता
है।
संकट के सूत्रधार
पैसों के पेड़ पर लगने का सवाल बड़ा मजेदार है। लेकिन इसे तो सरकार के राजनीतिक
नेतृत्व से पूछा जाना चाहिए। यूपीए के नए राजनीतिक अर्थशास्त्र ने पिछले सात साल
में राजकोषीय संतुलन का श्राद्ध कर दिया। इक्कीसवीं सदी का भारत जब तरक्की के शिखर पर था तब
कांग्रेस का आर्थिक चिंतन आठवें दशक की कोठरी में घुस गया। देश की आर्थिक किस्मत
साझा कार्यक्रमों और राष्ट्रीय सलाहकार परिषदों जैसी सुपर सरकारों ने तय की जिन्हें
ग्रोथ और सुधार के नाम पर मानो ग्लानि महसूस