Monday, September 24, 2012

सुधार, समय और सियासत


भारत में एक राजनेता था। आर्थिक नब्‍ज पर उसकी उंगलियां चुस्‍त थीं मगर सियासत और वक्‍त की नब्‍ज से हाथ अक्‍सर फिसल जाता था। 1991 में उसके पहले आर्थिक सुधारों को लेकर देश बहुत आगे निकल गया मगर उस की पार्टी कहीं पीछे छूट गई। बहुत कुछ गंवाने के बाद 2012 में जब दूसरे सुधारो का कौल लिया तो उसकी राजनीतिक ताकत छीज चुकी थी और जनता को इनके फायदे दिखाने का वकत नहीं बचा था। अफसोस! उस राजनेता के साहसी सुधार उसकी पार्टी की सियासत के काम कभी नहीं आए।... आज से एक दशक बाद जब इतिहास में आप यह पढ़ें तो समझियेगा कि डा. मनमोहन सिंह और कांग्रेस का जिक्र हो रहा है। आर्थिक सुधारों के डॉक्‍टर के  समय और सियासत के साथ सुधारों की केमिस्‍ट्री नहीं बना पाते। उनके सुधारों का लाभ उनके राजनीतिक विपक्ष को ही मिलता है।
संकट के सूत्रधार 
पैसों के पेड़ पर लगने का सवाल बड़ा मजेदार है। लेकिन इसे तो सरकार के राजनीतिक नेतृत्‍व से पूछा जाना चाहिए। यूपीए के नए राजनीतिक अर्थशास्‍त्र ने पिछले सात साल में राजकोषीय संतुलन का श्राद्ध कर दिया। इक्‍कीसवीं सदी का भारत जब तरक्‍की के शिखर पर था तब कांग्रेस का आर्थिक चिंतन आठवें दशक की कोठरी में घुस गया। देश की आर्थिक किस्‍मत साझा कार्यक्रमों और राष्ट्रीय सलाहकार परिषदों जैसी सुपर सरकारों ने तय की जिन्‍हें ग्रोथ और सुधार के नाम पर मानो ग्‍लानि महसूस
होती थी। उदारीकरण के तपते हुए वर्षों में समाजवादी कोल्‍ड स्‍टोरेज से निकले पिछले बजटों ने भारत की आर्थिक बढ़त की टांग खींच ली है।
वित्‍तीय घाटे पर दर्दमंद दिख रहे भारत के सुधार पुरुष को याद होगा कि बजटों की बुनियाद यूपीए के न्‍यूनतम साझा कार्यक्रम ने तैयार की थी। उस राजनीतिक दस्‍तावेज ने राजकोषीय संतुलन को सर के बल खड़ा कर दिया। यूपीए- एक के पहले  बजट (2004-05) में साझा कार्यक्रम का हवाला देते हुएघाटा कम करने के लक्ष्‍य (राजकोषीय उत्‍तरदायित्‍व कानून के तहत) टाल दिये गए। लगाम एक बार जो छूटी तो पकड़ में नहीं आई। 2008-09 के बाद तो घाटा घटाने के लक्ष्‍य पांच साल के लिए टल गए। समावेशी विकास यानी इन्‍क्‍लूसिव ग्रोथ की कांग्रेसी सियासत ने हमें उस उलटी गाड़ी में चढ़ा दिया, जिसे खुद सुधारों के रहनुमा चला रहे थे। 2005-06 में सब्सिडी का बिल केवल 44000 करोड़ रुपये था जो सिर्फ पांच साल में 2.16 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया। मनरेगा, स्‍वास्‍थ्‍य मिशन जैसी स्‍कीमें खर्च की चैम्पियन बन गई। जिनकी सफलता संदिग्‍ध है। समावेशी विकास देश पर कोई असर नहीं दिखता अलबत्‍ता बजट की बदहाली बढ़ाने में इसकी भूमिका पर कोई संदेह नहीं है।
देर का अंधेर 
प्रधानमंत्री की सुधारवादी मुद्रा में आर्थिक नीतियों को लेकर कांग्रेस का चरम कन्‍फ्यूजन दिखता है। इन्‍क्‍लूसिव ग्रोथ का पूरा आर्थिक दर्शन राजनीति के मोर्चे पर कांग्रेस को एक कायदे की जीत भी नहीं दिला सका।  2009 में लोक सभा के चुनाव के साथ यूपीए ब्रांड स्‍कीमों का क्रियान्‍वयन पूरे देश में हो गया लेकिन तब से कांग्रेस लगातार सियासी जमीन गंवाती चली  गई है। यानी खजाना लुटाकर भी राजनीतिक फायदा नहीं मिला। एक फलते फूलते उद्यमी देश को रोजगार गारं‍टियों व मुफ्त अनाज के नशे में डुबा कर कांग्रेस व यूपीए को क्‍या मिला यह तो पता नहीं लेकिन इतना जरुर पता है तरक्‍की तोड़ने की में इस समावेशी परियोजना पिछले एक दशक की मेहनत के फायदे खर्च हो गए।
जब जागे तब सबेरा वाला सिद्धांत सियासत और अर्थशास्त्र में नहीं चलता। इसलिए प्रधानमंत्री इक्‍यानवे का दौर याद करते हुए बड़े असंगत से लग रहे थे। उन्‍हें अपने वित्‍त मंत्रित्‍व दौर के भाषण फिर पढ़ने चाहिए।  देश को बिगाड़ने वाले जितने कदम उन्‍होंने तब गिनाये थे वह सभी काम उनकी अगुआई में पिछले सात साल में किये गए हैं। भारी सब्सिडीफिजूल की स्‍कीमेंबेसिर पैर के खर्च वाले समाजवादी नुस्‍खा। भारी टैक्‍स व मनमानी रियायतें। भयानक घाटाकर्जदार सरकारबर्बाद होते बैंक। कुछ खास लोगों को सब कुछ देने वाला पुराना भ्रष्‍ट लाइसेंस राज। इक्‍यानवे से पहले का अंधेरासीलन भरा लिजलिजा सरकारी दौर जब जी उठा। देश की साख लगभग ढह गई त‍ब तब प्रधानमंत्री को सुधारों की फिक्र हुई है।
इस देरी के बावजूद आर्थिक सुधारों को लेकर प्रधानमंत्री के दर्द से सहानुभूति होती है लेकिन ज्‍यादा दर्द इस बात पर होना चाहिए कि प्रधानमंत्री को वक्‍त की नब्‍ज पढ़ना नहीं आता। 2012 से लेकर 2014 तक एक दर्जन प्रमुख राजयों और फिर लोकसभा के चुनाव होने हैं। इसलिए सुधारों की गाड़ी अब बड़े चुनाव के  बाद ही पटरी पर आएगी। सुधार ताकतवर हैं मगर सुधारक कमजोर है। राजनीतिक जड़ो से उखड़ी एक सरकार बड़े दांव लगा रही है, जिनसे तत्‍काल शेयर सूचकांक भले ही थिरक उठे मगर निवेशकों के भरोसे का सूचकांक तो अभी नही उठना।
वक्‍त कुछ अलग ढंग से खुद को दोहरा है। 1991 के सुधार सही समय पर थे मगर उनका फायदा उठाने का मौका आने तक कांग्रेस राजनीतिक मोर्चे पर बिखर गई थी। उन सुधारों का असर 1999 से दिखना शुरु हुआ और फायदे भाजपा के अगुआई वाले एनडीए के खाते में गए। कांग्रेस को कुर्सी 2004 में ही मिल सकी। ताजे आर्थिक सुधार बड़े महत्‍वपूर्ण हैं मगर वक्‍त निकलने के बाद शुरु हुए हैं। इसलिए सरकार के पास कर दिखाने का मौका निकल गया। कांग्रेस बदकिस्‍मत है। इन कठिन सुधारों के राजनीतिक फायदे भी अगली सरकार के खाते में जाएंगे। है। डाक्‍टर के सुधार नुस्‍खों पर विपक्ष की सरकारों ने अपनी राजनीतिक सेहत बनाई है। आर्थिक सुधारों और सियासत का भारतीय इतिहास को खुद को फिर दोहराने वाला है।
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