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Sunday, September 17, 2017

जीएसटी का इलाज


यदि कोई बंदर कंप्यूटर के की बोर्ड को लंबे वक्त तक लगातार मनचाहे ढंग से पीटता रहे तो वह कभी न कभी अक्षरों का ऐसा पैटर्न बना लेगा जो शेक्सपियर की कविता के करीब होगा.

बीसवीं सदी की शुरुआत में फ्रांस के गणितज्ञ जब इनफाइनाइट मंकी थ्योरी बना रहे थे (जिसे 2011 में अमेरिकी कंप्यूटर प्रोग्रामर ने वर्चुअल बंदरों की मदद से सही सिद्ध कर दिया) तब उन्हें यह कतई अंदाज नहीं रहा होगा कि 21वीं सदी में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे बड़ा टैक्स सुधार इस थ्योरी का उदाहरण बन जाएगा.

प्रधानमंत्री का गुड ऐंड सिंपल टैक्ससरकार और कारोबारियों के लिए इनफाइनाइट मंकी थ्योरी की साधना बन गया है. तीन महीने बाद पहला रिटर्न भरने के तरीकों पर शोध जारी है. आए दिन बदलते नियमों से जीएसटी की गुत्थी और उलझ जाती है.

वन नेशनवन टेंशन

भारत का सबसे बड़ा टैक्स सुधार गहरी मुश्किल में है जीएसटी खुद बीमार हो गया है और इससे कारोबार में भी बीमारी फैल गई है। 
  •  जीएसटी के सूचना तकनीक नेटवर्क (जीएसटीएन) के बिना जीएसटी लागू होना नामुमकिन है. यह नेटवर्क असफल सा‍बित हो गया है. रिटर्न भरने की भी तारीखें आगे बढ़ा दी गई हैं. इस नेटवर्क के भरोसे लाखों इनवॉयस मिलानेटैक्स  क्रे‍डिटमाल ले जाने के लिए इलेक्ट्रॉनिक परमिट देनेकेंद्र और राज्य के बीच राजस्व बंटवारे का काम मुश्किल दिख रहा है.
  • जीएसटीएन की असफलता की पड़ताल के लिए राज्यों के वित्त मंत्रियों की समिति बनानी पड़ गई है. सनद रहे कि इस नेटवर्क की तैयारी को लेकर देश को लगातार गुमराह किया गया. शनिवार को बंगलौर में जीएसटी 'उपचार'  समिति की बैठक के बाद सरकार ने स्वीकार किया कि नेटवर्क में समस्‍यायें हैं जिन्‍हें दूर करने की कोशिश हो रही है.
  • उत्पादों और सेवाओं को विभिन्न दरों में बांटने वाली जीएसटी (फिटमेंट) कमेटी ने पर्याप्त तैयारीशोध और उद्योगों से संवाद नहीं किया. इसी गफलत के चलते जुलाई के तीसरे सप्ताह में सिगरेट कंपनी आइटीसी का शेयर एक दिन में 13 फीसदी टूट गया यानी निवेशकों को करीब 50,000 करोड़ रुपए का नुक्सान. यह हुआ सिगरेट पर जीएसटी लगाने की गलती से. पहले सिगरेट पर जीएसटी की दर कम रखी गई फिर गलती समझ में आई तो उसे बढ़ा दिया गया. यह पहला मामला नहीं था इसके बाद जीएसटी काउंसिल लगातार उत्पादों और सेवाओं पर टैक्स की दरें बदल रही है.
  •  नेटवर्क की विफलता और नियमों के फेरबदल से राजस्व संग्रह पर खतरा बढ़ गया है. राज्यों ने केंद्रीय जीएसटी में हिस्सा न मिलने की शिकायत की है. नाराज व्या‍पारी अदालतों से गुहार लगाने लगे हैं.
 विफलता के नतीजे  
  •  ऑनलाइन नेटवर्क की असफलता के कारण नियम पालन और टैक्स चोरी रोकने का मॉडल लडख़ड़ा गया है. अब अधिकांश कारोबार नकद और कच्चे बिल में हो रहा है.
  •   जटिलता और नेटवर्क की उलझनों के कारण जीएसटीकारोबारी सहजता (ईज ऑफ डूइंग बिजनेस) पर आतंकी हमले की तरह सामने आया है.
  •    उत्पादन और बिक्री बेहद सुस्त है. जीडीपी में गिरावट गहरी और लंबी हो सकती है.

सहजता ही इलाज है
इसी स्तंभ में हमने लिखा था जीएसटी बेहद जटिल है. 24 से लेकर 36 रिटर्न की शर्तों और पेचीदा नियमों से लंदे फंदे जीएसटी को ऐसे सूचना तकनीक नेटवर्क के हवाले किया गया है जिसका कायदे से परीक्षण भी नहीं हुआ. यह गठजोड़ की विफलता अर्थव्यवस्था के लिए विस्फोटक हो सकती है. अफसोस कि हम गलत साबित नहीं हुए.  
·   जीएसटी एक ऐसा सुधार है जो तीन माह में ही खुद बीमार हो गया है. इसका ढांचा बदले बिना इसे खड़ा कर पाना अब मुश्किल लगता है.
  •   जीएसटी को चलाना है तो रिटर्न और तमाम प्रक्रियाओं में बड़े पैमाने पर कमी की जरूरत है. सरकार को कारोबारियों पर हमेशा शक करने की आदत छोडऩी होगी. सरकार को यह तय करना होगा कि उसे कितनी सूचना चाहिए. हर छोटी-बड़ी सूचना हासिल करने की जिद हटाकर प्रक्रिया को आसान करना पड़ेगा.
  • छोटे और बड़े कारोबारियों के लिए नियम अलग-अलग तय करने नहीं तो गैर जीएसटी कारोबार बढऩे लगेगा या फिर छोटे कारोबार और व्यापार बंद होने की नौबत आ जाएगी. 
  • कर नियमों में आए दिन बदलाव रोकना होगा ताकि कारोबारी स्थायित्व को लेकर आश्वस्त हो सकें.
याद कीजिए 30 जून की मध्यरात्रि को संसद में हुए जीएसटी उत्सव को. उस जलसे को याद करने पर जीएसटी का ताजा हाल हमें शर्मिंदा करता है. सुधारों की शुरुआत कोई उत्सव नहीं होतीत्योहार तो उनकी सफलता पर मनाया जाता है.




मिल्टन फ्रीडमैन ठीक ही कहते थे: ‘‘सरकारें नसीहत नहीं लेतीसबक तो सिर्फ जनता को मिलते हैं.’’

Monday, October 31, 2016

जीएसटी को बचाइए


जीएसटी में वही खोट भरे जाने लगे हैं जिन्‍हें दूर करने लिए इसे गढ़ा जा रहा था.
गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स से हमारा सम्‍मोहन उसी वक्त खत्म हो जाना चाहिए था जब सरकार ने तीन स्तरीय जीएसटी लाने का फैसला किया था. दकियानूसी जीएसटी मॉडल कानून देखने के बाद जीएसटी को लेकर उत्साह को नियंत्रित करने का दूसरा मौका आया था. ढीले-ढाले संविधान संशोधन विधेयक को संसद की मंजूरी के बाद तो जीएसटी को लेकर अपेक्षाएं तर्कसंगत हो ही जानी चाहिए थीं. लेकिन जीएसटी जैसे जटिल और संवेदनशील सुधार को लेकर रोमांटिक होना भारी पड़ रहा है. संसद की मंजूरी के तीन महीने के भीतर उस जीएसटी को बचाने की जरूरत आन पड़ी है जिसे हम भारत का सबसे महान सुधार मान रहे हैं.

संसद से निकलने के बाद जीएसटी में वही खोट पैवस्त होने लगे हैं जिन्‍हें ख त्‍म करने के लिए जीएसटी को गढ़ा जा रहा था. जीएसटी काउंसिल की दूसरी बैठक के बाद ही संदेह गहराने लगा था, क्योंकि इस बैठक में काउंसिल ने करदाताओं की राय लिए बिना जीएसटी में पंजीकरण व रिटर्न के नियम तय कर दिए जो पुराने ड्राफ्ट कानून की तर्ज पर हैं और करदाताओं की मुसीबत बनेंगे.

पिछले सप्ताह काउंसिल की तीसरी बैठक के बाद आशंकाओं का जिन्न बोतल से बाहर आ गया. जीएसटी में बहुत-सी दरों वाला टैक्स ढांचा थोपे जाने का डर पहले दिन से था. काउंसिल की ताजा बैठक में आशय का प्रस्ताव चर्चा के लिए आया है. केंद्र सरकार जीएसटी के ऊपर सेस यानी उपकर भी लगाना चाहती है, जीएसटी जैसे आधुनिक कर ढांचे में जिसकी उम्मीद कभी नहीं की जाती.
काउंसिल की तीन बैठकों के बाद जीएसटी का जो प्रारूप उभर रहा है वह उम्मीदों को नहीं, बल्कि आशंकाओं को बढ़ाने वाला हैः
  • केंद्र सरकार ने जीएसटी काउंसिल की बैठक में गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स के लिए चार दरों का प्रस्ताव रखा है. ये दरें 6, 12,18 और 26 फीसदी होंगी. सोने के लिए चार फीसदी की दर अलग से होगी. अर्थात् कुल पांच दरों का ढांचा सामने है.
  •   मौजूदा व्यवस्था में आम खपत के बहुत से सामान व उत्पाद वैट या एक्साइज ड्यूटी से मुक्त हैं. कुछ उत्पादों पर 3, 5 और 9 फीसदी वैट लगता है जबकि कुछ पर 6 फीसदी एक्साइज ड्यूटी है. जीएसटी कर प्रणाली के तहत 3 से 9 फीसदी वैट और 6 फीसदी एक्साइज वाले सभी उत्पाद 6 फीसदी की पहली जीएसटी दर के अंतर्गत होंगे. जीरो ड्यूटी सामान की प्रणाली शायद नहीं रहेगी इसलिए टैक्स की यह दर महंगाई बढ़ाने की तरफ झुकी हो सकती है.
  •   केंद्र सरकार ने जीएसटी के दो स्टैंडर्ड रेट प्रस्तावित किए हैं. यह अनोखा और अप्रत्याशित है. जीएसटी की पूरे देश में एक दर की उक्वमीद थी. यहां चार दरों का रखा जा रहा है, जिसमें दो स्टैंडर्ड रेट होंगे. बारह फीसदी के तहत कुछ जरूरी सामान रखे जा सकते हैं. यह जीएसटी में पेचीदगी का नया चरम है. 
  • यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि ज्यादातर उत्पाद और सेवाएं 18 फीसद दर के अंतर्गत होंगी क्योंकि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के मुताबिक जीएसटी में गुड्स और सर्विसेज के लिए एक समान दर की प्रणाली है. इस व्यवस्था के तहत सेवाओं पर टैक्स दर वर्तमान के 15 फीसदी (सेस सहित) से बढ़कर 18 फीसदी हो जाएगी. यानी इन दरों के इस स्तर पर जीएसटी खासा महंगा पड़ सकता है.
  • चौथी दर 26 फीसदी की है जो तंबाकू, महंगी कारों, एयरेटेड ड्रिंक, लग्जरी सामान पर लगेगी. ऐश्वर्य पर लगने वाले इस कर को सिन टैक्स कहा जा रहा है. इस वर्ग के कई उत्पादों पर दरें 26 फीसदी से ऊंची हैं जबकि कुछ पर इसी स्तर से थोड़ा नीचे हैं. इस दर के तहत उपभोक्ता कीमतों पर असर कमोबेश सीमित रहेगा.
  •   समझना मुश्किल है कि सोने पर सिर्फ 4 फीसदी का टैक्स किस गरीब के फायदे के लिए है. इस समय पर सोने पर केवल एक फीसदी का वैट और ज्वेलरी पर एक फीसदी एक्साइज है, जिसे बढ़ाकर कम से कम से 6 फीसदी किया जा सकता था.   
  • किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि सरकार एक पारदर्शी कर ढांचे की वकालत करते हुए जीएसटी ला रही है, और पिछले दरवाजे से जीएसटी की पीक रेट (26 फीसदी) पर सेस लगाने का प्रस्ताव पेश कर देगी. सेस न केवल अपारदर्शी हैं बल्कि कोऑपरेटिव फेडरलिज्म के खिलाफ हैं क्योंकि राज्यों को इनमें हिस्सा नहीं मिलता है.

केंद्र सरकार सेस के जरिए राज्यों को जीएसटी के नुक्सान से भरपाई के लिए संसाधन जुटाना चाहती है. अलबत्ता राज्य यह चाहेंगे कि जीएसटी की पीक रेट 30 से 35 फीसदी कर दी जाए, जिसमें उन्हें ज्यादा संसाधन मिलेंगे. इसी सेस ने जीएसटी काउंसिल की पिछली बैठक को पटरी से उतार दिया और कोई फैसला नहीं हो सका.

अगर जीएसटी 4 या 5 कर दरों के ढांचे और सेस के साथ आता है तो यह इनपुट टैक्स क्रेडिट को बुरी तरह पेचीदा बना देगा जो कि जीएसटी सिस्टम की जान है. इस व्यवस्था में उत्पादन या आपूर्ति के दौरान कच्चे माल या सेवा पर चुकाए गए टैक्स की वापसी होती है. यही व्यवस्था एक उत्पादन या सेवा पर बार-बार टैक्स का असर खत्म करती है और महंगाई रोकती है.

केंद्र सरकार जीएसटी को लेकर कुछ ज्यादा ही जल्दी में है. जीएसटी से देश की सूरत और सीरत बदल जाने के प्रचार में इसके प्रावधानों पर विचार विमर्श और तैयारी खेत रही है. व्यापारी, उद्यमी, उपभोक्ता, कर प्रशासन जीएसटी गढऩे की प्रक्रिया से बाहर हैं. जीएसटी काउंसिल की बैठक में मौजूद राज्यों के मंत्री इसके प्रावधानों पर खुलकर सवाल नहीं उठा रहे हैं या फिर उनके सवाल शांत कर दिए गए हैं. 

जीएसटी काउंसिल की तीन बैठकों को देखते हुए लगता है कि मानो यह सुधार केवल केंद्र और राज्यों के राजस्व की चिंता तक सीमित हो गया है. करदाताओं के लिए कई पंजीकरण और कई रिटर्न भरने के नियम पहले ही मंजूर हो चुके हैं. अब बारी बहुत-सी टैक्स दरों की है जो जीएसटी को खामियों से भरे पुराने वैट जैसा बना देगी.

गुड्स एंड सर्विसेज टैक्‍स का वर्तमान ढांचा कारोबारी सहजता की अंत्‍येष्टि करने, कर नियमों के पालन की लागत (कंप्लायंस कॉस्ट) बढ़ाने और महंगाई को नए दांत देने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है. क्या हम जीएसटी बचा पाएंगे या फिर हम इस सुधार के बोझ तले दबा ही दिए जाएंगे?

Tuesday, August 16, 2016

जीएसटी हो सकता है कारगर बशर्ते .....

जीएसटी क्रांतिकारी सुधार बनाने के लिए इसे केंद्र सरकार के सूझबूझ भरे राजनीतिक नेतृत्‍व की जरुरत है। 

जीएसटी लागू होने के बाद उपभोक्‍ता राजा बन जाएगा ! टैक्स चोरी बंद! जीडीपी में उछाल! राज्यों की ज्यादा कमाई! टैक्स अफसरों का आतंक खत्म! छोटे कारोबारियों के लिए बड़ी सुविधाएं! जीएसटी से अपेक्षाओं की उड़ान में अगर कोई कमी रह गई थी तो प्रधानमंत्री के 8 अगस्त के लोकसभा के संबोधन ने उसे पूरा कर दिया है.

दरअसल2014 के नरेंद्र मोदी और 2016 के जीएसटी में एक बड़ी समानता है. दोनों ही अपेक्षाओं के ज्वार पर सवार होकर आए हैं. 2014 में जगी उम्‍मीदों का तो पता नहींअलबत्ता प्रधानमंत्री के पास जीएसटी को ऐसा सुधार बनाने का मौका जरूर है जो अर्थव्यवस्था के एक बड़े क्षेत्र का कायाकल्प करने और दूरगामी फायदे देने की कुव्वत रखता है.

संयोग से जीएसटी को कामयाब बनाने के लिए प्रधानमंत्री के पास पर्याप्त राजनैतिक ताकत हैसाथ ही संसद के दोनों सदनों ने अभूतपूर्व सर्वानुमति के साथ जीएसटी का जो खाका मंजूर किया हैउसके प्रावधान जीएसटी को क्रांतिकारी सुधार बना सकते हैं बशर्ते केंद्र सरकार सूझबूझ और संयम के साथ जीएसटी का राजनैतिक नेतृत्व कर सके.

संसद की दहलीज पार करते हुए जीएसटी को तीन ऐसी नेमतें मिल गई हैं जो भारत में इस तरह के (केंद्र व सभी राज्यों के सामूहिक) इतने बड़े सुधार के पास पहले कभी नहीं थीं.

एक- संसद से मंजूर जीएसटी विधेयक में राज्यों की अधिकार प्राप्त समिति के सभी सुझाव और केंद्र की सहमति शामिल है. जीएसटी के पूर्वज यानी वैट (वैल्यू एडेड टैक्स) को 2005 में सहमति का यह तोहफा नहीं मिला था. गुजरातराजस्थानमध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश सहित सात राज्यों ने पूरे देश के साथ मिलकर वैट लागू नहीं किया. ये राज्य इस सुधार में बाद में शामिल हुए.

दो- जीएसटी काउंसिल के तौर पर देश को पहली बार एक बेहतर ताकतवर संघीय समिति मिल रही हैजिसमें राज्यों के सामूहिक अधिकार केंद्र से ज्यादा हैं. आर्थिक फैसलों के मामले में यह अपनी तरह का पहला प्रयोग है जो अच्छे जीएसटी की बुनियाद बनना चाहिए.

तीन- राज्य सरकारों के संभावित वित्तीय नुक्सान का बीमा हो गया है. यदि जीएसटी लागू करने से टैक्स घटता है तो केंद्र सरकार पांच साल तक इसकी भरपाई करेगी. पहली बार दी गई इस संवैधानिक गारंटी के बाद जीएसटी को उपभोक्ताओं के लिए कम बोझ वाला बनाने का विकल्प खुल गया है.

व्यापक सहमतिफैसले लेने की पारदर्शी प्रणाली और राज्यों के नुक्सान की भरपाई की गारंटी के बादयकीनन जीएसटी एक ढांचागत सुधार हो सकता है लेकिन इसके लिए केंद्र सरकार को जीएसटी के गठन में छह व्यवस्थाएं अनिवार्य रूप से सुनिश्चित करनी होंगी. यह काम सिर्फ केंद्र सरकार ही कर सकती है क्योंकि जीएसटी का नेतृत्व नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली की टीम ही करेगी. 

पहलाः मोदी यदि जीएसटी में ग्राहकों को राजा बनाना चाहते हैं तो उन्हें जीएसटी की स्टैंडर्ड दर 18 फीसदी रखने के लिए राजनैतिक सहमति बनानी होगी. राज्यों में स्टेट वैट की स्टैंडर्ड दर 14.5 फीसदी हैजिसके तहत 60 फीसदी उत्पाद आते हैं जबकि सेंट्रल एक्साइज की 12.36 स्टैंडर्ड दर अधिकांश उत्पादों पर लागू होती है. सर्विस टैक्स की दर 15 फीसदी है. यदि इन तीनों को मिलाकर 18 फीसदी की स्टैंडर्ड जीएसटी दर तय हो सके तो यह जीएसटी की सबसे बड़ी सफलता होगी. इस दर के तहत कुछ उत्पादों और सेवाओं पर टैक्स बढ़ेगा लेकिन कई दूसरे टैक्सों को मिलाने के फायदे इसे संतुलित करेंगे और महंगाई काबू में रहेगी. केंद्र सरकार राज्यों को इस संतुलन के लिए राजी कर सकती है क्योंकि संविधान संशोधन विधेयक ने उनके घाटे की भरपाई को सुनिश्चित कर दिया है. 

दूसराः ऊर्जा व जमीन आर्थिक उत्पादन की सबसे बड़ी लागत है लेकिन बिजलीपेट्रो उत्पाद और स्टांप ड्यूटी जीएसटी से बाहर हैं. इन पर टैक्स घटाए बिना कारोबार की लागत कम करना असंभव है. इन्हें जीएसटी के दायरे में लाना होगा. केंद्र सरकार तीन साल की कार्ययोजना के तहत जीएसटी काउंसिल को ऐसा करने पर सहमत कर सकती है.

तीसराः केंद्र को यह तय करना होगा कि जीएसटी कारोबार के लिए कर पालन की लागत (कॉस्ट ऑफ कंप्लायंस) न बढ़ाए. जीएसटी का ड्राफ्ट बिल खौफनाक है. इसमें एक करदाता के कई (केंद्र व राज्य) असेसमेंटदर्जनों पंजीकरणरिटर्न और सजा जैसे प्रावधान हैं. अगर इन्हें खत्म न किया गया तो जीएसटी टैक्स टेररिज्म का नमूना बन सकता है.

चौथाः जीएसटी की राह पर आगे बढ़ते हुए केंद्र सरकार को राज्यों में गैर-कर राजस्व जुटाने के नए तरीकों और खर्च कम करने के उपायों की जुगत लगानी होगी. वित्त आयोग और नीति आयोग इस मामले में अगुआई कर सकते हैं. जीएसटी कानून के तहत राज्यों में कर नियमों में आए दिन बदलाव की संभावनाएं सीमित करनी होंगी.

पांचवां स्वच्छताबुनियादी ढांचे और अन्य जरूरतों के लिए स्थानीय निकायों को संसाधन चाहिए. जीएसटी में कई ऐसे टैक्स शामिल हो रहे हैं जो इन निकायों की आय का स्रोत हैं. केंद्र को यह ध्यान रखना होगा कि जिस तरह केंद्र के राजस्व में राज्यों का हिस्सा तय हैठीक उसी तरह राज्यों के राजस्व में स्थानीय निकायों का हिस्सा निर्धारित हो.

छठा जीएसटी की व्यवस्था तय करते हुए केंद्र की अगुआई में जीएसटी काउंसिल को हर स्तर पर सभी पक्षों यानी उपभोक्ताछोटे-बड़े उद्यमीस्थानीय निकायों को चर्चा में जोडऩा होगा जो अभी तक नहीं किया गया है.

बहुत से लोग यह कहते मिल जाएंगे कि जीएसटी न होने से एक कमजोर जीएसटी होना बेहतर है लेकिन हकीकत यह है कि एक घटिया जीएसटी जो समस्याएं पैदा करेगाउनकी रोशनी में जीएसटी की अनुपस्थिति ही बेहतर है. जीएसटी भारत में सुधारों की दूसरी पीढ़ी की सबसे बड़ी पहल है और अभी इसकी सिर्फ नींव रखी गई है. 

यदि प्रधानमंत्री मानते हैं कि जीएसटी से भारत की सूरत बदल जाएगी तो उन्हें स्वयं इस सुधार का नेतृत्व करना चाहिए. यदि वे देश को एक दूरगामीसहज और कम महंगाई वाला टैक्स सिस्टम दे सके तो यह आर्थिक उदारीकरण के बाद भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि होगीजिसे लेकर इतिहास उन्हें  हमेशा याद रखेगा.