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Friday, April 16, 2021

घुटती सांसों का ‘उत्सव’

 


भारत के लिए चुनाव, कुंभ और महामारी में क्या अंतर या समानता है? बात इन आयोजनों के सुपर स्प्रेडर बनने के खतरे की नहीं है. हमें तो इस बात पर अचरज होना चाहिए कि जो मुल्क दुनिया का सबसे बड़ा और लंबा चुनाव करा लेता है, भरपूर कोविड के बीच कुंभ जैसे मेले और आइपीएल जैसे भव्य महंगे तमाशे जुटा लेता है वह महामारी की नसीहतों के बावजूद अपने थोड़े से लोगों को अस्पताल, दवाएं और ऑक्सीजन नहीं दे पाता.

डारोन एसीमोग्लू और जेम्स जे राबिंसन ने दुनिया के इतिहास, राजनीति और सरकारों के फैसले खंगालकर अपनी मशहूर कि‍ताब व्हाइ नेशंस फेल में बताया है कि दुनिया के कुछ देशों में लोग हमेशा इसलिए गरीब और बदहाल रहते हैं क्योंकि वहां की राजनैतिक और आर्थिक संस्थाएं बुनियादी तौर पर शोषक हैं, इन्हें लोगों के कल्याण की जिम्मेदारी और संवेदनशीलता के मूल्यों पर बनाया ही नहीं जाता, इसलिए संकटों में व्यवस्थाएं ही सबसे बड़ी शोषक बन जाती हैं.

कोविड की दूसरी लहर ने हमें बताया कि एसीमोग्लू और राबिंसन क्यों सही हैं? क्या हमारे पास क्षमताएं नहीं थीं? क्या संसाधनों का टोटा था? नहीं. शायद हमारा दुर्भाग्य हमारी संवेदनहीन सियासत और उसकी संस्थाएं लिख रही हैं.

कोविड की पहली लहर के वक्त स्वास्थ्य क्षमताओं की कमी सबसे बड़ी चुनौती थी. अप्रैल 2020 में 15,000 करोड़ रु. का पैकेज आया. दावे हुए कि बहुत तेजी से विराट हेल्थ ढांचा बना लिया गया है तो फिर कहां गया वह सब?

बहुत-से सवाल हमें मथ रहे हैं जैसे कि

अप्रैल से अक्तूबर तक ऑक्सीजन वाले बि‍स्तरों की संख्या 58,000 से बढ़ाकर 2.65 लाख करने और आइसीयू और वेंटीलेटर बेड की संख्या तीन गुना करने का दावा हुआ था. कहा गया था कि ऑक्सीजन, बडे अस्थायी अस्पताल, पर्याप्त जांच क्षमताएं, क्वारंटीन सेंटर और कोविड सहायता केंद्र हमेशा तैयार हैं. लेकिन एक बार फिर अप्रैल में जांच में वही लंबा समय, बेड, ऑक्सीजन, दवा की कमी पहले से ज्यादा और ज्यादा बदहवास और भयावह!!

कोविड के बाद बाजार में नौ नई वेंटीलेटर कंपनियां आईं. उत्पादन क्षमता 4 लाख वेंटीलेटर तक बढ़ी लेकिन पता चला कि मांग तैयारी सब खो गई है. उद्योग बीमार हो गया.

 भारत में स्वास्थ्य क्षमताएं बनी भी थीं या सब कुछ कागजी था अथवा कुंभ के मेले की तरह तंबू उखड़ गए? सनद रहे कि दुनिया के सभी देशों ने कोविड के बाद स्वास्थ्य ढांचे को स्थानीय बना दिया क्योंकि खतरा गया नहीं है.

स्वास्थ्यकर्मियों की कमी (1,400 लोगों पर एक डॉक्टर, 1,000 लोगों पर 1.7 नर्स) सबसे बड़ी चुनौती थी, यह जहां की तहां रही और एक साल बाद पूरा तंत्र थक कर बैठ गया.

क्षमताओं का दूसरा पहलू और ज्यादा व्याकुल करने वाला है.

बीते अगस्त तक डॉ. रेड्डीज, साइजीन और जायडस कैडिला के बाजार में आने के बाद (कुल सात उत्पादक) प्रमुख दवा रेमिडि‍सविर की कमी खत्म हो चुकी थी. अप्रैले में फैवीफ्लू की कालाबाजारी होने लगी. इंजेक्शन न मिलने से लोग मरने लगे.

दुनिया की वैक्सीन फार्मेसी में किल्लत हो गई क्योंकि अन्य देशों की सरकारों ने जरूरतों का आकलन कर दवा, वैक्सीन की क्षमताएं देश के लिए सुरक्षित कर लीं. कंपनियों से अनुबंध कर लिए. और हमने वैक्सीन राष्ट्रवाद का प्रचार किया?

इतना तो अब सब जानते हैं कि कोविड को रोकने के लिए एजेंसि‍यों के बीच संवाद, संक्रमितों की जांच और उनके जरिए प्रसार (कांटैक्ट ट्रेसिंग) को परखने का मजबूत और निरंतर चलने वाला तंत्र चाहिए लेकिन बकौल प्रधानमंत्री सरकारें जांच घटाकर और जीत दिखाने की होड़ में लापरवाह हो गईं. यह आपराधि‍क है कि करीब 1.7 लाख मौतों के बावजूद संक्रमण जांच, कांटैक्ट ट्रेसिंग और सूचनाओं के आदान-प्रदान का कोई राष्ट्रव्यापी ढांचा या तंत्र नहीं बन सका.

दवा, ऑक्सीजन, बेड के लिए तड़पते लोग, गर्वीले शहरों में शवदाह गृहों पर कतारें...वि‍‍श्व गुरु, महाशक्ति, डिजिटल सुपरपावर या दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता का यह चेहरा खौफनाक है. यदि हम ऐसे निर्मम उत्सवप्रिय देश में बदल रहे हैं जहां सरकारें एक के बाद एक भव्य महाकुंभ, महाचुनाव और आइपीएल करा लेती हैं लेकिन महामारी के बीच भी अपने लोगों को अस्पताल, दवाएं, आक्सीजन यहां तक कि शांति से अंतिम यात्रा के लिए श्मशान भी नहीं दिला पातीं तो हमें बहुत ज्यादा चिंतित होने की जरूरत है.

भारत में किसी भी वक्त अधि‍कतम दो फीसदी (बीमार, स्वस्थ) से ज्यादा आबादी संक्रमण की चपेट में नहीं थी लेकिन एक साल गुजारने और भारी खर्च के बाद 28 राज्यों और विशाल केंद्र सरकार की अगुआई में कुछ नहीं बदला. भरपूर टैक्स चुकाने और हर नियम पालन के बावजूद यदि हम यह मानने पर मजबूर किए जा रहे हैं कि खोट हमारी किस्मत में नहीं, हम ही गए गुजरे हैं (जूलियस सीजर-शेक्सपियर) तो अब हमें अपने सवाल, निष्कर्ष और आकलन बदलने होंगे क्योंकि अब व्यवस्था ही जानलेवा बन गई है.

Friday, January 8, 2021

एक और अवसर

 


यह जो आपदा में अवसर नाम का मुहावरा है न, इसका मुलम्मा चाहे बिल्कुल उतर चुका हो लेकिन फिर भी आपदाओं को सलाम कि वे अवसर बनाने की ड‍्यूटी से नहीं चूकतीं.

आपको वैक्सीन कब तक मिलेगी और किस कीमत पर यह इस पर निर्भर होगा कि भारत का कल्याणकारी राज्य कितना कामयाब है? वेलफेयर स्टेट के लिए यह दूसरा मौका है. पहला अवसर बुरी तरह गंवाया गया था जब लाखों प्रवासी मजदूर पैदल गिरते-पड़ते घर पहुंचे थे और स्कीमों-संसाधनों से लंदी-फंदी सरकार इस त्रासदी को केवल ताकती रह गई थी.

विज्ञान और फार्मा उद्योग अपना काम कर चुके हैं. ताजा इतिहास में दुनिया का सबसे बड़ा सामूहिक वैक्सिनेशन या स्वास्थ्य परियोजना शुरू हो रही है. सवाल दो हैं कि एक, अधिकांश लोगों को आसानी से वैक्सीन कब तक मिलेगी और दूसरा, किस कीमत पर?

इनके जवाब के लिए हमें वैक्सीन राष्ट्रवाद से बाहर निकल कर वास्तविकता को समझना जरूरी है, ताकि वैक्सीन पाने की बेताबी को संभालते हुए हम यह जान सकें कि भारत कब तक सुरक्षित होकर आर्थिक मुख्यधारा में लौट सकेगा.

क्रेडिट सुइस के अध्ययन के मुताबिक, भारत को करीब 1.66 अरब खुराकों की जरूरत है.

विज्ञान और उद्योग ने वैक्सीन प्रोजेक्ट पूरा कर लिया है. भारत में करीब 2.4 अरब खुराकें बनाने की क्षमता है. इसके अलावा सिरिंज, वॉयल, गॉज आदि की क्षमता भी पर्याप्त है. पांच कंपनियां (अरबिंदो फार्मा, भारत बायोटेक, सीरम इंस्टीट्यूट, कैडिला और बायोलॉजिकल ई) इसका उत्पादन शुरू कर चुकी हैं. भारत के पास उत्पादन की क्षमता मांग से ज्यादा है. अतिरिक्त उत्पादन निर्यात के लिए है.

जब पर्याप्त वैक्सीन है तो समस्या क्या? सबसे बड़ी चुनौती वितरण तंत्र की है. जिन वैक्सीनों का प्रयोग भारत में होना है उन्हें 2 से -8 डिग्री पर सुरक्षित किया जाना है. चार कंपनियां, स्नोमैन, गतिकौसर, टीसीआइएल और फ्यूचर सप्लाइ चेन के पास यह कोल्ड स्टोरेज और परिहवन की क्षमता है. लेकिन वे अधिकतम 55 करोड़ खुराकों का वितरण संभाल सकती हैं जो भारत की कुल मांग के आधे से कम है.

यह कंपनियां टीकाकरण के अन्य कार्यक्रमों को सुविधाएं उपलब्ध कराती हैं. वितरण की क्षमता बढ़ाए जाने की गुंजाइश कम है क्योंकि कोविड के बाद यह क्षमता बेकार हो जाएगी. अगर सब कुछ ठीक चला तो भी इस साल भारत में 40 से 50 करोड़ लोगों तक वैक्सीन पहुंचना मुश्किल होगा.

सरकारी और निजी आकलन बतात है कि वैक्सीन देने (दो खुराक) के लिए सरकारी व निजी स्वास्थ्य नेटवर्क के करीब एक करोड़ कर्मचारियों की जरूरत होगी. यानी नियमित स्वास्थ्य सेवाओं के बीच वैक्सीन के लिए लंबी कतारों की तैयारी कर लीजिए.

टीका लगने के बाद बात खत्म नहीं होती. उसके बाद ऐंटीबॉडी की जांच कोरोना वैक्सीन के शास्त्र का हिस्सा है. यानी फिर पैथोलॉजिकल क्षमताओं की चुनौती से रू--रू होना पड़ेगा.

भारत के मौजूदा वैक्सीन कार्यक्रम बच्चों के लिए हैं और सीमित व क्रमबद्ध ढंग से चलते हैं. यह पहला सामूहिक एडल्ट वैक्सीन कार्यक्रम है जिसमें कीमत और वितरण की चुनौती एक-दूसरे से गुंथी हुई हैं. यदि सरकार बड़े पैमाने पर खुद सस्ती वैक्सीन बांटती है तो वितरण की लागत उसे उठानी होगी. भारी बजट चाहिए यानी सबको वैक्सीन मिलने में लंबा वक्त लगेगा. सब्सिडी के बगैर वितरण लागत सहित दो खुराकों की कीमत करीब 5,000 रुपए तक होगी, हालांकि वितरण तंत्र पर्याप्त नहीं है. यानी कोरोना की संजीवनी उतनी नजदीक नहीं है जितना बताया जा रहा है. 

स्वास्थ्यकर्मियों के बाद वैक्सीन पाने के लिए 50 साल से अधिक उम्र के लोगों के चुनने के पैमाने में पारदर्शिता जरूरी है. वैक्सीन वितरण को भारत केवीआइपी पहलेसे बचाना आसान नहीं होगा. 

 मुमकिन है कि क्षमताओं व संसाधनों की कमी से मुकाबिल सरकार यह कहती सुनी जाए कि सबको वैक्सीन की जरूरत ही नहीं है लेकिन उस दावे पर भरोसा करने से पहले यह जान लीजिएगा कि भारत में कोविड पॉजिटिव का आंकड़ा संक्रमण की सही तस्वीर नहीं दिखाता है. अगस्त से सितंबर के बीच 21 राज्यों के 70 जिलों में हुए सीरो सर्वे के मुताबिक, कोविड संक्रमण, घोषित मामलों से 25 गुना ज्यादा हो सकता है. यानी वैक्सीन की सुरक्षा का कोई विकल्प नहीं है.

भारत की वैक्सीन वितरण योजना को अतिअपेक्षा, राजनीति और लोकलुभावनवाद से बचना होगा. यह कार्यक्रम लंबा और कठिन है. सनद रहे कि केवल 27 करोड़ की आबादी वाला इंडोनेशिया अगले साल मार्च तक अपने 50 फीसद लोगों को टीका लगा पाएगा.

हमें याद रखना चाहिए कि भारत अनोखी व्यवस्थाओं वाला देश है जो कुंभ मेले जैसे बड़े आयोजन तो सफलता से कर लेता है लेकिन लाखों प्रवासी श्रमिकों को घर नहीं पहुंचा पाता या सबको साफ पानी या दवा नहीं दे पाता. इसलिए वैक्सीन मिलने तक 2020 को याद रखने में ही भलाई है.