Monday, July 2, 2012

याद हो कि न याद हो


ह जादूगर यकीनन करामाती था। उसने सवाल उछाला। कोई है जो बीता वक्‍त लौटा सके। .. मजमे में सन्‍नाटा खिंच गया। जादूगर ने मेज से यूपीए सरकार के पिछले बजट उठाये और पढ़ना शुरु किया। भारी खर्च वाली स्‍कीमें, अभूतपूर्व घाटेभीमकाय सब्सिडी बिलकिस्‍म किस्‍म के लाइसेंस परमिट राज, प्रतिस्‍पर्धा पर पाबंदी,.... लोग धीरे धीरे पुरानी यादों में उतर गए और अस्‍सी के दशक की समाजवादी सुबहें, सब्सिडीवादी दिन और घाटा भरी शामें जीवंत हो उठीं। यह जादू नही बल्कि सच है। उदार और खुला भारत अब अस्सी छाप नीतियों में घिर गया है। यह सब कुछ सुनियोजित था या इत्तिफाकन हुआ अलबत्‍ता संकटों की इस ढलान से लौटने के लिए भारत को अब बानवे जैसे बड़े सुधारों की जरुरत महसूस होने लगी है। इन सुधारों के लिए प्रधानमंत्री को वह सब कुछ मिटाना होगा जो खुद उनकी अगुआई में पिछले आठ साल में लिखा गया है।
बजट दर बजट
ढहना किसे कहते हैं इसे जानने के लिए हमें 2005-06  की रोशनी में 2011-12 को देखना चाहिए। संकटों के सभी प्रमुख सूचकांक इस समय शिखर छू रहे हैं। जो यूपीए की पहली शुरुआत के वक्‍त अच्‍छे खासे सेहत मंद थे। राजकोषीय घाटा दशक के सर्वोच्‍च स्‍तर पर (जीडीपी के अनुपात में छह फीसद) है और विदेशी मुद्रा की आवक व निकासी का अंतर यानी चालू खाते का घाटा बीस साल के सबसे ऊंचे स्‍तर (4.5 फीसद) पर। ग्रोथ भी दस साल के गर्त में है। राजकोषीय संयम और संतुलित विदेशी मुद्रा प्रबंधन भारत की दो सबसे बडी ताजी सफलतायें थीं, जिन्‍हें हम पूरी तरह गंवा चुके हैं।  ऐसा क्‍यों हुआ इसका जवाब यूपीए के पिछले आठ बजटों में दर्ज है। उदारीकरण के सबसे तपते हुए वर्षों में समाजवादी कोल्‍ड स्‍टोरेज से निकले पिछले बजट ( पांच चिदंबरम चार प्रणव) भारत की आर्थिक बढ़त को कच्‍चा खा गए। बजटों की बुनियाद यूपीए के न्‍यूनतम साझा कार्यक्रम ने तैयार की थी। वह भारत का पहला राजनीतिक दस्‍तावेज था जिसने देश के आर्थिक संतुलन को मरोड़ कर
फेंक दिया। राजकोषीय संतुलन का श्राद्ध यूपीए- एक के पहले  बजट (2004-05) से ही शुरु हो गया था जब, साझा कार्यक्रम का हवाला देते हुए, घाटा कम करने के लक्ष्‍य (राजकोषीय उत्‍तरदायित्‍व कानून के तहत) टाल दिये गए। लगाम एक बार जो छूटी तो (छठा वेतन आयोग) पकड़ में नहीं आई। 2008-09 के बाद घाटा घटाने के लक्ष्‍य पांच साल के लिए खिसक गए। यूपीए ने अपनी पहली पारी जब शुरु की थी तब सब्सिडी का बिल 44,000 करोड़ रुपये था जो अब 2,08, 503 करोड़ रुपये है। यानी कि जीडीपी के अनुपात में 2.41 फीसद, जो आठ साल पहले 1.30 फीसद से कम था। प्रत्‍येक बजट कई नई लोकलुभावन  स्‍कीमें लेकर आया, कुछ स्‍कीमों के बजट तो मंत्रालयों से भी बड़े हो गए। नतीजतन राजकोषीय संतुलन की पूरी कमाई आठ साल में लुट गई। चालू खाते का घाटा (विदेशी मुद्रा की आवक घरेलू मुद्रा (रुपये) की मजबूती का आधार होता होता है। 2004-05 में भारत का यह घाटा केवल 0.4 फीसद (जीडीपी के अनुपात में) था जो अब 4.5 फीसद है। ऊर्जा नीतियों की गफलत, खनन क्षेत्र की बदहाली, देशी कच्‍चे माल की कमी के कारण व्‍यापार घाटा पिछले आठ साल में 33 अरब डॉलर से 169 अरब डॉलर हो गया। रुपया इसी के चलते टूटा है और टूटता रहेगा। यानी भारत की दूसरी सबसे बड़ी उपलब्धि भी दिवंगत हो गई। 2008-09 का चुनावी बजट देश के आर्थिक प्रबंधन के लिए विस्‍फोटक था। किसानों की कर्ज माफी से लेकर तमाम तरह के खर्च से लैस इस बजट के बाद में पतंग हाथ से पूरी तरह उखड़ गई।
प्रतिस्‍पर्धा पर चोट
तेरहवीं चौदहवीं शताब्‍दी में यूरोप जब प्‍लेग से मर रहा था तब चीन लोहा गलाने की भट्टिया लगाने, नहरें बनाने, प्रशासनिक अधिकारियों के लिए राष्‍ट्रीय परीक्षा और व्‍यापार के लिए अफ्रीका तक जाने (वास्‍कोडिगामा की पहली यात्रा से 67 वर्ष पहले एडमिरल झेंग हे की यात्रा) जैसे अद्भुत काम कर रहा था। मगर बाद के दो सौ वर्षों में वक्‍त ने पीट पाटकर चीन को अफीमची बना दिया और कर्ज का मारा हाने के बावजूद यूरोप आज भी सवा लाख का है। आर्थिक इतिहासकार नील फर्ग्‍युसन जैसे तमाम लोग यह मानते हैं, वह प्रतिस्‍पर्धा ही थी जिसे बढ़ावा देकर पश्चिम पूरी दुनिया से आगे निकल गया और चीन आज तक वापस नहीं लौट सका। यूपीए के पिछले बजटों ने भी भारतीय बाजार में यही प्रतिस्‍पर्धा मार दी  या उसे बढ़ने नहीं दिया। यह काम कई तरीकों से हुआ। नए किस्‍म के लाइसेंस राज आए जिसमें खदानों से लेकर दूरसंचार स्‍पेक्‍ट्रम और हवाई अड्डें व सड़कें बनाने ठेकों से लेकर उपग्रह तक मनमाने ढंग से बांट दिये गए। सरकारी कंपनियों का पुनर्गठन और विनिवेश इतिहास बन गया जिससे सरकार के चुस्‍त होने की उम्‍मीदें जाती रहीं। विदेशी निवेश का उदारीकरण रुका इसलिए कई क्षेत्र में निजी एकाधिकार (सीमेंट कीमतें) जैसी स्थिति बन गई या फिर कुछ नया नहीं हुआ। प्रतिस्‍पर्धा बढ़ाने के लिए बने भारत के सभी नियामक  (टेलीकॉम, बिजली, पेंशन,बीमा) भी विवादित या असफल हो गए। नतीजतन निजी निवेश जो 2007-08 में जीडीपी के मुकाबले 28.5 फीसदी तक पहुंच गया था वह अब 24.5 फीसदी से कम है। भारत की सफलता किसी बड़े तीरंदाजी सुधार से नहीं बलिक केवल प्रतिस्‍पर्धा के माहौल से आईं थीं, जिसकी पीठ पर बैठक कर निजी निवेश भी आया और उपभोक्‍ताओं का खर्च भी। अफसोस पिछले बजटों ने इसे खत्‍म कर दिया है।
कांग्रेस को यह कौन याद दिलाये कि दसवीं लोकसभा के चुनाव (1991) घोषणा पत्र में उसने बजट खर्च घटाने का वादा किया था और 1992 का सुधार बजट इसी की बुनियाद बना था। लेकिन जब इक्‍कीसवीं सदी का भारत अपनी तक्‍की के शिखर पर था तब कांग्रेस का आर्थिक चिंतन आठवें दशक की कोठरी में घुस गया। यह संयोग है कि मुल्‍क जब अस्‍सी जैसी आर्थिक घुटन महसूस कर रहा है तब भारत के सबसे तजुर्बेकार वित्‍त मंत्री प्रणव मुखर्जी राष्‍ट्रपति भवन की तरफ बढ़ रहे हैं। मुखर्जी के पिछले चार बजट आठवें दशक की बजट निर्माण कला का अनुपम उदाहरण हैं। यह बजट चार बेशकीमती मौके थे जिनके बेकार होने के बाद पूरी दुनिया में भारत की साख का श्राद्ध शुरु हो गया और नौबत यह आ गई कि सरकार अपने वित्‍त मंत्री के फैसले पलटने जा रही है। लेकिन प्रधानमंत्री क्‍या क्‍या बदलेंगे, सब कुछ तो उनकी मंजूरी से हुआ है। क्‍या वह अपनी सरकार का आर्थिक नीतिगत डीएनए बदल सकेंगे। क्‍यों संकटों की जड़ तो वहीं है, जिसके कारण भारत अपना एक बेशकीमती दशक गंवा बैठा है। 

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