Monday, May 28, 2012

रुपये के मुजरिम

स्ताद जी, रुपया ही क्यों खेत रहा ? भोले निवेशक ने चतुर ब्रोकर से पूछा। दलाल बोला चुप रहो जी, हमारी पुरानी पोल फिर खुल गई। और बहुत सतर्क रहो क्यों। कि इस बार मामला कुछ ज्याजदा ही संगीन है। बाजार की नब्ज थामे वह ब्रोकर बिल्कुल ठीक समझ रहा है। रुपये का मामला यकीनन संगीन है। विकलांग सरकार की संकट न्योता नीति रुपये को ही ले डूबी क्यों। कि रुपया भारत आर्थिक शरीर की सबसे कमजोर नस है। विदेशी मुद्रा प्रबंधन में इतना लोचा है कि 1991 के संकट लेकर आज तक, हम ज्यादा वित्ती्य मुसीबतें इसी दरवाजे से आई हैं और रुपये ने ही तबाही की कहानी बनाई है। शेयर बाजार में विदेशी निवेश कमी को मत कोसिये, विदेशी मुद्रा बाजार और भंडार के प्रबंधन की दरारें तो पिछले कई वर्षों से संकट का स्वागत करने को आतुर हैं। आत्म निर्भरता की कमी, महंगाई, प्राकृतिक संसाधनों का घरेलू उत्पादन, विदेशी मुद्रा की आवक निकासी के असंतुलन, रुपये की बदहाली के लिए जिम्मेदारों की फेहरिस्त छोटी नहीं है। विदेशी मुद्रा का मोर्चा सबसे संवेदनशील होता है, इसे तो सबसे ज्यादा मजबूत होना चाहिए था मगर यही भारत का सर्वाधिक कमजोर और असुरिक्षत मोर्चा साबित हुआ है। रुपया ही सबसे गिरा और बेसहारा है।
कुप्रबंध का विनिमय
रुपये की तोहमत बेचारे ग्रीस के सर क्यों ? यह त्रासदी यूरोजोन ने नहीं हमने खुद लिखी है। ऐतिहासिक गलतियों से लेकर, किस्म किस्म के घाटे और सरकार की नीतिगत निष्क्रियता तक सबने रुपये को तोड़ने में बखूबी काम किया है। रिजर्व बैंक से लेकर वित्ता मंत्रालय सबको यह खबर थी कि रुपये पर हमला होना तय है क्यों कि भारतीय अर्थव्यवस्‍था  दोहरे घाटे (राजकोषीय और चालू खाता) के दुष्च‍क्र में फंस गई है। भुगतान संतुलन (विदेशी देनदारियों और विदेशी पंजी की आवक के बीच का अंतर) के तीन साल में पहली बार घाटे में आने की खबर बाजार को पिछले साल ही मिल गई थी और इसलिए अक्टूबर नवंबर से रुपये की बुरी गत बननी शुरु हो गई थी। इसके बाद से बाजार को विदेशी मुद्रा प्रबंधन के मोर्चे पर कुछ भी अच्छा नहीं
हुआ। चालू खाते का घाटा (करेंट अकाउंट डेफशिट) रुपये की सेहत का सबसे अहम संकेत है। यह घाटा व्या पार (उत्पाद व सेवाओं के आयात व निर्यात) और निवेश आदि से विदेशी मुद्रा की देश में आवक व निकासी का अंतर दिखाता है। जीडीपी के अनुपात में यह घाटा चार प्रतिशत पर पहुंच चुका है जबकि भारत में इसके तीन फीसद तक पहुंचते ही धड़कने बढने लगती थीं। यह स्तर 1991 से भी ऊंचा है जब भारत भुगतान संतुलन के संकट मे फंसा था और सोने को गिरवी रखकर काम चला था। अब भारत के विदेशी मुद्रा खजाने में पैसा कम है और देनदारियां ज्यादा। रिजर्व बैंक कह चुका है कि कई मामलों में हालात 1991 से ज्यादा (इक्यानवे का साया ) बुरे हैं। भारतीय रुपया अमेरिकी डालर के मुकाबले दुनिया की सबसे बदहाल मुद्राओं में एक है। म्यान्‍मार , मलावी, नेपाल, स्वारजीलैंड, नामीबिया, भूटान और लेसोथो की मुद्रायें ही रुपये से ज्यादा बुरी हालत में हैं। भारत जैसी स्थिति केवल दक्षिण अफ्रीका में है जहां आर्थिक पैमाने कमजोर हैं। भारतीय मुद्रा पिछले सत्रह माह में करीब 31 फीसदी टूटी है। ताजी गिरावट तो दरअसल रुपये की तबाही का दूसरा चरण है। जो भारत की साख पर अंतरराष्ट्री य रेटिंग एजेंसी (एस एंड पी) ने फैसला आने के बाद शुरु हुई। एस एंड पी की मुहर लगते के बाद रुपये को ही निशाने पर आना था क्यों कि वही आजमायी हुई स्थाषई कमजोरी है।
गलतियों की मुद्रा
भारत के विदेशी मुद्रा प्रबंधन की असलियत और रुपये के ग्रह नक्षत्र हर निवेशक को मालूम हैं। रुपया एक बहुआयामी व लंबे कुप्रबंध का शिकार है। पिछले वर्षो में कई जरुरी कच्चे माल (कोयला, कच्चे तेल) का देशी उत्पादन नहीं बढ़ा जबकि ग्रोथ और उपभोग पर आधारित अर्थव्यलव्‍स्थाच आयात पर निर्भर होती गई। नतीजा था रिकार्ड आयात और सीमित निर्यात, इसलिए 185 अरब डॉलर का रिकार्ड विदेश व्यापार घाटा हमारे पास है। इस साल की शुरुआत से निर्यात गिर रहे हैं मगर आयात पर कम करने की कोई सूरत नहीं है। देश में विदेशी मुद्रा की आवक घरेलू मुद्रा कितनी स्थिरता तय करती है। भारत में डॉलरों की आवक या तो निर्यात से होती है या फिर शेयर बाजार में विदेशी पूंजी (एफआईआई) से। दुर्भाग्य से डॉलर लाने की दोनों पाइपालाइनें हमारे काबू से बाहर हैं। निर्यात विश्व बाजार की मांग पर चलते हैं और शेयर बाजार के निवेशक घंटों में फैसला बदलते हैं। ऐसी स्थिति में दुनिया के देश आयात पर निर्भरता को सीमित करते हैं ताकि भंडार अचानक खाली न हों। पिछले दस माह में दुनियावी मुसीबतों से यह डॉलर की आवक के स्रोत सूख गए, जबकि आयात की मांग बढ़ती रही। यह ढांचागत कमजोरी थी जिसके कारण विदेशी मुद्रा का पूरा प्रबंधन टूट गया है। विदेशी मुद्रा भंडार अक्टूगबर 2011 से अब तक 30 अरब डॉलर गिर चुका है। बढोत्तिरी कोई नहीं है। रिजर्व बैंक के पास रुपये की गिरावट रोकने का रास्ता नहीं है। वह दरअसल रोकना भी नहीं चाहता क्योंद कि रुपये का अवमूल्यन यानी डॉलर की महंगाई ही देश में आयात की बाढ़ रोक सकती है। अपनी मुद्रा तोड़ कर आयात रोकना कोई अचछा तरीका नहीं है। देश में कोयले कच्चे तेल आदि का उत्पादन ठप है जिसे बढ़ाकर आयात कम किया जा सकता है क्यों कि आयात की सबसे बड़ी मदें तो यही हैं। लेकिन सरकार की नीति निष्क्रियता के चलते देश रुक गया है इसलिए रुपये का खून बहाकर आयात घटाने की कोशिश चल रही है।
  अचानक संकट आना और उसमें फंस जाना! ओल्ड आइडिया! संकट गढ़ना और उसमें डूबना, नया आइडिया है, रोमांचक और यूपीए-2 मार्का। तभी तो न कर्ज की मार, न बैंकों की तबाही, न कुदरत का कहर और न सरकार की अस्थिरता..सब कुछ ठीक था, मगर रफ्ता रफ्ता हम भी डूबने लगे हैं। बीते मंगलवार को सरकार के तीन साल की रिपोर्ट पढ़ते प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह में बहुतों को वह रोमन सम्राट दीख रहा था जिसे बांसुरी बजाने का शौक था। प्रधानमंत्री उपलब्धियां गिना रहे थे और देश की साख, ग्रोथ, लोगों का भरोसा और रुपया एक साथ डूब रहे था। रुपये के मुजरिम ग्रीस और स्पेन है ही नहीं। यह तो हमारा आजमाया हुआ आत्मघात है। विदेशी मुद्रा प्रबंधन का दरवाजा संकट का स्‍वागत करने को फिर तैयार है। 1991 की मुसीबत इसे रास्‍ते से आई थी।
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1 comment:

Anonymous said...

what else do you expect from a govt not just sunk deep in corruption but survivning on corruption so much so that the this govt is not interested in bringing black money of most corrupt indians stashed in tax heavens that too when Germany has procured information of swiss accounts by hiring informer and are ready to give us information so procured and our govt is not interested in receiving the same.