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Monday, March 5, 2018

अंधेरे में मत रहिए

आपका बैंक क्या आपको यह बताता है कि उसने आपकी बचत या जमा किस उठाईगीर कारोबारी को भेंट कर दी?

लेकिन कोई कंपनी या वही बैंक अपने शेयर धारकों या निवेशकों को हर छोटी-छोटी जानकारी क्यों देता हैस्टॉक एक्सचेंज से वह कोई सूचना क्यों नहीं छिपाता?

भारत में कारोबार के लिए धन जुटाने के तीन रास्ते हैं:
एक- उद्यमी की अपनी पूंजी,
दो- बैंक कर्ज
और तीन- जनता को हिस्सेदारी देना यानी शेयर बेचना.
देश में कंपनियां तो हजारों हैं. उनमें से कुछ ही स्टॉक मार्केट में सूचीबद्ध हैं तो बाकी बड़ी-बड़ी निजी कंपनियों को कारोबार के लिए धन कहां से मिलता है?
जाहिर है बैंक से! कर्ज के तौर पर!
तो बैंक जमाकर्ता कंपनी के कारोबार में अगर सीधे नहीं तो परोक्ष हिस्सेदार तो हुए न?
जब देश में हर काम बैंक के कर्ज से होना है और कर्ज के तौर पर दरअसल लाखों लोगों की बचत बांटी (या लुटाई) जा रही है तो बैंक जमाकर्ताओं को उतनी तवज्जो या सूचनाएं क्यों नहीं मिलनी चाहिए जो कंपनी के शेयर धारकों को मिलती हैं?

कोई फर्क नहीं पड़ता कि कंपनी का मालिक एक है या कईफर्क इससे पडऩा चाहिए कि उसके कारोबार की पूंजी कहां से आ रही है?

इन सवालों पर अब भारत में बैंकिंग की साख निर्भर हैक्यों?

आइएदो ताजे बैंक घोटालों या कर्ज डिफॉल्ट को करीब से देखते हैं.

देश को पीएनबी घोटाले का पता कैसे चला

बैंक को दिसंबर में ही अनुमान हो गया था कि नीरव मोदी और मेहुल चौकसी कर्ज नहीं चुकाने वाले हैं. जनवरी में दोनों देश से निकल लिए. एफआइआर जनवरी के अंत में हुई लेकिन भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की नींद 14 फरवरी के बाद टूटी जब बैंक ने स्टॉक एक्सचेंज को बताया कि उसे एक घोटाले में 11,000 करोड़ रु. का चूना लग गया है. शेयर गिरेकोहराम मचा और फिर शुरू हुआ स्यापा.

फिर भी ले-देकर पंद्रह दिन के भीतर पूरा घोटाला सामने आ ही गया. 

अब दूसरा घोटाला देखिए.

रोटोमैक को दिए गए कर्ज का डिफॉल्ट (या धोखाधड़ी) 2015 में हो गई थी. सात महीने पहले डेट रिकवरी ट्रिब्यूनल का आदेश भी आ गया लेकिन सीबीआइ को कार्रवाई करने के लिए दो साल तक मोदी के घोटाले का इंतजार करना पड़ा. सिंभावली शुगर्स लि. में बैंक कर्ज की लूट शुरू हुई 2013 में और एफआइआर हुई 2018 में. 

हम पारदर्शिता के दो ध्रुवों के बीच खड़े हैं.  

पीएनबी का घोटाला पंद्रह दिन के भीतर इसलिए खुल गया क्योंकि सेबी के नियमों के तहत कोई सूचीबद्ध कंपनी (जैसे कि पंजाब नेशनल बैंक) जरूरी जानकारी जनता यानी (शेयर बाजार) से छिपा नहीं सकती. 

लेकिन रोटोमैक का घोटाला इसलिए दो साल तक छिपा रहा कि वह एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी है. उसे अपनी सूचना छिपाने और बैंकों को उसकी कारगुजारी गोपनीय रखने की छूट है.

भारत में कारोबारी पारदर्शिता का हाल अजीबोगरीब है. स्टॉक मार्केट में सूचीबद्ध कंपनी विस्तृत पारदर्शिता नियमों से बंधी होती है लेकिन एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी (कितनी भी बड़ी हो) कंपनी रजिस्ट्रार के पास एक सालाना रिटर्न भर कर नक्की हो जाती है. हमें यह पता नहीं चलतावह क्या और कैसे कर रही है?

बैंक कर्ज पर आधारित कारोबारों की तादाद बढऩे से यह अपारदर्शिता महंगी पडऩे लगी है. देश में दस-दस हजार करोड़ रु. के कारोबार वाली निजी कंपनियां हैं जो बैंकों से भारी कर्ज (रोटोमैक या मोदी की फायरस्टार) लेती हैं लेकिन लोगों को कर्ज डूबने के बाद ही पता चलता है कि उनके भीतर क्या हो रहा था.

इलाज क्या है

- बैंक कर्ज पर चलने वाले कारोबारों के लिए पारदर्शिता के नए नियम तय किए जाएं. जमाकर्ताओं को पता रहे कि उनका बैंक किसे और कहां कर्ज दे रहा है.
- कंपनियों के लिए पारदर्शिता नियम इस तथ्य पर आधारित होने चाहिए कि उनके निवेश का स्रोत क्या है
75 करोड़ रु. से ऊपर की कंपनियों को शेयर बाजार में सूचीबद्ध कराया जाए ताकि उनका कामकाज सबकी निगाह में रहे.


बैंकिंग और वाणिज्यिक कर्ज में पारदर्शिता लाने के लिए घोटालों के तमाचे चाहिए तो यकीन मानिए हमारे गाल लाल हो चुके हैं. घोटालों (हर्षद मेहता और केतन पारेख) से सबक लेकर 2001 के बादसेबी ने जनता से पूंजी जुटानेबेचने और शेयर ट्रेडिंग के नियमों को बला का सख्त और पारदर्शी कर दिया. कर्ज लेने वाली कंपनियों और बैंकों के साथ इसी तरह का कुछ करना होगा. बैंक में पैसा रखने वालों की तादाद शेयर बाजार में निवेश करने वालों से बहुत बड़ी है. कर्ज की लूट के चलते अगर उनका भरोसा डिगा तो अर्थव्यवस्था की चूलें हिल जाएंगी.

Sunday, November 19, 2017

यह है असली कामयाबी


रेंद्र मोदी सरकार के पिछले तीन साल की सबसे बड़ी सफलता क्या है
अगर आपको नहीं मालूम तो इस बात पर मत चौंकिए कि प्रचार-वीर सरकार ने अब तक बताया क्यों नहीं ? 
आश्‍चर्य  तो यह है कि इस कामयाबी को मजबूत बनाने के लिए अब तक कुछ भी नहीं किया गया.
तमाम मुसीबतों के बावजूद छोटे-छोटे शहरों के मध्य वर्ग की छोटी बचतों ने बेहद संजीदगी से भारतीय शेयर बाजार की सूरत बदल दी है. म्युचुअल फंड पर सवार होकर शेयर बाजार में पहुंच रही बचतएक अलहदा किस्म का वित्तीय समावेशन (फाइनेंशियल इनक्लूजन) गढ़ रही है और भारत की निवेश आदतों को साफ-सुथरा बनाने का रास्ता दिखा रही है.

भारतीय शेयर बाजार में कुछ ऐसा हो रहा है जो अब तक कभी नहीं हुआ. बाजारों के विदेशी निवेशकों की उंगलियों पर नाचने की कहानी पुरानी हो रही है. ताजा आंकड़े बताते हैं कि 2014 के बाद से घरेलू निवेशकों ने 28 अरब डॉलर मूल्य के शेयर खरीदे हैं. यह विदेशी निवेश के (30 अरब डॉलर) के तकरीबन बराबर ही है. इसने पिछले तीन साल में शेयर बाजार को बड़ा सहारा दिया है और विदेशी निवेश पर निर्भरता को कम किया है.

छोटे निवेशक अपनी मासिक बचत को कमोबेश सुरक्षित तरीके से (सिस्टेमिक इन्वेस्टमेंट प्लान यानी सिप) म्युचुअल फंड में लगा रहे हैं. म्युचुअल फंड उद्योग के मुताबिकपिछले तीन साल में उसे मिले निवेश ने सालाना 22-28 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की है. म्युचुअल फंड एसेट्समई 2014 में 10 लाख करोड़ रु. के मुकाबले 2017 की जुलाई में 19.97 लाख करोड़ रु. पर पहुंच गए. ज्यादातर निवेश छोटे-छोटे शहर और कस्बों से आ रहे हैंजहां फंड में निवेश में 40 फीसदी का इजाफा हुआ है.

मकान-जमीन और सोने की चमक बुझ रही है तो घरेलू निवेशकों की मदद की बदौलत शेयर बाजार (निफ्टी) ने पिछले तीन वर्ष के दौरान 11.97 फीसदी (किसी भी दूसरी बचत या निवेश से कहीं ज्यादा) का सालाना रिटर्न दिया है.

जोखिम का मोड़

इक्विटी कल्चर की कहानी रोमांचक हैलेकिन जोखिम से महफूज नहीं. शेयरों की कीमतें जितनी तेजी से बढ़ रहीं हैंबाजार की गहराई उसके मुताबिक कम है. बाजार में धन पहुंच रहा है तो इसलिए देश की आर्थिक हकीकत (ग्रोथ में गिरावटतेल की बढ़ती कीमतपटरी से उतरा जीएसटी आदि) की परवाह किए बगैर बाजार बुलंदियों के रिकॉर्ड गढ़ रहा है.

यही मौका है जब छोटी बचतों के रोमांच को जोखिम से बचाव चाहिए.

- कंपनियों के पब्लिक इश्यू बढऩे चाहिए. प्राइमरी शेयर बाजार विश्लेषक प्राइम डाटाबेस के मुताबिकपिछले तीन वर्ष में नए इश्यू की संख्या और आइपीओ के जरिए जुटाई गई पूंजी2009 और 2011 के मुकाबले कम है जो प्राइमरी मार्केट के लिए हाल के सबसे अच्छे साल थे. सरकारी कंपनियों के विनिवेश में तेजी की जरूरत है.

- शेयर बाजार की गहराई बढ़ाने के लिए नए शेयर इश्यू का आते रहना जरूरी है. औद्योगिक निवेश के संसाधन जुटाने में इक्विटी सबसे अच्छा रास्ता है.

- सेबी के नियमों के मुताबिकशेयर बाजार में सूचीबद्ध कंपनी के कम से कम 25 फीसदी शेयर जनता के पास होने चाहिए. अब भी 1,886 सूचीबद्ध कंपनियां इस नियम का पालन नहीं कर रही हैं. कैपिटलाइन के आंकड़ों के मुताबिकइनमें 1,795 कंपनियां निजी हैं.

- लोगों की लघु बचत दो दशक के सबसे निचले स्तर पर है. 2010 में परिवारों की बचत (हाउसहोल्ड  सेविंग्स)जीडीपी के अनुपात में 25.2 फीसदी ऊंचाई पर थी जो 2017 में 18.6 फीसदी पर आ गई. सरकारी बचत योजनाएं (एनएससीपीपीएफ) ब्याज दरों में कमी के कारण आकर्षण गंवा रही हैं.
बचत में गिरावट को रोकने के लिए वित्तीय बाजार में निवेश को प्रोत्साहन देने होंगे. आयकर नियम बदलने होंगे ताकि शेयरोंम्युचुअल फंडों और डिबेंचरों में निवेश को बढ़ावा मिले.

भारत में निवेश व संपत्ति का सृजन पूरी तरह सोना व जमीन पर केंद्रित है. क्रेडिट सुइस ग्लोबल वेल्थ रिपोर्ट 2017 के मुताबिकभारत में 86 फीसदी निजी संपत्ति सोने या जमीन के रूप में हैवित्तीय निवेशों का हिस्सा केवल 14 फीसदी हैजबकि ब्रिटेन में 51 फीसदीजापान में 53 फीसदी और अमेरिकी में 72 फीसदी संपत्ति वित्तीय निवेशों के रूप में है.



नोटबंदी से तो कुछ नहीं मिला. यदि छोटे निवेशकों के उत्साह को नीतियों का विटामिन मिल जाए तो संपत्ति जुटाने के ढंग को साफ-सुथरा बनाया जा सकता है. बताने की जरूरत नहीं है कि वित्तीय निवेश पारदर्शी होते हैं और सोना व जमीन काली कमाई के पसंदीदा ठिकाने हैं.

Tuesday, September 15, 2015

साहस का संकट



चीन से शुरु हुआ ताजा संकट अपने पूर्वजों की तुलना में अलग है और गहरा असर छोडऩे वाला है.

भारत की दहलीज पर ग्लोबल संकट की एक और दस्तक को समझने के दो तरीके हो सकते हैं: एक कि हम रेत में सिर घुसा कर यह कामना करें कि यह दुनियावी मुसीबत है और हम किसी तरह बच ही जाएंगे. दूसरा यह कि इस संकट में अवसरों की तलाश शुरू करें. मोदी सरकार ने दूसरा रास्ता चुना है लेकिन जरा ठहरिए, इससे पहले कि आप सरकार की सकारात्मकता पर रीझ जाएं, हमें इस सरकार को मिले अवसरों के इस्तेमाल का रिकॉर्ड और जोखिम लेने की कुव्वत परख लेनी चाहिए, क्योंकि यह संकट अपने पूर्वजों की तुलना में अलग है और गहरा असर छोडऩे वाला है.
सिर्फ शेयर बाजार ही तो थे जो भारत में उम्मीदों की अगुआई कर रहे थे. चीन में मुसीबत के बाद, उभरती अर्थव्यवस्थाओं से निवेशकों की वापसी के साथ भारत को लेकर फील गुड का यह  शिखर भी दरक गया है, जो सस्ती विदेशी पूंजी पर खड़ा था. पिछले दो साल में भारतीय अर्थव्यवस्था में बुनियादी तौर पर बहुत कुछ नहीं बदला. चुनाव की तैयारियों के साथ उम्मीदों की सीढिय़ों पर चढ़कर शेयर बाजारों ने ऊंचाई के शिखर बना दिए. भारत के आर्थिक संकेतक नरम-गरम ही हैं, मंदी है, ब्याज दरें ऊंची हैं, जरूरी चीजों की महंगाई मौजूद है, मांग नदारद है, मुनाफा और आय नहीं बढ़ रही जबकि मौसम की बेरुखी बढ़ गई है. लेकिन विदेशी मुद्रा भंडार बेहतर है, कच्चा तेल सस्ता है और राजनैतिक स्थिरता है. दुनिया में संकट की हवाएं पहले से थीं. अपने विशाल प्रॉपर्टी निवेश, मंदी व अजीबोगरीब बैंकिंग के साथ, चीन 2013 से ही इस संकट की तरफ खिसक रहा था.
भारत के आर्थिक उदारीकरण के बाद यह तीसरा संकट है. 1997 में पूर्वी एशिया के करेंसी संकट से भारत पर दूरगामी असर नहीं पड़ा. 2008 में अमेरिका व यूरोप में बैंकिंग व कर्ज संकट से भी भारत कमोबेश महफूज रहा. अब चीन की मुसीबत सिर पर टंगी है. भारत इस पर मुतमइन हो सकता है कि ग्लोबल उथल-पुथल से हम पर आफत नहीं फट पड़ेगी लेकिन यही संकट भारत की ग्रोथ की रफ्तार का भविष्य निर्णायक रूप से तय कर देगा.
पिछले दो संकटों ने भारत को फायदे-नुक्सानों का मिला जुला असर सौंपा. 1997 में जब पूर्वी एशिया के प्रमुख देशों की मुद्राएं पिघलीं तो भारत की पर शुरुआती असर हुआ लेकिन उसके बाद अगले सात वर्ष तक भारतीय अर्थव्यवस्था ने ग्रोथ के सहारे अपना चोला बदल दिया. यह उन बड़े सुधारों का नतीजा था जो नब्बे के दशक के मध्य में हुए और जिनका फायदा हमें वास्तविक अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष निवेश व ग्रोथ के तौर पर मिला. तब तक भारत के शेयर बाजारों में सक्रियता सीमित थी.
2008 के संकट के बाद अमेरिका में ब्याज दरें घटने से सस्ती पूंजी बह चली. पिछले छह साल के सुधारों के कारण उभरती अर्थव्यवस्थाओं में उम्मीदें जग गई थीं. यही वह दौर था जब ब्रिक्स अर्थव्यवस्थाएं चमकीं और भारतीय शेयर बाजार निवेशकों का तीर्थ बन गया. भारतीय अर्थव्यवस्था में स्पष्ट मंदी के बावजूद यह निवेश हाल तक जारी रहा जो चुनाव के बिगुल के साथ 2014 में शिखर पर पहुंच गया था. 
इन तथ्यों के संदर्भ में ताजा चुनौती व अवसर को समझना जरूरी है.
चुनौतीः भारत की मुसीबत चीन का ढहना है ही नहीं, न ही ग्लोबल मंदी से बहुत फर्क पड़ा है सिवा इसके कि निर्यात ढह गया है, जो पहले से ही कमजोर है. उलझन यह है कि अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ते ही (इसी महीने मुमकिन) विदेशी निवेशक भारत सहित उभरते बाजारों से निकलेंगे जहां वे 2008 के बाद आए थे, क्योंकि निवेश पर होने वाले फायदे घट जाएंगे. वास्तविक अर्थव्यवस्था में ग्रोथ नहीं है इसलिए भारतीय कंपनियों का मुनाफा लंबे समय तक निवेश को आकर्षित नहीं कर सकता. यह पिछले पांच साल में पहला मौका है जब विशेषज्ञ भारत सहित उभरते बाजारों में लंबी गिरावट का संदेश दे रहे हैं. ध्यान रहे कि विदेशी निवेशक भारत के लिए डॉलरों का प्रमुख स्रोत रहे हैं इसलिए यह विदाई महंगी पड़ेगी. यह फील गुड की आखिरी रोशनी है जो अब टूटने लगी है. 
अवसरः यदि समय, अर्थव्यवस्था के आकार और ग्लोबल अर्थव्यवस्था से जुड़ाव को अलग कर दिया जाए तो भारत 1995 की स्थिति में है जब जीडीपी में ग्रोथ की उम्मीदें कमजोर थीं और शेयर बाजारों में निवेश नहीं था. अलबत्ता विदेशी व्यापार, निवेश के उदारीकरण से लेकर निजीकरण तक भारत के सभी बड़े ढांचागत सुधार 1995 से 2000 के बीच हुए, जिनका फायदा ग्लोबल संकटों के दौरान निवेशकों के भरोसे के तौर पर मिला. मोदी सरकार नब्बे की दशक जैसे बड़े ढांचागत सुधार कर भारतीय ग्रोथ को अगले एक दशक का ईंधन दे सकती है.
वित्त मंत्री ठीक कहते हैं कि असली दारोमदार वास्तविक अर्थव्यवस्था पर ही है. अब शेयर बाजार भी कंपनियों की ताकत और वास्तविक ग्रोथ पर गति करेंगे न कि सस्ती विदेशी पूंजी पर. इस संकट के बाद भारत के पास दो विकल्प हैं: पहला, सुधार रहित 6.5-7 फीसदी की औसत विकास दर जिसे आप 21वीं सदी की हिंदू ग्रोथ रेट कह सकते हैं. विशाल खपत और कुछ ग्लोबल मांग के सहारे (सूखा आदि संकटों को छोड़कर) ग्रोथ इससे नीचे नहीं जाएगी. दूसरा, नौ-दस फीसदी की ग्रोथ और रोजगारों, सुविधाओं, आय में बढ़ोत्तरी का है जो 1997 के बाद हुई थी. 

शेयर बाजारों पर ग्लोबल संकट की दस्तक के बाद 8 सितंबर को जब प्रधानमंत्री पूरे लाव-लश्कर के साथ उद्योगों को जोखिम लेने की नसीहत दे रहे थे तब उद्यमी जरूर यह कहना चाहते होंगे कि हिम्मत दिखाने की जरूरत तो सरकार आपको है! पिछले 15 माह में तो सुधारों का कोई साहस नहीं दिखा है. अमेरिका में ब्याज दरें बढऩे के बाद संकट के झटके तेज होंगे. अगला एक साल बता देगा कि हमें 21वीं सदी की हिंदू ग्रोथ रेट मिलने वाली है या फिर तरक्की की तेज उड़ान. 

Monday, November 24, 2014

मोदी के भारतवंशी


भारतवंशियों पर मोदी के प्रभाव को समझने के लिए शेयर बाजार को देखना जरुरी है. यहां इस असर की ठोस पैमाइश हो सकती है. इन अनिवासी भारतीय पेश्‍ोवरों की अगली तरक्की, अब प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारत की सफलता से जुड़ी है.
मोदी सरकार बनाने जा रहे हैं इसमें रत्ती भर शक नहीं है. आप यह बताइए कि आर्थिक सुधारों पर स्वदेशी के एजेंडे का कितना दबाव रहेगा?” यह सवाल भारतीय मूल के उस युवा फंड मैनेजर का था जो इस साल मार्च में मुझे हांगकांग में मिला था, जब नरेंद्र मोदी का चुनाव अभियान में देश को मथ रहा था. वन एक्सचेंज स्क्वायर की गगनचुंबी इमारत के छोटे-से दफ्तर से वह, ऑस्ट्रेलिया और जापान के निवेशकों की भारी पूंजी भारतीय शेयर बाजार में लगाता है. हांगकांग की कुनमुनी ठंड के बीच इस 38 वर्षीय फंड मैनेजर की आंखों में न तो भावुक भारतीयता थी और न ही बातों में सांस्कृतिक चिंता या जड़ों की तलाश, जिसका जिक्र विदेश में बसे भारतवंशियों को लेकर होता रहा है. वह विदेश में बसे भारतवंशियों की उस नई पेशेवर पीढ़ी का था जो भारत की सियासत और बाजार को बखूबी समझता है और एक खांटी कारोबारी की तरह भारत की ग्रोथ से अपने फायदों को जोड़ता है. भारतवंशियों की यह प्रोफेशनल और कामयाब जमात प्रधानमंत्री मोदी की ब्रांड एंबेसडर इसलिए बन गई है क्योंकि उनके कारोबारी परिवेश में उनकी तरक्की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारत की सफलता से जुड़ी है. यही वजह है कि भारत को लेकर उम्मीदों की अनोखी ग्लोबल जुगलबंदी न केवल न्यूयॉर्क मैडिसन स्क्वेयर गार्डन और सिडनी के आलफोंस एरिना पर दिखती है बल्कि इसी फील गुड के चलते, शेयर बाजार बुलंदी पर है. इस बुलंदी में उन पेशेवर भारतीय फंड मैनेजरों की बड़ी भूमिका है जिनमें से एक मुझे हांगकांग में मिला था.
भारत के वित्तीय बाजारों में विदेशी निवेश की एक गहरी पड़ताल उन मुट्ठी भर भारतीयों की ताकत बताती है जो मोदी की उम्मीदों के सहारे

Monday, November 11, 2013

पटाखेबाजी के बाद

 इस बार बहुत से लोगों ने 69-70 रुपये के डॉलर पर दांव लगाकर दीपावली का शगुन किया है। 
टाखों के बारे में एक नई खोज यह है इनका प्रचलन सिर्फ त्‍योहारों की दुनिया में ही नहीं, बाजारों की दुनिया में भी होता है। वित्‍तीय बाजारों में भी जोरदार आवाज और चमक वाली आतिशबाजियां होती हैं जिनके बाद सब धुंआ धुंआ रह जाता है। दीवाली के दिये जलने से पहले शेयर बाजारों में ऐसी ही पटाखेबाजारी उतरी थी जिस पीछे न कहीं ठोस ठोस आर्थिक कारण थे तेजी बनने की तर्कसंगत उम्‍मीदें। इसलिए त्‍योहारों के बाद जैसे मन जीवन को

एक अनमनापन और उदासी घेर लेती है ठीक उसी तरह शेयरों में तेजी की गैस चुकते ही वित्‍तीय बाजार पुरानी चिंताओं से गुंथ गए हैं। रुपये की सेहत का सवाल नई ताकत के साथ वापस लौट आया है।  विदेशी निवेशकों की मेहरबानी से डॉलरों की आमद के बावजूद रुपये में गिरावट शुरु हो गई है। विदेशी मु्द्रा बाजार में तेज  उतार-चढ़ाव का इशारा करने वाले सूचकांक मई के मुकाबले ज्‍यादा सक्रिय हैं क्‍यों कि रुपये को ढहने से बचाने वाले सहारे हटाये जा रहे हैं। इधर अमेरिकी फेड रिजर्व के प्रोत्‍साहन पैकेज की वापसी