दुनिया में जितना इतिहास दो टूक फैसलों से बना है सरकारों और नेताओं
के असमंजस ने भी उतना रोमांचक इतिहास गढ़ा है. मसलन दूसरे विश्व युद्ध में दखल को
लेकर अमेरिका का असमंजस हो या आर्थिक उदारीकरण को लेकर भारत की दुविधा ...एसी
दुविधाओं के नतीजे अक्सर बड़ा उलटफेर करते हैं जैसे इस बार के बजट को ही लीजिये
जोसरकार की दुविधा का अनोखा दस्तावेज है.
यह असमंजस अब आम भारतीयोंवित्तीय जिंदगी
में बड़ा उलटफेर करने वाला है
भारत की इनकम टैक्स नीति अजीबोगरीब करवट ले रही है. सरकार
ने बचतों पर टैक्स प्रोत्साहन न बढ़ाने और अंतत: इन्हें बंद कर देने का इशारा
कर दिया है. अब कम दर पर टैक्स चुकाइये और भविष्य की सुरक्षा (पेंशन बीमा बचत)
का इंतजाम खुद करिये. इस पैंतरे बैंक और बीमा कंपनियां भी चौंक गए हैं
हकीकत तो यह है
वित्त वर्ष 2023 का बजट आने तकबचतों और विततीय सुरक्षा की दुनिया में कई बड़े घटनाक्रम गुजर चुके थे
-कोविड लॉकडाउन के बताया कि बहुत बडी आबादी के पास पंद्रह
दिन तक काम चलाने के लिए बचत नहीं थी और न थी कोई सराकरी वित्तीय सुरक्षा
-2022
में दिसंबर तक बैंकों डिपॉजिट बढ़नेदर
घटकर केवल 9.2 फीसदी रह गई थी जबकि कर्ज 15 फीसदी गति से बढ़ रहे थे. कर्ज की मांग बढ़नेके साथ बैंकों का कर्ज जमा अनुपात बुरी तरह
बिगड़ रहा था. वित्तीय
बचतों में 2020 में बैंक डिपॉजिट का हिस्सा 36.7 फीसदी था 2022 में 27.2 फीसदी
रह गया है. बैंकों के बीच बचत जुटाने
की होड़ चल रही थी. बैंकों ने बजट से पहले फिक्स्ड डिपॅाजिट पर टैक्स की छूट
बढाने की अपील की थी.
-बीमा
नियामक ने 2047 तक इंश्योरेंस फॉर ऑल का लक्ष्य रख रहा है् बीमा महंगा हो रहा है
इसलिए टैक्स प्रोत्साहन की उम्मीद
तर्कंसंगत थी
-सबसे
बड़ी चिंता यह कि 2022 में लॉकडाउन खत्म होने के बाद वित्तीय बचत टूट कर जीडीपी के
अनुपात में 10.8 फीसदी पर आ गई. जो 2020 से भी कम है जब कोविड नहीं आया था.
दुविधा का हिसाब किताब
तथ्य और हालात का तकाजा था कि यह बजट पूरी तरह बचतों
को प्रोत्साहन पर केंद्रित होता. क्यों
कि सरकार ही तो इन बचतों का इस्तेमाल करती हैऔरवित्त
वर्ष 2022-23 की पहली छमाही में आम लोगों की शुद्ध बचत ( कर्ज निकाल कर) जीडीपी की
केवल 4 फीसदी रह गई है जो बीते वित्त वर्ष में 7.3 फीसदी थी. यानी देश की कुल बचत
केंद्र सरकार के राजकोषीय घाटे (जीडीपी का 6.4%) की भरपाई के लिए भी पर्याप्त नहीं है
अबलत्ता बचतों
पर टैक्सटैक्स प्रोत्साहन में कोई
बढ़ोत्तरी नहीं हुई. बैंक जमा के ब्याज पर टैक्स छूट नहीं बढी. महंगे बीमा पर
टैक्स लगा दिया गया
नई इनकम टैक्स स्कीम में रियायत बढाई गई जहां बचत
प्रोत्साहन नहीं है होम लोन महंगे हुए हैं. मकानों की मांग को सहारा देने के लिए
ब्याज पर टैक्स रियायत भी नहीं बढ़ी
इस एंटी क्लामेक्स की वजह क्या रही
बजट के आंकडे बताते हैं रियायतों की छंटनी का प्रयोग कंपनियों
के मामले में सफल होता दिख रहा है. आम करदाताओं की तरह कंपनियों के लिए भी दो
विकल्प पेश किये गए थे. कम टैक्स-कम रियायत वाला विकल्प आजमाने वाली कंपनियों
की संख्या बढ़ रही है. 2020-21 में कंपनियों के रिटर्न की 61 फीसदी आय अब नई
टैक्स स्कीम में है जिसमें टैकस दरें कम हैं रियायतें नगण्य.
यही नुस्खा आम करदाताओं पर लागू होगा. पर्सनल इनकम
टैक्स में रियायतों पर बीते बरस सरकार ने करीब 1.84 लाख करोड का राजस्व गंवाया, जो कंपनियों को मिलने वाली रियायतों से 15000 करोड़ रुपये ज्यादा है.
सबसे बड़ा हिस्सा बचतों पर छूट (80 सी) कहा हैइस अकेली रियायत राजस्व की कुर्बानी , कंपनियों
को मिलने वाली कुल टैक्स रियायत के बराबर है.
तो आगे क्या
भारत में बचतें दो तरह के प्रोत्साहनों पर केंद्रित
हैं . पहला छोटी बचत स्कीमें हैं जहां बैंक डिपॉजिट से ज्यादा ब्याज मिलता है.
इनमें वे भी बचत करते हैं जिनकी कमाई इनकम टैक्स के दायरे से बाहर है. दूसरा हिस्सा
मध्य वर्ग है जो टैक्स रियायत के बदले बचत करता है.
बीते दो बरस में आय घटने और महंगाई के कारण के लोगों
ने बचत तोड़ कर खर्च किया है. अब प्रोत्साहन खत्म होने के बाद बचतें और मुश्किल
होती जाएंगी. खासतौर पर जीवन बीमा और स्वास्थ्य
बीमा जैसी अनिवार्य सुरक्षा निवेश घटा तो परिवारों का भविष्य संकट में होगा.
छोटी बचत स्कीमों जब ब्याज दरें घटेगी या बढ़त नहीं होती ता इनका आकर्षण
टूटेगा. बैंक डिपॉजिट पर भी इसी तरह का खतरा है. सबसे बड़ी उलझन यह है किभारत में पेंशन संस्कृति आई ही नहीं है, उसे कौन प्रोत्साहित करेगा.
शुरु से शुरु करें
सोशल सिक्योरिटी औरयानी बचत, बीमा, पेंशन और कमाई पर टैक्स
हमजोली हैं. 17 वीं सदी 20 वीं सदी तक यूरोप और अमेंरिका में सामाजिक सुरक्षा स्कीमों
की क्रांति हुई. ब्रिटेन पुअर लॉज के तहतगरीबों
को वित्तीय सुरक्षा देने के लिए अमीरों को टैक्स लगाया गया. 19 वीं सदी के अंत
में जर्मनी के पहले चांसलर ओटो फॉन बिस्मार्क ने पेंशन और रिटायरमेंट लाकर
क्रांति ही कर दी. 1909 में ब्रिटेन में ओल्ड एज पेंशन आई. इसके खर्च के लिए
अमीरों पर टैक्स लगा. इस व्यवस्था को लागू करने के लिए एच एच एक्विथ की सरकार
को दो बार आम चुनाव में जाना पड़ा . हाउस आफ लॉर्डस जो अमीरों पर टैक्स के खिलाफ
उसकी संसदीय ताकत सीमित करनेके बाद यह
पेंशन और टैक्स लागू हो पाए.
दूसरे विश्व युद्ध के बाद सरकारें या तो अपने खर्च
पर सामाजिक सुरक्षा देती हैं जिसके लिए वे टैक्स लगाती हैं या फिर भारत जैसे देश
हैं जहां टैक्स में रियायत और बचत पर
ऊंचे ब्याज जरिये लोगों बीमा बचत के लिए प्रोत्साहित किया जाता है
भारत में अभी यूनीवर्सल पेंशन या हेल्थकेयर जैसा कुछ
नहीं है. आय में बढ़त रुकी है, जिंदगी महंगी होती जा
रही है और बचत के लिए प्रोत्साहन भी खत्म हो रहे हैं.
अर्थव्यवस्थाओं
को हमेशा के लिए कौन बदल सकता है ..
मंदी
महामारी
युद्ध
राजनीति
शायद नहीं
यह तो वक्त चादर की सलवटें हैं ...
अर्थव्यवस्थायें
तो बदलते हैं लोग
बहुत से
लोग
जनसंख्या
की ताकत
दुनिया तो
दरअसल संतानों का अर्थशास्त्र है
यह अर्थशास्त्र
जब करवट लेता है तो महाप्रतापी समय भी नतमस्तक हो जाता है क्यों कि यह बदलाव सदियों
आते हैं और सदियों तक असर करते हैं.
अब दुनिया
ठीक एसे ही एक महासंक्रमण की दहलीज पर है.
इसे समझने
के लिए हमें कुछ पीछे जाना होगा
तो आइये बैठिये
एक टाइम मशीन मेंऔर शुरु कीजिये तीन सौ
साल का सफर. चलते हैं 18 वीं सदी से 21 वीं सदी की तरफ यानी अतीत से वर्तमान की ओर
इसयात्रा में सबसे पहले आपको दिखेगा यूरोप का बदलता
नक्शा. तीस साल लंबे युद्ध के बादयानी थर्टी इयर्स ऑफ वार के यूरोप के देशों के बीच वेस्टफीलिया की संधि. 300 साल
के सफर में आपको चीन में दो साम्राज्यों मिंग और क्विंग का पतन नजर आएगा. नेपोलियन
के युद्ध मिलेंगे, फ्रांस की क्रांति मिलेगी,
यूरोप की औद्योगिक क्रांति मिलेगी. भारत मे मुगलों का पराभव मिलेगा.
भारत और अमेरिका से कारोबार के लिए ब्रिटेन, पुर्तगाली,
स्पेन, डच के बीच होड़ मिलेगी. फिर दिखेगी
अमेरिका और भारत की गुलामी और आजादी का संघर्ष.इस सफर में मिलेगा लाखों की जाने लेने वाला स्पेनिश फ्लू , महामंदी मिलेगी, दो महायुद्ध मिलेंगे.
अलबत्ता सम्राटों युद्धों और तबाही के इतिहास
से अपनी नजरें हटायें तो आपको पता चलेगा कि यह दौर लोगों के लिए यानी आबादी के लिए
सबसे बुरा था. गुलामी बर्बरता खून खच्चर गरीबी बदहाली . अधिकांश लोगों के पास
इसके अलावा और कुछ नहीं था. यह दौर था जब दुनिया में औसत आयु केवल 27 साल थी. प्रजनन
दन (फर्टिलिटी रेट) काफी ऊंची थीएक महिला करीब छह बच्चों को जन्म देती थी लेकिन
इनमें अधिकांश जीवित नहीं रहते थे. आबादी की वृद्धि दर बमुश्किल आधा फीसदी थी.
17 वीं 18 वीं सदियां और 19 वीं सदी का बड़ा हिस्सा ऊंची जन्म दर, बड़ी संख्या में युवा आबादी, बदतर जीवन स्तर और ऊंची मृत्यु दर के साथ गुजरा था
फिर आप को मिलेगी 19 वीं सदी की शुरुआत जहां
जिंदगी थोड़ी सी बदलने लगी. यूरोप में मृत्यु दर घटने लगी थी, जन्म दर भी कम हुई, फिर
यह पूरी दुनिया में हुआ और एक जनसंख्या
संक्रमण आकार लेने लगा.बीसवीं सदी की
शुरुआत तक दुनिया की आबादी एक अरब के पास पहुंचने लगी थी. आबादी बढ़ने की रफ्तार
रफ्ता रफ्ता तेज हो रही थी.
बीसवीं सदी की शुरुआत के साथ सब कुछ बदल गया जीवन प्रत्याशा
दर बढ़ी. जन्म दर घटी और 21 वीं सदी की शुरुआत तक दुनिया की आबादी 1800 की तुलना
में छह गुना बढ़ गई. बच्चों की तुलना में बुजुर्गों का अनुपात तीन गुना बढ़ा.
करीब सौ साल पहले महिलायें अपने युवा जीवन का 70 फीसदी हिस्सा बच्चों जन्म देने
और पालने में गुजारती थीं वह 21 वीं सदी की शुरुआत तक घटकर 14 फीसदी रह गया.
यही वह दौर था जब संतानों अर्थशास्त्र ने अर्थव्यवस्थाओं
की सीरत और सूरत बदल दी. अमेरिका में बेबी बूमर्स (1946 से 1964 के बीच जन्मे) ने अमेरिका
को 30 साल की सबसे तेज विकास दर की नेमत बख्शी, जिसे 2000 में बिल क्लिंटन
ने नई अर्थव्यवस्था कहा था। (इन बेबी बूमर्स के हाथ
अमेरिका की 70 फीसदी एसी कमाई (खर्च योग्य आय) है
जिस पर बाजार झूम उठते हैं है). अमेरिका को एक और बड़े
जनसंख्या संक्रमण का लाभ मिला जो 2000 की पीढ़ी थी जिन्हें मिलेनियल्स
कहा गया हालांकि यह मिलेनियल्स ठीक उस वक्त अर्थव्यवस्था में आए जब 2008 की
मंदी आ धमकी थी. इधर 1980 के बाद चीन और भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं
ने अपनी जनसंख्या को खपत, उत्पादन और श्रम शक्ति
का बाजार बनाया जबकि यूरोप में बुढापा घिरने लगा
आबादी की चक्की
कहते हैं जनसंख्या की चक्की इतनी धीमी चलती है और इतना
महीन पीसती है हम अक्सर भूल ही जाते है लोगों से अर्थव्यवस्था बनती है है
अर्थव्यवस्था से लोग नहीं.यह पहिया
अपना सबसे बड़ा संक्रमण करने जा रहा है. दुनिया में जनसंख्या का संतुलन स्थायी
तौर पर बदलने जा रहा है. यह संक्रमण तीन सौसाल में सबसे बड़ा बदलाव शुरु हो चुका है पहली बार होगा. आने वाले में
दशकों में दुनिया को चाहे जो राजनीति बर्दाश्त करनी पड़े, चाहे जोसरकारें आए या जाएं , विज्ञान और तकनीक के नए शिखर
कितने भी ऊंचे हों जनसंख्या का यह परिवर्तनकामागारों की कमी , वेतन बढ़ने के दबाव, उत्पादन में कमी और जिद्दी महंगाई लेकर आएगा
चौंक गए न !
यह चारों बदलाव अर्थव्यवस्था के बारे में हमारी मौजूदा
समझ को उलट पलट कर सकते हैं लेकिन आबादी और अर्थव्यवस्था को रिश्तों को करीब
से पढ़ने वाले इस संक्रमण की शुरुआत का बिगुल बजा रहे हैं. महामारी की चीख पुकार
के बीच दुनिया के विशेषज्ञ जनसंख्या की नई करवट को समझ रहे हैं चार्ल्स गुडहार्ट
और मनोज प्रधान की ताजा किताब द ग्रेट डेमोग्राफिक रिवर्सल – एजिंग सोसाईटीज, वैनिंग इनइक्विलिटीज एंड एन इन्फेलशन
रिवाइवल इस संक्रमण पर नई रोशनी डालती है
काम होगा कामगार नहीं
भारत की तपती बेरोजगारी के बीच यह बात कुछ अटपटी सी लगेगी लेकिन
दुनिया की आबादी की नई करवट समझने वाले इस अनोखी किल्लत की तैयारी कर रहे हैं.
1950 के बाद दुनिया तीन धीमे लेकिन बड़े बदलाव हुए हैं.
प्रजनन दर यानी फर्टिलिटी रेट बीते शताब्दी की तुलना मेंआधी करीब 2.7 फीसदी रह
गई. जिंदगी लंबी हुई. 2000 तक 50 साल में दुनिया की आबादी दोगुनी हो गई और युवा
आबादी का अनुपात मजबूती से बढ़ने लगा. इस बदलाव ने दुनिया में कार्यशील आयु वाली
लोगों की संख्या में तेज बढ़ोत्तरी की. यह चार्ट इस अभूतपूर्व बदलाव की नजीर है
श्रमिकों का आपूर्ति का स्वर्ण युग आया 1990 के बाद. तब
तक बेबी बूमर्स यानी 1950 से 1964 के बीच जन्मे लोग बाजार में आ गए थे. 1991 से
2018 विकसित अर्थव्यवस्थाओ में श्रमिकों की आूपर्ति दो गुनी से ज्यादा हो गई.
काम तो मिला लेकिन वेतन बहुत नहीं बढ़े क्यों कि श्रमिक आपूर्ति ज्यादा थी. चीन
की विकास कथा इसी दौर मे बनती है. भारत और एशिया की अर्थव्यवस्थाओं ने भी इस
संक्रमण को पूरा लाभ लिया. अलबत्ता उत्पादन बढ़ा और दुनिया ने करीब 28 साल तक
महंगाई नहीं देखी. जिसका लाभ जीवन स्तर बेहतर होने के तौर पर सामने आया.
बीते करीब 60 सालों में दुनिया का हर परिवार बीती सदी के
तुलना में अमीर हुआ है. छोटे परिवार रखना कमाई की गारंटी थी और लंबे समय तक काम
करने का मौका था इसलिए आय में बढ़ोत्तरी हुई हालांकि यह पूरी दुनिया में असमान
थी. क्यों कि एक छोटी सी आबादी की आय ज्यादा तेजी से बढ़ी.
अब यह पूरा परिदृश्य बदलने वाला है.एक नई दुनिया हमारे सामने होगी.
दुनिया के ज्यादातर देशों में कार्यशील आबादी कम होती
जाएगी. अब उतने श्रमिक नहीं होंगे. जापान, कोरिया, जर्मनी,
रुस, चीन, इटली,
फ्रांस, चीनमें अब
बुढ़ापा घिर रहा है. चीन ने 1990 से 2015 के करीब 29 करोड लोग कार्यशील आबादी में
जोडे.अब 2050 तक 22 करोड़ लोग श्रम बाजार
से बाहर हो जाएंगे क्यों कि उनकी उम्र काम के लायक नहीं रहेगी.
इसका असर धीमी आर्थिक विकास दर के तौर पर सामने आएगा.
विशेषज्ञ मान रहे हैं कि उत्पादन घटेगा क्यों कि श्रमिकों की कमी भी होगी, खपत भी गिरेगी. बहुत तेज विकास दर के दिन
अब गए. अगले करीब तीन दशकों में भारत चीन जैसे एशियाई अर्थव्यवस्थायें औसत 6 से
8 फीसदी के बीच विकास दर हासिल कर पाएंगी. यूरोप की अर्थव्यवस्थाओं कीविकास दर
तो तीन फीसदी से भी नीचे रहेगी. यह संक्रमणग्लोबलाइजेशन की रफ्तार को भी धीमा कर सकता क्यों कि श्रमिकों आपूर्ति
सीमित होगी. प्रवासी श्रमिकों को रोजगार देना राजनीतिक रुप से मुफीद नहीं होगा.
इसलिए दुनिया को देशों के जो सामान सेवायें आयात करते थे उनमें से कई मामलेां उन्हें
अपने यहां नई क्षमतायें बनानी होंगी
महंगाई की वापसी
सन 2000 के बाद यहां युवा और बुजर्ग आबादी का अनुपात बदल रहा है. आबादी का का डिपेंडेंसी
रेशियो कमजोर हो रहा है यह इस वक्त अर्थव्यवस्था का सबसे प्रभावी फार्मूला है.
यह अनुपात बताता है कि आबादी कार्यशील लोगों पर कितने बच्चे और बुजुर्ग निर्भर
हैं.
किसी भी जनसंख्या में बच्चे और बुजुर्ग शुद्ध उपभोक्ता
हैं. वह कार्यशील लोगों पर निर्भर हैं. यह आबादी उत्पादन करती है खपत करती है और
बचत करती है. इसलिए इस अनुपात में गिरावट अर्थव्यवस्था के अचछी मानी जाती है.
1950 तक यह अनुपात संतुलित था. बाद के दशकों में इसमें बढोत्तरी हुई.1990 के इसमें बढ़त हुई है. कार्यशील आबादी घट
रही है जबकि उस पर निर्भर आबादी बढ़ रही है.
1990 के बादश्रम
बाजार में औसत श्रमिकों की कार्यशील आयु स्थिर होने लगी थी. बाद मे वर्षों में
इसमें तेज गिरावट आई. इसी के साथ सभी बडी अर्थव्यवस्थाओं में डिपेंडेसी रेशियो
बढ़ने लगा
आबादी का डिपेंडेसी रेशियो
महंगाई के लिए सबसे जरुरी कारक है. 1870 से 2016 के बीच दुनिया के 22 प्रमुख देशों
में महंगाई और जनसंख्या के रिश्तों पर अध्ययन बताता है कि कार्यशील आबादी कम
होने से वेतन बढ़ने का दबाव बनता है. यदि खपत करने वाली आबादी , उत्पादक आबादी से ज्यादा है तो
मतलब है कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा उतादन नहीं करेगा बल्कि केवल उपभोग करेगा. इस
उत्पादन के लि कम लोगों को ज्यादा वेतन देने होंगे जिसका असर उत्पादन लागत पर
दिखता है. और इससे बढ़ती है महंगाई. आबादी में आयु का संतुलन बदलने के बाद खपत भी
कम होती है जो उत्पादकों के कम बिक्री पर ज्यादा कीमत वसूलने का मौका देती है.
जनसंख्या की चक्की धीमा पीसती है
इसलिए सब कुछ तुरंत नहीं बदलेगा अलबत्ता लंबी अवधि में कई बडे असर होने वाले हैं
-महंगाई बढ़ने के साथ खपत में कमी और उपभोग में भी कमी
क्योंकि बुढ़ाती आबादी की खपत कम होती है. इसका मतलब यह कि अब बल्लियों उछली
विकास दर की जरुरत नहीं होगी क्यों कि मांग कम रहेगी
-बुजर्ग आबादी अपनी पुरानी बचतों पर जियेगी नई बचतें
नहीं होगी इसलिए निवेश को कर्ज पर निर्भर
रहना होगा. महंगाई के बीच यह परिस्थिति ब्याज दरों को ऊंचा रख सकती है.
-निवेश में कमी होने की संभावना कम है क्यों कि आबादी
का संतुलन बदलने के साथ आवासों पर सबसे जयादा निवेश चाहिए. बुजुर्गों को रहने के
लिए घर चाहिए. गुडहार्ट और प्रधान अपने अध्ययन बता रहे हैं कि पूरी दुनिया में
हाउसिंग की मांग बढेगी अलबत्ता इसके लिए कर्ज भी जरुरत में भी इजाफा होगा
-कर्ज इसलिए भी महंगा रह सकता है क्यों कि सरकारों
को बुजुर्ग कल्याण पर खर्च बढ़ाना होगा. यह स्वास्थ्य पेंशन शहरी सुविधाओं पर
होगा. बीते करीब 40 सालों से सरकारों ने इस तरफ सोचा नहीं. अब बुजुर्ग आबादी सबसे
बडी राजनीतिक मजबूरी बनती जाएगी.
-सरकारों को पेंशन के पूरे ढांचे बदलने होगे.
सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाना जरुरी होगा क्यों कि जीवन प्रत्याशा बढ़ने से लोग
70 साल तक काम कर सकते हैं. यह पेंशन बजटों के संतुलित करेगा
-स्वास्थ्य सेवाओं को सड़क, बिजली, दूरसंचार की तर्ज पर विकसित करना होगा
ताकि कार्यशील आयु बढ़ाई जा सके और 65 की आयु वाले लोग 55 साल वालों के बराबर
उत्पादक हो सकें.
-मेकेंजी
का मानना है कि स्वास्थ्य में नई तकनीकें लाकर, बेहतर प्राथमिक उपचार, साफ पानी और समय पर
इलाज देकर बडी आबादी की सेहत 40 फीसदी तक बेहतर की जा सकती है. स्वास्थ्य पर
प्रति 100 डॉलर अतिरिक्त खर्च हों जीवन में प्रति वर्ष, एक स्वस्थ वर्ष बढाया जा सकता है. स्वास्थ्य सुविधायें संभाल कर, 2040 तक दुनिया के जीडीपी में 12 ट्रििलयन डॉलर जोडे जा सकते हैं जो ग्लोबल
जीडीपी का 8 फीसदी होगा यानी कि करीब 0.4 फीसदी की सालाना बढ़ोत्तरी
-विशेषज्ञ
मान रहे हैं कि वेतन बढ़ने की संभावनाओं के बीच यहबदलाव अगले कुछ दशकों में आय असमानता कम कर
सकता है लेकिन यहां तस्वीर बहुत धुंधली है, वक्त ही बतायेगा कि क्या हुआ.
अर्थशास्त्र का सबसे लोहा लाट
नियम किसी बैंक बजट या मुद्रा पर आधारित नहीं है. यह तो लोगों पर आधारित है
आर्थिक विकास = लोगों की संख्या में कमी बेशी+लोगों की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी
कोई भी अर्थव्यवस्था अर्थव्यवस्था लोगों की संख्या और उनकी उत्पादकता बढाकर
ही आगे बढती है. यह फार्मूला मांग बचत और टैक्स का फार्मूला है
क्या
आपको 1980 की प्रसिद्ध विज्ञान फंतासी फिल्म बैक टु द फ्युचर याद है. रॉबर्ट जेमिक्स
के निर्देशन वाली यह फिल्मकैलीफोर्निया
के कस्बाई किशोर मार्टी मैकफ्लाई की कहानी है, जिसकावैज्ञाानिक दोस्त डॉक्टर
ब्राउन गलती से एक डेलॉरयेन कार को टाइम मशीन में बदल देता है. इसमें बैठकर मार्टी
50 साल पहले के युग में चला जाता है जहां उसे अपने युवा मां बाप मिलते हैं
यदि
आपको यह फिल्म याद है तो याद होगा मिस्टर फ्यूजन भी. एक छोटा सा न्यूक्लियर
एनर्जी रिएक्टर, पुराने जमाने के लालटेन
और आज के इमर्जेंसी लाइट जैसा एक उपकरण जिसकी मदद से मार्टी की डे लॉरेयन कार को 1.21
गीगावाट की ऊर्जा की ताकत मिलती है और यह कार समय और स्थान से परे
पचास साल पीछे चली जाती है. डॉ ब्राउन के इसन्यूक्लियर रिएक्टर में प्लूटोनियम का नहीं बल्कि घरेलू कचरे का इस्तेमाल
होता है.
वह
अस्सी के दशक का मध्य था एक तरफ लोग इस फिल्म से न्यूक्लियर फ्यूजन तकनीक का फंतासी करिश्मा देख
रहे थे तो दूसरी तरफ 1985 में अमेरिका और रुस मिलकर न्यूक्लियरफ्यूजन के परीक्षण की तैयारी कर रहे थे. तब से
लंबा वक्त बीत गया. वैज्ञानिकों ने प्रयोग पर प्रयोग कर डाले लेकिन न्यूक्लियरफ्यूजन की कामयाबी मिलने में 20 वीं और 21 वीं
सदी के करीब तीन दशक बीत गए.
2022
का साल बीतते बीतते विज्ञान के एक बड़े सपने के सच होने की उम्मीद को जगा गया.
कैलफोर्निया फेडरल लॉरेंस लिवरमोर लैबरोटरी ने हाइड्रोजन प्लाजा और लेजर की मदद
से फ्यूजन तकनीक से ऊजा प्राप्त करने का सफल परीक्षण कर लिया. विज्ञान की दुनिया
इस सफलता से झूम उठी. न्यूक्लियर ऊर्जामौजूदा तकनीक फिजन पर आधारित है जिसे रेडियोधीर्मी तत्वों का इस्तेमाल
होता है न्यूक्लियर फ्यूजन की दीवानगी इसलिए है क्यों कि इसके जरिये हाइड्रोजन
हीलियम जैसे तत्वों के साथ फिजन की तुलना में कई गुना ज्यादा ऊर्जा प्राप्त की
जा सकती है. इससे न तो रेडियोएक्टिवटी का डर है और न कार्बन उत्सर्जन का. पर्यावरण
के सुरक्षित ऊर्जा को लेकर बदहवास दुनिया के यह खोज किसी वैक्सीन से कम नहीं
है.
आप
कहेंगे कि इकोनॉमिकम में हम न्यूक्लियर तकनीक का यह आल्हा पंवारा क्यों ले आए
लेकिन दरअसल यह युगबदल खोज ऊर्जा बाजार में एक नई करवट की अगवानी का गीत जैसा है.
रुस
के राष्ट्रपति की युद्ध लिप्सा से ऊर्जा बाजार में जो बडे बदलाव कर रही है उसका
एक और नया पन्ना जापान में खुल रहा है
लौटने
लगी हिम्मत
वाकया
इस साल सितंबर का है. सुर्खियों में रुस और यूक्रेन का युद्ध था इस बीच जापान के
प्रधानमंत्री फुइमो कशिदा ने चौंका दिया. उन्होंने ऐलान किया कि जापान नाभिकीय या
परमाणु ऊर्जा में फिर से निवेश करेगा. परमाणु संयत्र शुरु किये जाएंगे नए परमाणु
रिएक्टर भी लगाये जाएंगे. यह घोषणा होने तक दुनिया में तेल की कीमतें खौल रही
थीं. कोयले के भाव तपने लगे थे. ऊर्जा की आपूर्ति के लिए रुस पर निर्भर जापान की
इस करवट से ऊर्जा की दुनिया में उलट फेर शुरु हो गया.
बात
सिर्फ यही नहीं थी कि जापान की सरकार नाभिकीय ऊर्जा की तरफ लौट रही थी बल्कि
एनएचके सर्वेक्षण के अनुसार जापान के करीब 48 फीसदी लोग नाभिकीय ऊर्जा के पक्ष
में थे. यह घोषणा होते ही यूरेनियम बाजार के तेजड़िये अपने अपने टर्मिनल के आगे
आ जमे.
नाभिकीय
ईंधन के बाद बाजार में मंदी का मौसम हवा हो गया. सितंबर में यूरेनियम की कीमत ने
ऊंची उडान भरी. जनवरी 2021 में इसकी कीमत 30 डॉलर प्रति पौंड थी जो इस साल 64 डॉलर तक दौड़ गई. तब से यूरेनियम 50
डॉलर के आसपास है. क्यों कि जापान ही नहीं बल्कि यूरोप के मुल्क भी न्यूक्लियर
ऊर्जा की तरफ लौटने वाले हैं
हम
भी इन तैयारियों की चर्चा पर लौटेंगे लेकिन पहले कुछ पीछे चलते हैं और समझते हैं
कि नाभिकी ऊर्जा की करवट में जापान की हृदय परिवर्तन इतना महत्वपूर्ण क्यों है
सेंडाई
का साया
सेंडाई
2011 - यह दूसरी सुनामी थी जो
सेंडाई में जमीन डोलने और पगलाये समुद्र की प्रलय लीला के ठीक सात दिन बाद उठी थी.
फुकुशिमा के नाभिकीय बिजली संयत्र में आग लग गई. जलते संयंत्र पर हेलीकॉप्टर से
पानी गिराने के दृश्य दुनिया को दहलाने लगे. फटी हुई धरती ( भूगर्भीय दरारें), ज्वालामुखियों की कॉलोनी और भूकंपों की प्रयोगशाला
वाले जापान में तब तक 55 न्यूक्लियर रिएक्टरथे यानी जोखिम के बावजूद
तेल व गैस पर निर्भरता सीमित रखने और ऊर्जा की लागत घटाने के लिए जापान ने नाभिकीय
ऊर्जा पर दांव लगाया था
फुकुशिमा के धमाके साथ न्यूक्लियर ऊर्जा से दुनिया का विश्वास
भी हिल गया. लगभग पूरे विश्व में परमाणु ऊर्जा की योजनायें फाइलों में बंद हो
गईं. पुराने संयंत्रों में उत्पादन सीमित कर दिया गया. 1986 में रुस के चेर्नोबेल
हादसे के बाद
यूरेनियम का बाजार करीब दस साल लंबी मंदी में चला गया. पूरी दुनिया
में ऊर्जा की ले दे मची थी लेकिन फुकुशिमा के खौफ से सहमी दुनिया ने नाभिकीय
ऊर्जा से तौबा कर ली. सनद रहे कि इस हादसे से पहले भारत ने अमेरिका के साथ न्यूक्लियर
समझौते के साथ बड़ी कूटनीतिक जीत हासिल की थी. मगर 2011 के बाद इस बाजार में अचानक
सब कुछबदल गया था
सेंडाई के हादसे का साया इतना लंबा था कि दुनिया की ऊर्जा में न्यूक्लियर
बिजली का हिस्सा कम होने लगा. वल्ड न्यूक्लियर एनर्जी स्टेटस रिपोर्ट 2022
बताती है कि 2021 में विश्व ऊर्जा उत्पादन ने नाभिकीय ऊर्जा हिस्सा चार दशकों
पहली बार दस फीसदी से नीचे आ गया. 1996 में यह करीब 18 फीसदी की ऊंचाई पर था.
इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के आंकड़ो में गोता लगाने पर पता चलता है कि
दुनिया के करीब 449 सक्रिय रिएक्टर या बिजल घरों ने 2018 में अपनी अधिकतम क्षमता
छू ली थी जो 397 गीगावाट थी इसके बाद न क्षमता बढी और न रिएक्टर. 2010 के बाद
अगले तीन साल में 23 रिएक्टर में उत्पादन बंद हो गया. 2022 के मध्य तक बिजली
बना रहे रिएक्टर की संख्या घटकर 411 रह गई थी. 2018 के बाद चीन को छोड़ कर ज्यादातर
विश्व में रिएक्टर बंद होने की संख्या बढती गई है.
सेंडाई की दुर्घटना का असर इतना गहरा था कि दुनिया में क्रमश: न्यूक्लियर
पॉवर प्रोग्राम धीमे पड़ने लगे. न्यूक्लियर स्टेटस रिपोर्ट बताती है कि 2021
में 33 देशों नाभिकीय ऊर्जा प्रोग्राम थे जिनमें तीन बंद हो चुके हैं. 8 को सीमित
कर दिय गया. 10 पर काम रोक दिया गया. केवल 15 कार्यक्रम सक्रिय हैं. नाभिकीय ऊर्जा
से किनारा करने के कारण पुराने रिएक्टरों का आधुनिकीकरण भी नहीं हुआ और न नई
तकनीकों का इस्तेमाल किया गया.
नाभिकीय ऊर्जा से इस मोहभंग के बीच केवल चीन सक्रिय ऊर्जा
कार्यक्रपर आएगे बढता रहा. 2021 में दुनिया नाभिकीय ऊर्जा का उत्पादन 3.9 फीसदी
बढा लेकिन चीन 11.1 फीसदी. चीन से बाहर नाभिकीय ऊर्जा के उत्पादन में बढ़त केवल
2.8 फीसदी थी.
अगर युद्ध न होता ..
सितंबर 2022 से अचानक दुनिया में नाभिकीय ऊर्जा को लेकर होड़ जैसी
शुरु हो गई. कोयला, गैस और
पेट्रोल की महंगाई से बचने के लिए ही तो इस ऊर्जा का आविष्कार हुआ था अलबत्ता
हादसों और खतरों के कारण इसेस किनारा करना पड़ा. करीब 55 रिएकक्टर के सथऊर्जा की बड़ी ताकत रहे जापान ने नए रिएक्टर
लगाने का एलान किया तो यूरेनियम ऊर्जा की उभरती ताकत चीन ने अगले 15 साल में 150
नए रिएक्टर बनाने का एलान कर दिया.
नाभिकीय ऊर्जा की नई होड शुरु होने से पहले निमाणाधीान रिएक्टर में
चीन पहले नंबर पर था.
गैस की महंगाई से तप रहे यूरोप ने भी अब नाभिकीय ऊर्जा की वापसी का
खाका बनाना शुरु कर दिया है. फ्रांस अपने सभी रिएक्टर दोबारा शुरु करने वाला है.
जर्मनी जिसने 2011 के बाद नाभिकीय ऊर्जा का उत्पादन पूरी तरह बंद करने का निर्णय
लिया था वह भी प्रतिबंध हटाकर नए सिरे यह सस्ती ऊर्जा बनाने के संकेत दे रहा है.
सत्ता से बाहर से होने से पहले ब्रिटेन प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसान
ने न्यूक्लियर ऊर्जा की फाइल फिर खोल दी थी. पिछली सरकारों को इस ऊर्जा
कार्यक्रम को विकालांग बना देने का आरोप लगाते हुए प्रधानमंत्री जॉनसन से साइजवेल
810 मिलियन डॉलर सरकारी निवेश का वादा भी किया था.
अमेरिका की रुस वाली ऊर्जा
नाभिकीय ऊर्जा का ताजा होड में अमेरिका का मामला गजब का दिलचस्प
है. अमेरिका अपने ऊर्जा कार्यक्रम के तहत कार्बन उत्सर्जन रोकने के लिए नाभिकीय
ऊर्जा का उत्पादन दोगुना करने की योजना पर काम कर रहा है. रुस यूक्रेन युद्ध के
कारण इस कार्यक्रम को बड़ा झटका लगा है.
अमेरिका के रिएक्टर जिस यूरेनियम का इस्तेमाल करते हैं वह दुनिया
में केवल एक कंपनी बेचती है और वह रुस की सरकारी कंपनी रोसाटोप यानी रशियन स्टेट
अटॉमिक एनर्जी कार्पोरेशन. हैरत होगी जानकर कि इस कंपनी पर प्रतिबंध नहीं लगाये गए
हैं क्यों कि यह ग्लोबल न्यूक्लियर सप्लाई चेन का हिस्सा है
नए हलेयू (हाई एसे लो इनरिच्ड यूरेनियम) रिएक्टर अमेरिका के ऊर्जा
कार्यक्रम की नई पीढी का सबसे बड़ा किरदार हैं. बिडेन प्रशासन इन नए रिएकटरों रुस
पर निर्भरता खत्म करना चाहता है वह यूरेनियम नए सप्लायर की तलाश में हैं.
खतरों को सीमित कर लिय जाए तो न्यूक्लियर दुनिया का सबसे अनोखा
ऊर्जा संसाधन है. यह पर्यावरण के लिए सुरक्षित है और इससे बहुत बड़ी क्षमता के
बिजली घर लगाये जा सकते हैं.तो अब हम
वापस लौटते हैं मि. फ्यूजन की तरफ यानी बैक टु फ्यूचर वाली कार की तरफ. यह संयोग
ही कि पूरी दुनिया जब नाभिकीय ऊर्जा की तरफ लौटने को मजबूर हुई तो इसी बीच आणविक
ऊर्जा उद्योग की सबसे बडी तकनीकी तलाश भी पूरी हो रही है. फ्यूजन रिएक्टर बनने
में समय लगेगा अब परमाणुओं का जटिल विज्ञान नई तकनीकों के साथ वापसी को तैयार है.
मर्चेंट बैंकरों और निवेशक नाभिकीय ऊर्जा को अगले कुछ वर्षों का सबसे बड़ा निवेश
मौका मान रहे हैं