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Sunday, January 23, 2022

भविष्‍य की नापजोख

 



बात अक्‍टूबर 2021 की है कोविड का नया अवतार यानी ऑम‍िक्रॉन दुनिया के फलक पर नमूदार नहीं हुआ था, उस दौरान एक बेहद जरुरी खबर उभरी और भारत के नीति न‍िर्माताओं को थरथरा गई.

अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत के आर्थ‍िक विकास दर की अध‍िकतम रफ्तार का अनुमान घटा द‍िया था. यह छमाही या सालाना वाला आईएमएफ का आकलन नहीं था बल्‍क‍ि मुद्रा कोष ने भारत का पोटेंश‍ियल जीडीपी 6.25 फीसदी से घटाकर 6 फीसदी कर द‍िया यानी एक तरह से यह तय कर दिया था कि अगले कुछ वर्षों में भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था में 6 फीसदी से ज्‍यादा की दर से नहीं दौड़ सकती.

हर छोटी बड़ी घटना पर लपककर प्रत‍िक्रिया देने वाली सरकार में पत्‍ता तक नहीं खड़का. सरकारी और निजी प्रवक्‍ता सन्‍नाटा खींच गए, केवल वित्‍त आयोग के अध्‍यक्ष एन के सिंह, आईएमएफ के इस आकलन पर अचरज जाह‍िर करते नजर आए.

अलबत्‍ता खतरे की घंट‍ियां बज चुकी थीं. इसलिए जनवरी में जब केंद्रीय सांख्‍य‍िकी संगठन वित्‍त वर्ष 2022 के  पहले आर्थिक अनुमान में बताया कि विकास दर केवल 9.2 फीसदी रहेगी तो बात कुछ साफ होने लगी.  यह आकलन आईएमएफ और रिजर्व बैंक के अनुमान (9.5%) से नीचे था. सनद रहे कि इसमें ऑमिक्रान का असर जोड़ा नहीं गया था यानी कि 2021-22 के मंदी और 21-22 की रिकवरी को मिलाकर चौबीस महीनों में भारत की शुद्ध  विकास  दर शून्‍य या अध‍िकतम एक फीसदी रहेगी.

इस आंकड़े की भीतरी पड़ताल ने हमें बताया कि आईएमएफ के आकलन पर सरकार को सांप क्‍यों सूंघ गया. पोटेंश‍ियल यानी अध‍िकतम संभावित जीडीपी दर, किसी देश की क्षमताओं के आकलन का विवाद‍ित लेक‍िन सबसे  दो टूक पैमाना है.  सनद रहे कि जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्‍पादन  किसी एक समय अवधि‍ में किसी अर्थव्‍यवस्‍था हुए कुल उत्‍पादन का मूल्‍य  जिसमें उत्‍पाद व सेवायें दोनों शाम‍िल हैं.

पोंटेश‍ियल जीडीपी का मतलब है कि एक संतुल‍ित महंगाई दर पर कोई अर्थव्‍यवस्‍था की अपनी पूरी ताकत झोंककर अध‍िकतम कितनी तेजी से दौड़ सकती है. मसलन  यूरोप की किसी कंपनी को भारत में निवेश करना हो तो वह भारत के  मौजूदा तिमाही व सालाना जीडीपी को बल्‍क‍ि उस भारत की अध‍िकतम जीडीपी वृद्ध‍ि क्षमता (पोटेंश‍ियल जीडीपी) को देखेगी क्‍यों कि सभी आर्थि‍क फैसले भविष्‍य पर केंद्रित होते हैं

यद‍ि जीडीपी इससे ज्‍यादा तेज  दौड़ेगा तो महंगाई तय है और अगर इससे नीचे है तो अर्थव्‍यवस्‍था सुस्‍त पड़ रही है. आईएमएफ मान रहा है कि मंदी के बाद अब भारत की अर्थव्‍यवस्‍था, महंगाई या अन्‍य समस्‍याओं को आमंत्रित किये बगैर,  अध‍िकतम छह फीसदी की दर से ज्‍यादा तेज नहीं  दौड़ सकती .  

मुद्रा कोष जैसी कई एजेंस‍ियों को क्‍यों लग रहा है कि भारत की विकास दर अब लंबी सुस्‍ती की गर्त में चली गई है. दहाई के अंक की ग्रोथ तो दूर की बात है भारत के लिए अगले पांच छह साल में औसत सात फीसदी की‍विकास दर भी मुश्‍क‍िल है ? कोविड की मंदी से एसा क्‍या टूट गया है जिससे कि भारत की आर्थिक क्षमता ही कमजोर पड़ रही है.

इन  सवालों के कुछ ताजा आंकडों में मिलते हैं बजट से पहला जिनका सेवन हमारे लिए बेहद जरुरी है

-         भारत की जीडीपी की विकास दर अर्थव्‍यवस्‍था में आय बढ़ने के बजाय महंगाई बढ़ने के कारण आई है . वर्तमान मूल्‍यों पर रिकवरी तेज है जबकि स्‍थायी मूल्‍यों पर कमजोर. यही वजह है कि खपत ने बढ़ने के बावजूद  सरकार का टैक्‍स संग्रह बढ़ा है

-         बीते दो साल में भारत के निर्यात वृद्धि दर घरेलू खपत से तेज रही है. इसमें कमी आएगी क्‍यों कि दुनिया में मंदी के बाद उभरी तात्‍कालिक मांग थमने की संभावना है. ग्‍लोबल महंगाई इस मांग को और कम कर रही है.

-         सितंबर 2021 तक जीएसटी के संग्रह के आंकडे बताते हैं कि बीते दो साल की रिकवरी के दौरान टैक्‍स संग्रह में भागीदारी में छोटे उद्योग बहुत पीछे रह गए हैं जबक‍ि 2017 में यह लगभग एक समान थे. यह तस्‍वीर सबूत है कि बड़ी कंपनियां मंदी से उबर गई हैं लेकिन छोटों की हालत बुरी है. इन पर ही सबसे भयानक असर भी हुआ था और इन्‍हीं में सबसे ज्‍यादा रोजगार निहित हैं.

-         यही वजह है कि गैर कृष‍ि रोजगारों की हाल अभी बुरा है. नए रोजगारों की बात तो दूर सीएमआई के आंकड़ों के अनुसान अभी कोविड वाली बेरोजगारी की भरपाई भी नहीं हुई है.  सनद रहे कह श्रम मंत्रालय के आंकड़े के अनुसार भारत में 92 फीसदी कंपनियों में कर्मचारियों की संख्‍या  100 से कम है और जबकि 70 फीसदी कंपनियों में 40 से कम कर्मचारी हैं.

भारतीय अर्थव्‍यस्‍था की यह तीन नई ढांचागत चुनौतियां का नतीजा है तक जीडीपी में तेज रिकवरी के आंकड़े बरक्‍स भारत में निजी खपत आठ साल के न्‍यूनतम स्‍तर पर यानी जीडीपी का 57.5 फीसदी है. दुनिया की एजेंसियां भारत की विकास की क्षमताओं के आकलन इसलिए घटा रही हैं.

पहली – खपत को खाने और लागत को बढ़ाने वाली महंगाई जड़ें जमा चुकी हैं. इसे रोकना सरकार के वश में नहीं है इसलिए मांग बढ़ने की संभावना सीमत है

दूसरा- महंगाई के साथ ब्‍याज दरें बढ़ने का दौर शुरु हेा चुका है. महंगे कर्ज और टूटती मांग के बीच कंपन‍ियों से नए निवेश की उम्‍मीद बेमानी है. सरकार बीते तीन बरस में अध‍िकतम टैक्‍स रियायत दे चुकी है

तीसरा- राष्‍ट्रीय अर्थव्‍यवस्‍था में केंद्र सरकार के खर्च का हिस्‍सा केवल 15 फीसदी है. बीते दो बरस में इसी खर्च की बदौलत अर्थव्‍यवस्‍था में थोड़ी हलचल दिखी  है लेकिन इस खर्च नतीजे के तौर सरकार का कर्ज जीडीपी के 90 फीसदी के करीब पहुंच रहा. इसलिए अब अगले बजटों में बहुत कुछ ज्‍यादा खर्च की गुंजायश नहीं हैं

 

इस बजट से पूरी द‍ुनिया बस  एक सवाल का जवाब मांगेगी वह सवाल यह है कि मंदी के गड्ढे से उबरने के बाद भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था में दौड़ने की कितनी ताकत बचेगी. यानी भारत का पोटेंशि‍यल जीडीपी कि‍तना होगा. व्‍यावहारिक पैमानों पर भी  पोटेंश‍ियल जीडीपी की पैमाइश खासी कीमती है क्‍यों कि यही पैमाना  मांग, खपत, निवेश मुनाफों, रोजगार आदि के मध्‍यवाध‍ि आकलनों का आधार होता है.

यूं समझें कि भारत में न‍िवेश करने की तैयारी करने वाली किसी कंपनी से लेकर स्‍कूलों में पढ़ने वाले युवाओं का भविष्‍य अगली दो ति‍माही की विकास दर या चुनावों के नतीजों पर नहीं बल्‍क‍ि अगल तीन साल में  तेज विकास की तर्कसंगत क्षमताओं पर निर्भर होगा.

नोटबंदी और कई दूसरी ढांचागत चुनौत‍ियों के कारण  भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था में चीन दोहराये जाने यानी दोहरे अंकों के विकास दर की उम्‍मीद तो 2016 में ही चुक गई थी. अब कोविड वाली मंदी से उबरने में भारत की काफी ताकत छीज चुकी है इसलिए अगर सरकार के पास कोई ठोस तैयारी नहीं दिखी तो भारत के लिए वक्‍त मुश्‍क‍िल होने वाला है. सनद रहे यद‍ि अगले अगले एक दशक में  भारत ने कम से  8-9 फीसदी की औसत विकास दर हासिल नहीं की तो मध्‍य वर्ग आकार  दोगुना करना बेहद मुश्‍कि‍ल  हो जाएगा. यानी कि भारत की एक तिहाई आबादी का जीवन स्‍तर बेहतर करना उनकी खपत की गुणवत्‍ता सुधार कभी नहीं हो सकेगा.

चुनावी नशे में डूबी राजनीति शायद इस भव‍िष्‍य को नहीं समझ पा रही है लेकिन भारत पर दांव लगाने वाली कंपन‍ियां मंदी की जली हैं, वे सरकारी दावों का छाछ भी फूंक फूंक कर पिएंगी.

 

Wednesday, December 22, 2021

ये क्‍या हुआ, कैसे हुआ !


 कंपन‍ियां, बैकों का कर्ज चुका कर हल्‍की हो रही हैं और आम परिवार कर्ज में डूब कर जिंदगी खत्‍म कर रहे हैं. छोटे उद्यमी आत्‍महत्‍या चुन रहे हैं और बड़ी कंपन‍ियां अधिग्रहण कर रही हैं गुरु जी अखबार किनारे रखकर कबीर की उलटबांसी बुदबुदा उठे ... एक अचंभा देखा भाई, ठाढ़ा सिंघ चरावे गाई... 

इसी बीच उनके मोबाइल पर आ गि‍री वर्ल्‍ड इनइक्‍व‍िल‍िटी रिपोर्ट, जिसे मशहूर अर्थविद तोमा प‍िकेटी व तीन अर्थव‍िदों ने बनाया है. रिपोर्ट चीखी, आय असमानता में भारत दुन‍िया में सबसे आगे न‍िकल रहा है. एक फीसदी लोगों के पास 33 फीसदी संपत्‍ति‍ है सबसे नि‍चले दर्जे वाले  50 फीसदी वयस्‍क लोगों की औसत सालाना कमाई केवल 53000 रुपये है.

गुरु सोच रहे थे कि काश, भारतीय पर‍िवारों, को कंपन‍ियों जैसी कुछ नेमत मिल जाती !

यद‍ि आपको कंपन‍ियों और पर‍िवारों की तुलना असंगत लगती है तो  याद  कीजिये भारत में आम लोग कोविड के दौरान क्‍या कर रहे थे और क्‍या हो रहा था कंपनियों में? लोग अपने जेवर गिरवी रख रहे थे, रोजगार खत्‍म होने से बचत खा रहे थे या कर्ज उठा रहे थे और दूसरी तरफ कंपन‍ियों को स‍ितंबर 2020 की तिमाही में 60 त‍िमाहियों से ज्‍यादा मुनाफा हुआ था

महामारी की गर्द छंटने के बाद हमें दि‍खता है क‍ि भारत की  कारपोरेट और परिवार यानी हाउसहोल्‍ड अर्थव्‍यवस्थायें एक दूसरे की विपरीत दि‍शा में चल रही हैं. यानी असमानता की दरारों में पीपल के नए बीज.

किसने कमाया क‍िसने गंवाया

वित्‍त वर्ष 2020-21 में जब जीडीपी, कोवडि वाली मंदी के अंधे कुएं में गिर गया तब शेयर बाजार में सूचीबद्ध भारतीय कंपन‍ियों के मुनाफे र‍िकार्ड 57.6 फीसदी बढ़ कर 5.31 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गए. जो जीडीपी के अनुपात में 2.63 फीसदी है यानी (नकारात्‍मक जीडीपी के बावजूद) दस साल में सर्वाध‍िक.

यह बढत जारी है. इस साल की पहली छमाही का मुनाफा बीते बरस के कुल लाभ 80% है. कंपन‍ियों के प्रॉफ‍िट मार्ज‍िन 10.35 फीसदी की रिकार्ड ऊंचाई पर हैं.

पर‍िवारों की अर्थव्‍यवस्‍थाओं के ल‍िए बीता डेढ़ साल सबसे भयावह रहा. रिकार्ड बेरोजागारी की मार से लगभग 1.26 करोड़ नौकर‍ीपेशा काम गंवा बैठे. भारत में लेबर पार्टीस‍िपेशन दर ही 40 से नीचे चली गई यानी लाखों लोग रोजगार बाजार से बाहर हो गए. जबक‍ि 2020-21 के पहले छह माह में सभी (शेयर बाजार सहितकंपनियों के मुनाफे करीब 24 फीसद बढ़े अलबत्ता वेतन में बढ़ोतरी नगण्य थी (सीएमआईई)

सीएसओ के मुताबिक 2020-21 में प्रति व्यक्ति आय 8,637 रुपए घटी हैनिजी और  असंगठित क्षेत्र में बेरोजगारी और वेतन कटौती के कारण आयमें 16,000 करोड़ रुपए की कमी आई है. (एसबीआइ रिसर्च)

कमाई के आंकड़ों की करीबी पड़ताल बताती है क‍ि अप्रैल से अगस्‍त 2021 के बीच भी गांवों में गैर मनरेगा मजदूरी में कोई खास बढत नहीं हुई. 2020 का साल तो मजदूरी थी ही नहीं, केवल मनरेगा में काम मिला था.

इस बीच आ धमकी महंगाई. नोटबंदी के बाद से वेतन मजदूरी में बढ़ोत्‍तरी महंगाई से पिछड़ चुकी थी. कोव‍िड के दौरान लोगों ने उपचार पर न‍ियम‍ित खर्च के अलावा 66000 करोड़ रुपये किये. उपभोग खर्च में स्वास्थ्य का हिस्‍सा पांच फीसदी के औसत से बढ़कर एक साल में 11 फीसद हो गया. पेट्रोल डीजल की महंगाई के कारण सुव‍िधा बढ़ाने वाले उत्‍पाद सेवाओं पर खर्च बीते छह माह में करीब 60 फीसद घटा द‍िया (एसबीआइ रिसर्च)

किस्‍सा कोताह क‍ि बाजार में कहीं मांग नहीं थी. लेक‍िन इसके बाद भी कंपनियों ने रिकार्ड मुनाफे कमाये तो इसलिए क्‍यों क‍ि उन्‍हें 2018 में कर रियायतें मिलीं, खर्च में कमी हुई, रोजगारों की छंटनी और मंदी के कारण कमॉडिटी लागत बचत हुई इसलिए शेयर बाजारों में जश्‍न जारी है.

गुरु ठीक ही सोच रहे हैं क‍ि काश कम से कुछ आम भारतीय पर‍िवार इन कंपन‍ियों से जैसे हो जाते. 

कौन डूबा कर्ज में

बीते दो साल में जब सरकार के इशारे पर रिजर्व बैंक जमाकर्ताओं से कुर्बानी मांग रहा था यानी कर्ज सस्‍ता कर रहा था और जमा पर ब्‍याज दर घट रही थी तब मकसद यही था कि सस्‍ता कर्ज लेकर कंपन‍ियां नि‍वेश करेंगी, रोजगार मिलेगा और कमाई बढ़ेगी लेकिन हो उलटा हो गया.

कोविड कालीन मुनाफों का फायदा लेकर शीर्ष 15 उद्योगों की 1000 सूचीबद्ध कंपन‍ियों ने वित्‍त वर्ष 2021 अपने कर्ज में 1.7 लाख करोड़ की कमी की. इनमें भी रिफाइन‍िंग, स्‍टील, उर्वरक, कपड़ा, खनन की कंपनियों बड़े पैमानों पर बैंकों को कर्ज वापस चुकाये.. यहीं से सबसे ज्‍यादा रोजगारों की उम्‍मीद थी और जहां न‍िवेश हुआ ही नहीं.

कैपिटल लाइन के आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल 20 से मार्च 21 के बीच  भारत के कारपोरेट क्षेत्र का सकल कर्ज करीब 30 फीसदी घट गया. शुद्ध कर्ज में 17 फीसदी कमी आई.

तो फिर कर्ज में डूबा कौन ? वही पर‍िवार जिनके पास कमाई नहीं थी.

कोविड से पहले 2010 से 2019 में परिवारों पर कुल कर्ज उनकी खर्च योग्य आय के 30 फीसद से बढ़कर 44 फीसद हो चुका था (मोतीलाल ओसवाल रि‍सर्च)

कोव‍िड के दौरान 2020-21 में भारत में जीडीपी के अनुपात में पर‍िवारो का कर्ज 37.3 फीसदी हो गया जो इससे पहले साल 32.5 फीसदी था. जबकि जीडीपी के अनुपात में पर‍िवारों की शुद्ध वित्‍तीय बचत (कर्ज निकाल कर)  8.2 फीसदी पर है जो लॉकडाउन के दौरान तात्‍कालिक बढ़त के बाद वापस स‍िकुड़ गई.

 

कर्ज के कारण भोपाल में परि‍वार की खुदकुशी या छोटे उद्म‍ियों की बढ़ती आत्‍महत्‍या की घटनाओं को आंकड़ों में तलाशा जा सकता है. कई वर्ष में पहली बार एसा हुआ जब 2021 में वह कर्ज बढ़ा जिसके बदले कुछ भी गिरवी नहीं था. जाहिर है एसा कर्ज महंगा और जोखिम भरा होता है. बीते साल की चौथी तिमाही तक गैर आवास कर्ज में बढ़त 11.8 फीसदी थी जो मकानों के ल‍िए कर्ज से करीब चार फीसदी ज्‍यादा है. इस साल जून में गोल्‍ड लोन कंपन‍ियों ने 1900 करोड रुपये के  जेवरात की नीलामी की जो उनके पास गिरवी थे.

टैक्‍स की बैलेंस शीट

हमें हैरत होनी ही चाह‍िए कि भारत में अब कंपन‍ियां कम और लोग ज्‍यादा टैक्‍स देते हैं. इंडिया रेटिंग्‍स की रिपोर्ट बताती है क‍ि 2010 में केंद्र सरकार के प्रति सौ रुपए के राजस्व में  कंपन‍ियों से 40 रुपए  और  आम  लोगों  से  60  रुपए  आते  थे. अब 2020 में कंपनियां केवल 25 रुपए और आम परि‍वार 75  रुपए का टैक्‍स दे रहे हैं.  2018 में कॉर्पोरेट टैक्स में 1.45 लाख करोड़ रुपए की  रियायत दी गई है.

2010 से 2020 के बीच भारतीय परिवारों पर टैक्स (इनकम टैक्‍स और जीएसटी) का बोझ 60 से बढकर 75 फीसदी हासे गया. पिछले सात साल पेट्रो उत्‍पादों से टैक्स संग्रह 700 फीसद बढ़ा हैयह बोझ जीएसटी के बाद भी नहीं घटा. इस हिसाब में राज्‍यों के टैक्‍स शामि‍ल नहीं हैं जो लगातार बढ़ रहे हैं.

भारत और दुन‍िया में अब बड़ा फर्क आ चुका है. कोविड के दौरान भारतीय सबसे ज्‍यादा गरीब हुए. ताजा अध्‍ययन बताते हैं क‍ि अमेरिका, कनाडाऑस्ट्रेलिया व यूरोप में सरकारों ने सीधी मदद के जरिए परिवारों की कमाई में कमी नहीं होने दी. जबक‍ि भारत में राष्‍ट्रीय आय का 80 फीसद नुक्सान परिवार (और छोटी कंपन‍ियों) में खाते में गया.

कंपनियां कमायें और आम लोग गंवाये. कर्ज में डूबते जाएं. यह किसी भी आर्थि‍क मॉडल में चल ही नहीं सकता. परिवारों और कंपन‍ियों की अर्थव्‍यवस्‍थायें एक दूसरे के विपरीत दि‍शा चलना आर्थ‍िक बिखराव की शर्त‍िया गारंटी है. भारत के नी‍ति‍ नियामकों को यह समझने में ज‍ितनी देर लगेगी, हमारा भविष्‍य उतना ही ज्‍यादा अन‍िश्‍चित हो जाएगा

 


Thursday, December 16, 2021

आइने में आइना



ज‍िसका डर था बेदर्दी वही बात हो गईवारेन बफे के ओव‍ेर‍ियन लॉटरी वाले स‍िद्धांत को भारतीय नीति आयोग की मदद मिल गई है. यह फर्क अब कीमती है क‍ि आप भारत के किस राज्य में रहते हैं और तरक्‍की के कौन राज्‍य में शरण चाहिए. 

जन्म स्थान का सौभाग्य यानी ओवेरियन लॉटरी (वारेन बफे-जीवनी द स्नोबॉल) का स‍िद्धांत न‍िर्मम मगर व्‍यावहार‍िक है. इसक फलित यह है क‍ि अध‍िकांश लोगों की सफलता में (अपवादों को छोड़कर) बहुत कुछ इस बात पर निर्भर होता है क‍ि वह कहां पैदा हुआ है यानी अमेरिका में या अर्जेंटीना में !

अर्जेंटीना से याद आया क‍ि क‍ि वहां के लोग अब उत्‍तर प्रदेश या बिहार से सहानुभूति रख सकते हैं. मध्‍य प्रदेश झारखंड वाले, लैटिन अमेर‍िका या कैरेब‍ियाई देशों के साथ भी अपना गम बांट सकते हैं. गरीबी की पैमाइश के नए फार्मूले के बाद भारत की सीमा के भीतर आपको स्‍वीडन या जापान तो नहीं लेक‍िन अफ्रीकी गिन‍िया बिसाऊ और केन्‍या (प्रति‍ व्‍यक्‍ति‍ आय) से लेकर पुर्तगाल व अर्जेंटीना तक जरुर मिल जाएंगे.

बफे ने बज़ा फरमाते हैं क‍ि सफलता केवल प्रतिभा या क्षमता से ही तय नहीं होती है, जन्‍म स्‍थान के सौभाग्‍य से तय होती है. जैसे क‍ि  अर्जेंटीना की एक पूरी पीढ़ी दशकों से खुद पूछ रही है क‍ि यद‍ि यहां न पैदा न हुए होते तो क्‍या बेहतर होता?

अर्जेंटीना जो 19 वीं सदी में दुन‍िया के अमीर देशों में शुमार था उसका संकट इतनी बड़ी पहेली बन गया गया कि आर्थ‍िक गैर बराबरी की पैमाइश का फार्मूला (कुजनेत्‍स कर्व) देने वाले, जीडीपी के प‍ितामह सिमोन कुजनेत्‍स ने कहा था क‍ि दुनिया को चार हिस्‍सों - व‍िकस‍ित, अव‍िकस‍ित, जापान और अर्जेंटीना में बांटा जा सकता है.

Image – Kujnets Curve and Simon Kujnets

कुजनेत्‍स होते तो, भारत भी एसा ही पहेलीनुमा दर्जा देते. जहां भारत की उभरती अर्थव्‍यवस्‍था वाली तस्‍वीर भीतरी तस्‍वीर की बिल्‍कुल उलटी है. भारत में गरीबी की नई नापजोख बताती है क‍ि तेज ग्रोथ के ढाई दशकों, अकूत सरकारी खर्च, डबल इंजन की सरकारों के बावजूद अध‍िकांश राज्‍यों 10 में 2.5 से 5 पांच लोग बहुआयामी गरीबी के शिकार हैं. यह हाल तब है कि नीति‍ आयोग की पैमाइश में कई झोल हैं.

गरीबी की बहुआयामी नापजोख नया तरीका है जो संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के जर‍िये दुन‍िया को मिला है. इसमें गरीबी को केवल कमाई के आधार पर नहीं बल्‍क‍ि सामाजिक आर्थ‍िक विकास के 12 पैमानों पर मापा जाता है. इनमें पोषण, बाल और किशोर मृत्यु दर, गर्भावस्‍था के दौरान देखभाल, स्कूली शिक्षा, स्कूल में उपस्थिति और खाना पकाने का साफ ईंधन, स्वच्छता, पीने के पानी की उपलब्धता, बिजली, आवास और बैंक या पोस्ट ऑफ़िस में खाते को शाम‍िल किया गया है

इस नापजोख में पेंच हैं. जैसे क‍ि इसके तहत मोबाइल फ़ोन, रेडियो, टेलीफ़ोन, कम्प्यूटर, बैलगाड़ी, साइकिल, मोटर साइकिल, फ़्रिज  में से कोई दो उपकरण (जैसे साइकिल और रेडियो) रखने वाले परिवार गरीब नहीं है घर मिट्टी, गोबर से नहीं बना है, तो गरीब नहीं. बिजली कनेक्‍शन, केरोस‍िन या एलपीजी के इस्‍तेमाल और परिवार में किसी भी सदस्य के पास बैंक या पोस्ट ऑफ़िस में अकाउंट होने पर उसे गरीब नहीं माना गया है. इसल‍िए अधि‍कांश शहरी गरीब को सरकार के ल‍ि‍ए गरीब नहीं हैं. तभी तो दिल्‍ली में गरीबी 5 फीसदी से कम बताई गई.

सरकारें आमतौर पर गरीबी छि‍पाती हैं, नतीजतन इस रिपोर्ट की राजनीत‍िक चीरफाड़ स्‍वाभाविक हैं, फिर भी हमें इस आधुन‍िक पैमाइश से जो निष्‍कर्ष मिलते हैं वे कोई तमगे नहीं है जिन पर गर्व किया जाए.

-    इस फेहर‍िस्‍त में जो पांच राज्‍य समृद्ध की श्रेणी में है पंजाब श्रीलंका या ग्‍वाटेमाला जैसी और तमि‍लनाडु अर्जेंटीना या पुर्तगाल जैसी अर्थव्‍यवस्‍थायें (उनमें जीडीपी महंगाई सहि‍त और पीपीपी) हैं. इसी कतार में आने वाले  केरल को अधिकतम जॉर्डन या चेक गणराज्‍य, सि‍क्‍क‍िम को बेलारुस और गोवा को एंटीगा के बराबर रख सकते हैं.

-    यद‍ि विश्‍व बैंक के डॉलर क्रय शक्‍ति‍ पैमाने से देखें को उत्‍तर प्रदेश, पश्‍च‍िम अफ्रीकी देश बेन‍िन और बिहार गिन‍िया बिसाऊ होगा. जीडीपी के पैमानों पर उत्‍तर प्रदेश पेरु और बिहार ओमान जैसी अर्थव्‍यवस्‍था हो सकती है. महाराष्‍ट्र, पश्‍च‍िम बंगाल, कर्नाटक, राजस्‍थान, आंध्र, मध्‍य प्रदेश तेलंगाना जैसे मझोले राज्‍य भी सर्बिया, थाइलैंड, ईराक, कजाकस्‍तान या यूक्रेन जैसी अर्थव्‍यवस्‍थायें हैं. इनमें कोई भी किसी विकस‍ित देश जैसा नहीं है.

धीमी पड़ती विकास दर, बढ़ते बजट घाटों और ढांचागत चुनौ‍त‍ियों की रोशनी में यह पैमाइश हमें कुछ बेहद तल्‍ख नतीजों की तरफ ले जाती है जैसे क‍ि

-    बीते दो दशकों में भारत की औसत विकास दर छह फीसदी रही, जो इससे पहले के तीन दशकों के करीब दोगुनी है. अलबत्‍ता सुधारों के 25 सालों में तरक्‍की की सुगंध सभी राज्‍यों तक नहीं पहुंची. सीएमआईई और रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक बीते बीस सालों में सबसे अगड़े और पिछड़े राज्‍यों में आय असमानता करीब 337 फीसदी बढ गई यानी क‍ि उत्‍तर प्रदेश आय के मामले में कभी भी स‍िक्‍कि‍म या पंजाब नहीं हो सकेगा.

-    औसत से बेहतर प्रदर्शन करने वाले ज्‍यादातर राज्‍य व केंद्रशास‍ित प्रदेश छोटे हैं यानी क‍ि उनके पास प्रवासि‍यों को काम देने की बड़ी क्षमता नहीं हैं. उदाहरण के ल‍िए अकेले बिहार या उत्‍तर प्रदेश में गरीबों की तादाद, नीति आयोग की गणना में ऊपर के पायदान पर खड़े नौ राज्‍यों में संयुक्‍त तौर पर कुल गरीबों की संख्‍या से ज्‍यादा है. यानी क‍ि बिहार यूपी के लोग जन्‍म स्‍थान दुर्भाग्‍य का चि‍रंतन सामना करेंगे.   

-    समृद्ध राज्‍यों की तुलना में पि‍छड़े राज्‍य श‍िक्षा स्‍वास्‍थ्‍य पर कम खर्च करते हैं लेक‍िन अगर सभी राज्‍यों पर कुल बकाया कर्ज का पैमाना लगाया जाए तो सबसे आगे और सबसे पीछे के राज्‍यों पर बकायेदारी लगभग बराबर ही है.

आर्थ‍िक राजनीत‍िक और सामाज‍िक तौर पर चुनौती अब शुरु हो रही है. भारत के विकास के सबसे अच्‍छे वर्षों में जब असमानता नहीं भर पाई तो तो आगे इसे भरना और मुश्‍क‍िल होता जाएगा. गरीबी नापने के नए पैमाने और वित्‍त आयोग की सि‍फार‍िशें बेहतर राज्‍यों को ईनाम देने की व्‍यवस्‍था दते हैं है जबक‍ि केंद्रीय सहायता में बड़ा हिस्‍सा गरीब राज्‍यों को जाता है.

अगड़े राज्‍य अपने बेहतर प्रदर्शन के लिए इनाम मांगेगे, संसाधनों में कटौती नहीं. यह झगड़ा जीएसटी पर भी भारी पड़ सकता है क्‍यों क‍ि निवेश को आकर्षि‍त करने ‍के लिए राज्‍यों को टैक्‍स र‍ियायत देने की आजादी चाहिए.

सरकारों को नीतियों का पूरा खाका ही बदलना होगा. स्‍थानीय अर्थव्‍यवस्‍थाओं के क्‍लस्‍टर बनाने होंगे और छोटों के ल‍िए बड़े प्रोत्‍साहन बढ़ाने होंगे, नहीं तो रोजगारों के ल‍िए अंतरदेशीय प्रवास पर राजनीति शुरु होने वाली है. हरियाणा और झारखंड एलान कर चुके हैं क‍ि रोजगार पर पहला हक राज्य के निवासियों का है.

यह असमानतायें भारत को एक दुष्‍चक्र में खींच लाई हैं जिसका खतरा गुन्‍नार मृदाल ने हमें 1944 ( क्‍युम्‍युलेटिव कैजुएशन) में ही बता दिया था.

मृदाल के मुताबिक अगर वक्‍त पर सही संस्‍थायें आगे न आएं तो शुरुआती तेज विकास बाद में बड़ी असमानताओं में बदल जाता  है. भारत में यही हुआ है, सुधारों के शुरुआती सुहाने नतीजे अब गहरी असमानताओं में बदलकर सुधारो के लि‍ए ही खतरा बन रहे हैं. ठीक एसा ही लैटि‍न अमेर‍िका के देशों के साथ हुआ है.  

भारतीय राजनीत‍ि अपनी पूरी ताकत लगाकर भी यह असमानतायें नहीं पाट सकती. वह एक बड़ी आबादी को ओवेर‍ियन लॉटरी की सुवि‍धा नहीं दे सकती. अलबत्‍ता इन अंतराराज्‍यीय असमानताओं बढ़ने से रोक द‍िया जाए क्‍यों क‍ि यह दरार बहुत चौड़ी है. नीति आयोग की रिपोर्ट को घोंटने पर पता चलता है क‍ि 1.31 अरब की कुल आबादी 28.8 करोड़ गरीब गांव में रहते हैं और केवल 3.8 करोड़ शहरों में.

यानी क‍ि गाजीपुर बनाम गाजियाबाद या चंडीगढ़ बनाम मेवात वाली स्‍थानीय असमानताओं की बात तो अभी शुरु भी नहीं हुई है.

 


Monday, December 6, 2021

वाह सुधार, आह सुधार


इतिहास स्‍वयं को हजार तरीकों से दोहराता रह सक‍ता है. लेकि‍न संदेश हमेशा बड़े साफ होते हैं. इतने साफ क‍ि हम माया सभ्‍यता की स्‍मृ‍त‍ियों को भारत में कृषि‍ कानूनों की वापसी के साथ महसूस कर सकते हैं. अब तो पुराने नए सबकों का एक पूरा कुनबा तैयार है जो हमें  इस सच से आंख मिलाने की ताकत देता है क‍ि चरम सफलता व लोकप्र‍िता के बाद भी, शासक और सरकारें हकीकत से कटी पाई जा सकती हैं

स्‍पेनी हमलावर नायकों पेड्रो डी अल्‍वराडो और हरमन कोर्टेस को भले ही माया सभ्‍यता को मिटाने का तमगा या तोहमत म‍िला हो लेक‍िन  अल्‍वराडो 16 वीं सदी की शुरुआत में जब यूटेलटान (आज का ग्‍वाटेमाला) पहुंचा तब तक महान माया साम्राज्‍य दरक चुका था. शासकों और जनता के बीच व‍िश्‍वास ढहने  से इस सभ्‍यता की ताकत छीज गई थी.  माया नगर राज्‍यों में सत्‍ता के ज‍िस केंद्रीकरण ने भाषा, ल‍िप‍ि कैलेंडर, भव्‍य नगर व भवन के साथ यह चमत्‍कारिक सभ्‍यता (200 से 900 ईसवी स्‍वर्ण युग) बनाई थी उसी में केंद्रीकरण के चलते शासकों ने आम लोगों खासतौर पर क‍िसानों कामगारों से जुडे एसे फैसले क‍िये जिससे भरोसे का तानाबाना बिखर गया. इसके बाद माया सम्राट केइश को हराने में अल्‍वराडो और हरमन कोर्टेस को ज्‍यादा वक्‍त नहीं लगा. 

2500 वर्ष में एसा  बार बार होता रहा है क‍ि शासक और सरकारें अपनी पूरी सदाशयता के बावजूद वास्‍तविकतायें समझने में चूक जाती हैं, व्‍यवस्‍था ढह जाती हैं और बने बनाये कानून पलटने पड़ते हैं. एक साल बाद कृषि‍ कानूनों को वापस लेने की चुनावी व्‍याख्‍या तो कामचलाऊ है. इन्‍हें गहराई में जाकर देखने पर सवाल गुर्राता है क‍ि बड़े आर्थि‍क सुधारों से लोग सहमत क्‍यों नहीं हो रहे?

भारत में राजनीतिक खांचे इतने वीभत्‍स हो चुके हैं क‍ि नीत‍ियों की सफलता-व‍िफलता पर न‍िष्‍पक्ष शोध दुर्लभ हैं.  अलबत्‍ता इस  मोहभंग की वजहें तलाशी जा सकती हैं . बीते एक दशक से आईएमएफ यह समझने की कोशिश कर रहा है क‍ि उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं में सुधार पटरी से क्‍यों उतर जाते हैं. 

व‍िश्‍व बैंक और ऑक्‍सफोर्ड यून‍िवर्सिटी का  ताजा अध्‍ययन,  (श्रुति‍ खेमानी 2020 )  भारत में कृषि‍ सुधारों की पालकी लौटने के संदर्भ में बहुत कीमती है. इस अध्‍ययन ने पाया क‍ि दुन‍िया में सुधारों का पूरा फार्मूला केवल तीन उपायों में सि‍मट गया है. एक है न‍िजीकरण, दूसरा और कानूनों का उदारीकरण और  सब्‍सिडी खत्‍म करना. दुनिया के अर्थव‍िद इसे  हर मर्ज की संजीवनी समझ कर चटाते हैं.  मानो सुधारों का मतलब स‍िर्फ इतना ही हो.

राजनीति‍ लोगों की नब्‍ज क्‍यों नहीं समझ पाती ? अर्थव‍िद अपने स‍िद्धांत कोटरों से बाहर क्‍यों नहीं न‍िकल पाते? सुधार उन्‍हीं को क्‍येां डराते हैं जिनको इनका फायदा मिलना चाह‍िए? जवाब के ल‍िए असंगति की  इस गुफा में गहरे पैठना जरुरी है. सुधारों की परिभाषा केवल जिद्दी तौर सीम‍ित ही नहीं हो गई है बल्‍क‍ि इनके केंद्र में आम लोग नजर नहीं आते. भले ही यह फैसले बाद में बडी आबादी को फायदा पहुंचायें   लेक‍िन इनके आयोजन और संवादों के मंच पर में  कं  पनियां‍ और उनके एकाध‍िकार दि‍खते हैं  जैसे क‍ि बैंकों के निजीकरण की चर्चाओं के केंद्र में जमाकर्ता या बैंक उपभोक्‍ता को तलाशना मुश्‍क‍िल है. कृष‍ि सुधारों का  आशय तो किसानों की आय बढाना था लेक‍िन उपायों के पर्चे पर नि‍जीकरण, कारपोरेट वाले चेहरे छपे थे. इसलिए सुधार ज‍िनके ल‍िए बनाये गए थे वही लोग बागी हो गए.

भारत ही नहीं अफ्रीका और एशि‍या के कई देशों में कृषि‍ सुधार सबसे कठ‍िन पाए गए हैं. कृषि‍ दुन‍िया की सबसे पुरानी नि‍जी आर्थ‍िक गति‍वि‍ध‍ि है. सद‍ियों से लोकमानस में यह संप त्‍ति‍ के मूलभूत अध‍िकार और व जीविका के अंति‍म आयोजन के तौर पर उपस्‍थि‍त है. उद्योग, सेवा या तकनीक जैसे किसी दूसरे आर्थ‍िक उत्‍पादन  की तुलना में खेती बेहद व्‍यक्‍त‍िगत, पार‍िवार‍िक और सामुदाय‍िक  आर्थ‍िक उपार्जन है. कृषि‍ सुधारों का सबसे सफल आयोजन चीन में हुआ लेक‍िन वहां भी इसलि‍ए क्‍यों क‍ि देंग श्‍याओ पेंग ने (1981)  कृषि‍ के उत्‍पादन व लाभ पर किसानों का अधिकार सुन‍िश्‍च‍ित कर दि‍या.

 

आर्थ‍िक सुधार  पहले चरण में  बहुत सारी नेमतें बख्शते हैं. जैसे क‍ि 1991 के सुधार से भारत को बहुत कुछ मिला. लेक‍िन प्रत्येक सुधार 1991 वाला नहीं होताआर्थि‍क सुधार दूसरे चरण में  कुर्बान‍ियां मांगते हैं.  इसके ल‍िए  सुधारों के विजेताओं और हारने वालों के ईमानदार मूल्‍यांकन चाह‍िए.   अर्थशास्‍त्री मार्केट सक्‍सेस की दुहाई देते हैं मगर मार्केट फेल्‍योर (बाजार की विफलताओं) पर चर्चा नहीं करते. जिसके गहरे तजुर्बे आम लोगों के पास हैं इसलिए सरकारी नीति‍यो के अर्थशास्‍त्र पर आम लोगों का अनुभवजन्‍य अर्थशास्‍त्र भारी पड़ने लगा है.

सुधारों से च‍िढ़ बढ़ रही है  क्‍यों क‍ि सरकारें इन पर बहसस‍िद्ध सहमत‍ि नहीं बनाना चाहतीं.  जीएसटी हो या कृषि‍ बिल सरकार ने उनके सवाल ही नहीं सुने जिनके ल‍िए इनका अवतार हुआ था. सनद रहे क‍ि लोगों को सवाल पूछने की ताकत देने की ज‍िम्‍मेदारी भी सत्‍ता की है. शासन को ही यह तय करना होता है कि ताकत का केंद्रीकरण किस सीमा तक क‍िया जाए और फैसलों में लोगों की भागीदारी क‍िस तरह सुन‍िश्‍चि‍त की जाए.

दूसरे रोमन सम्राट ट‍िबेर‍ियस (42 ईपू से 37 ई) ने फैसले लेने वाली साझा सभा को समाप्‍त  कर दि‍या और ताकत सीनेट को दे दी. इसके बाद ताकत का केंद्रीकरण इस कदर बढ़ा कि आम रोमवासी अपने संपत्‍ति‍ अध‍िकारो को लेकर आशंक‍ित होने लगे. अंतत: गृह युद्धों व बाहरी युद्धों से गुजरता हुआ रोमन साम्राज्‍य करीब 5वीं सदी में ढह गया ठीक उसी तरह जैसा क‍ि माया सभ्‍यता में हुआ था.

बीते ढाई दशक में लोगों में आर्थिक सुधारों के फायदों और नुक्सानों की समझ बनी हैमंदी से टूटे  लोग कमाई और जीवन स्तर में ठोस बेहतरी के प्रमाण व उपाय चाहते हैं.  यही वजह है क‍ि विराट प्रचार तंत्र के बावजूद सरकार लोगों को सुधारों के फायदे नहीं समझा पाती.  सुधारों की भाषा उनके ल‍िए ही अबूझ हो गई जिनके ल‍िए उन्‍हें  गढ़ा जा रहा  है . सरकारें और उनके अर्थशास्‍त्री जिन्‍हें सुधार बताते  हैं जनता उन्‍हें अब सत्‍ता का अहंकार समझने लगी है.

कृषि कानूनों की दंभजन्‍य घोषणा पर ज‍ितनी चिंता थी उतनी ही फ‍िक्र  इनकी वापसी पर भी होनी चाह‍िए  जो सरकारों से विश्‍वास टूटने का प्रमाण है. भारत को सुधारों का क्रम व संवाद  ठीक करना होगा ताकि ईमानदार व पारदर्शी बाजार में भरोसा बना रहे. सनद रहे क‍ि गुस्साए लोग सरकार तो बदल सकते हैंबाजार नहींमुक्त बाजार पर विश्वास टूटा तो सब बिखर जाएगा क्योंकि कोई सरकार कितनी भी बड़ी होवह बाजार से मिल रहे अवसरों का विकल्प नहीं बन सकती.