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Friday, October 16, 2020

बूझो तो जानें !


कोरोना की मंदी में कारोबार बंद होने के बाद, गत्ते के बॉक्स बनाने की फैक्ट्री चलाने वाले कपिल ने सरकार के हर ऐलान को धार्मिक एकाग्रता से सुना था. सभी घोषणाओं में कर्ज की नई खिड़कियों, गारंटियों, स्कीमों और कर्ज सस्ता होने के ढोल बज रहे थे. कपि उलझन में पड़ गए.

जिनका कारोबार बंद हो गया है, कर्ज नहीं चुका पा रहे हैं, वे नया कर्ज क्यों लेंगे?

वे नया कर्ज लेना भी चाहें तो बैंक उन पर बकाए के बाद उन्हें नया कर्ज क्यों देंगे? 

अगर किसी तरह बैंक राजी भी हो जाएं तो इस महामंदी में वे किस आधार पर बैंक को पांच गुना टर्नओवर या 18-20 फीसद रिटर्न की गारंटी देंगे जिसके जरिए 12 फीसद ब्याज का बोझ उठाया जा सके.

लंबी मगजमारी के बाद कपिल ने सोचा कि सरकार के हजार आंख-कान और दर्जनों सलाहकार होते हैं. उन्होंने कुछ तो देखा ही होगा. नतीजा एक दो महीने में पता चल जाएगा. इसके बाद कपिल बकाया कर्ज का भुगतान टालने की स्कीम में शामिल होने का रास्ता तलाशने लगे.

कपिल का सामान्य ज्ञान सही साबित हुआ. अक्तूबर आते-आते भारत वह अनोखी अर्थव्यवस्था बन गया जहां प्रोत्साहन पैकेज के बावजूद मंदी गहराती चली रही है. रिजर्व बैंक ने अगस्त में कर्ज की मांग का ताजा आंकड़ा जारी किया, जिसे देखने के बाद ब्याज दर में कमी की प्रक्रिया रोक दी गई क्योंकि कर्ज लेने वाले ही नहीं रहे.

सनद रहे कि भारत के ताजा इतिहास में पहली बार किसी सरकार ने उद्योगों को कर्ज लेने के लिए इतनी स्कीमें, गारंटी या प्रोत्साहन घोषि किए और ब्याज दरें (रेपो रेट) नौ साल के न्यूनतम स्तर पर गई थी लेकिन इसके बावजूद ताजा आंकड़े बताते हैं

अगस्त में बैंक कर्ज की मांग अक्तूबर 2017 के बाद न्यूनतम स्तर (6 फीसद) रही. अगर इस दौरान हुए कर्ज वापसी को मिला लिया जाए तो यह दरअसल एक भी पैसे का नया कर्ज नहीं लिया गया.

उद्योगों को मिलने वाला कर्ज कुल बैंक कर्ज का 83.4 फीसद है. इसकी वृद्धि दर, अगस्त में सालाना आधार पर एक फीसद से नीचे गई. बड़े उद्योगों की कर्ज मांग तो अगस्त में बुरी तरह टूट गई है.

सालाना आधार पर छोटे उद्योगों को कर्ज में भी 1.2 फीसद की नकारात्मक वृद्धि दर रही है. सरकार की गारंटी स्कीम के बावजूद जुलाई के मुकाबले अगस्त में छोटे उद्योगों की ओर से कर्ज की मांग महज 1.1 फीसद बढ़ी जो कतई उत्साहवर्धक नहीं है.

जीडीपी में करीब 55 फीसद हिस्से के साथ सर्विसेज क्षेत्र ने बीते एक दशक में अर्थव्यवस्था को सबसे ज्यादा सहारा दिया है. यहीं से मांग और रोजगार आए हैं. यहां कर्ज की मांग 8.6 फीसद टूट गई. एनबीएफसी, भवन निर्माण और व्यापार कर्ज में सबसे ज्यादा गिरावट आई जो जीडीपी आंकड़ों का प्रतिबिम्ब है.

खुदरा कर्ज का हाल ही बुरा है. इसमें करीब 11 फीसद की गिरावट है. सबसे बुरा हाल क्रेडिट कार्ड लोन का है यानी कि लोग बिल्कुल खरीदारी नहीं कर रहे हैं. यह आंकड़े कॉमर्स कंपनियों के दावे की चुगली खाते हैं. नौकरियां जाने और वेतन कटने के बाद बैंकों ने पिछले दिनों में ग्राहकों के क्रेडिट कार्ड पर उधारी सीमा भी कम की है.

कर्ज के आंकड़े एक और महत्वपूर्ण सूचना देते हैं कि साल की पहली तिमाही में सरकार का कर्ज 14.3 फीसद बढ़ा जो 30 माह सर्वोच्च स्तर है. यानी कि बाजार में जो सस्ती पूंजी उपलब्ध थी, वह सरकार के कर्ज कार्यक्रम में हवन हुई है.

भारतीय अर्थव्यवस्था में कर्ज लेने वालों की संख्या (उपभोक्ता और कंपनियां) सीमित है लेकिन इसके बाद भी कर्ज की मांग एक महत्वपूर्ण संकेत मानी जाती है क्योंकि कर्ज बेहतर भविष्य की उम्मीद का पैमाना होता है. उद्योग या उपभोक्ता कर्ज तभी लेते हैं जब उन्हें आगे अपने कारोबार की कमाई से उसे चुका पाने की उम्मीद होती है.

सस्ती ब्याज दर और आत्मनिर्भर पैकेज के बावजूद लॉकडाउन के बाद कंपनियों ने खर्च घटाने, बचत बढ़ाने, नौकिरयां कम करने पर फोकस किया है, निवेश-उत्पादन बढ़ाने पर नहीं. जबकि उपभोक्ता नई खरीद की बजाए बचत बढ़ा (बैंक बचत का ताजा आंकड़ा) रहे हैं ताकि आगे मुसीबत बढ़ने पर सुरक्षा बनी रहे.

रिजर्व बैंक को कहना पड़ा कि इस साल विकास दर शून्य से दस फीसद नीचे रहेगी जो आत्मनिर्भर पैकेज को श्रद्धांजलि जैसा है. सरकारी कर्मचारियों को पैसा देने और विकास खर्च की नई कोशिशें बताती हैं कि सरकार को शायद असफलता की गंध मिल गई है.

गत्ते के बक्से वाले कपिल की पहेली हल हो गई थी. वह इतिहास के विद्यार्थी रहे हैं. रिजर्व बैंक की प्रेस वार्ता के बाद उन्होंने अपने कारोबारी व्हाट्सऐप ग्रुप पर फ्रांस की महारानी मारी ऐंटोएनेट (18वीं सदी) का किस्सा लिखा है, जिसने रोटी मांगने आए किसानों को केक खाने की सलाह दी थी.

बाकी आप खुद समझदार हैं.