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Friday, March 12, 2021

बचाएंगे तो गंवाएंगे !

बैंकों ने होम लोन ब्याज की दर फिर घटा दी. मकान कर्ज के तलबगार खुश हो सकते हैं लेकिन जो कर्ज लेने की हैसियत नहीं रखते उन्हें परेशान करने वाली इससे बड़ी खबर कोई नहीं है.

मंदी से निकलने की जद्दोजहद में भारत दो नए वर्गों में बंट रहा है. एक तरफ हैं चुनिंदा लोग जो कर्ज ले सकते हैं, क्योंकि वे उसे चुका भी सकते हैं और दूसरी तरफ वे लाखों लोग जो कर्ज नहीं लेते या ले नहीं सकते लेकिन बैंकों में बचत रखते हैं, जिस पर ब्याज टूट रहा है.

बॉन्ड बाजार की घुड़की

बीते तीन माह में छह बार (2013 के बाद पहली बार) बॉन्ड बाजार ने सरकार को घुड़की दी और सस्ती ब्याज दर पर कर्ज देने से मना कर दिया. इस घटनाक्रम का हमारी बचत से गहरा रिश्ता है.

सरकार भारतीय कर्ज बाजार की पहली और सबसे बड़ी ग्राहक है. बैंकों में अधि‍कांश बचत सरकार को कर्ज के तौर पर दी जाती है. सरकार जिस दर पर पैसा उठाती है (अभी 6.15 फीसद दस साल का बॉन्ड), हमें कर्ज उससे ऊंची दर पर (कर्ज लेने वाले की साख के आधार पर ब्याज दरों में अंतर) मिलता है जबकि बचत पर ब्याज की दर सरकारी कर्ज पर ब्याज से कम रहती है.

सरकार से वसूला जाने वाला ब्याज उसके कर्ज की मांग से तय होता है. केंद्र सरकार अगले दो साल (यह और अगला) में करीब 25 लाख करोड़ रुपए का कर्ज लेगी, (राज्य अलग से) जो अब तक का रिकॉर्ड है. यानी बैंकों के पास ज्यादा रिटर्न वाले कर्ज बांटने के लिए कम संसाधन बचेंगे.

मंदी का दबाव है इसलिए बैंकों को सरकार के साथ और कंपनियों को भी सस्ता कर्ज देना है, नतीजतन बचत के ब्याज पर छुरी चल रही है. एफडी पर केवल 4.5 फीसद ब्याज मिल रहा है, अलबत्ता मकान के लिए ऐतिहासिक सस्ती दर पर (औसत 7 फीसद) कर्ज मिल रहा है.

हमने कमाई महंगाई

बैंकों को अपने सबसे बड़े ग्राहक (सरकार) से कम इतना तो ब्याज चाहिए जो महंगाई से ज्यादा हो. पेट्रोल-डीजल, जिंसों की कीमत बढऩे से महंगाई बढ़ती जानी है. दूसरी तरफ, अपनी कमाई का 50 फीसद हिस्सा ब्याज चुकाने पर खर्च कर रही सरकार को नए कर्ज चुकाने के लिए नए टैक्स लगाने होंगे यानी और महंगाई.

महंगाई तो नहीं रुकती लेकिन रिजर्व बैंक को कर्ज पर ब्याज दरें थाम कर रखनी हैं. नतीजतन, बैंक जमा लागत घटाने के लिए बचतों पर ब्याज काट रहे हैं. भारत की 51 फीसद वित्तीय बचतें बैंक (2018 रिजर्व बैंक) में हैं. बचत पर रिटर्न महंगाई से ज्यादा होना चाहिए ताकि जिंदगी जीने की बढ़ती लागत संतुलित हो सके. लेकिन इन पर मिल रहा ब्याज महंगाई से कम है.

जो कर्ज नहीं लेते उनकी मुसीबत दोहरी है. एक तो नौकरियां गईं और पगार घटी और दूसरा जिन बचतों पर निर्भरता बढ़ी उन पर रिटर्न टूट रहा है. लॉकडाउन के दौरान खर्च रुकने से बैंकों में बचत बढ़ी थी लेकिन इस दौरान बचत पर नुक्सान पहले से कहीं ज्यादा हो गया.

बचत करने वालों का एक छोटा हिस्सा जो शेयर बाजार में निवेश कर रहा है बस उसे ही फायदा है. बड़ी आबादी का सहारा यानी तयशुदा (फिक्स्ड) रिटर्न वाले सभी बचत विकल्प बुरी तरह पिट चुके हैं. छोटी बचत स्कीमों में पैसा लंबे समय के लिए रखना होता है, उनमें बैंक जमा जैसी तरलता नहीं है.

भारत में बैंक ग्राहकों का महज 10-12 फीसद हिस्सा ही कर्ज लेता है, शेष तो बचत करते हैं जिनका नुक्सान बढ़ता जा रहा है. बचतों को टैक्स प्रोत्साहन खत्म हो चुके हैं. नए बजट में पेंशन और ईपीएफ योगदान पर भी इनकम टैक्स थोप दिया है.

पुराने लोग कहते थे कि बाजार में केवल दस रुपए का ऊंट बिक रहा है लेकिन क्या उस ऊंट से इतना काम मिल सकेगा कि चारा खि‍लाने के बाद कुछ बच सके. भारत में कर्ज का यही हाल है.

कर्ज सस्ता ही रहेगा लेकिन कैश फ्लो और नियमित कमाई (महंगाई हटाकर) वाले ही इसके ग्राहक होंगे, जो ब्याज भरने के बाद खर्च के लिए कुछ बचा सकें. कंपनियों के लिए यह आदर्श स्थि‍ति है इसलिए शेयर बाजार में बहार है.

मंदी से भारत की वापसी ‘वी’ (V) की शक्ल में नहीं बल्कि बदनाम ‘के’ (K) की शक्ल में हो रही है. बचत, महंगाई, ब्याज और टैक्स के मौजूदा परिदृश्य में आबादी का छोटा सा हिस्सा ही तेजी से आगे बढ़ेगा जबकि K का निचले हिस्से में मौजूद लाखों लोगों के बढ़ती महंगाई और घटती कमाई के बीच मंदी में गहरे धंसने का खतरा है.

तेज ग्रोथ में भी भारत में बचत की दर कम रही है. इनका आकर्षण लौटाने के लि‍ए फिक्स्ड इनकम वाले नए विकल्प जरूरी हैं. सरकारी कर्ज भी कम करना होगा. अर्थव्यवस्था को बचत चाहिए नहीं तो नोट छपेंगे और महंगाई धर दबोचेगी.


Sunday, September 30, 2018

कर्ज पर कर्ज


क्या सरकारी बैंक ही बदकिस्मत हैं क्या वे ही  कर्ज के ढेर में दबे हैं ? तो फिर इन्‍फ्रास्‍ट्रक्‍चर लीजिंग एंड फाइनेंस लिमिटेड (आइएलऐंडएफएस) को क्या हुआ?

कर्ज का मर्ज और खतरनाक होकर गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) तक फैल गया है. इन्हें तो बैंकों की तरह डिपॉजिट जुटाने की छूट भी नहीं है. ये तो उधार लेकर उधार देने के धंधे में हैं.

भारत की अर्थव्यवस्था कुछ जरूरी सुधारों की अनदेखी करने की बड़ी कीमत चुकाने की तरफ बढ़ रही है.

आइएलऐंडएफएससरकारी-निजी भागीदारी में बुनियादी ढांचा विकास की अगुआ कही जाती है जिसने सरकारी राजमार्गों समेत 1.8 लाख करोड़ रु. के प्रोजेक्ट्स को कर्ज दिया है. इसी अगस्त तक रेटिंग एजेंसियां और बाजार इस पर आंख मूंद कर भरोसा कर रहे थे लेकिन एक माह बाद वह कर्ज चुकाने में नाकाम पाई गई.

कंपनी करीब 91,000 करोड़ रु. के कर्ज में दबी है और ब्याज देने में चूक रही है. प्रोजेक्ट से रिटर्न नहीं आ रहा है. बीते सप्ताह जब कंपनी सरकारी बैंक सिडबी का 1,000 करोड़ रु. का कर्ज नहीं चुका सकी तो अफरा-तफरी मच गई. अगले छह माह में इसे 3,600 करोड़ रु. कर्ज चुकाने हैं. आइएलऐंडएफएस 169 शाखा कंपनियों और संयुक्त उपक्रमों वाला वित्तीय समूह हैसरकारी बीमा कंपनी एलआइसी और स्टेट बैंक जिसमें सबसे बड़े हिस्सेदार हैं.

यह आशंका पहले दिन से ही थी कि अगर एक मंदी लंबी खिंच गई तो गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों का कारोबारी मॉडल घुटनों पर आ जाएगा. गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां बैंकों से कर्ज लेती हैं या कॉमर्शियल पेपर (औसतन एक साल की अवधि) के जरिए बाजार से कर्ज उठाती हैं. आखिर कर्ज लेकर कर्ज देने का मॉडल कैसे चलता?

इक्रा और बीसीजी (बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप) की ताजा रिपोर्ट बताती है कि हमारे नियामक और सरकार कैसी खुशफहमियों में जी रहे हैः
  • ·      2014 से 2017 के बीच कुल कर्ज में बैंकों का हिस्सा 49 फीसदी से घटकर 28 फीसदी पर आ गया जबकि एनबीएफसी का हिस्सा 21 फीसदी से बढ़कर 44 फीसदी हो गया. यानी बैंकों से कर्ज लेकर इन्होंने बैंकों से ज्यादा कर्ज बांट दिए.
  • ·       इस साल मार्च के अंत तक इन कंपनियों ने करीब 7.5 खरब रु. का खुदरा कर्ज बांटा था. इनके कर्ज में अनसिक्योर्ड (गैर-जमानती) कर्ज (माइक्रोफाइनेंसछोटे निजी लोन जैसे मोबाइल) सबसे तेजी से (40 से 53 फीसदी) से बढ़ रहे हैं. जानना जरूरी है कि अनसिक्योर्ड कर्ज सबसे ज्यादा जोखिम भरे होते हैं.
  • ·   एनबीएफसी अपने 40 फीसदी संसाधन बैंकों के कर्ज से और 38 फीसदी बाजार से डिबेंचर के जरिए जुटाती है. इन पर बकाया बैंक कर्ज 27 फीसदी सालाना की दर से बढ़ रहा है. इस साल मार्च में यह एक लाख करोड़ रु. था. अगले छह माह में एनबीएफसी के 60 फीसदी डिबेंचर वसूली के लिए तैयार हैं. दूसरी तरफब्याज दर बढऩे लगी है.
  • ·       एनबीएफसी के कुल फंसा हुआ कर्ज उनके कुल कर्ज के अनुपात में 5.8 फीसद है और बैंकों के 11.8 फीसदी. यानी कि पूरा वित्तीय सिस्टम कर्ज के टाइम बम पर बैठा है.

·       बैंकों के बाद एनबीएफसी के लडख़ड़ाने के तीन बड़े असर होने वाले हैः
  • बैंकों के कर्ज वैसे भी ठप हैं, ऑटोमोबाइल (सबसे ज्यादा ट्रैक्टर)उपभोक्ता उत्पादोंछोटे उद्योगों को कर्ज की आपूर्ति और सीमित हो जाएगीजिसका असर मांग पर नजर आएगा.
  • · एनबीएफसी की मुसीबतों ने कर्ज के बाजार को तोड़ दिया है. निवेशकों ने बड़े पैमाने पर बिकवाली की है. अगर डिफॉल्ट बढ़ते हैं तो सबसे बड़ा असर म्युचुअल फंड पर होगा जो इन कंपनियों के कर्ज इश्यू में भारी निवेश करते हैं. छोटे निवेशक मार खाएंगे. शेयर बाजार टूटने से उनके हाथ पहले ही जल रहे हैं.

कौन कहता है कि भारत में चीन की तरह शैडो बैंकिंग नहीं है. कर्ज लेकर कर्ज देने का काम तब खूब चला जब तक मंदी नहीं थी. बस एक मंदी आई तो कर्ज संकट के पलीते सुलग उठे हैं. महान सुधारों के दावेदारों को बताना चाहिए कि पिछले चार साल में उन्होंने वित्तीय तंत्र में कौन से सुधार किए. बैंकों की बीमारी तो दूर हुई नहींगैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां भी संकट के घाट पहुंचने लगी हैं. 

बैंकों को तो सरकार बचा लेगी लेकिन इन कंपनियों की मदद कौन करेगाइनके डूबने से क्या बैंक और शेयर बाजार नहीं डूबेंगेबैंकों से लेकर एनबीएफसी तक हर जगह आम लोगों की बचत ही दांव पर है.

यूरोप-अमेरिका के कर्ज संकट से तुलना डरावनी हो सकती है लेकिन हमने लीमैन संकट से कुछ नहीं सीखा. आर्थिक विपदाएं आम लोगों को ही मारती हैंनेताओं की तो हमेशा पौ-बारह है.

Monday, April 30, 2018

दक्षिण का उत्तर



अगर सब कुछ ठीक रहा होता तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शायद इस महीने राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक कर रहे होते. बीते साल अप्रैल में नीति आयोग के बुलावे पर आखिरी बार दिल्ली में मुख्यमंत्री जुटे थे. प्रधानमंत्री खुश थे कि जीएसटी की छाया में उनका सहकारी संघवाद जड़ पकडऩे लगा है. उन्होंने न्यू इंडिया के लिए केंद्र व राज्य के नए रिश्तों की आवाज लगाई थी.

...लेकिन एक साल में बहुत कुछ बदल गया.

दिल्ली में मुख्यमंत्रियों की दूसरी जुटान नहीं हुई अलबत्ता तिरुवनंतपुरम में दक्षिणी राज्यों के वित्त मंत्रियों की बैठक हुई जिसके बाद पूरा दक्षिण मिलकर केंद्र से पूछने लगा कि नवगठित 15वें वित्त आयोग को केंद्र और राज्य के बीच संसाधनों के बंटवारे में दक्षिण के राज्यों के साथ भेदभाव का फॉर्मूला बनाने की इजाजत क्यों दी गई हैवित्त आयोग प्रस्तावित फॉर्मूले में 1971 की बजाए 2011 की आबादी को आधार बनाएगाजिससे बेहतर गवर्नेंस वाले दक्षिणी राज्यों (तेलंगाना के अलावा) को आबादी बहुल उत्तरी राज्यों की तुलना में केंद्र से कम पैसा मिलेगा.

इसी मुद्दे की छाया में चंद्रबाबू नायडू एनडीए से अलग हुए. चुनावों के लिए गरमा रहे दक्षिण भारत में आम लोग भी अब एक दूसरे को बता रहे हैं कि तमिलनाडु-कर्नाटक जैसे राज्यों को केंद्र के खजाने में प्रति सौ रु. के योगदान पर केंद्र से औसतन 30-40 रु. मिलते हैं जबकि उत्तर प्रदेशबिहार को उनके योगदान का दोगुना पैसा मिलता है. 

इस मुहिम में चुनावी सियासत का छौंक जरूर लगा है लेकिन राजनीति के अलावा भी कुछ ऐसा हुआ है जिसके कारण जीएसटी पर केंद्र के साथ खड़े राज्यों ने आर्थिक हितों को लेकर उत्तर बनाम दक्षिण की दरार खोल दी हैजो बड़ी राजनैतिक खाई में बदल सकती है.

जीएसटी की विफलता राज्यों के खजाने पर बुरी तरह भारी पड़ी है. विपक्षी मुख्यमंत्री अब खुलकर बोल रहे हैं जबकि अनुशासन के मारे भाजपा के मुख्यमंत्री चुपचाप नए टैक्स लगाने और उद्योगों को रोकने के लिए सब्सिडी बांटने की जुगत में लगे हैं.

यह रही बानगी

·  असम सरकार राज्य की औद्योगिक इकाइयों को जीएसटी की वापसी करेगी. मध्य प्रदेश भी ऐसा ही करने की तैयारी में है. नए निवेश की बात तो दूरजीएसटी के बाद राज्यों के लिए मौजूदा कंपनियों को रोकने के लिए ऐसा करना जरूरी हो गया है.
 नतीजेघाटे में नया घाटाफर्जी उत्पादन दिखाकर रिफंड की लूट

·       पंजाब सरकार ने इनकम टैक्स भरने वाले प्रोफेशनलकारोबारियों और कर्मचारियों पर 200 रु. प्रति माह का नया टैक्स लगाया है. जीएसटी के बाद महाराष्ट्र ने वाहन पंजीकरण और तमिलनाडु ने मनोरंजन कर बढ़ा दिया है.
   नतीजेकारोबार की लागत में बढ़ोतरी

जीएसटी आने के बाद राज्यों को पांच तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा है:
·       अपने राजस्व को जरूरत के मुताबिक संतुलित करने की आजादी जाती रही. उद्योगों को आकर्षित करने के लिए रियायतें देने के रास्ते बंद हो गए हैं
·  निवेश को रोकने के लिए केवल टैक्स सब्सिडी यानी चुकाए टैक्स (एसजीएसटी) की वापसी ही एक रास्ता हैजिससे बजट घायल होंगे और फर्जी रिफंड बढ़ेंगे
·      राज्यों के लिए चाहकर भी डीजल-पेट्रोल सस्ता करने का विकल्प खत्म हो गया है जबकि तेल की बढ़ती कीमतें राजनैतिक मुसीबत बनने वाली हैं. 
·   राज्यों को नए टैक्स लगाने या ऐसे टैक्स बढ़ाने पड़ रहे हैं जिनसे सियासी अलोकप्रियता का खतरा है
·       राजस्व की कमी के चलते राज्यों का बाजार कर्ज इस साल नया रिकॉर्ड बनाने वाला है
   प्रधानमंत्री मोदी का सहकारी संघवाद (कोऑपरेटिव फेडरिलज्म) दरक रहा है. वह सुधारों की असंगतिहकीकत से दूरी और दिखावटी गवर्नेंस का शिकार हो गया है. मोदी राज्यों के अधिकारों की वकालत करते हुए दिल्ली आए थे. योजना आयोग खत्म करने तक सब ठीक चला लेकिन उसके बाद सब गड्डमड्ड हो गया.

   राज्यों को ज्यादा अधिकार देने की बजाए जीएसटी ने उनके अधिकार छीन लिए. 

  मोदी ब्रांड केंद्रीय स्कीमों ने राज्यों की विकास वरीयताओं को पीछे धकेल दिया. 

-   और ठीक उस समय जब राज्यों के खजाने बुरी हालत में थेतब न केवल विफल जीएसटी टूट पड़ा बल्कि वित्त आयोग ऐसा फॉर्मूला बना रहा है जो सैद्धांतिक रूप से भले ही दुरुस्त हो लेकिन मौके और दस्तूर के माफिक नहीं है.

मोदी आज अगर गुजरात के मुख्यमंत्री होते तो शायद उनका नजरिया बेचैन राज्यों से फर्क नहीं होता. भाजपा के लिए राजनैतिक हालात बदलने का मतलब यह नहीं है कि राज्यों के भी अच्छे  दिन आ गए हैं. (एक मुख्यमंत्री की अनौपचारिक टिप्प्णी)

Monday, December 13, 2010

साख नहीं तो माफ करो!

अर्थार्थ
साख नहीं तो माफ करो! .. दुनिया का बांड बाजार अर्से बाद जब इस दो टूक जबान में बोला तो लंदन, मैड्रिड, रोम, ब्रसेल्स और न्यूयॉर्क, फ्रैंकफर्ट, बर्लिन और डबलिन में नियामकों व केंद्रीय बैंकों की रीढ़ कांप गई। दरअसल जिसका डर था वही बात हो गई है। वित्तीय बाजारों के सबसे निर्मम बांड निवेशकों ने यूरोप व अमेरिका की सरकारों की साख पर अपने दांत गड़ा दिए हैं। घाटे से घिरी अर्थव्यवस्थाओं से निवेशक कोई सहानुभूति दिखाने को तैयार नहीं हैं। ग्रीस व आयरलैंड को घुटनों के बल बिठाकर यूरोपीय समुदाय से भीख मंगवाने के बाद ये निवेशक अब स्पेन की तरफ बढ़ रहे हैं। स्पेन, यूरोप की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, क्या आयरलैंड व ग्रीस की राह पर जाएगा? सोच कर ही यूरोप की सांस फूल रही है। लेकिन यह बाजार तो स्पेन के डेथ वारंट पर दस्तखत करने लगा है, क्योंकि इस क्रूर बाजार में बिकने वाली साख यूरोप की सरकारों के पास नहीं है और तो और, इस निष्ठुर बाजार ने अमेरिका की साख को भी खरोंचना शुरू कर दिया है।
खतरे की खलबली
पूरी दुनिया में डर की ताजा लहर बीते हफ्ते यूरोप, अमेरिका व एशिया के बांड बाजारों से उठी, जब सरकारों की साख पर गहरे सवाल उठाते हुए निवेशकों ने सरकारी बांड की बिकवाली शुरू कर दी और सरकारों के लिए कर्ज महंगा हो गया। बीते मंगलवार अमेरिकी सरकार के (दस साल का बांड) बाजार कर्ज की लागत सिर्फ कुछ घंटों में

Monday, July 19, 2010

पूंजी बदले पैंतरा

अर्थार्थ
क्या खरीदना चाहेंगे आप.?? ब्रिटेन की हाई स्पीड यूरोपियन रेल सेवा या ग्रीस के कैसिनो, जापान की डाक सेवा (दुनिया की सबसे बड़े बचत बैंक की मालिक) या फ्रांस व जर्मनी में सरकारी जमीन-मकान अथवा पोलैंड की सरकारी टकसाल और फोन कंपनी में हिस्सेदारी।... दमघोंट घाटे से घिरे यूरोप और जापान ने दुनिया में एक से नायाब सरकारी संपत्तियों का बाजार सजा दिया है। सरकारों के रत्‍‌न ( कंपनियां व प्रतिष्ठान) ग्राहकों के इंतजार में वित्तीय बाजारों के शो केस में बिठा दिये गए हैं। ..घाटा जो न कराये सो थोड़ा !!!. कर्ज पाटने और घाटा काटने के लिए सरकारी संपत्तियों की बिक्त्री तो तीसरी दुनिया का सहारा थी मगर अब तो बड़े बड़े इस बाजार में आवाज लगा रहे हैं। यह भारत के लिए फिक्त्रमंद होने मौका है। दुनिया भर के सरकारी रत्‍‌नों के इस व्यापार मेले में उसके जवाहर लालों ( सार्वजनिक उपक्त्रम विनिवेश) को कितने ग्राहक मिलेंगे? दरअसल विदेशी पूंजी अब पैंतरे बदल रही है। विदेशी निवेशकों को उनके अपने वतन बुला रहे हैं। संकट में घिरे यूरोप और अमेरिका अपने निजी क्षेत्र को उनका क‌र्त्तव्य याद दिला रहे हैं। इन कंपनियों का राष्ट्रप्रेम तीसरी दुनिया को परेशान कर सकता है। यानी कि भारत को अब विदेशी पूंजी की चिंता करनी चाहिए। उस कायर पूंजी की नहीं जो शेयर बाजार में संकट आते ही उड़ जाती है बल्कि उस विदेशी निवेश की जो अर्थव्यवस्था की जड़ों में उतर कर देश का हिस्सा हो जाता है।
सरकारों का बाजार
दुनिया के इस सबसे खास बाजार में आपका स्वागत है। इसे सरकारों के घाटे ने तैयार किया है। 232 बिलियन डॉलर के रिकार्ड घाटे से परेशान, ब्रिटेन, यहां मशहूर यूरोपियन हाई स्पीड ट्रेन सेवा बेचने (1.5 बिलियन डॉलर का जुगाड़ संभव) के लिए खड़ा है। यह ट्रेन इंग्लिश चैनल के समुद्र के नीचे से गुजरती है। ब्रितानी आकाश में विमानों की निगहबान, नेशनल एयर ट्रैफिक सर्विसेज (नैट्स) का निजीकरण हो रहा है। डाक कंपनी रॉयल मेल में भी सरकारी हिस्सेदारी बिक रही है। ब्रिटेन ने इस बिक्त्री अभियान से एक दशक में करीब 53 बिलियन डॉलर जुटाने का मीजान लगाया है। ग्रीस 3.7 बिलियन डॉलर जुटाने के लिए कई सरकारी रत्‍‌न बेचने निकल पड़ा है। शिपिंग के स्वर्ग इस मुल्क में कई बंदरगाह, रेलवे, हवाई अड्डे, डाक सेवा और एथेंस में पेयजल की आपूर्ति करने वाले प्रतिष्ठान तक, आंशिक या पूर्ण निजीकरण के लिए ग्राहक तलाश रहे हैं। कतर जैसे अमीर अरब मुल्क ग्रीस के नेशनल बैंक में हिस्सेदारी लेने की कोशिश में हैं। ग्रीस के मशहूर कैसिनो भी इस बाजार में सजे हैं। पूर्वी यूरोप में पौलेंड की सरकार दस बिलियन डॉलर के जुगाड़ के लिए अपनी टकसाल (मेनिका पोलस्का), बीमा, रसायन व फोन कंपनियों हिस्सेदारी बेच रही है। घाटा घटाने के लिए जर्मनी की सरकारी संपत्ति बिक्त्री कंपनी 'बीमा' करीब 3.4 बिलियन यूरो की संपत्तियां बेचने को तैयार है तो फ्रांस अपने छह फीसदी सरकारी भवन बेच डालेगा। घाटे में घिरी जापानी सरकार ,जापान पोस्ट का हिस्सा बेचने को तैयार है। डाक सेवा चलाने वाली यह कंपनी निवेशकों के 117 ट्रिलियन येन संभालती है। दुनिया का यह सबसे बड़ा बचत बैंक, जापान सरकार के बांडों में सबसे बड़ा निवेशक भी है। .. अर्थात सभी को मोटी जेब वाले कुछ निजी ग्राहकों का इंतजार है।
बांटने वालों की मुश्किल
यूरोप व अमेरिका में निजी क्षेत्र से ऐसी उम्मीदें कम दिखती हैं। इन क्षेत्रों में नए निवेश के स्त्रोत बाकी दुनिया से फर्क रहे हैं। बुनियादी ढांचा बनाने का जिम्मा आमतौर पर सरकारों का है। इनके संसाधनों की नदी अरबों खरबों के बांड बाजार से निकलती है। स्थांनीय निकाय और रेलवे, पेयजल, बिजली, कचरा प्रबंधन आदि से जुड़ी सरकारी कंपनियां बांड बाजार से पैसा उठा कर शहरों व देशों को रहने लायक बनाती हैं। इनके बांडों पर मिलने वाली कर छूट निवेशकों को आकर्षित करती है। मगर ताजे संकट ने सब बदल दिया। 2.7 ट्रिलियन डॉलर का अमेरिकी स्टेट व म्युशनिसिपल बांड बाजार ढह गया है। इस बाजार में कैलीफोर्निया को 'अमेरिका का ग्रीस' कह रहे हैं। जाहिर है जब देशों की साख कचरा हो रही हो तो स्थानीय निकायों के बांड कौन खरीदे। अमेरिका में पिछले छह माह में 1.5 बिलियन डॉलर के म्युनिसिपिल बांड डिफाल्ट हो चुके हैं। नतीजतन सरकारी संपत्तियां खरीदने व निवेश के लिए निजी क्षेत्र की टेर लग रही है। ब्रिटेन के नए वित्त मंत्री जॉर्ज ऑसबोर्न ने कहते हैं कि सरकारी खर्च घट रहा है, निजी क्षेत्र को अब आर्थिक विकास का इंजन संभालना होगा।
उलटी धार निवेश की
मंदी और संकट का विस्फोट दुनिया में निवेश की धारा उलट सकता है। जो मुल्क आज परेशान हैं उन्हीं की कंपनियां तीसरी दुनिया के देशों में निवेश उड़ेल रही थीं। अब इनके संसाधन इनके अपने ही देश में ही रुकने का खतरा है। स्वतंत्र आकलनों के मुताबिक अगले कुछ वषरें में दुनिया में 132 बिलियन डॉलर तक की सरकारी संपत्तियां बिकेंगी। इस नक्कारखाने में भारत के सार्वजनिक उपक्त्रम विनिवेश की तूती मुश्किल से ही सुनाई देगी। विदेशी निवेश के लिए बाजार को खोलना अमेरिका की सबसे ताजी बहस है। अमेरिका की बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में विदेशी कंपनियां बिरले ही निवेश करती हैं। लेकिन संसाधनों की किल्लत पुराने नियम बदल रही है। अब अगर कैलीफोर्निया या लुइजियाना अथवा एथेंस या मानचेस्टर में निवेश के मौके निकले तो उत्तर प्रदेश अथवा पटना, जयपुर को कौन पूछेगा? आउटसोर्सिंग या कंपनियों के अधिग्रहण को लेकर हाल के प्रसंग गवाह है कि पश्चिम की सरकारें गजब की संरंक्षणवादी हैं, वह कर रियायतों से लेकर तमाम नियमों के जरिये निजी निवेश को अपने देश में रोकने की कुव्वत रखती हैं। कई झंझावातों के बाद जब भारत ने जब निवेशकों का भरोसा हासिल किया तो निवेश की हवायें ही बदलने लगीं हैं।
भारत की उलझन बड़ी दिलचस्प है। उभरती अर्थव्यवस्था से आकर्षित होकर निवेशकों के झुंड शेयर बाजारों में उतर रहे हैं। मगर यह डरपोक निवेश है, जो जरा से संकट पर बोरिया बिस्तर समेट लेता है। देश को वह विदेशी पूंजी चाहिए जो तकनीक, रोजगार व उत्पादन लेकर आए। सरकारी लक्ष्यों के मुताबिक 2012 तक देश को हर साल ऐसे 50 बिलियन डॉलर चाहिए, जो यहां की आर्थिक जमीन में उतर जाएं। अलबत्ता अच्छे वषरें में भी इस किस्म की विदेशी पूंजी 25-26 बिलियन डॉलर से ऊपर नहीं गई है। अब जबकि निवेश के उद्गम क्षेत्रों के इर्दगिर्द ही सूखा पड़ा है तो पूंजी की धारायें की भारत जैसे दूरदराज के इलाकों तक मुश्किल से ही पहुंचेंगी। हैरत नहीं कि दुनिया के अन्यं इलाकों से भी निवेशक यूरोप अमेरिका का रुख कर लें क्यों कि वहां के बाजारों में भारत जैसे रोड़े नहीं हैं। ..भारत को अब विदेशी निवेश के संभावित सूखे से निबटने के लिए तैयारी शुरु कर देनी चाहिए।
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