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Saturday, October 12, 2019

उलटा तीर


वक्त बड़ा निर्मम हैअगर सब कुछ ठीक होता तो निर्मला सीतारमण भारत के सबसे विराट ड्रीम बजट की प्रणेता बन जातीं. 20 सितंबर को कॉर्पोरेट टैक्स में कटौती के साथ निर्मला ने पीचिदंबरम (1997-98 कॉर्पोरेटव्यक्तिगत इनकम टैक्सएक्साइजकस्टम में भारी कटौतीसे बड़ा इतिहास बनायालेकिन यह अर्थव्यवस्था है और इसमें इस बात की कोई गांरटी नहीं होती कि एक जैसे फैसले एक जैसे नतीजे लेकर आएंगे.

1.5 लाख करोड़ रुपए के तोहफे (कंपनियों की कमाई पर टैक्स में अभूतपूर्व कमीकी आतिशबाजी खत्म हो चुकी हैजिन चुनिंदा कंपनियों तो यह तोहफा मिला हैउनमें अधिकांश इसे ग्राहकों से नहीं बांटेंगी बल्कि पचा जाएंगीशेयर बाजार के चतुर-सुजान ढहते सूचकांकों से अपनी बचत बचाते हुए इस विटामिन के उलटे असर का मीजान लगाने लगे हैंक्योंकि इस खुराक के बाद भी कंपनियों की कमाई घटने का डर है क्योंकि बाजार में मांग नहीं है

कंपनियों पर टैक्स को लेकर सरकार के काम करने का तरीका अनोखा हैमोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में कंपनियों पर जमकर टैक्स थोपाशेयर बाजार में सूचीबद्ध शीर्ष कंपनियों की कमाई पर टैक्स की प्रभावी दर (रियायतें आदि काटकर) 2014 में 27 फीसद थी जो बढ़ते हुए 2019 में 33 फीसद पर आईअब इसे  घटाकर 27.6 फीसद किया गया है.

कौन जवाब देगा कि औद्योगिक निवेश तो 2014 से गिर रहा है तो टैक्स क्यों बढ़ा या नए बजट में कंपनियों की कमाई पर सरचार्ज क्यों बढ़ाया गयालेकिन हमें यह पता है कि ताजा टैक्स रियायत भारत के इतिहास का सबसे बड़ा कॉर्पोरेट तोहफा है

·       क्रिसिल ने बताया कि 1,074 बड़ी कंपनियों (2018 में कारोबार 1,000 करोड़ रुपए से ऊपरको इस रियायत से सबसे ज्यादा यानी 37,000 करोड़ रुपए का सीधा फायदा पहुंचेगाजो कुल कॉर्पोरेट टैक्स संग्रह में 40 फीसद हिस्सा रखती हैंइन पर लगने वाला टैक्स अन्य कंपनियों से ज्यादा था.

·       ये कंपनियां करीब 80 उद्योगों में फैली हैंऔर नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के बाजार पूंजीकरण में 70 फीसद की हिस्सेदार हैंइसलिए शेयर बाजार में तेजी का बुलबुला बना था.

·       2018 में करीब 25,000 कंपनियों ने मुनाफा कमाया जो सरकार के कुल टैक्स संग्रह में 60 फीसद योगदान करती हैं.

अर्थव्यवस्था के कुछ बुनियादी तथ्यों की रोशनी में बाजार और निवेश खुद से ही यह पूछ रहे हैं कि 1,000 कंपनियों को टैक्स में छूट से मांग कैसे लौटेगी और मंदी कैसे दूर होगी?

घरेलू बचत का आंकड़ा कंपनियों को इस रियायत की प्रासंगिकता पर सबसे बड़ा सवाल उठाता हैपिछले वर्षों में निवेश या मांग घटने से कंपनियों की बचत पर कोई फर्क नहीं पड़ा. 2019 में प्राइवेट कॉर्पोरेट सेविंग जीडीपी के अनुपात में कई दशकों की ऊंचाई (12 फीसदपर थी

दूसरी तरफआम लोगों की बचत (हाउसहोल्ड सेविंग्सकई दशक के सबसे निचले स्तर (3 फीसदपर हैआम लोगों की आय घटने से बचत और खपत ढही हैरियायत की तो जरूरत इन्हें थीदिग्गज कंपनियों के पास निवेश के लायक संसाधनों की कमी नहीं हैटैक्स घटने और कर्ज पर ब्याज दर कम होने से बड़ी कंपनियों की बचत बढ़ेगीबाजार में खपत नहीं

भारत की मंदी पूंजी गहन के बजाए श्रम गहन उद्योगों में ज्यादा गहरी है जो सबसे ज्यादा रोजगार देते हैंकंपनियों की कमाई से मिलने वाले टैक्स का 55 फीसद हिस्सा तेल गैसउपभोक्ता सामाननिर्यात (सूचना तकनीकफार्मारत्नाभूषणआदि उद्योगों से आता है जबकि रोजगार देने वाले निर्माण या भारी निवेश वाले क्षेत्र टैक्स में केवल दस फीसद का हिस्सा रखते हैंइन्हें इस रियायत से कोई बड़ा लाभ नहीं मिलने वाला.

कॉर्पोरेट के इस तोहफे का बिल खासा भारी हैटैक्स संग्रह की टूटती रफ्तार और मुनाफों पर दबाव को देखते हुए सरकार की यह कृपा खजाने पर 2.1 लाख करोड़ रुपए का बोझ डालेगी जो जीडीपी के अनुपात में 1.2 फीसद तक हैइसका ज्यादा नुक्सान राज्य उठाएंगेकेंद्रीय करों में सूबों का हिस्सा करीब 40 फीसद घट जाएगाकेंद्र सरकार वित्त आयोग की मार्फतराज्यों को केंद्र से मिलने वाले संसाधनों में कटौती भी कराना चाहती हैअगर ऐसा हुआ तो राज्यों में खर्च में जबरदस्त कटौती तय हैसनद रहे कि राज्यों का खर्च ही स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं में मांग का सबसे बड़ा ईंधन है.

कंपनियों की कमाई पर टैक्स रियायत को लेकर अमेरिका का ताजा तजुर्बा नसीहत हैडोनाल्ड ट्रंप ने कॉर्पोरेट टैक्स में भारी (35 से 21 फीसदकटौती की थीवह भी उस वक्त जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था मंदी से उबर चुकी थीब्याज दर न्यूनतम थी और शेयर बाजार गुलजार थाटैक्स घटने के बाद अमेरिकी शेयर बाजार ने छलांगें लगाईंकंपनियों की कमाई बढ़ी लेकिन 21 माह बाद अमेरिका का जीडीपी अपने शिखर से एक फीसद लुढ़क चुका हैशेयर बाजार तब की तुलना में केवल 5 फीसद ऊपर हैनिवेश की रफ्तार सुस्त हो गईउपभोक्ताओं का मूड उदास है और घाटा बढ़ा हुआ है.

मिल्टन फ्रीडमैन फिर सही साबित होने जा रहे हैं कि सरकारों के समाधान अक्सर समस्याओं को और बढ़ा देते हैं!   


Saturday, October 5, 2019

इनके जीते, जीत है


मंदी का इलाज है कहांवहीं जहां इसका दर्द तप रहा हैदरअसलमेक इन इंडिया के मेलों की शुरुआत (2014) तक भारतीय अर्थव्यवस्थाएक दशक तक अपने इतिहास की सबसे तेज विकास दर के बाद ढलान की तरफ जाने लगी थीलेकिन 2015 में जीडीपी का नवनिर्मित (फॉर्मूलानक्कारखाना गूंज उठा और भारत की स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं के दरकने के दर्द को अनसुना कर दिया गयाअलग-अलग सूबों के निवेश उत्सवों में निवेश के जो वादे हुएअगर उनका आधा भी आया होता तो हम दो अंकों की विकास दर में दौड़ रहे होते.

खपत और निवेश टूटने से आई इस मंदी की चुभन देश भर में फैली राज्य और नगरीय अर्थव्यवस्थाओं में जाकर महसूस की जा सकती हैजो पिछले दशक में मांग और नए रोजगारों का नेतृत्व करती रही हैं. 1995 से 2012 के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था का क्षेत्रीयस्थानीय और अंतरराज्यीय स्वरूप पूरी तरह बदल चुका हैपिछले सात-आठ वर्षों की नीतियां इस बदलाव से कटकर हवा में टंग गई हैंइसलिए मंदी पेचीदा हो रही है

भारतीय अर्थव्यवस्था की बदली ताकत का नया वितरण काफी अनोखा हैजिसे मैकेंजी जैसी एजेंसियांआर्थिक सर्वेक्षण और सरकार के आंकड़े नापते-जोखते रहे हैं.

·       दिल्ली में सरकार चाहे जो बनाते हों लेकिन भारत को मंदी से निकालने का दारोमदार 12 अत्यंत तेज और तेज विकास दर वाले राज्यों पर है. 2002-12 के दौरान इनमें से आठ की विकास दर भारत के जीडीपी से एक फीसद ज्यादा थीगोवाचंडीगढ़दिल्लीपुदुच्चेरीहरियाणामहाराष्ट्रगुजरातकेरलहिमाचलतमिलनाडुपंजाब और उत्तराखंड आज देश का 50 फीसद जीडीपी और करीब 58 फीसद उपभोक्ताओं की मेजबानी करते हैंअगले सात साल में इनमें आठ से दस राज्य यूरोप की छोटे देशों जैसी अर्थव्यवस्था हो जाएंगेमंदी से लड़ाई की अगुआई इन्हें ही करनी है.

·       अगले सात साल में भारत की करीब 38 फीसद आबादी (करीब 55-58 करोड़ लोगनगरीय होगीभारत के 65 नगरीय जिले (जैसे दिल्लीनोएडाहुगलीनागपुररांचीबरेलीइंदौरनेल्लोरउदयपुरकोलकातामुंबईसूरतराजकोट आदिदेश की खपत का नेतृत्व करते हैंदेश की करीब 26 फीसद आबादी, 45 फीसद उपभोक्ता वर्ग और 37 फीसद खपत और 40 फीसद जीडीपी इन्हीं में केंद्रित हैअगले पांच साल में खपत के सूरमा जिलों की संख्या 79 हो जाएगीखपत बढ़ाने की रणनीति इन जिलों के कंधों पर सवार होगी.

·       यूं ही नहीं भारत में रोजगार के अवसर गिने-चुने इलाकों में केंद्रित हैंलगभग 49 क्लस्टर (उद्योगनगरबाजारभारत मे जीडीपी में 70 फीसद का योगदान करते हैंइनके दायरे में करीब 250 से 450 शहर आते हैंयही रोजगार का चुंबक हैं और यहीं से बचत गांवों में जाती हैभारत के अंतरदेशीय प्रवास के ताजा अध्ययन इन केंद्रों के आकर्षण का प्रमाण हैंदुर्भाग्य से नोटबंदी और जीएसटी की तबाही का इलाका भी यही है.

2008 के बाद दुनिया में आए संकट को करीब से देखने के बाद दुनिया के कई देशों में यह महसूस किया गया कि उनकी स्थानीय समृद्धि कुछ दर्जन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के पास सिमट गईजबकि अगर स्थानीय अर्थव्यवस्था में 100 डॉलर लगाए जाएं तो कम से 60 फीसद पूंजी स्थानीय बाजार में रहती हैइसके आधार पर दुनिया में कई जगह लोकल इकोनॉमी (आर्थिक भाषा में लोकल मल्टीप्लायरताकत देने के अभियान शुरू हुएबैंकिंग संकट और ब्रेग्जिट के बीच उत्तर इंग्लैंड के शहर प्रेस्टन का लोकल ग्रोथ मॉडल चर्चा में रहा हैजहां उपभोक्ताओं से जुटाए गए टैक्स और संसाधनों का स्थानीय स्तर पर इस्तेमाल किया गया.

कॉर्पोरेट टैक्स में कटौती से मांग या रोजगार बढ़ने के दावे जड़ नहीं पकड़ रहे हैंबार्कलेज बैंक ने हिसाब लगाया हैअगर अपने मुनाफे पर टैक्स देने वाली कंपनियों की कारोबारी आय पिछले वर्षों की रफ्तार से बढे़ (जो कि मुश्किल हैतो यह कटौती जीडीपी को ज्यादा से ज्यादा 5.6 फीसद तक ले जाएगी और अगर आय कम हुई (जो कि तय लग रहा हैतो कॉर्पोरेट कर में कमी से जीडीपी हद से हद 5.2 फीसद तक जाएगायानी करीब 1.5 लाख करोड़ रुपए के तोहफे के बदले छह फीसद की ग्रोथ भी दुर्लभ है.
रोजगारों के बाजार में बड़ी कंपनियों की भूमिका पहले भी सीमित थी और आज भी हैहमारे पड़ोस की ग्रोथ फैक्ट्रियों और बाजारों के सहारे ही भारत की उपभोक्ता खपत 2002 से 2012 के बीच हर साल सात फीसद (7.7 फीसद की जीडीपी ग्रोथ के लगभग बराबरबढ़ी और निवेश जीडीपी के अनुपात में 35 फीसद के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचानतीजा यह हुआ कि करीब 14 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर निकले और लगभग 20 करोड़ लोग इंटरनेट से जुड़ गए.

रोजगार और खपत बढ़ाने के लिए ज्यादा नहीं केवल एक दर्जन राज्य स्तरीय और 50 स्थानीय रणनीतियों की जरूरत हैअब मेक इन इंडिया की जगह मेक इन लुधियानापुणेकानपुरबेंगलूरूसूरतचंडीगढ़ की जरूरत हैइन्हीं के दम पर मंदी रोकी जा सकती हैयाद रहे कि भारत का कीमती एक दशक पहले ही बर्बाद हो चुका है.



Saturday, September 28, 2019

मंदी की जड़


·       भारत में सबसे ज्यादा निजी निवेश उस वक्त आया जब कॉर्पोरेट इनकम टैक्स की दर 39 से 34 फीसद के बीच (2000 से 2010) थीसनद रहे कि कंपनियां मांग देखकर निवेश करती हैंटैक्स तो वे उपभोक्ताओं के साथ बांट देती हैं

·       पिछले चार साल में खपत को विश्व रिकॉर्ड बनाना चाहिए था क्योंकि महंगाई रिकॉर्ड न्यूनतम स्तर पर है

·       ऊंचा टैक्सअगरलोगों को खरीद से रोकता है तो फिर जीएसटी के तहत टैक्स में कटौती के बाद मांग कुलांचे भरनी चाहिए थी

·       जनवरी 2016 में वेतन आयोग, 2018-19 में लोगों के हाथ में तीन लाख करोड़ रुपए (डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफरबीते बरस से 60 फीसद ज्यादादिए और नकद किसान सहायता व मनरेगामगर मांग नहीं बढ़ी 

·       कर्ज पर ब्याज की दर पिछले एक साल से घटते हुए अब पांच साल के न्यूनतम स्तर पर है

·       2014-19 के बीच केंद्र का खर्च 17 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर करीब 24 लाख करोड़ रुपए हो गयावित्त आयोग की सिफारिशों के तहत राज्यों को ज्यादा संसाधन मिले

·       बकौल प्रधानमंत्रीपिछले पांच साल में रिकॉर्ड विदेशी निवेश हुआ हैशेयर बाजारों में ‌बड़े पैमाने पर विदेशी पूंजी आई है

... लेकिन 2017 में भारत की अर्थव्यवस्था जो 8.2 फीसद से दौड़ रही थी अब पांच फीसद पर है.

ताजा मंदी कठिन पहेली बन रही हैपिछले छह-सात वर्ष में आपूर्ति के स्तर पर वह सब कुछ हुआ है जिसके कारण खपत को लगातार बढ़ते रहना चाहिए थालेकिन 140 करोड़ उपभोक्ताओं के बाजार की बुनियाद यानी  मांग टूट गई है.

कार-मकान को उच्च मध्य वर्ग की मांग मानकर परे रख दें तो भी साबुन-तेल-मंजन की खपत में 15 साल की (क्रेडिट सुइस रिपोर्टसबसे गहरी मंदीक्यों?

उत्पादों की बिक्रीटैक्सजीडीपी और आम  लोगों की कमाई के आंकड़ों का पूरा परिवार गवाह है कि यह मंदी विशाल ग्रामीणकस्बाई अर्थव्यवस्था में आय और रोजगार में अभूतपूर्व गिरावट से निकली है.

2019 में कृषि‍ जीडीपी 15 साल के न्यूनतम स्तर पर (3 फीसदपर आ गयानोटबंदी ने गांवों को तोड़ दिया. 2016 के बाद से फसलों के वाजिब दाम नहीं मिलेमहंगाई के आंकड़ों में उपज की कीमतें दस साल के निचले स्तर पर हैंअनाजों की उपज कृषि‍ जीडीपी में केवल 18 फीसद की‍ हिस्सेदार हैंइसलिए समर्थन मूल्य बढ़ने का असर सीमित रहा.

2016 के बाद से ग्रामीण आय (14 करोड़ खेतिहर श्रमिककेवल दो फीसद बढ़ी जबकि शेष अर्थव्यवस्था में 12 फीसदनतीजतन गांवों में आय बढ़ने की दर दस साल के सबसे निचले स्तर पर है.

जीडीपी की नई शृंखला (ग्रॉस वैल्यू एडिशनके मुताबिक,  2012-17 के बीच खेती में बढ़ी हुई आय का केवल 15.7 फीसद हिस्सा श्रम करने वालों को मिला जबकि 84 फीसद उनके पास गया जिनकी पूंजी खेती में लगी थीइस दौरान हुई पैदावार का जितना मूल्य बढ़ा उसका केवल 2.87 फीसद हिस्सा मजदूरी बढ़ाने पर खर्च हुआइंडिया रेटिंग्स मानती है कि इस दौरान गरीबी बढ़ी है.

2012-18 के बीच भारत में कम से कम 2.9 करोड़ रोजगार बनने चाहिए थेजो खेतीरोजगार गहन उद्योगों (भवन निर्माणकपड़ाचमड़ाव्यापारसामुदायिक सेवाएंसे आने थेइस बीच नोटबंदी और जीएसटी ने छोटी-मझोली (कुल 585 लाख प्रतिष्ठान—95.5 फीसद में पांच से कम कामगारछठी आर्थिक जनगणना 2014) असंगठित अर्थव्यवस्था को तोड़ दियाजो भारत में लगभग 85 फीसद रोजगार देता हैगांवों को शहरों से जाने वाले संसाधन भी रुक गएजबकि शहरों से बेकार लोग गांव वापस पहुंचने लगे

कर्ज में फंसनेप्रतिस्पर्धा सिकुड़ने और नियमों में बदलाव (ईकॉमर्सके कारण बड़ी कंपनियों के बंद होने से नगरीय मध्य वर्ग भी बेकारी में फंस गयायही वजह थी कि 2017-18 में बेकारी की दर 6.1 फीसद यानी 45 साल के सबसे ऊंचे स्तर (एनएएसओपर पहुंच गई जबकि जीडीपी 7.5 फीसद की ऊंचाई पर था.

भारत का श्रम बाजार अविकसित हैवेतन-मजदूरी कम हैजीडीपी (जीवीएके ताजा आंकड़ों के मुताबिकअर्थव्यवस्था में जितनी आय बनती है उसका केवल एक-तिहाई वेतन और मजदूरी में जाता हैग्रामीण और अर्धनगरीय उपभोक्ता बढ़ती मांग का आधार हैंउनकी अपेक्षाओं पर बैठकर कंपनियां नए उत्पाद लाती हैंकमाई घटने के बाद नकद बचतें टूटीं क्योंकि जमीन का बाजार पहले से मंदी में थाजहां ज्यादातर बचत लगी है.

यह मंदी नीचे से उठकर ऊपर तक यानी (कार-मकान की बिक्री और सरकार के टैक्स में गिरावटतक पहुंची हैकॉर्पोरेट टैक्स में कटौती के बाद अब कंपनियों के मुनाफे तो बढ़ेंगे लेकिन रोजगारमांग या खपत नहींघाटे की मारी सरकार अब खर्च भी नहीं कर पाएगी.

अगर सरकारें अपनी पूरी ताकत आय बढ़ाने वाले कार्यक्रमों में नहीं झोकतीं तो बड़ी आबादी को निम्न आय वर्ग में खिसक जाने का खतरा है यानी कम आय और कम मांग का दुष्चक्रजो हमें लंबे समय तक औसत और कमजोर विकास दर के साथ जीने पर मजबूर कर  सकता है.

Friday, September 20, 2019

बदकिस्मत सुधार !

अगर मंदी खपत गिरने की वजह से है तो फिर कंपनियों को करीब 1.47 लाख करोड़ की टैक्स रियायत क्योंइतनी ही रियायत उपभोक्ताओं को दी जाती तो कंपनियां तो मांग बढ़ाने के उपाय मांग रही थी सरकार ने उनके मुनाफे बढ़ाने का इंतजाम कर दिया.

अगर सरकारी बैंकों का विलय इतना ही क्रांतिकारी है तो फिर बाजार  क्यों कह रहा है कि यह अगले कुछ वर्ष तक बैंकों पर बड़ा भारी पड़ेगा?

अगर इलेक्ट्रिक वाहनों की इतनी जरूरत है तो फिर नीति और रियायतों के ऐलान के बाद सरकार को क्यों लगा कि जल्दबाजी ठीक नहीं है?

यह दोनों ही सिद्धांत की कसौटी पर सौ टंच सुधार हैं जैसे कि जीएसटी या फिर रियल एस्टेट रेगुलेटर (रेराआदिइनकी जरूरत से किसे इनकार होगालेकिन यह नामुराद अर्थव्यवस्था अजीब ही शय हैयहां सबसे ज्यादा कीमती होती है नीतियों की सामयिकतावक्त की समझ ही नीतियों को सुधार बनाती है.

पिछले पांच-छह वर्षों में सुधारों की टाइमिंग बिगड़ गई हैदवाएं बीमार कर रही हैं और सहारे पैरों में फंसकर मुंह के बल गिराने लगे हैं.

बैंकों का महाविलय अभी क्यों प्रकट हुआयह फाइल तो वर्षों से सरकार की मेज पर हैबैंकों को कुछ पूंजी देकर एक चरणबद्ध विलय 2014 में ही शुरू हो सकता थाया फिर स्टेट बैंक (सहायक बैंकऔर बैंक ऑफ बड़ोदा (देना बैंकके ताजा विलय के नतीजों का इंतजार किया जाताइस समय मंदी दूर करने के लिए सस्ते बैंक कर्ज की जरूरत है लेकिन अब बैंक कर्ज बांटने की सुध छोड़कर बहीखाते मिला रहे हैं और घाटा बढ़ने के डर से कांप रहे हैंनुक्सान घटाने के लिए कामकाज में दोहराव खत्म होगा यानी नौकरियां जाएंगी.

बैंकों के पास डिपॉजिट पर ब्याज की दर कम करने का विकल्प नहीं हैजमा टूट रही है तो फिर वह रेपो रेट के आधार पर कर्ज कैसे देंगेयह सुधार भी बैंकों के हलक में फंस गया.

रियल एस्टेट रेगुलेटरी बिल (रेराएक बड़ा सुधार थालेकिन यह आवास निर्माण में मंदी के समय प्रकट हुआनतीजतन असंख्य प्रोजेक्ट बंद हो गएडूबा कौनग्राहकों का पैसा और बैंकों की पूंजीअब जो बचेंगे वे मकान महंगा बेचेंगेरिजर्व बैंक ने यूं ही नहीं कहा कि भारत में मकानों की महंगाई सबसे बड़ी आफत है और यह बढ़ती रहेगीक्योंकि कुछ ही बिल्डर बाजार में बचेंगे.

ऑटोमोबाइल की मंदी गलत समय पर सही सुधारों की नुमाइश हैमांग में कमी के बीच डीजल कारें बंद करने और नए प्रदूषण के नियम लागू किए गए और जब तक यह संभलतासरकार बैटरी वाहनों की दीवानी हो गई. इन सबकी जरूरत थी लेकिन क्या सब एक साथ करना जरूरी थानतीजे सामने हैंकई कंपनियां बंद होने की तरफ बढ़ रही हैं.

एक और ताजा फैसलाजब शेयर बाजारअर्थव्यवस्था की बुनियाद दरकने से परेशान था तब उस पर टैक्स लगा दिए गएबाजार पर टैक्स पहले भी कम नहीं थे लेकिन बेहतर ग्रोथ के बीच उनसे बहुत तकलीफ नहीं हुईसरकार जब तक गलती सुधारती तब तक विदेशी निवेशक बाजार से पैसा निकाल कर रुपए को मरियल हालत में ला चुके थे.

नोटबंदी सिद्धांतों की किताब में सुधार जरूर है लेकिन यह जरूरी नहीं था कि हर अर्थव्यवस्था इसे झेल सकेकाला धन नहीं रुकाकैशलैस इकोनॉमी नहीं बनी लेकिन कारोबार तबाह हो गए.

सिंगल यूज प्लास्टिक बंद होना चाहिए लेकिन विकल्प तो सोच लिया जाताइस मंदी में केवल प्लास्टिक ही एक सक्रिय लघु उद्योग हैयह फैसला इस कारोबार पर भारी पड़ेगा.

जन धनबैंकरप्टसी कानूनमेक इन इंडियाडिजिटल इंडिया... गौर से देखें तो इन सब की टाइमिंग इन्हें धोखा दे गई हैजीएसटी तो 1991 के बाद सामयिकता की सफलता और विफलता की सबसे बड़ी नजीर है.

वैट या वैल्यू एडेड टैक्सआज के जीएसटी का पूर्वज थाउसे जिस समय लागू किया गया (2005) तब देश की अर्थव्यवस्था बढ़त पर थीसुधार सफल रहाखपत बढ़ी और राज्यों के खजाने भर गएलेकिन जीएसटी जब अवतरित हुआ तब नोटबंदी की मारी अर्थव्यवस्था बुरी तरह घिसट रही थीजीएसटी खुद भी डूबा और कारोबारों व बजट को ले डूबाइसलिए ही तो मंदी में टैक्स सुधार उलटे पड़ते हैं.

सुधार की सामयिकता का सबसे दिलचस्प सबक रुपए के अवमूल्यन के इतिहास में दर्ज हैआजादी के बाद रुपए का दो बार अवमूल्यन हुआएक 6.6.66 को जब इंदिरा गांधी ने रुपए का 57 फीसद अवमूल्यन किया. 1965 के युद्ध के बाद हुआ यह फैसला उलटा पड़ा और अर्थव्यवस्था टूट गई और असफल इंदिरा गांधी लाइसेंस परमिट राज की शरण में चली गईंदूसरा अवमूल्यन 1991 में हुआ वह भी 72 घंटे में दो बारउसके बाद भारतीय अर्थव्यवस्था ने मुड़कर नहीं देखा.

सुधारों की सामयिकता लोकतंत्र से आती हैपिछले कई बड़े सुधार शायद इसलिए मुसीबत बन गए क्योंकि उनसे प्रभावित होने वालों से कोई संवाद ही नहीं किया गयायह समस्या शायद अब तक कायम है

मंदी की हां-ना के बीच पांच पैकेज न्योछावर हो चुके हैं. कारपोरेट टैक्स कम होने से खपत बढेगी क्यानिवेश तो खपत का पीछा करता है. मांग थी तो ऊंचे टैक्स पर भी कंपनियां निवेश कर रही थीं.

दुआ कीजिये कि इन रियायतों से मांग या निवेश बढ़े. नतीजे अगली तिमाही तक सामने होंगे. क्यों कि अगर यह भी एक और बदकिस्मत असामयिक सुधार साबित हुआ तो घाटे का अंबार बजटीय संतुलन का क्रिया कर्म कर देगा.