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Monday, August 20, 2012

उदारीकरण का ऑडिट


प्राकृतिक संसाधनों की खुली बंदरबांट, कुछ भी करने को तैयार निजी क्षेत्र और एक एक कंपनी टर्नओवर के बराबर संपत्ति वाले राजनेता !!!!  यह सब देखकर अगर आर्थिक उदारीकरण को बिसूरने का मन करता है तो आप गलत नहीं है। गुलाम अतीत, राजनीति से बोझिल व्यवस्था, लचर कानून, जरुरी सुविधाओं की कमी और जबर्दस्त अवसरों वाले समाज में उदारीकरण शायद ऐसी ही आफत लाता है। प्राकृतिक संसाधन किसी भी देश की तरक्की की बुनियाद होते हैं लेकिन संसाधनों को संभालने वाले कानून अगर बोदे हों और निगहबान भ्रष्ट, तो खुला बाजार दरअसल खुली लूट बन जाता है। संवैधानिक संस्थाओं का शुक्रगुजार होना चाहिए वह हमें हमारे आर्थिक खुलेपन का बदसूरत चेहरा दिखा रही हैं। सीएजी की रिपोर्टें भारत के उदारीकरण की दो टूक समीक्षा हैं।
अराजक राज
खदान, खनिज, जमीन, स्पेक्‍ट्रम जैसे प्राकृतिक संसाधन आर्थिक विकास की बुनियादी जरुरत हैं। श्रम और पूंजी देश से बाहर से लाए सकते है मगर प्राकृतिक संसाधनों का आयात नहीं हो सकता। इसलिए पूंजी सबसे पहले इनके पीछे दौड़ती है ताकि इन्हें लेकर बाजार में बढ़त हासिल की जा सके। समझदार सरकारें देश के प्राकृतिक संसाधनों को बाजार के साथ बड़ी चतुराई से बांटती हैं। संसाधनों की वाणिज्यिक कीमत का तथ्यांत्मक व शोधपरक आकलन होता है‍। भविष्य की संभावनाओं का पूरा गुणा भाग करते हुए यह आंका जाता है कितने संसाधन विकास की जरुरत हैं और कितने बाजार की। इनके आधार पर सरकारें बाजार से इसकी सही कीमत कीमत तय करती है और बाजार से वह कीमत वसूली जाती है क्यों कि बाजार इनके इस्तेमाल की कीमत उपभोक्ता से लेता है। प्राकृतिक संसाधन, बाजार और पूंजी का यह ग्लोबल रिश्ता , उदारीकरण के साथ भारत भी पहुंचा मगर यहां एक अनोखा

Monday, February 6, 2012

जीत की हार


कुछ लालची नेताओं का भ्रष्‍टाचार, चालाक कंपनियों की मौका परस्‍ती और गठबंधन के सामने बेबस सरकार की निष्क्रियता!!! क्‍या इतने से हो गया विशाल 2जी घोटाला??? शायद नहीं। इस घोटाले का स्‍पेक्‍ट्रम (दायरा) इस कदर छोटा नहीं है। यह घोटाला एक ऐसे घाटे से उपजा है    जो किसी भी देश को व्‍यवस्‍था से अराजकता में पहुंचा देता है। आधुनिक कानूनों की अनुपस्थिति (लेजिस्‍लेटिव डेफशिट) ने देश की अनमोल साख को मुसीबत में फंसा दिया है। आकाश (स्‍पेक्‍ट्रम) और जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों सहित कई क्षेत्रों में उचित कानूनों के शून्‍य के कारण घोटालेबाजों को लूट के मौके भरपूर मौके मिल रहे हैं। जिसके नतीजे उपभोक्‍ता, रोजगार व निवेशक चुकाते हैं। इसलिए अब सवाल घोटाले के दोषियों या बदहवास सरकार से नहीं बल्कि लोकतंत्र की सर्वशक्तिमान संसद से पूछा जाना चाहिए कि वह कानून बनाने या बदलने का असली काम आखिर कब शुरु करेगी, जिसके लिए वह बनी है। यकीनन 2जी लाइसेंस रद होने से पारदर्शिता और इंसाफ भारी जीत हुई है मगर व्‍यवस्‍था की साख हार गई है।
साख का स्‍पेक्‍ट्रम
निवेशकों की बेचैनी (122 दूरसंचार लाइसेंस रद होने पर) बेजोड़ है। उनके लिए तय करना मुश्किल है कि वह भारत के लोकतंत्र की जय बोलें और कानून के राज को सराहे या फिर सरकार को सरापें जिसकी दागी नीतियों के कारण उनकी दुर्दशा होने वाली है। अदालत से सरकारों को हिदायत, सुझाव, झिड़की और निर्देश मिलना नया नहीं है मगर इस अदालती इंकार ने लोकतंत्र की सर्वोच्‍च विधायिका और ताकतवर का कार्यपालिका की साख को विसंगतियों से भर दिया है। देश ने अपने इतिहास में पहली बार आर्थिक क्षेत्र में किसी बड़ी नीति की इतनी बडी, जो बेहद दुर्भाग्‍यपूर्ण है। कारोबार की दुनिया में किसी सरकार से मिला लाइसेंस एक संप्रभु सरकार की गारंटी है जिसके आधार पर निवेशक जोखिम उठाते हैं निवेश करते हैं। कारोबार शुरु होने के तीन साल बाद कारोबार का आधार में ही भ्रष्‍टाचार साबित हो और पूरी नीति ही अदालत में खारिज हो जाए तो किसका भरोसा जमेगा। 2जी का पाप दूरसंचार को ही पूरी सरकारी नीति प्रक्रिया को प्रभावित कर रहा है। अब सरकार के किसी फैसले पर भरोसा करने से पहले निवेशक सौ बार सोचेंगे कि क्‍यों कि पता नहीं कब कहां वह नीति दागी साबित हो और निवेशकों को अपना सामान समेटना पड़े। मगर इसके लिए अदालत फैसले को क्‍या बिसूरना, उसने तो कानूनों का गड्ढा दिखा दिया है।

Monday, August 22, 2011

बड़ी जिद्दी लड़ाई

रकारें क्या ऐसे मान जाती हैं ? किस राजनीतिक दल के चुनाव घोषणापत्र में आपने भ्रष्टाचार मिटाने की रणनीति पढ़ी है?  कब कहां किस सरकार ने अपनी तरफ पारदर्शिता की ठोस पहल की है? पारदर्शिता राजनीतिक व प्रशासनिक विशेषाधिकारों का स्वर्ग उजाड़ देती है, तो यह आ बैल मुझे मार कौन करेगा? लोकतंत्र में भ्रष्टाचार से जंग तो सर पटक कर पत्थर तोड़ने की कोशिश जैसी है क्योंक कि यहां चुनी हुई ही सरकारें पारदर्शिता रोकती हैं और सत्ता् पर निगाह जमाये विपक्ष सिर्फ पहलू बदलता है। मगर लोकतंत्र ही इस लड़ाई के सबसे मुफीद माहौल भी देता है। दुनिया गवाह है कि भ्रषटाचार के खिलाफ लड़ाई हमेशा स्वरयंसेवी संगठनों व जनता ने ही शुरु की है। विश्व् बैंक, ओईसीडी जैसे अंतरराष्‍ट्रीय वित्तीय मंचों और संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्थाओं ने जब इस लड़ाई का परचम संभाला है , तब जाकर सरकारें कुछ दबाव में आई हैं। हमें किसी गफलत में नहीं रहना चाहिए। हम बड़ी ही जिद्दी किस्म की लड़ाई में कूद पडे है।
कठिन मोर्चा नए सिपाही
भ्रष्टाचार से अंतरराष्ट्रीय जंग केवल बीस साल पुरानी है। अंतरराष्ट्रीय आर्थिक उदारीकरण व पूर्व-पश्चिम यूरोप के एकीकरण की पृष्ठभूमि में स्वयंसेवी संगठनों 1990 की शुरुआत में यह झंडा उठाया था। मुहिम स्थापित राजनीतिक मंचों के बाहर से शुरु हुई थी। 2001 में पोर्तो अलेग्री (ब्राजील) में वलर्ड सोशल फोरम मंच पर जुटे दुनिया भर के स्वयंसेवी संगठन अगले एक दशक में पारदर्शिता के सबसे बड़े पहरुए बन गए। भारतीय सिपाही भी इसी जमात के हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल भ्रष्टाचार को लेकर विश्व बैंक की उपेक्षा पर गुस्से से उपजा (1993) था। जो अब भ्रष्ट देशों की अपनी सूची, रिश्वनतखोरी सूचकांक और नीतियों की समीक्षा के जरिये सरकारों को दबाव में रखता है। इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ प्रॉसीक्यूटर्स और इंटरनेशनल चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स ने मुहिम को तेज किया। तब जाकर 1997 में विश्व बैंक ने भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम की कमान संभाली, संयुक्तब राष्ट्रन संघ ने भ्रष्टाचार विरोधी अंतरराष्ट्रीय संधि (2003) लागू की और यूएन एंटी करप्शन कांपैक्ट बनाया जिससे तहत सैकड़ा से अधिक एनजीओ दुनिया भर में भ्रष्टा चार के खिलाफ लड़ रहे हैं। बर्न डिक्लेयरेशन (स्विस सवयंसेवी संगठन समूह) ने नाइजीरिया और अंगोला के भ्रष्ट शासकों की लूट को वापस उनके देशों तक पहुंचाकर इस लड़ाई को दूसरा ही अर्थ दे दिया। ठीक ऐसी ही लड़ाई अफ्रीकी एनजीओ शेरपा ने लड़ी थी और कांगों, सिएरा लियोन, गैबन ( अफ्रीकी देशों) की लूट को फ्रांस के बैंकों से निकलवाया था। दुनिया में हर जनांदोलन का पट्टा राजनीति के नाम नहीं लिखा है। राजनीति इस लड़ाई को कैसी लड़ेगी, वह तो इसी व्यनवस्थाी को पोसती है।
ताकत के पुराने तरीके
पारदर्शिता की कोशिशों पर सरकारों की चिढ़ नई नहीं है। यह नेताओं व अफसरों के उस खास दर्जे और विशेषाधिकारों को निगल लेती है, जिसके सहारे ही भ्रष्टाचार पनपता है इसलिए दुनिया के प्रतिष्ठित लोकतांत्रिक देशों में भी इस तरह की कोशिशों के खिलाफ राजनीति हमेशा से आक्रामक रही है। दक्षिण अफीका में चर्चित स्कोर्पियन कमीशन को दो साल पहले खत्म कर दिया गया। कई बड़े राजनेताओं के खिलाफ जांच करने वाले स्कोर्पियन कमीशन की जांच के दायरे में वर्तमान राष्ट्रंपति जैकब जुमा भी आए थे। यह काम जुमा के राष्ट्रपति बनने से एक साल पहले हुआ और वह भी संसद के वोट से। इटली के प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोननी खर्च घटाने के लिए एंटी करप्शन कमीशन को खत्मव करने की पेश कर चुके हैं। यहां तक कि ब्रिटेन की सरकार ने राष्ट्रीय य सुरक्षा आड़ लेकर ब्रिटेश रक्षा कंपनी बीएई की जांच रोक दी। सऊदी अरब के अधिकारियों को बीएई से मिली रिश्वत कारपोरेट घूसखोरी का सबसे चर्चित प्रसंग है। यही वजह है कि भ्रष्टाचार की लड़ाई में राजनीति पर भरोसा नहीं जमता। सरकारों ने जबर्दस्त दबाव के बाद ही भ्रष्टाचार की जांच के लिए व्यवस्थायें की हैं। जैसे जिम्बावे के विवादित राष्ट्पाति राबर्ट मुगाबे ने हाल में भ्रष्टाचार निरोधक समिति बनाई है। जिन देशों में एंटी करप्शन कमीशन काम कर भी रहे हैं, वहां भी जनदबाव और स्‍वयंसेवी संगठनों की मॉनीटरिंग ही उन्हें स्वतंत्र व ताकतवर बनाती है। सरकारें तो उन्हें चलने भी न दें।
आगे और लड़ाई है
हम अभी भ्रष्टाचार से लड़ाई का ककहरा ही पढ़ रहे है और हजार आफत हैं। भ्रष्टाचार में देने वाले हाथों को बांधना भी जरुरी होता है। विकासशील देशों में कंपनियां 20 से 40 अरब डॉलर की रिश्वतें हर साल देती हैं जो नेताओं व अधिकारियों की जेब में जाती हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने दुनिया की निजी कंपनियों के 2700 अधिकारियों के बीच एक सर्वे में पाया था कि भारत, पाकिस्तान, इजिप्ट, नाइजीरिया में करीब 60 फीसदी कंपनियों को रिश्‍वत देनी होती है। बहुरराष्ट्री य कंपनियों के अधिकारी मानते हैं कि भ्रष्टाचार परियोजनाओं की लागत 10 से 25 फीसदी तक बढ़ा देता है। इथिस्फियर संगठन, दुनिया में सबसे साफ सुथरी कंपनियों की पड़ताल करता है, इसकी सूची में एक भी भारतीय कंपनी नहीं है। यहां तक दुनिया के तमाम नामचीन ब्रांडों व कंपनियों को कारोबारी पारदर्शिता की रेटिंग में जगह नहीं मिली है। इथिस्फियर ने निष्कर्ष दिया था कि पारदर्शी कंपनियों ने 2007 से 2011 तक  शेयर बाजार में अन्य कंपनियों के मुकाबले ज्यादा बेहतर प्रदर्शन किया। यानी बाजार पारदर्शिता की कद्र करता है। जब भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम निजी क्षेत्र की दिशा में बढ़ेगी तो पेचीदगी और चुनौतियां नए किस्म की होंगी। यूरोप व अमेरिका इन देने वाले हाथों की मुश्कें भी कसने लगे हैं।
 भ्रष्टाचार से लड़ाई, गुलामी से जंग के मुकाबले ज्यादा कठिन है क्यों कि इसमें अपनी व्यवस्था के खिलाफ अपने ही लोग लड़ते हैं। सरकारें विशाल मशीन हैं। राजनीति जिन्हें चलाती हैं। लोकतंत्रों में पांच साल के लिए मिला जनसमर्थन अक्समर संविधान के मनमाने इसतेमाल की गारंटी बन जाता है। पारदर्शिता को रोकने के लिए सरकारों ने अपनी इस संवैधानिक ताकत अक्सर बेजा इस्तेमाल किया है। फिर भी दुनिया भ्रष्टाचार से लड़ रही है क्यों कि भ्रष्टाचार सबसे संगठित किस्म का मानवाधिकार उल्लंघन है। यह वित्तीय पारदर्शिता को समाप्त करता है और विकास को रोकता है। दुनिया के बहुतेरे देश हमारे साहस पर रश्क कर रहे हैं। हमें फख्र होना चाहिए कि हम दुनिया में बहुतों से पहले जग गए हैं। और जब जग गए तो हैं तो अब सोने का कोई मतलब नहीं है।
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Monday, June 27, 2011

पारदर्शिता का खौफ

र सबको लगता है.. सरकारों को भी। पारदर्शिता के खौफ से सर्वशक्तिमान सरकारें भी ठंडा पसीना छोड़ जाती हैं। पारदर्शिता की एक मुहिम ताकत की तलवारों से लैस और कानूनों के कवच में घिरे सत्ता प्रतिष्ठानों को चूजा बना देती है। भारत में इस समय पारदर्शिता से डरे चेहरों की परेड चल रही है। हमारे पास एक बेचैन सरकार है जो पारदर्शिता के आग्रहों से घबरा कर जंग लगे तर्कों के खोल में घुस गई है और युवा, खुलते व उदार होते देश पर अपनी जिद लाद रही है। पारदर्शिता से मुंह चुराता हुआ एक विपक्ष भी हमें मिला है जो अजीबोगरीब तर्कों की कला‍बाजियों से देश का मन बहला रहा है। यकीनन, पारदर्शिता का खौफ बड़ा विकट है। यह डर लोकपाल का है ही नहीं, राजनेताओं का कुनबा तो दरअसल अपने विशेषाधिकारों, विवेकाधिकारों व कानून से परे दर्जे को बचाने के लिए कांप रहा है जो पारदर्शिता की ताजी कोशिशों के कारण खतरे में हैं। पूरी सियासत सत्ता के शिखरों (प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट आदि आदि) लेकर नीचे तक सब कुछ ढंका छिपा रखना चाहती है। नेताओं पर पारदर्शिता का यह आतंक भूमंडलीय किस्म का है। भ्रष्टाचार विरोधी कोशिशें पूरी दुनिया में, भारत जैसी ही जिदों से टकरा रही हैं। भारत तो विशेषाधिकारों का जंगल है। इसलिए पारदर्शिता की हांक लगते ही छिपने-छिपाने के आग्रह हमलावर हो गए हैं। गौर से देखिये विरोध करने वालों या जवाब से बचने वालों की दाढी में बहुत से तिनके हैं।
सीजर की बीबियां
पॉम्पेयी को तलाक देते हुए जूलियस सीजर ने यूं ही नहीं कहा था कि सम्राट की पत्नी को संदेह से परे (सीजर्स वाइफ मस्ट बी अबव सस्पिशन) होना चाहिए। सार्वजनिक जीवन में शुचिता के इस महामंत्र को सीजर की तमाम आधुनिक बीबियां यानी राजनेता (अपने प्रधानमंत्री भी) उवाचते रहे हैं। मगर पारदर्शिता का कत्ल इन बड़ों के दफ्तर में ही होता है। दुनिया राजनीतिक भ्रष्टाचार पर देर से जागी है। आठवें दशक के अंत में कुछ बड़े जन आंदोलनों ( चीन, ब्राजील, बंगलादेश, फिलीपींस) के बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ राष्ट्रीय व बहुपक्षीय मुहिम ( इंटर अमेरिकन कन्वेशन अगेंस्ट करप्‍शन 1996, ओईसीडी कन्वेशन अगेंस्ट ब्राइबरी 1997, यूएन कोड ऑफ कंडक्ट फॉर पब्लिक आफिशियल्‍स 1996 ) शुरु हुईं जो दिसंबर 2003 में भ्रष्टाचार पर संयुक्त राष्ट्र की सहमति तक पहुंची। मगर इसके बाद की राह