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Monday, February 28, 2011

भरोसे का बजट खाता

अर्थार्थ
ज बजट है।. मत कहियेगा कि सालाना रवायत है। यह बजट के बिल्कुल अनोखे माहौल और नए संदर्भों की रोशनी में आ रहा है। याद कीजिये कि हमेशा आंकड़े बुदबुदाने वाली सरकारी आर्थिक समीक्षा पहले ऐसा कब बोली थी “ध्यान रखना होगा कि हमारी नीतियां चोरी करने वालों के लिए सुविधाजनक न बन जाएं। या ईमानदारी और विश्वसनीयता नैतिक मूल्य ही नहीं आर्थिक विकास के लिए भी जरुरी हैं ” (आर्थिक समीक्षा 2010-11, पेज 39 व 41) ....मतलब यह कि बजट को लेकर देश की नब्ज इस समय कुछ दूसरे ढंग धड़क रही है। इस बजट का इंतजार सुहानी अपेक्षाओं (रियायतों की) के बीच नहीं बल्कि एक खास बेचैनी के साथ हो रहा है। यह बैचनी आर्थिक उलझनों की नहीं बल्कि नैतिक चुनौतियों की है। देश यह जानने को कतई बेसब्र नहीं है कि ग्रोथ या राजकोषीय घाटे का क्या होगा बल्कि यह जानने को व्याकुल है कि व्यवस्था में विश्वास के उस घाटे का क्या होगा जो पिछले कुछ महीनों में सरकार की साख (गवर्नेंस डेफशिट) गिरने के कारण बढ़ा है। इस बार बजट का संदेश उसके संख्या (आंकड़ा) पक्ष से नहीं बल्कि उसके विचार पक्ष से निकलेगा।
बिखरा भरोसा
महंगाई से बुरी है यह धारणा कि सरकार महंगाई नहीं रोक सकती। आर्थिक समीक्षा इशारा करती है कि महंगाई के सामने सरकार का समर्पण लोगों को ज्याोदा परेशान कर रहा है। ग्रोथ के घोड़े पर सवार एक हिस्सा आबादी के लिए महंगाई बेसबब हो सकती है, मगर नीचे के सबसे गरीब लोग महंगाई से लड़ाई हार रहे हैं। इसलिए देश को ऐक ऐसी सरकार दिखनी चाहिए जो महंगाई के साथ जी जान से जूझ रही हो। बढ़ती कीमतों के कारण गरीब विकास के फायदे गंवा रहे हैं और समावेशी विकास या इन्क्लूसिव ग्रोथ का पूरा दर्शन एक खास किस्म के अविश्वास

Monday, January 31, 2011

हम सब काले, कालिख वाले !


अर्थार्थ
कसठ का हो चुका गणतंत्र अपनी सबसे गहरी कालिख को देखकर शर्मिंदा है। सराहिये इस शर्मिंदगी को, यही तो वह काला (धन) दाग है जो हर आमो-खास के धतकरम, चवन्नी छाप रिश्वंतखोरी से लेकर कीर्तिमानी भ्रष्टाचार और हर किस्म के जरायम अपने अंदर समेट लेता है। यह धब्बा हर क्षण बढ़ता है महसूस होता है मगर नजर नहीं आता। सरकार की साख में अभूतपूर्व गिरावट के बीच काले धन की कालिख भी चमकने लगी है। दिल्ली से स्विटजरलैंड तक भारत के काले (धन) किस्से कहे सुने जा रहे हैं। वैसे अगर टैक्स हैवेन की पुरानी और रवायती बहस को छोड़ दिया जाता तो हकीकत यह है कि काली अर्थव्यवस्था हमारे संस्कार में भिद चुकी है। आर्थिक अपराध का यह अदृश्‍य चरम अब हम हिंदुस्ता्नियों की नंबर दो वाली आदत है। अर्थव्‍यवस्था इसकी चिकनाई पर घूमती है। टैक्सन हैवेन के रहस्यों पर सरकार का असमंजस लाजिमी है क्यों कि पिछले साठ वर्षों में इस कालिख के उत्पावदन को हर तरह से बढ़ावा दिया गया है। भारत में साल दर साल काले धन के धोबी घाट( मनी लॉड्रिंग के रास्ते ) बढ़ते चले गए हैं। काला धन हमारी मजबूर और मजबूत आर्थिक विरासत बन चुका है।
कालिख के कारखाने
अब टैक्स के डर से और काली कमाई कोई नहीं छिपाता बल्कि काले धन का उत्पादन सुविधा, स्‍वभाव और सु‍नोयजित व्यवस्था के तहत होता है। भारत कुछ ऐसे अजीबोगरीब ढंग से उदार हुआ है कि एनओसी, अप्रूवल, नाना प्रकार के फॉर्म, सार्टीफिकेट, डिपार्टमेंटल क्लियरेंस, इंस्पेक्शन रिपोर्ट, तरह तरह की फाइलों, दस्तावेजों, इंसपेक्टेर राज आदि से गुंथी बुनी सरकारी दुनिया में हर सरकारी दफ्तर एक प्रॉफिट सेंटर

Monday, January 17, 2011

हाकिम जी, सरकार खो गई !

अथार्थ
कितने बेचारे हैं हमारे हाकिम!.. एक मंत्री कहते हैं बाबा माफ करो, हमसे नहीं थमती महंगाई।.. बोरा भर कानून और भीमकाय अफसरी ढांचे वाली सरकार की यह मरियल विकल्पहीनता तरस के नहीं शर्मिंदगी के काबिल है। तो एक दूसरे हाकिम महंगाई से कुचली जनता को निचोड़ने के लिए तेल कंपनियों को खुला छोड़ देते है कोई चुनाव सामने जो नहीं है ! …. करोड़ो की सब्सिडी लुटाने वाली सरकार की यह अभूतपूर्व निर्ममता उपेक्षा के नहीं क्षोभ के काबिल है। एक तीसरे हाकिम को संवैधानिक संस्था (सीएजी) की वह रिपोर्ट ही फर्जी लगती है, जिस के आधार पर मंत्री, संतरी और कंपनियों तक को सजा दी जा चुकी है।... सरकार की यह बदहवासी हंसी के नहीं हैरत के काबिल है। सरकार के मंत्री अब काम नहीं करते बल्कि लड़ते हैं, कैबिनेट की बैठकों में उनके झगड़े निबटते हैं और जिम्मेदार महकमे अब एक दूसरे को उनकी सीमायें (औकात) दिखाते हैं सरकार में यह बिखराव आलोचना के नहीं दया के काबिल है। इतनी निरीह, निष्प्रभावी, बदहवास, बंटी, बिखरी और नपुंसक गवर्नेंस या सरकार आपने शायद पहले कभी नहीं देखी होगी। प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर सेना और सुप्रीम कोर्ट से लेकर सतर्कता आयोग तक देश की हर उच्च संस्था की साख इतना वीभत्स जुलूस भी पहली बार ही निकला है और इतना दिग्भ्रमित, निष्प्रयोज्य, नगण्य और बेअसर विपक्ष भी हमने पहली बार देखा है। ...यह अराजकता अद्भुत है। हम बेइंतिहा बदकिस्म्त हैं। हमारी सरकार कहीं खो गई है।
गलाघोंट गठबंधन
राजनीति में युवा उम्मीद (?) राहुल गांधी कहते हैं कि महंगाई रोकने में गठबंधन आड़े आता है। अभी तक तो हम गठबंधन की राजनीति का यशोगान सुन रहे थे। विद्वान बताते थे कि गठबंधन एक दलीय दबदबे को संतुलित करते हैं और क्षेत्रीय राजनीति को केंद्र में स्वर देते हैं। सुनते थे कि भारत ने गठबंधन की राजनीति का सुर साध लिया है और अब राज्यों की सरकारों को भी यह संतुलित रसायन उपलबध हो गया है। लेकिन महंगाई थामने में बुरी तरह हारी कांग्रेस को गठबंधन गले की फांस लगने लगा। गठबंधन की राजनीति के फायदों का तो पता नहीं अलबत्ता महंगाई और भ्रष्टाचार से क्षतविक्षत जनता से यह देख रही है कि राजनीतिक गठजोड़ अब लाभों के

Monday, December 27, 2010

भूल-चूक, लेनी-देनी

अर्थार्थ
शुक्र है कि हम सुर्खियों से दूर रहे। आर्थिक दुनिया ने दस के बरस में जैसी डरावनी सुर्खियां गढ़ी उनमें न आने का सुकून बहुत गहरा है। करम हमारे भी कोई बहुत अच्छेह नहीं थे। हमने इस साल सर ऊंचा करने वाली सुर्खियां नहीं बटोरीं लेकिन ग्रीस, आयरलैंड, अमेरिका के मुकाबले हम, घाव की तुलना में चिकोटी जैसे हैं। अलबत्ता इसमें इतराने जैसा भी कुछ नहीं है। वक्त, बड़ा काइयां महाजन है। उसके खाते कलेंडर बदलने से बंद नही हो जाते हैं बल्कि कभी कभी तो उसके परवाने सुकून की पुडि़या में बंध कर आते हैं। मंदी व संकटों से बचाते हुए वक्त हमें आज ऐसी हालत में ले आया है जहां गफलत में कुछ बड़ी नसीहतें नजरअंदाज हो सकती हैं। दस के बरस बरस का खाता बंद करते हुए अपनी भूल चूक के अंधेरों पर कुछ रोशनी डाल ली जाए क्यो कि वक्त की लेनी देनी कभी भी आ सकती है।
लागत का सूद
सबसे पहले प्योर इकोनॉमी की बात करें। भारत अब एक बढती लागत वाला मुल्क हो गया है। पिछले कुछ वर्षों की तेज आर्थिक विकास दर ने हमें श्रम (लेबर कॉस्ट) लागत को ऊपर ले जाने वाली लिफ्ट में चढ़ा दिया है। सस्ता श्रम ही तो भारत की सबसे बड़ी बढ़त थी। वैसे इसमें कुछ अचरज नहीं है क्यों कि विकसित होने वाली अर्थव्यरवस्थाओं में श्रम का मूल्यं बढ़ना लाजिमी है। अचरज तो यह है कि हमारे यहां लागत हर तरफ से बढ़

Monday, November 22, 2010

भ्रष्टाचार का मुक्त बाजार

अर्थार्थ
राजाओं, कलमाडिय़ों, मधु कोड़ाओं और ललित मोदियों के शर्मनाक संसार को देखकर क्या सोच रहे हैं ... यही न कि आर्थिक खुलेपन की हवा भ्रष्टाचार के पुराने इन्फेक्शन को खूब रास आ रही है ? वेदांतो, सत्यमों व तमाम वित्तीय कंपनियों के कुकर्मों में आपको एक आर्थिक अराजकता दिखती होगी। कभी कभी यह कह देने का मन होता होगा कि आर्थिक उदारीकरण ने भारत में भ्रष्टाचार का उदारीकरण कर दिया है !!.... माना कि यह ऊब, खीझ और झुंझलाहट है मगर बेसिर पैर नहीं है। मान भी लीजिये कि हम मुक्त बाजार की विकृतियों को संभाल नहीं पा रहे हैं। रिश्वत, कार्टेल, फर्जी एकाउंटिंग, कारपोरेट फ्रॉड, लॉबीइंग, नीतियों में मनमाना फेरबदल, ठेके, निजीकरण का इस्तेमाल .... उदार बाजार का हर धतकरम भारत में खुलकर खेल रहा है। राजा व कोड़ा जैसे नेताओं की नई पीढ़ी अब राजनीतिक अवसरों में कमाई की संभावनाओं को चार्टर्ड अकाउंटेंट की तरह आंकती है, इसलिए भ्रष्टाजचार भी अब सीधे नीतियों के निर्माण में पैठ गया है। सातवें आठवें दशक के नेता अपराधी गठजोड़ की जगह अब नेता-कंपनी गठजोड़ ले ली है। यह जोड़ी ज्यादा चालाक, आधुनिक, रणनीतिक, बेफिक्र और सुरक्षित है। मुक्त बाजार में ताली दोनों हाथ से बज रही है।
खुलेपन का साथ
मुट्ठी में दुनिया (मोबाइल) लिये घूम रही भारत की एक बड़ी आबादी को मालूम होना चाहिए कि यह सुविधा बहुतों की मुट्ठयां गरम होने के बाद मिली है। सुखराम से राजा तक, दूरसंचार क्षेत्र का उदारीकरण अभूतपूर्व भ्रष्टा्चार से दागदार है। सिर्फ यही क्यों पूंजी बाजार, खनन, अचल संपत्ति व निर्माण, बैंकिंग, वायु परिवहन, सरकारी अनुबंध ... हर क्षेत्र में उदारीकरण के बाद बडे घोटाले दर्ज हुए हैं। उदारीकरण और भ्रष्टाचार रिश्ते की सबसे बड़ी पेचीदगी यही है कि

Monday, August 9, 2010

फजीहत का गोल्ड मेडल

अर्थार्थ
हार पहनने से गला कटते सुना है आपने? ताज सजाने से कोई गंजा भी हो सकता है? चेहरा सजाने कोशिश हुलिया बिगाड़ दे तो ? यकीन नहीं होता तो जरा भारत के इतिहास के सबसे बड़े खेल आयोजन को देखिये , दुनिया के देश जिन आयोजनों की मेजबानी से साख और शान का जलवा दिखाते हैं भारत उन्हीं के कारण जलालत झेल रहा है। ओलंपिक, एशियाड और कॉमनवेल्थ के दर्जे वाले खेल आयोजन पूरे विश्व में हमेशा से फिजूलखर्ची, भ्रष्टाचार व घाटे से दागदार रहे हैं, फिर भी दुनिया के देश यह वजनदार घंटी गले में सिर्फ इसलिए बांधते हैं क्यों कि इससे उनकी शान का दिग-दिगंत में गूंज जाती है और भव्यता की चमक में दाग छिप जाते हैं। भारत ने भी इसी उम्मीद में कॉमनवेल्थ खेलों की मेजबानी का ताज पहना था लेकिन अब पूरी दुनिया भारत के बुनियादी ढांचे, प्रबंधन, तकनीक और सुघड़ता की नहीं बल्कि भ्रष्टाचार, कुप्रबंध और विवादों की नुमाइश देख रही है। चमकने के चक्कर में भारत ने बमुश्किल बनी अंतरराष्ट्रीय साख का कबाड़ा कर लिया है, वह भी भारी निवेश के साथ।
सबसे दुर्लभ जीत
2008 के बीजिंग ओलंपिक के कुछ माह बाद खेल की दुनिया में जो सबसे बड़ी खबर आई थी वह पैसे की थी। बीजिंग ओलंपिक की आयोजन समिति ने बताया कि उसने 146 मिलियन डॉलर (करीब 674 करोड़ रुपये) का मुनाफा कमाया। ... खेल की दुनिया इस दुर्लभ तमगे पर हैरत में पड़ गई। चीन पर भरोसा मुश्किल था मगर अविश्वास का आधार भी नहीं था। चीन ने ओलंपिक व संबंधित 102 परियोजनाओं पर 2.6 बिलियन डॉलर (आधिकारिक आंकड़ा) खर्च किये थे और शोहरत व मुनाफा दोनों कमाया। ओलंपिक परिवार (एशियाड कॉमनवेल्थ आदि) के खेल आयोजनों की दुनिया में यह करिश्मा कम ही या यूं कहें कि शायद दूसरी बार हुआ था। ‘मैकोलंपिक’ (मैकडोनाल्ड प्रायोजित) के नाम से मशहूर 1984 के लास एंजेल्स खेल मुनाफा कमाने वाले पहले ओलंपिक थे। यह इस खेल में निजी कंपनियों का शायद पहला प्रवेश था और इसे आधुनिक ओलंपिक की शुरुआत का खिताब मिला। पिछले कॉमनवेल्थ (मेलबोर्न 2006) खेलों का भी बजट नहीं बिगड़ा था। अलबत्ता बीजिंग या लॉस एंजल्स अपवाद हैं और इनके रिकार्डों पर मजबूत संदेह भी हैं। नियम तो यह है कि बड़े खेल आयोजनों में मेजबान बुरी तरह हारते हैं। यह आयोजन उनकी जेब कायदे से तराश देते हैं।
तयशुदा हार
1976 का मांट्रियल ओलंपिक कनाडा के लिए वित्तीय आफत साबित हुआ थो, तो ग्रीस के ताजे संकट की जड़ें 2004 के एथेंस ओलंपिक की मेजबानी में तलाशी जा रही हैं। दरअसल बीजिंग जब ओलंपिक का ताज सजा रहा था तब मांट्रियल (1976), बार्सिलोना (1992), सिडनी (2000) और एथेंस (2004) ओलंपिक की मेजबानी के दौरान लिए गए कर्जों से (प्रो. जेफ्री जार्विन, तुलान यूनिवर्सिटी) जूझ रहे थे। कुछ हफ्तों के आयोजन पर भारी निवेश, ढेर सारी फिजूलखर्ची और बाद में घाटा इन खेल आयोजनों का शाश्वत सच है, तभी तो 2006 एशियाड के मेजबान कतर के अधिकारी खेलों से परोक्ष फायदों मसलन निवेश, विकास, रोजगार आदि की दुहाई देते हैं। क्यों कि किसी बड़े देश के सिर्फ एक शहर में भारी खर्च सरकारों को मुश्किल में डालता है। दिल्ली कॉमनवेल्थ खेलों को लेकर भी यही तर्कहैं अलबत्ता आंकड़े इन तर्कों को सर के बल खड़ा करते हैं। बैंक ऑफ चाइना ने, बीजिंग खेलों से पहले एक शोध में जानकारी दी थी कि पिछले 60 साल में आयोजित 12 ओलंपिक में नौ के मेजबानों की अर्थव्यवस्थायें खेल मेले के बाद गोता खा गईं। कॉमनवेल्थ खेल, ओलंपिक व एशियाड से छोटे हैं लेकिन भारत के खजाने में यह बड़ा छेद करेंगे। ताजी मंदी के कारण 2012 के ओलंपिक की मेजबानी लंदन के गले में फंस गई है। दरअसल इन खेलों में मेजबान कभी नहीं जीतते। इसलिए ज्यादातर देश यह हार नहीं पहनते हैं और यह खेल कुछ बड़े मुल्कों के बीच घूमते रहते हैं।
और ढेर सारा गुबार
कलमाड़ी और उनकी टीम दागी खेल आयोजकों की विश्व परंपरा के भारतीय वारिस हैं। अकूत पैसा और अनंत भ्रष्टाचार ओलंपिक परिवार के खेलों की पहचान है। मेजबानी हासिल करने से लेकर आयोजन तक धतकरमों का रिकार्ड इन मेलों के साथ साथ चलता है। 2002 के शीतकालीन ओलंपिक की मेजबानी के लिए अमेरिका की साल्ट लेक खेलों को इस तरह दागदार किया कि ओलंपिक महासंघ को अपने कुछ सदस्यों को चलता करना पड़ा, मगर इसके बाद मेजबानी के लिए रिश्वतखोरी रवायत बन गई। सिडनी ओलंपिक के मेजबानों पर भी यही आरोप लगा। रुस से लेकर जापान तक और अमेरिका से चीन (ताजे बीजिंग ओलंपिक से पहले खुले मामले) तक बड़े खेल आयोजनों में भ्रष्टïाचार की दर्जनों कहानियां हैं। इसलिए ओलंपिक व कामनवेल्थ संघ इन दागों से डरने लगे हैं। अब उन्हें मेजबान तलाशने में मुश्किल होती है। खेलों का अपनी गणित है। जबर्दस्त लामबंदी के बावजूद, ब्राजील, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की नाक के नीचे से 2014 का ओलंपिक उठा ले जाता है और ओबामा का गृह नगर शिकागो खिसियाकर रह जाता है।
फिर भी इकरार

पैसे की बर्बादी और भ्रष्टïाचार की मान्य परंपराओं के बावजूद दुनिया के देश के इन खेलों को सिर्फ इसलिए लाते हैं ताकि उनका कॉलर ऊंचा हो सके और दुनिया मेजबान मुल्क का बुनियादी ढांचा, भव्य प्रबंधन, चमकदार वर्तमान और भविष्य की उम्मीदें देख सके। चीन दो साल में दूसरे बड़े (गुआंगजू एशियाड इसी नवंबर में) खेल की मेजबानी करेगा। इन खेलों से हमें दुनिया को यह बताना था भारत शानदार बुनियादी ढांचा बनाता है। तकनीक के हम सूरमा हैं और एक महाशक्ति भव्य आयोजन कर सकती है। यानी केवल साख की सजावट बस? मगर आयोजकों की कृपा से इन खेलों में अपना चेहरा देखकर हम अब लज्जित हैं।
विश्व की खेल प्रबंध कंपनियों के बीच सबसे ताजा मजाक यह है कि अब भारत को ओलंपिक की मेजबानी दिलवायी जा सकती है क्यों कि यहां आप किसी भी कीमत पर कुछ भी बेच सकते हैं, आखिर ऐसे दिलफेंक मेजबान कहां मिलेंगे?? दरअसल शान को शर्मिंदगी में बदलना अगर कोई कला है तो दिल्ली खेलों के आयोजक इसका स्कूल खोल सकते हैं। भारत ट्रैक एंड फील्ड खेलों में कभी कोई ताकत नहीं रहा। हमारे लिए तो यह महंगा खेल छवि प्रबंधन यानी शान और शोहरत का तमगा हासिल करने कोशिश भर था। मगर भारत ने तो कॉमनवेल्थ खेलों से पहले ही एक गोल्ड मेडल जीत लिया है ... फजीहत का गोल्ड मेडल !!!!
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Monday, November 23, 2009

लूट के सरपरस्त

पैसा चाहे दान का हो या लूट का, सफेद हो या काला, श्रम से आया हो या धतकरम से, निवेश से मिला हो या उपनिवेश से.. पैसा अपना रास्ता तलाश ही लेता है। काले पैसे की दुनिया में अकेले सिर्फ देने, लेने या लूटने वाले हाथ ही नहीं होते बल्कि इसे सहेजने, संजोने, निवेश करने और लूट को धोने की लॉंड्री चलाने वाले हाथ भी होते हैं। तब ही तो राजनीतिक भ्रष्टाचार जरिये दुनिया में हर साल 1.6 खरब डालर की लूट (विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र संघ का आकलन)होती है, जो कैरेबियन कैमन आइलैंड,अफ्रीका में लाइबेरिया से लेकर यूरोप में लंदन और पूर्व में मकाऊ तक कर बचाने के स्वर्गो छिप जाती है या फिर शेयर बाजार और अचल संपत्ति के धंधे में खप जाती है। बड़ी दिलचस्प बात है कि लूट के इस खेल में देने लेने वाले हाथ भले ही छिपे हों लेकिन लूट की हिफाजत करने वाले हाथ सबको दिखते हैं। काली कमाई को धोने वाले यह हाथ इतने उजले हैं कि इन्हीं के जरिये विकासशील देशों के भ्रष्ट राजनेता और अपराधी हर साल 500 से 800 अरब डॉलर यानी प्रतिदिन करीब दो अरब डॉलर पार कर देते हैं।
लूट का माल जमीन में डाल
भ्रष्ट राजनेताओं से लेकर चालबाज उद्यमियों तक जमीन सबके कुकर्म को शरण देती है तभी तो अचल संपत्ति कीमतों में कोई तुक तर्क नहीं होता और सत्यम के संकट की पृष्ठभूमि राजू परिवार के अचल संपत्ति निवेशों से जुड़ती है। भारत के उभरते हुए शहर अचल संपत्ति के निवेशकों का स्वर्ग हैं और वित्त मंत्रालय के ताजे आंकड़ो मुताबिक 2008-09 में करीब 2000 करोड़ रुपये के कर चोरी मामलों के साथ भारत का अचल संपित्त क्षेत्र काली कमाई की जन्नत है। अंतरराष्ट्रीय संगठन फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स की रिपोर्र्टे अचल संपत्ति और मनी लॉड्रिंग के रिश्ते बखानने वाले उदारहणों से भरी पड़ी हैं। अमेरिका में यह मानने वालों की कमी नहीं है कि दुनिया को हिलाने वाला वित्तीय संकट वहां की अचल संपत्ति के भ्रष्टाचार से उपजा था। अमेरिकी जनता को अपने अचल संपत्ति डेवलपरों संगठन नेशनल एसोसिएशन ऑफ रिएलटर्स की ताकत का अंदाजा है। यह 2008 में अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनावों में यह संगठन चंदा देने वालों में सबसे ऊपर था। बताते चलें कि अमेरिका में 2006 तक दस सालों के दौरान संदेहास्पद वित्तीय गतिविधियों के करीब 260 मामलों में 132 केवल अचल संपत्ति से संबंधित थे। दरअसल अचल संपत्ति के कारोबार में काली कमाई को धोना सबसे आसान है क्यों कि यहां कर्ज, ट्रस्ट, फर्जी कंपनियों सहित दर्जनों ऐसे रास्ते हैं रास्ते जहां लूट का माल खप जाता है इसलिए कर चोरी के स्वर्गो की दुनिया में जमा धन भी बडे़े पैमाने पर अचल संपत्ति के अंतरराष्ट्रीय खेल में पनाह पाता है। इन जन्नतों में सब माफ
कर बचाइये,संपत्ति प्रबंधन सेवा का लाभ उठाइये। .. दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित वित्तीय पत्रिकाओं में आमतौर पर छपने वाले इस तरह के विज्ञापन कर चोरी के स्वर्गो से जुडे़े एजेंटों के होते हैं। जी 20 की बैठकों में होने वाले दिखावे पर मत जाइये। इस वित्तीय संकट से पहले भी दुनिया में कर चोरी के स्वर्ग थे और अब भी करीब 70 टैक्स हैवेन काम कर रहे हैं, जिनमें से 25 तो यूरोप में हैं। दुनिया के भ्रष्ट नेताओं की लूट यहां किस तरह पनाह पाती है इस पर अगर किसी को शक हो तो उसे स्विटरजरलैंड के विदेश मंत्री के अप्रैल में दिये गए बयान को याद करना चाहिए। जिसमें उन्होंने माना था कि नाइजीरिया में रिश्वतखोरी के 1800 लाख डॉलर स्विस बैंकों में जमा हैं और सरकार इसे वापस करने को तैयार है। इन कर स्वर्गो के सहारे दुनिया के देशों के लूट के अरबों डॉलर उड़ जाते हैं। तभी तो चैनल आईलैंड के बैंकों में 1975 से जमा राशि जो अरब डॉलर थी पिछले साल 200 अरब डॉलर पहुंच गई है। स्वतंत्र अध्ययनों में यह माना गया है कि इन लूट के पनाहगारों के पास करीब 2.7 खबर डॉलर जमा हैं जो कि दुनिया में कुल बैंक जमा का 20 फीसदी है। भ्रष्ट नेता, अधिकारी व कंपनियों के जरिये विकासशील मुल्कों से होने वाली कैपिटल फ्लाइट के सहारे यह जन्नतें इस कदर गुलजार हैं यिह आईएमएफ को यह कहना पड़ा कि दुनिया के वित्तीय बाजारों में लगभग एक तिहाई निवेश टैक्स हैवेन के जरिये होता है। अंकटाड को सुनिये जो यह कहता है कि दुनिया का एक तिहाई प्रत्यक्ष निवेश कर चोरी के स्वर्गो के जरिये होता है।
वित्तीय बाजार में सबका उद्धार
काली कमाई है तो उसे अचल संपत्ति में धोइये और कर स्वर्गो में संजोइये। बाद में तो सब वित्तीय बाजार में ही आना है क्यों कि लक्ष्मी चंचला है और दुनिया के वित्तीय बाजार उसका क्रीडांगन हैं। कर स्वर्गो में जमा राशि से दुनिया वित्तीय बाजार झूमते है ंऔर हेज फंड मौज करते हैं। दुनिया को 1998 में कनाडा के वाईबीएम मैगेक्स कार्पोरेशन को नहीं भूलना चाहिए जिसे अरबों डॉलर की मनी लॉड्रिंग का स्रोत माना गया था और शेयर बाजार से हटा दिया गया था। इस तरह की पता कितनी और कंपनियां शेयरों से लेकर जिंस बाजारों तक फैली हैं जिनका अतीत और वर्तमान नहीं परखा जाता। वह तो वित्तीय बाजारों की लहरों पर मौज करती हैं और सफाई के साथ लूट का माल बाजारों में खपा देती हैं। कर स्वर्गो से निकला धन चूंकि उजला होता है इसलिए इसे पोर्टफोलियो निवेश में गिना जाता है फिर चाहे वह पैसा अचल संपत्ति की कीमतों में आग लगाये या शेयर और जिंस बाजारों को बेसिर पैर वजहों से उछाल दे। वित्तीय उपकरणों की इतनी किस्में आ चुकी हैं कि उनके बीच घूमकर सब कुछ साफ हो जाता है। तभी तो अमेरिकी सीनेट समिति ने केपीएमजी की जांच में यह पाया था वह कई तरह के अवैध कर बचत वित्तीय उपकरण बेचती है। मार्टगेज कर्जो से लेकर बीमा उद्योग तक पसरे खरबों के डॉलर के पोर्टफोलिया निवेश कौन सा पैसा कहां से आया है किसीको नहीं मालूम। बस पैसा एक बार इस मशीन में आ जाए तो वह साफ होकर ही निकलता है। दुनिया को अनाज, रोजगार, मकान, पानी, दवा, सड़कें और बिजली चाहिए। इन्हीं के लिए तो संयुक्त राष्ट्र संघ ने सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य तय किये जिनके जरिये 2015 तक दुनिया से भूख व गरीबी मिटाई जानी है। हैरत में पड़ जाएंगे आप कि दुनिया को रहने लायक बनाने के इन लक्ष्यों अधिकतम लागत अधिकतम 528 अरब डॉलर है जो विकासशील देशों से हर साल होने वाली लूट से कम है। दुनिया इस खुली चोरी पर शर्मिदा है, मगर यह शर्मसार दुनिया गुस्से की नहीं हमारी की दया की पात्र है। क्यों कि देने लेने वाले हाथों को बांधने की बात तो दूर यह लूट के माल को ठिकाने लगाने के ठिकाने भी बंद नहीं कर पाती। काले धन की खपत रुक जाए तो इसकी पैदावार भी रुक सकती है, मगर लुटने वालों की बदकिस्मती तो देखिये कि दुनिया में आर्थिक उदारीकरण के बाद वित्तीय मशीन को चिकना करने लगी है। .. मूरत संवारने में बिगड़ती चली गई, पहले से हो गया है जहां और भी खराब।
anshumantiwari@del.jagran.com

Tuesday, November 17, 2009

समृद्धि का अभिशाप

मधु कोड़ा को तो कोस ही रहे हैं न, लगे हाथ कुदरत को भी कोसिये, कानून को भी और साथ में खुद को भी। कुदरत जहां जमीन के नीचे समृद्धि का हिरण्य (सोना) भर देती है वहां जमीन के ऊपर हमेशा हिंसा,अपराध और भ्रष्टाचार का महाअरण्य उग आता है। इसलिए ही तो महज एक दशक के राजनीतिक अतीत और तीस माह से भी कम के कार्यकाल में मधु कोड़ा भारत में राजनीतिक भ्रष्टाचार के महा खलनायक बन जाते हैं। चौंकिये मत, मधु कोड़ा दुनिया के उन असंख्य घृणित भ्रष्टाचार प्रसं"ों में एक नया संदर्भ हैं जो खनिजों से भरी धरती के ऊपर जन्मते रहे हैं। सीको मोबोतू, (जैरे के पूर्व शासक) सानी अबाचा (नाइजीरिया के पूर्व शासक) और युवारो मुसुवेनी (युगांडा के पूर्व शासक) आदि ने जिस तरह खनिज संपत्ति से भरपूर वसुधा पर भ्रष्टाचार के अप्रतिम भवन बनाये थे मधु कोड़ा ने भी ठीक उसी तरह झारखंड में भ्रष्टाचार के शिखर गढ़े हैं। प्राकृतिक समृद्धि अक्सर सत्ता तंत्र को बिगाड़ती है तभी तो दुनिया के सर्वकालिक दस महाभ्रष्ट नेताओं में से आधे से अधिक का रिश्ता किसी न किसी तरह से प्राकृतिक समृद्धि की जमीनों से है। इन्हें देखकर ही आर्थिक दुनिया को समृद्धि के अभिशाप या रिसोर्स कर्स का सिद्धांत गढ़ना पड़ा। खनिजों से भरपूर धरती के ऊपर अगर कानून ढीले और नेता लालची हों तो वहां डेमोक्रेसी या आटोक्रेसी नहीं बल्कि क्लेप्टोक्रेसी (लूट का शासन)राज करती है, जो सिर्फ लूटना और लुटाना जानती है। दीन हीन और दरिद्र अधिकांश अफ्रीका आज इसी समृद्धि से शापित और इस प्रणाली से शासित है। झारखंड भारत में इस अभिशाप और शासन की एक ताजी बानगी है।
गरीब बनाने वाली अमीरी
झारखंड को अगर कुछ देर के लिए हम एक स्वतंत्र देश में मान लें तो अफ्रीका में इसके कई समतुल्य मिल जाएंगे। यहां वह सब कुछ है जो एक रिसोर्स कर्स्ड यानी समृद्धि से शापित किसी मुल्क में होता है। जाम्बिया, कांगो, नाइजीरिया, सिएरा लियोन, अंगोला, लाइबेरिया हो सकता है कि झारखंड से बदतर हों लेकिन समृद्धि के अभिशाप के मामले में झारखंड उनके ही जैसा है। अफ्रीका के इन सभी अजीबोगरीब बदकिस्मत में मुल्कों में गृह युद्ध, हथियार बंद गिरोह, मौत, बीमारी, गरीबी का साम्राज्य वर्षो से है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां इन देशों को निचोड़ती हैं और भ्रष्ट राजनेता व नौकरशाह सभी सुख भोगते हैं। रक्तपात, भ्रष्टाचार, रिश्वत देने वाली कंपनियां, दरिद्र जनता और कमजोर विकास दर, समृद्धि से अभिशप्त किसी भी क्षेत्र की पहचान हैं और झारखंड में यह सब पूरी ठसक के साथ मौजूद है। यहां सिएरा लिओन जैसा गृह युद्ध भले न हो मगर नक्सलवाद है तो जो संगठित पुलिस व सुरक्षा बल पर हमला करता है। गरीबी की रेखा नीचे एक बड़ी आबादी है, तरह तरह से छले जाते आदिवासी है और इन सब के ऊपर मधु कोड़ाओं का भ्रष्ट तंत्र है। समृद्धि के अभिशाप को फलीभूत होने के लिए और क्या चाहिए? इसलिए ही तो एक सीमित क्षेत्र में तेल, हीरे, सोने अन्य खनिजों की भरमार को दुनिया अर्थशास्त्री अवसर कम आफत ज्यादा मानते हैं। क्यों कि प्राकृतिक समृद्धि कुछ ऐसी पेचीदा आर्थिक विसंगतियां पैदा कर देती जिससे बहुत किस्मत वाले राष्ट्र निकल पाते हैं।
खोदो-खाओ-खिलाओ
भारत की 40 फीसदी खनिज संपदा अपने गर्भ में संजोये झारखंड की विकास दर आखिर राष्ट्रीय आर्थिक विकास दर या कई अन्य रा'यों से कम क्यों है? क्यों सालाना करीब 6000 करोड़ रुपये के खनिज उत्पादन वाले इस राज्य में 75 फीसदी लो"ों के पेट में दाना खेती से ही पड़ता है? दुनिया भर अर्थशास्त्री यह गुत्थी नहीं सुलझा पाते आखिर प्रकृति से उपकृत देश या राज्य विकास में उन देशों या राज्यों से पीछे क्यों होते हैं जहां प्राकृतिक संसाधनो की इतनी भरमार नहीं है। दरअसल प्राकृतिक समृद्धि जल्दी पैसा कमाने का मौका देती है। खनिज निकालने के लिए उद्योग बिठाने की जरुरत नहीं होती। इसलिए जो देश अकूत खनिजों के धनी हैं वहां औद्योगिकीकरण कम होता है और कमाई कुछ लोगों के हाथ केंद्रित है। अफ्रीकी देश गैबन प्रतिदिन तीन लाख बैरल तेल निकालता है, लेकिन यहां सब कुछ आयात होता है। नाइजीरिया में दुनिया का सबसे दसवां सबसे बड़ा तेल भंडार है लेकिन नाइजर डेल्टा के लोग पत्थर युग में जी रहे है। कांगो की कहानी दुनिया जानती है और लाइबेरिया की लकड़ी बेचकर हथियारबंद गुरिल्ला गिरोह एक दूसरे को मारते हैं। खनन उद्योग वह सरकारों को अच्छे राजस्व और राजनेताओं को शीघ्र धन लाभ के नायाब सूत्र देता है और खनन के अधिकार हासिल कर संगठित मैन्युफैक्चरिंग उद्योग पनपने की संभावनायें समाप्त कर देता है। समृद्धि के अभिशाप का एक पहलू यह भी है कि एक जगह एक खनिज का बड़ा भंडार मिलने के बाद अन्य स्थानों पर इसे तलाशने की कोशिशें धीमी पड़ जाती हैं। खनिज अपनी खनन लागत से ज्यादा रिटर्न देते हैं इसलिए यह चोखा धंधा है और खनन उद्योग भ्रष्टाचार के लिए दुनिया में बदनाम है।
कानून की कठपुतलियां
ढाई साल में तो कोई मुख्यमंत्री सत्ता व प्रशासन की बारीकी समझ पाता है और वह भी जब उसे पहली बार यह कुर्सी मिली हो लेकिन कोड़ा ने ढाई साल में सब कुछ कर लिया। खनिजों से भरपूर क्षेत्रों में ऐसा होना आम बात है। दरअसल प्राकृतिक समृद्धि, रिश्वत देने वाली कंपनियां और लालची नेता मिलकर एक दुष्चक्र बना देते हैं जिनके बीच फंसकर कानून कठपुतलियों की तरह नाचते हैं। खनन उद्योग सबसे जल्दी कमाई कराता है इसलिए यहां राजनेता आनन फानन मे कानून बदलते हैं। खनन उद्यो" से जुड़े लोग अक्सर चुटकी लेते हैं कि इस कारोबार में फाइलें सबसे तेज चलती हैं। कमजोर संस्थायें और व्यवस्था तथा निवेश करने वाले भ्रष्ट मगर बड़े नामों का प्रचार तंत्र राजनेताओं पूरी मदद देता है। इसलिए खनिज से धनी देशों में भ्रष्टाचार पूरी तरह संगठित है। बल्कि अब दुनिया की कंपनियां तो इस बात पर बहस करती हैं कि राजनीतिक भ्रष्टाचार का सुहार्तो मॉडल उचित है या भारतीय मॉडल। कोरिया या इंडोनेशिया में लेनहार एक ही था मगर भारत में कई हैं। अगर कानून कमजोर हों तो लोकतंत्र में भ्रष्टाचार किसी अन्य शासन प्रणाली से ज्यादा होता है और सरकारें अस्थिर व कमजोर हों तो फिर क्या कहने? यही वजह है मैनकर ओल्सन(लॉबीइंग या इंटरेस्ट ग्रुप सिद्धांत के प्रणेता) ने शायद भ्रष्टाचार के संदर्भ में कहीं लिखा था कि घुमंतू लुटेरों से तो स्थायी लुटेरे ठीक हैं। अर्थात भ्रष्ट सरकारें स्थिर हों तो भी राहत है कम से कम कुछ तो तय होता है।
ऐसा नहीं है कि खनिजों से मालामाल दुनिया के सभी देश अभिशप्त हैं। अफ्रीका में बोत्सवाना, यूरोप में नार्वे, उत्तर अमेरिका में कनाडा, ओशेनिया में ऑस्ट्रेलिया ऐसे देश हैं जिन्होंने समृद्धि के अभिशाप को बेअसर किया है। हीरे जैसे अभिशप्त खनिज से भरपूर बोत्सवाना के ईमानदार राजनेताओं व मजबूत संस्थाओं उसे अंगोला या नाइजीरिया नहीं बनने दिया और अपने मुल्क को दुनिया की सबसे तेज विकास वाली अर्थव्यवस्थाओं में शामिल किया। दुनिया का तीसरे सबसे बड़े तेल निर्यातक नार्वे ने भी अपनी प्राकृतिक समृद्धि को कायदे से संभाला है। भारत में झारखंड प्राकृतिक समृद्धि से आने वाली बीमारियों का बनता हुआ नमूना है। भारत के कुछ अन्य राज्य भी इससे नसीहत ले सकते है क्यों कि भ्रष्टाचार व हिंसा के रुप में समृद्धि का अभिशाप इस राज्य पर असर करता दिखने लगा है। अगर कोई सबक ले तो संभावनामय झारखंड बोत्सवाना बन सकता है नहीं तो इसकी हिरण्यगर्भा धरती इसे हथियार बंद गिरोहों और भ्रष्ट नेताओं का अभयारण्य बनाने लगी है। anshumantiwari@del.jagran.com

Monday, November 9, 2009

देनहार कोई और है...

सिमेंस, बीएई सिस्टम्स, ल्युसेंट, केलाग्स ब्राउन, सन माइक्रोसिस्टम्स और रायल डच शेल में क्या समानता है? यह सभी बहुराष्ट्रीय दिग्गज रिश्वत देने वाली कंपनियों की सूची (अमेरिकी जस्टिस विभाग) के सरताज हैं। फर्डिनांडो मार्कोसों और अल्बर्तो फुजीमोरियों से लेकर मधु कोड़ाओं तक की गिनती लगाते हुए हम यह भूल ही गए कि देने वाले हाथ भी होते हैं। यह नाम देने वाले दिग्गज हाथों में से कुछ के हैं जो यह आर्थिक उदारीकरण के नए और बहुरूप चेहरों से नियंत्रित होते हैं। यह पूरा परिदृश्य भ्रष्टाचार के बड़े राजनीतिक चेहरों के बीच गुम जाता है, क्योंकि उदारीकरण के गुन गाते और भ्रष्टाचार को गरियाते हम यह यह तलाशना भी भूल जाते हैं कि भ्रष्टाचार को कहीं उदारीकरण से पोषण तो नहीं मिलने लगा है? दरअसल अगर लाइसेंस परमिट राज भ्रष्टाचार का पूर्णत: सरकारी और केंद्रित स्वरूप था तो उदारीकरण, कई संदर्भो में, रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार जैसे धतकरमों के विकेंद्रीकृत और अभिनव प्रयोग लेकर आया है। देने वाले और लेने वाले हाथ तो वही हैं, लेकिन लेन-देन के ढंग ढर्रे ज्यादा चुस्त, चतुर और पेचीदा हो गए हैं। पूरी दुनिया वित्तीय कुकर्मो की इस नई पीढ़ी से हलकान है अलबत्ता लेने-देने वालों की पौ-बारह है।
गरम मुट्ठी लाख
कीब्रिटेन की हथियार निर्माता बीएई सऊदी अरब में जेट का सौदा हथियाने के लिए अरबों डालर की रिश्वत दे डालती है। मामला ब्रिटेन के सीरियस फ्राड आफिस के पास है। जर्मन कंपनी औद्योगिक दिग्गज सिमेंस ठेके लेने के लिए दुनिया में एक अरब डालर की रिश्वत बांट पता नहीं कितनों को भ्रष्ट कर देती है। केलाग्स नाइजीरियन नौकरशाहों को रिश्वत की लत लगा देती है तो ल्युसेंट चीन के भ्रष्टाचार पोषक माहौल में खुलकर खेलती है। ..यह सूची बहुत लंबी है और इसमें दर्ज नामों में दिग्गजों की कमी नहीं है। अमेरिका का जस्टिस विभाग ऐसी 120 कंपनियों के खिलाफ जांच कर रहा है, जिन्होंने दुनिया में बहुतों का ईमान बिगाड़ा है। ओईसीडी हर साल एक रिपोर्ट जारी कर दुनिया को कारोबारी दुनिया में रिश्वतखोरी की डरावनी तस्वीर दिखाता है और ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल हर साल सर पीटता है, मगर देने वाले हाथ हमेशा लंबे और मजबूत साबित होते हैं। संभावनामय बाजारों के दरवाजे पर नीतियों की मुहर लेकर बैठे राजनेता और नौकरशाह इनके आसान निशाने हैं। यह राजनेता इन कंपनियों को सिर्फ इसलिए हाथों-हाथ नहीं लेते क्योंकि यह उनकी समृद्धि की ललक को पूरा करती हैं, बल्कि यह दिग्गज इसलिए भी अपना काम करा ले जाते हैं, क्योंकि यह निवेश, रोजगार, विकास के अग्रदूत बन कर आते हैं। विकास व निवेश के भूखे विकासशील देशों के लिए यह देने वाले हाथ किसी महादानी के हाथों से कम नहीं होते इसलिए तीसरी दुनिया के नीति निर्माता इन दिग्गजों की दागदार दुनिया पर निगाह भी नहीं डालते।
और हिचक किस बात की?
पूरी दुनिया में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने ब्राइबिंग के बिजनेस को इतना चुस्त व चतुर कर दिया है कि नेताओं के लिए इनसे डील करना ज्यादा सुरक्षित हो गया है। दर्जनों तरीके हैं, काम कराने से लेकर पैसा देने वाली एजे¨सयों की कई पर्ते हैं और हित साधने के साधन पूरी दुनिया में फैले हैं। ओईसीडी परेशान है कि आखिर इन बीच की एजेंसियों का क्या किया जाए जो कि देने वाले दिग्गजों और लेने वाले लालचियों के बीच इतनी सफाई से काम करती हैं कि पकड़ना मुश्किल हो जाता है। दरअसल यह लेन-देन को तरह-तरह के नायाब और वैध आवरण पहनाना अब एक कंसल्टेंसी है, जो बाजार में आसानी से मिलती है। इसीलिए तो विदेश में रिश्वत के खिलाफ दुनिया के जिन देशों में कानून भी हैं वहां भी कंपनियों पर शिकंजा कसना मुश्किल होता है। तभी तो एक बहुराष्ट्रीय दिग्गज ने चीन के अधिकारियों को लास वेगास की सैर कराकर अपना काम करा लिया और काफी वक्त तक कोई पकड़ नहीं सका। पूरी दुनिया उदारीकरण की दीवानी है। इस दीवानगी में हर देश अपने कानूनों को बदल रहा है ताकि उसकी जनता को विकास और समृद्धि मिले। यह मिलती भी है, लेकिन इसके साथ देने वाले हाथों की चालाकी भी आती है। यह हाथ ऐसे कानून बनवाने व बदलवाने में माहिर हैं, जिनसे विकास की जरुरतें भी पूरी होती हों और उनके कारोबारी हित भी सध जाएं। जाहिर जब दोनों काम एक साथ हो रहे हों और राजनेताओं को बोनस में मेहनताना मिल रहा हो तो फिर हिचक किस बात की?
भ्रष्टाचार का उदारीकरण
एक बड़ा पेचीदा सवाल है कि उदारीकरण से भ्रष्टाचार मिटता है या बढ़ता है। लाइसेंस परमिट राज के परम भ्रष्ट दौर को देख चुके लोग उदार नियमों को भ्रष्टाचार का इलाज मानते हैं मगर जरा भारत पर गौर फरमाइए। जिन बड़े वित्तीय व आर्थिक घोटाले उदारीकरण के पिछले करीब दो दशकों में हुए हैं, उतने पहले के चालीस वर्षो में नहीं हुए। शेयर बाजार, कंपनी प्रबंधन, सरकारी अनुबंध, निवेश कानून, वित्तीय सेवाएं, अचल संपत्ति, लाइसेंस परमिट लगभग हर जगह एक न एक बड़ा घोटाला दर्ज हो चुका है। रोचेस्टर इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलाजी के आर्थिक विभाग ने कुछ वर्ष पहले एक अध्ययन में यह पाया था कि उदारीकरण भ्रष्टाचार दूर करने की दवा नहीं है, बल्कि तीसरी दुनिया के कई देशों में उदारीकरण ने भ्रष्टाचार को खाद पानी दे दिया है। नियम ढीले हुए हैं, प्रतिस्पर्धा बढ़ी है, नए अवसर आए हैं और निवेशकों ने बाजार की तरफ रुख किया है तो राजनेताओं की मुट्ठियां ज्यादा गरम हुई हैं क्योंकि अब दांव बड़े हैं और खिलाड़ी कई। कई जगह यह पाया गया है कि जिन देशों में लोकतंत्र और उदारीकरण एक साथ आया, वहां भ्रष्टाचार कम पनपा मगर जिन देशों में लोकतंत्र पहले आया और अर्थव्यवस्थाओं के दरवाजे काफी समय बाद खुले वहां उदारीकरण ने लेने और देने वाले हाथों के लिए चांदी काटने का इंतजाम कर दिया है। भारत के संदर्भ में अभी इस रिश्ते की पड़ताल होनी है।
भ्रष्टाचार की गुत्थी पहले से कडि़यल है, राजनीति व नौकरशाही ने इसे हमेशा कसा है और अब दिग्गज कंपनियां इसमें एडहेसिव डाल कर इसे और सख्त कर रही हैं। दरअसल भारत में लेने वाले हाथ इतने बड़े हैं कि उन की ओट में देने वाले हाथ छिप जाते हैं या फिर बेदाग नजर आते हैं। इसलिए हम इस तंत्र के दूसरे पक्ष की तरफ नहीं देख पाते मगर दुनिया ने अब कंपनियों पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया है। जल्द ही हमें भी इन अपवित्र दानियों की तरफ देखना होगा। तब तक भ्रष्टाचार में फंसे नेता, अच्छे संदर्भो में लिखे गए, रहीम के इस दोहे के सहारे अपना बचाव कर सकते हैं.. देनहार कोई और है भेजत है दिन रैन, लोग भरम हम पर करें तासे नीचे नैन।