Showing posts with label demographic advantage. Show all posts
Showing posts with label demographic advantage. Show all posts

Saturday, October 19, 2019

वक्त की करवट


 ‘‘भविष्य हमेशा जल्दी आ जाता है और वह भी गलत क्रम में यानी कि भविष्य उस तरह कभी नहीं आता जैसे हम चाहते हैं.’’

मशहूर फ्यूचरिस्ट यानी भविष्य विज्ञानी (भविष्य वक्ता नहींएल्विन टॉफलर ने यह बात उन सभी समाजों के लिए कही थी जो यह समझते हैं कि वक्त उनकी मुट्ठी में हैभारतीय समाज की राजनीति बदले या नहीं लेकिन भारत के लिए उसके सबसे बड़े संसाधन या अवसर गंवाने की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है.

भारत बुढ़ाते हुए समाज की तरफ यात्रा प्रारंभ कर चुका हैअगले दस साल में यानी 2030 से यह रफ्तार तेज हो जाएगी.

भारत की युवा आबादी अगले एक दशक में घटने लगेगीविभिन्न राज्यों में इस संक्रमण की गति अलग-अलग होगी लेकिन इस फायदे के दिन अब गिने-चुने रह गए हैंसनद रहे कि पिछले दो-तीन दशकों में भारत की तरक्की का आधार यही ताकत रही हैइसी ने भारत को युवा कामगार और खपत करने वाला वर्ग दिया है.

2018-19 के आर्थिक सर्वेक्षण ने बताया है किः
  •       भारत की जनसंख्या विकास दर घटकर 1.3 फीसद (2011-16) पर आ चुकी है जो सत्तर-अस्सी के दशकों में 2.5 फीसद थी  
  •    बुढ़ाती जनसंख्या के पहले बड़े लक्षण दक्षिण के राज्योंहिमाचल प्रदेशपंजाबपश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में दिखने लगे हैंअगर बाहर से लोग वहां नहीं बसे तो 2030 के बाद तमिलनाडु में जनसंख्या वृद्धि दर घटने लगेगीआंध्र प्रदेश में यह शून्य के करीब होगीअगले दो दशकों में उत्तर प्रदेशराजस्थानमध्य प्रदेश और बिहार में आबादी बढ़ने की दर आधी रह जाएगी
  •    टोटल फर्टिलिटी रेट यानी प्रजनन दर में तेज गिरावट के कारण भारत में 0-19 साल के आयु वर्ग की आबादी सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गई हैदेश में प्रजनन दर अगले एक दशक में घटकर 1 फीसद और 2031-41 के बीच आधा फीसद रह जाएगीजो आज यूरोप में जर्मनी और फ्रांस की जनसंख्या दर के लगभग बराबर होगी
  •  2041 तक 0-19 आयु वर्ग के लोग कुल आबादी में केवल 25 फीसद (2011 में 41 फीसदीरह जाएंगेतब तक भारत की युवा आबादी का अनुपात अपने चरम पर पहुंच चुका होगा क्योंकि कार्यशील आयु (20 से 59 वर्षवाले लोग आबादी का करीब 60 फीसद होंगे
  •    आर्थिक समीक्षा बताती है कि 2021 से 2031 के बीच भारत की कामगार आबादी हर साल 97 लाख लोगों की दर से बढ़ेगी जबकि अगले एक दशक में यह हर साल 42 लाख सालाना की दर से कम होने लगेगी 

युवा आबादी की उपलब्धि खत्म होने को बेरोजगारी के ताजा आंकड़ों की रोशनी में पढ़ा जाना चाहिएएनएसएसओ के चर्चित सर्वेक्षण (2018 में 6.1 फीसद की दर से बढ़ती बेकारीमें चौंकाने वाले कई तथ्य हैं:
  • ·       शहरों में बेकारी दर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा यानी 7.8 फीसद हैविसंगति यह कि शहरों में ही रोजगार बनने की उम्मीद है
  •     2011 से 2018 के बीच खेती में स्वरोजगार पाने वाले परिवारों की संख्या बढ़ गईलक्ष्य यह था कि शहरों और उद्योगों की मदद से खेती के छोटे से आधार पर रोजगार देने का बोझ कम होगायानी कि शहरों से गांवों की तरफ पलायन हुआ है बावजूद इसके कि गांवों में मजदूरी की दर पिछले तीन साल में तेजी से गिरी है
  •     कामगारों में अशिक्षितों और अल्पशिक्षितों (प्राथमिक से कमकी संख्या खासी तेजी से घट रही हैयानी कि रोजगार बाजार में पढ़े-लिखे कामगार बढ़ रहे हैं जिन्हें बेहतर मौकों की तलाश है
  •  लवीश भंडारी और अमरेश दुबे का एक अध्ययन बताता है कि 2004 से 2018 के बीच गैर अनुबंध रोजगारों का हिस्सा 18.1 फीसद से 31.8 फीसद हो गयायानी कि रोजगार असुरक्षा तेजी से बढ़ी हैलगभग 68.4 फीसद कामगार अभी असंगठित क्षेत्र में हैं
  •      सबसे ज्यादा चिंता इस बात पर होनी चाहिए कि देश में करीब लगभग आधे (40-45 फीसदकामगारों की मासिक पगार 10 से 12,000 रुपए के बीच हैउनके पास भविष्य की सुरक्षा के लिए कुछ नहीं है

भारतीय जनसांख्यिकी में बुढ़ापे की शुरुआत ठीक उस समय हो रही है जब हम एक ढांचागत मंदी की चपेट में हैंबेरोजगारों की बड़ी फौज बाजार में खड़ी हैभारत के पास अपने अधिकांश बुजर्गों के लिए वित्तीय सुरक्षा (पेंशनतो दूरसामान्य चिकित्सा सुविधाएं भी नहीं हैं.

सात फीसद की विकास दर के बावजूद रिकॉर्ड बेकारी ने भारत की बचतों को प्रभावित किया हैदेश की बचत दर जीडीपी के अनुपात में 20 साल के न्यूनतम स्तर (20 फीसदपर हैयानी भारत की बड़ी आबादी इससे पहले कि कमा या बचा पातीउसे बुढ़ापा घेर लेगा

भारत बहुत कम समय में बहुत बड़े बदलाव (टॉफलर का ‘फ्यूचर शॉक’) की दहलीज पर पहुंच गया हैकुछ राज्यों के पास दस साल भी नहीं बचे हैंहमें बहुत तेज ग्रोथ चाहिए अन्यथा दो दशक में भारत निम्न आय वाली आबादी से बुजुर्ग आबादी वाला देश बन जाएगा और इस आबादी की जिंदगी बहुत मुश्किल होने वाली है.


Tuesday, June 6, 2017

हकीकत से इनकार

बेकारी की आपदा के बीच रोजगार सृजन की जिम्मेदारी को पीठ दिखाना कई नीतियों की असफलता का स्वीकार है.

रकार की तीसरी सालगिरह पर गायराजनीति के केंद्र में स्थापित हो गई और रोजगारों की फिक्र सियासी व गवर्नेंस चर्चाओं से बाहर हो गई.
ठीक कहते हैं भाजपा के हाकिमसरकार सबको रोजगार नहीं दे सकती. वैसे मांगा भी किसने था? सरकार ने कभी ऐसा कहा भी नहीं. श्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने तो सिर्फ यह बताया था कि हर साल एक करोड़ रोजगारों के सृजन की कोशिश होगी ाकि ताकि2020 तक पांच करोड़ लोगों को रोजी मिल सके. जाहिर है, हर साल एक करोड़ नए लोग रोजगारों की कतार में आ जाते हैं.
राजनीति का तो पता नहीं लेकिन रोजगारों को लेकर हाकिमों की यह 'साफगोई' जले पर जहर जैसी हैः
1. लेबर ब्यूरो बता रहा है कि कपड़ाचमड़ारत्न-आभूषणधातुऑटोमोबाइलट्रांसपोर्ट,सूचना तकनीक और हैंडलूम इन आठ प्रमुख क्षेत्रों में रोजगार सृजन सात साल के सबसे निचले स्तर पर है.
2. नए रोजगारों की उम्मीद बनकर उभरे ई-कॉमर्स और स्टार्ट-अप बेकारी का कब्रिस्तान हैं.
3. आइटी दिग्गज कंपनियों की ताजा घोषणाओं के मुताबिकसूचना तकनीक क्षेत्र10,000 नौकरियां काट चुका है और दो लाख रोजगार खतरे में हैं.
4. नोटबंदी के बाद इस साल की चैथी तिमाही में आर्थिक विकास दर घटकर6.1 फीसदी (पिछली तिमाही में सात फीसदी) रह गई है जो नोटबंदी के चलते  असंगठित क्षेत्र में करीब चार लाख अस्थायी/स्थायी रोजगार खत्म होने की आशंकाओं को आधार देती है.
बेकारी की आपदा के बीच रोजगार सृजन की जिम्मेदारी को पीठ दिखाना कई नीतियों की असफलता का स्वीकार है.
आखिर निवेशउद्योगीकरणशिक्षाकौशलसूचना तकनीकसामाजिक विकासइन सभी नीतियों के केंद्र में रोजगारों के अलावा और क्या है?
दरअसल, 2014 में नई सरकार अगर कोई एक मिशन शुरू कर सकती थी तो वह'सबके लिए रोजगार' होना चाहिए थाजो न केवल युवा जनादेश की उम्मीदों के माफिक होता बल्कि भारत के पूरे आर्थिक नियोजन को नए ढांचे में ढालने के लिए भी अनिवार्य था. हकीकत यह है कि सामाजिक-आर्थिक विकास के बाकी क्षेत्र साफ-सफाई,तेल-पानी और ओवरहॉलिंग मांग रहे थेकेवल रोजगार ही एक ऐसा क्षेत्र है जो कई अनपेक्षित जटिलताओं से रू-ब-रू था और जिसे मिशन बनाने की जरूरत थी.
रोजगारों के ग्लोबल परिदृश्य की वर्ल्‍ड इकोनॉमिक फोरम की एक ताजा रिपोर्ट कुछ कीमती सूत्र सौंपती है जिनकी रोशनी में लगता है कि एक गंभीर सरकार रोजगारों से मुंह फेरने से पहले बहुत कुछ कर सकती हैः
1. इन्फ्रास्ट्रक्चर और निर्माणउपभोक्ता सामानऊर्जावित्तीय सेवाएंस्वास्‍थ्यसूचना तकनीकमीडिया और मनोरंजनमोबिलिटीपेशेवर सेवाएं और कृषिदस प्रमुख क्षेत्र हैं जहां अधिकांश संगठित और असंगठित रोजगार बनने हैं.
2. काम के नए तरीकेनगरीकरणमोबाइल इंटरनेटबिग डाटानया मध्य वर्गइंटरनेट ऑफ थिंग्स  (इंटरनेट से जुड़े उत्पाद)शेयरिंग इकोनॉमीरोबोटिक्स  और आधुनिक ट्रांसपोर्टएडवांस मैन्युफैक्चरिंगथ्री-डी प्रिंटिंग और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस वह प्रमुख ताकतें हैं जो ऊपर के दस क्षेत्रों में रोजगारों को अलग-अलग ढंग से प्रभावित कर रही हैं.
मसलनकाम करने के तरीकों के बदलाव से सबसे ज्यादा असर प्रोफेशनल सेवाओं और इन्फ्रास्ट्रक्चर के रोजगारों पर पड़ा है तो मोबाइल इंटरनेटस्वास्थ्यसूचना तकनीक और मीडिया में रोजगारों की सीरत बदल रहा है. आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और रोबोटिक्समोबिलिटी में रोजगारों के लिए गेम चेंजर हैं.
3. रोजगार की रणनीतियां अब हर क्षेत्र के लिए अलग-अलग होंगीजिन्हें निवेशशिक्षा,उद्योग की नीतियों का आधार होना चाहिए.
4. भविष्य के रोजगारों का दारोमदार पुनप्रशिक्षणमैनेजमेंट के तरीकों में बदलाव,कामकाज के लचीले नियमबहुरोजगार पर होगा जिसके लिए शिक्षा की पूरी प्रणाली बदलेगी.
5. सरकारों को वस्तुतः साफ-सफाई से लेकर अंतरिक्ष तक प्रत्येक नीति के केंद्र में रोजगारों को रखना     होगा तब जाकर बेरोजगारी की चुनौतियों का कुछ समाधान मिलेगा.
क्‍या आपको महसूस नहीं होता कि यह सब तो हो सकता था फिर भी तीन साल में रोजगारों पर नीतिगत चर्चा तो छोडि़ये कहीं कोई सुई भी गिरी !
सरकार शायद इसे लेकर ज्यादा फिक्रमंद है कि हमें क्या नहीं खाना चाहिए बजाए इसके कि हमें खाने के लिए कमाना कैसे चाहिए.
कोई फर्क नहीं पड़ता कि अर्थशास्त्री जीडीपी की अमूर्त गणना छोड़कर रोजगारों की गिनती को विकास मापने का आधार बना रहे हैं. यहां तो सरकार जल्द ही आपको यह बताने वाली है कि रोजगारों में कोई कमी नहीं हुई है. दरअसलउलटा-सीधा खाने के कारण बेकारी को लेकर हमारी समझ ही प्रदूषित हो गई है!

Monday, December 28, 2015

कुछ अच्छे दिन हो जाएं


क्‍या राजनेता पिछले चुनाव में राजनैतिक संवादों और उपभोक्ता प्रचार के बीच गहरे अंतर को समझने में चूक रहे हैं 

ल मेरी लूना, चुटकी में चिपकाए, कुछ मीठा हो जाए जैसे सहज विज्ञापन संदेशों का अच्छे दिन आने वाले हैं से क्या रिश्ता है? यकीन करना मुश्किल है लेकिन हकीकत में बीजेपी के लोकसभा चुनाव में अच्छे दिनों वाला संदेश, इन्हीं सहज विज्ञापनों से प्रेरित था, जो हाल के दशकों में प्रभावी राजनैतिक परिवर्तन के संवाद का सबसे बड़ा प्रतिमान बनकर उभरा. चुनावी वादे, राजनेताओं की टिप्पणियां और सत्ता परिवर्तन, यकीनन, विज्ञापनी संदेशों जैसे नहीं होते. फिर अच्छे दिन आने का संदेश इतना बड़ा वादा था जिसके सामने कुछ भी नहीं टिका. तारीफ करनी होगी विज्ञापन गुरु पीयूष पांडे की न केवल, सीधे दिल में उतर जाने वाले संदेश के लिए बल्कि इसके लिए भी कि उन्होंने राजनैतिक रूप से सही-गलत होने की चिंता किए बगैर अपनी नई किताब में खुलकर यह स्वीकार किया कि अच्छे दिन आने वाले हैं संदेश की पृष्ठभूमि में इसी तरह के चॉकलेटी विज्ञापन थे.
नरेंद्र मोदी के लोकसभा चुनाव अभियान की विज्ञापन रणनीति की कमान पांडे के हाथ में थी जो प्रमुख विज्ञापन एजेंसी ओऐंडएम के एग्जीक्यूटिव चेयरमैन और क्रिएटिव डायरेक्टर हैं. अबकी बार मोदी सरकार का जिंगल भी उन्हीं की रचनात्मकता की देन थी. पांडे ने अपनी आत्मकथा पांडेमोनियम में लिखा है कि जुलाई 2013 में आए चुनावी सर्वेक्षण बीजेपी की बढ़त तो दिखा रहे थे लेकिन बहुमत नहीं. त्रिशंकु संसद का अंदेशा था. 7 सितंबर, 2013 को मोदी के प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनने के बाद, बीजेपी के चुनाव अभियान का लीड कैंपेन, सोहो स्क्वेयर को मिला जो कि ओऐंडएम की एजेंसी है.
पांडे लिखते हैं, जैसे ही हम यह समझे कि वोटर क्या सुनना चाहते हैं, हम उन्हें वही बताने लगे जिस पर वे भरोसा कर सकते थे. यकीनन पांडे अपनी जगह सही थे. वे किसी उत्पाद या सेवा की तर्ज पर बीजेपी के लिए एक विज्ञापन क्रिएटिव ही बना रहे थे, अलबत्ता उन्हें शायद यह नहीं पता था कि वे चॉकलेट या बाइक नहीं, एक राजनैतिक परिवर्तन का संदेश लिख रहे हैं जिसका आयाम और असर अपरिमित होने वाला है. अच्छे दिन बहुत भव्य राजनैतिक वादा था, जिसे भारत तो छोड़िए, विकसित देशों के नेता भी करने में हिचकेंगे. 2015 बीतते-बीतते, बदलाव का सबसे भव्य संदेश उम्मीदों के टूटने की गहरी कसक में बदल गया बल्कि खुद प्रधानमंत्री के लिए इस वड़े आश्वासन को जुमला बनने से रोकना असंभव होगा. ऐसा इसलिए हुआ चूंकि हमारे राजनेता पिछले चुनाव में राजनैतिक संवादों और उपभोक्ता प्रचार के बीच गहरे अंतर को लांघ गए थे. उन्हें उम्मीदें जगाते हुए यह ध्यान नहीं रहा कि जो कहा है, उसे करने की योजना बतानी होगी और फिर अंततः करके दिखाना भी होगा.
अच्छे दिनों का ऐंटी क्लाइमेक्स भारत के राजनैतिक संवादों के बड़बोले और अधकचरेपन का नया प्रतीक है. मोदी ही नहीं, दूसरे नायक केजरीवाल भी इसी घाट फिसले. सब कुछ जनता से पूछकर करने के वादों और दिल्ली को चुटकियों में बदलने की उम्मीदों के बरअक्स केजरीवाल सरकार अहंकार की लड़ाई से भर गई और नई राजनीति और नई गवर्नेंस की उम्मीदें ढह गईं. 2015 में यह बीमारी इतनी फैली कि पूरा साल जहरीले, भड़कीले, चटकीले, बेहूदा, कुतर्की, तथ्यहीन, बेसिर-पैर के बयानों के लिए जाना जाएगा. नेताओं की यह फिसलन ठीक उस वक्त नजर आई जब निर्णायक जनादेश देने के बाद लोग अपने नेताओं से अभूतपूर्व गंभीरता, साख और समझदारी की अपेक्षा कर रहे थे.
दिलचस्प है कि इंटरनेट के आविष्कार और एक क्लिक पर अतीत उगल देने वाली सामूहिक मेमोरी (डिजिटल अर्काइव) के बाद जब कहे-सुने अतीत को परखने की सुविधाएं उपलब्ध हैं, तब भारतीय राजनेता कुछ भी बोलने की आदत में ज्यादा ही लिथड़ गए. 2015 में नेता मुंह बाकर बोले इसलिए उनके बयानों की तासीर परखने में लोगों ने भी कोताही नहीं की. यह पहला मौका था जब भारत में सरकार और नेताओं के झूठ व बड़बोलेपन पर डिजिटल सक्रियता के साथ समाज इतना मुखर हुआ, जिसकी चपेट में आकर हफ्ते दर हफ्ते राजनीति व गवर्नेंस की साख पर खरोंचें गहरी होती चली गईं.
2015 हमारे ताजा अतीत में पहला वर्ष था जब सामाजिक-आर्थिक विकास के आंकड़ों पर बड़े शक-शुबहे पैदा हुए. आम तौर पर भारत में बड़े सरकारी आंकड़ों मसलन जीडीपी, महंगाई, निर्यात, उत्पादन, सामाजिक विकास को लेकर बहुत सवाल नहीं उठते, लेकिन इस साल की बहसें सुधारों के नए मॉडल की नहीं बल्कि आंकड़ों और दावों की तथ्यपरकता पर केंद्रित थीं जो एक विशाल लोकतंत्र में सरकारी तथ्यों को लेकर बढ़ते संदेह और झूठ के डर को पुख्ता करती थीं. अंततरू सरकार ने दिसंबर में जो छमाही आर्थिक समीक्षा संसद में रखी वह आर्थिक तस्वीर को गुलाबी नहीं बल्कि चुनौतीपूर्ण बताती है. इसलिए 2016 में सरकार को यह ध्यान भी रखना होगा कि चुनावी वादों में गफलत फिर भी चल सकती है लेकिन एक उदार ग्लोबल बाजार में आंकड़ों की बाजीगरी देश की साख ले डूबती है.
सरकारों, संस्थाओं और कारोबारियों के बीच भरोसे की पैमाइश को लेकर एडलमैन का ग्लोबल ट्रस्ट बैरोमीटर सर्वे काफी प्रतिष्ठित है जो हर साल जनवरी में आता है. जनवरी 2015 में आए सर्वे ने भारत को पांच शीर्ष देशों में रखा था, जो विश्वास से भरपूर हैं, लेकिन सरकार पर भरोसा घटने के कारण भारत इस रैंकिंग में तीसरे से पांचवें स्थान पर खिसक गया है. 2015 में यह ढलान बढ़ गई है.
पैसे के बाद अगर कोई दूसरी चीज राजनीति के साथ गहराई तक गुंथी है, तो वह नेताओं के झूठ व बड़बोलापन है. प्रतिस्पर्धी राजनीति में दूरदर्शिता और दूर की कौड़ी के बीच विभाजक रेखा पतली है. नेता अक्सर इसे लांघ जाते हैं. उम्मीदों के किले बनाना ठीक है लेकिन लोग अब इन किलों की बुनियाद बनने में देरी बर्दाश्त नहीं करते. भारत के राजनेताओं से अब आधुनिक समाज मुखातिब है. जो ठगे जाने के एहसास से सबसे ज्यादा चिढ़ता है और झूठ को झूठ व सच को सच कहने से नहीं हिचकता. 2014 के चुनाव में बीजेपी का एक और चर्चित चुनावी जिंगल था नता माफ नहीं करेगी. पांडे लिखते हैं कि बचपन में उन्होंने बार-बार सुना था कि गवान माफ नहीं करेगा. यही कहावत इस जिंगल का आधार थी. हमारे नेताओं को कुछ भी बोलते हुए अब यह याद रखना होगा कि जनता माफ...!

Monday, January 3, 2011

ग्रोथ की सोन चिडि़या

अर्थार्थ 2011
दुनिया अपने कंधे सिकोड़ कर और भौहें नचाकर अगर हमसे यह पूछे कि हमारे पास डॉलर है ! यूरो है ! विकसित होने का दर्जा है! बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं ! ताकत हैं! हथियार हैं! दबदबा है !!.... तुम्हा़रे पास क्या् है ??? ... तो भारत क्या कहेगा ? यही न कि कि (बतर्ज फिल्म दीवार) हमारे पास ग्रोथ है !!! भारत के इस जवाब पर दुनिया बगले झांकेगी क्यों कि हमारा यह संजीदा फख्र और सकुचता हुआ आत्मविश्वास बहुत ठोस है। ग्रोथ यानी आर्थिक विकास नाम की बेशकीमती और नायाब सोन चिडि़या अब भारत के आंगन में फुदक रही है। यह बेहद दुर्लभ पक्षी भारत की जवान (युवा कार्यशील आबादी) आबो-हवा और भरपूर बचत के स्वा्दिष्ट चुग्गे पर लट्टू है। विकास, युवा आबादी और बचत की यह रोशनी अगर ताजा दुनिया पर डाली जाए एक अनोखी उम्मीद चमक जाती है। अमेरिका यूरोप और जापान इसके लिए ही तो सब कुछ लुटाने को तैयार हैं क्यों कि तेज विकास उनका संग छोड़ चुका है, बचत की आदत छूट गई है और आबादी बुढ़ा ( खासतौर पर यूरोप) रही है। दूसरी तरफ भारत ग्रोथ, यूथ और सेविंग के अद्भुत रसायन को लेकर उदारीकरण के तीसरे दशक में प्रवेश