Tuesday, June 6, 2017

हकीकत से इनकार

बेकारी की आपदा के बीच रोजगार सृजन की जिम्मेदारी को पीठ दिखाना कई नीतियों की असफलता का स्वीकार है.

रकार की तीसरी सालगिरह पर गायराजनीति के केंद्र में स्थापित हो गई और रोजगारों की फिक्र सियासी व गवर्नेंस चर्चाओं से बाहर हो गई.
ठीक कहते हैं भाजपा के हाकिमसरकार सबको रोजगार नहीं दे सकती. वैसे मांगा भी किसने था? सरकार ने कभी ऐसा कहा भी नहीं. श्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने तो सिर्फ यह बताया था कि हर साल एक करोड़ रोजगारों के सृजन की कोशिश होगी ाकि ताकि2020 तक पांच करोड़ लोगों को रोजी मिल सके. जाहिर है, हर साल एक करोड़ नए लोग रोजगारों की कतार में आ जाते हैं.
राजनीति का तो पता नहीं लेकिन रोजगारों को लेकर हाकिमों की यह 'साफगोई' जले पर जहर जैसी हैः
1. लेबर ब्यूरो बता रहा है कि कपड़ाचमड़ारत्न-आभूषणधातुऑटोमोबाइलट्रांसपोर्ट,सूचना तकनीक और हैंडलूम इन आठ प्रमुख क्षेत्रों में रोजगार सृजन सात साल के सबसे निचले स्तर पर है.
2. नए रोजगारों की उम्मीद बनकर उभरे ई-कॉमर्स और स्टार्ट-अप बेकारी का कब्रिस्तान हैं.
3. आइटी दिग्गज कंपनियों की ताजा घोषणाओं के मुताबिकसूचना तकनीक क्षेत्र10,000 नौकरियां काट चुका है और दो लाख रोजगार खतरे में हैं.
4. नोटबंदी के बाद इस साल की चैथी तिमाही में आर्थिक विकास दर घटकर6.1 फीसदी (पिछली तिमाही में सात फीसदी) रह गई है जो नोटबंदी के चलते  असंगठित क्षेत्र में करीब चार लाख अस्थायी/स्थायी रोजगार खत्म होने की आशंकाओं को आधार देती है.
बेकारी की आपदा के बीच रोजगार सृजन की जिम्मेदारी को पीठ दिखाना कई नीतियों की असफलता का स्वीकार है.
आखिर निवेशउद्योगीकरणशिक्षाकौशलसूचना तकनीकसामाजिक विकासइन सभी नीतियों के केंद्र में रोजगारों के अलावा और क्या है?
दरअसल, 2014 में नई सरकार अगर कोई एक मिशन शुरू कर सकती थी तो वह'सबके लिए रोजगार' होना चाहिए थाजो न केवल युवा जनादेश की उम्मीदों के माफिक होता बल्कि भारत के पूरे आर्थिक नियोजन को नए ढांचे में ढालने के लिए भी अनिवार्य था. हकीकत यह है कि सामाजिक-आर्थिक विकास के बाकी क्षेत्र साफ-सफाई,तेल-पानी और ओवरहॉलिंग मांग रहे थेकेवल रोजगार ही एक ऐसा क्षेत्र है जो कई अनपेक्षित जटिलताओं से रू-ब-रू था और जिसे मिशन बनाने की जरूरत थी.
रोजगारों के ग्लोबल परिदृश्य की वर्ल्‍ड इकोनॉमिक फोरम की एक ताजा रिपोर्ट कुछ कीमती सूत्र सौंपती है जिनकी रोशनी में लगता है कि एक गंभीर सरकार रोजगारों से मुंह फेरने से पहले बहुत कुछ कर सकती हैः
1. इन्फ्रास्ट्रक्चर और निर्माणउपभोक्ता सामानऊर्जावित्तीय सेवाएंस्वास्‍थ्यसूचना तकनीकमीडिया और मनोरंजनमोबिलिटीपेशेवर सेवाएं और कृषिदस प्रमुख क्षेत्र हैं जहां अधिकांश संगठित और असंगठित रोजगार बनने हैं.
2. काम के नए तरीकेनगरीकरणमोबाइल इंटरनेटबिग डाटानया मध्य वर्गइंटरनेट ऑफ थिंग्स  (इंटरनेट से जुड़े उत्पाद)शेयरिंग इकोनॉमीरोबोटिक्स  और आधुनिक ट्रांसपोर्टएडवांस मैन्युफैक्चरिंगथ्री-डी प्रिंटिंग और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस वह प्रमुख ताकतें हैं जो ऊपर के दस क्षेत्रों में रोजगारों को अलग-अलग ढंग से प्रभावित कर रही हैं.
मसलनकाम करने के तरीकों के बदलाव से सबसे ज्यादा असर प्रोफेशनल सेवाओं और इन्फ्रास्ट्रक्चर के रोजगारों पर पड़ा है तो मोबाइल इंटरनेटस्वास्थ्यसूचना तकनीक और मीडिया में रोजगारों की सीरत बदल रहा है. आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और रोबोटिक्समोबिलिटी में रोजगारों के लिए गेम चेंजर हैं.
3. रोजगार की रणनीतियां अब हर क्षेत्र के लिए अलग-अलग होंगीजिन्हें निवेशशिक्षा,उद्योग की नीतियों का आधार होना चाहिए.
4. भविष्य के रोजगारों का दारोमदार पुनप्रशिक्षणमैनेजमेंट के तरीकों में बदलाव,कामकाज के लचीले नियमबहुरोजगार पर होगा जिसके लिए शिक्षा की पूरी प्रणाली बदलेगी.
5. सरकारों को वस्तुतः साफ-सफाई से लेकर अंतरिक्ष तक प्रत्येक नीति के केंद्र में रोजगारों को रखना     होगा तब जाकर बेरोजगारी की चुनौतियों का कुछ समाधान मिलेगा.
क्‍या आपको महसूस नहीं होता कि यह सब तो हो सकता था फिर भी तीन साल में रोजगारों पर नीतिगत चर्चा तो छोडि़ये कहीं कोई सुई भी गिरी !
सरकार शायद इसे लेकर ज्यादा फिक्रमंद है कि हमें क्या नहीं खाना चाहिए बजाए इसके कि हमें खाने के लिए कमाना कैसे चाहिए.
कोई फर्क नहीं पड़ता कि अर्थशास्त्री जीडीपी की अमूर्त गणना छोड़कर रोजगारों की गिनती को विकास मापने का आधार बना रहे हैं. यहां तो सरकार जल्द ही आपको यह बताने वाली है कि रोजगारों में कोई कमी नहीं हुई है. दरअसलउलटा-सीधा खाने के कारण बेकारी को लेकर हमारी समझ ही प्रदूषित हो गई है!

2 comments:

रियाज़ हाशमी said...

सटीक एवं यथार्थवादू विश्लेषण। एक बात और, जिन बेरोजगार युवाओं को इन बातों की मांग करनी चाहिए थी वे इसे भूलकर एक ऐसे अनचाहे एजेंडे पर केंद्रित हो गए हैं जो उन्हें ये सब बातें सोचने या इनका विश्लेषण करने का नौका ही नहीं देता।

विकास सक्सेना said...

सटीक विश्लेषण, सत्ता का मूल चरित्र ही लोगों को भ्रम जाल में उलझाकर अपने शासन को निष्कंटक बनाना है। लेकिन विश्वसनीय और प्रभावशाली विपक्ष के अभाव से स्थितियां ज्यादा खराब हुई हैं। आलेख में वर्णित बिन्दु सीधे नौजवानों और उनके परिवारों से जुड़े हैं लेकिन विपक्ष को इससे सरोकार नहीं है। वह सड़क पर गोकशी और बीफ पार्टियों के जरिये सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहा है। मुद्रा लोन ने कितने नए रोजगार के अवसर पैदा किए और कितने पुराने कामकाजियों को इसके तहत ऋण दिए गए इस पर चर्चा नहीं है। नोटबंदी के बाद बेकार हुए लोगों से मिलकर उनका हाल जानने की कोशिश नहीं हो रही है। ईज आॅफ डूइंग बिजनेस, कालाधन और टैक्स टैरेरिज्म पर बात नहीं हो रही। निचले दर्जे के राजस्व और पुलिस कर्मियों के भ्रष्टाचार पर खामोशी है। लोकतंत्र में कमजोर और अक्षम विपक्ष सत्तापक्ष की तानाशाही को निमंत्रण देता है।