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Tuesday, July 3, 2018

मंदी में आजादी


आर्थिक मंदी से क्या लोकतांत्रिक आजादियों पर खतरा मंडराने लगता है?

क्या ताकत बढ़ाने की दीवानी सरकारों को आर्थिक मुसीबतें रास आती हैं?

लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी के लिए मुक्त बाजार को सिकुड़ने से बचाना क्यों जरूरी है?

लोकशाही में आजादियों से जुड़े ये सबसे टटके और नुकीले सवाल हैं. बीते बीसेक बरस में लोकशाही का नया अर्थशास्त्र बना है जिसकी मदद से मुक्त बाजार ने आर्थिक स्वाधीनता को संवार करसरकारों को माई बाप होने से रोक दिया है.

खुली अर्थव्यवस्था के साथ सरकारों पर जनता की निर्भरता कम होती चली गईइसलिए नेता अब उन मौकों की तलाश में हैं जिनके सहारे आजादियों की सीमित किया जा सके.

क्या आर्थिक मंदी लोकतंत्र की दुश्मन है?

फ्रीडम हाउस (लोकतंत्रों की प्रामाणिकता को आंकने वाली सबसे प्रतिष्ठित संस्था) की रिपोर्ट "फ्रीडम इन द वर्ल्ड लोकशाही का ख्यात सूचकांक है. 2018 की रिपोर्ट के मुताबिकलोकतंत्र पिछले कई दशकों के सबसे गहरे संकट से मुकाबिल है. 2107 में 75 लोकतंत्रों (देशों) में राजनैतिक अधिकारप्रेस की आजादीअल्पसंख्यकों के हक और कानून का राज कमजोर हुए.

लोकतंत्र की आजादियों में लगातार गिरावट का यह 12वां साल है. "फ्रीडम इन द वर्ल्ड'' बताती है कि 12 साल में 112 देशों में लोकतंत्र दुर्बल हुआ. तानाशाही वाले देशों की तादाद 43 से बढ़कर 48 हो गई.

लोकतंत्रों के बुरे दिनों ने 2008 के बाद से जोर पकड़ा. ठीक इसी साल दुनिया में मंदी शुरू हुई थी जो अब तक जारी है. 1990 के बाद पूरी दुनिया में लोकतंत्रों की सूरत और सीरत बेहतर हुई थी. अचरज नहीं कि ठीक इसी समय दुनिया के कई देशों में आर्थिक उदारीकरण प्रारंभ हुआ था और ग्लोबल विकास को पंख लग गए थे.

यानी कि तेज आर्थिक विकास की छाया में स्वाधीनताएं खूब फली-फूलीं.

आर्थिक संकट से किसे फायदा?

आर्थिक उदारीकण और लोकतंत्र के रिश्ते दिलचस्प हैं. जहां भी बाजार मुक्त हुआ और उद्यमिता को आजादी मिलीवहां सरकारों को अपनी ताकत गंवानी पड़ीइसलिए मंदी जैसे ही बाजार को सिकोड़ती है और निजी उद्यमिता को सीमित करती हैसरकारों को ताकत बढ़ाने के मौके मिल जाते हैं. ताजा तजुर्बे बताते हैं कि जो देश मंदी से बुरी तरह घिरे रहे हैंवहां लोकतंत्र की ताकत घटी है.

सरकारें मंदी की मदद से दो तरह से ताकत बढ़ाती हैः

एकः मंदी के दौरान सरकार अपने खजाने से मुक्त बाजार में दखल देती है और सबसे बड़ी निवेशक बन जाती है. भारत में 1991 से पहले तक सरकार ही अर्थव्यवस्था की सूत्रधार थी.

दोः आर्थिक चुनौतियों के चलते बाजार में रोजगारों में कमी होती है और सरकारें लोगों की जिंदगी-जीविका में गहरा दखल देने लगती हैं.

तो क्या हर नेता को एक मंदी चाहिए जिससे वह दानवीर और ताकतवर हो सके?

लाचार बाजार तो अभिव्यक्ति बेजार!

विज्ञापनों की दुनिया से जुड़े एक पुराने मित्र किस्सा सुनाते थे कि 2001 से 2005 के दौरान अखबारों और टीवी के पास सस्ते सरकारी विज्ञापनों के लिए जगह नहीं होती थी. बाजार से मिल रहे विज्ञापन सरकारों के लिए जगह ही नहीं छोड़ते थे. मंदी की स्थिति में सरकार सबसे बड़ी विज्ञापक व प्रचारक हो जाती है और आजादी को सिकुडऩा पड़ता है.

"फ्रीडम इन द वर्ल्ड'' ने 2013 में बताया था कि ग्लोबल मंदी के बाद यूरोपीय देशों में प्रेस की स्वाधीनता कमजोर पड़ी. खासतौर पर यूरोपीय समुदाय के मुल्कों में प्रेस की आजादी के मामले में जिनका रिकॉर्ड बेजोड़ रहा है

प्रसंगवशकांग्रेस के आधिकारिक इतिहासकार प्रणब मुखर्जी ने लिखा है कि 1975 के आपातकाल की पृष्ठभूमि में 1973 के तेल संकट से उपजी महंगाईबेकारीहड़तालें और उसके विरोध में पूरे देश में फूट पड़े आंदोलन थेजिसने राजनैतिक माहौल बिगाड़ दिया. यानी कि इमर्जेंसी के पीछे मंदी और महंगाई थी!

वैसेअब अगर आजादियां पूरी तरह सरकार की पाबंद नहीं हैं तो सरकारें भी आजादियों का उतना बेशर्म अपहरण नहीं करतीं जैसा कि 1975 के भारतीय आपातकाल में हुआ.

आजादियों को मुक्त बाजार और तेज आर्थिक प्रगति चाहिए क्योंकि चतुर सरकारों ने लोकतंत्र के भीतर स्वाधीनता के अपहरण के सूक्ष्म तरीके विकसित कर लिये हैं. यकीनन मुक्त बाजार निरापद नहीं है लेकिन उसे संभलाने के लिए हमारे पास सरकार है. सरकारों की निरंकुशता को कौन संभालेगाइसके लिए तो उन्हें छोटा ही रखना जरूरी है.

Monday, May 6, 2013

महंगाई का ग्लोबल बाजार


 इन्‍फेलशन बनाम  डिफ्लेशन की बहस हमेशा, दोनों की गुणवत्‍ता व संतुलन पर ही खत्‍म होती है जो अब ग्‍लोबल स्‍तर पर बिगड़ गया है। 


बीते सप्‍ताह जब सोना औंधे मुंह गिर रहा था और भारत में इसके मुरीदों की बांछें खिल रही थीं तब विकसित देशों में निवेशक ठंडा पसीना छोड़ रहे थे। सोने के साथ, अन्‍य धातुयें व कच्‍चा तेल जैसे ढहा उसे देखकर यूरोप अब डिफ्लेशन के खौफ से बेजार हो रहा है। मुद्रास्‍फीति के विपरीत डिफ्लेशन यानी अपस्‍फीति मांग, कीमतों में बढोत्‍तरी व मुनाफे खा जाती है। यूरोप में इसकी आहट के बाद अब दुनिया सस्‍ते व महंगे बाजारों में बंट गई हैं। यूरोप, अमेरिका व जापान जरा सी महंगाई बढ़ने के लिए तरस रहे हैं ताकि मांग बढे। मांग तो भारत व चीन भी चाहिए लेकिन वह महंगाई में कमी के लिए बेताब हैं, ताकि लोग खर्च करने की जगह बना सकें। यूरोप, अमेरिका व जापान के केंद्रीय बैंकों ने डिफ्लेशन थामने के लिए बाजार में पूंजी का पाइप खोल दिया है तो महंगाई से डरे भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी मुट्ठी खोलने से मना कर दिया है। ग्‍लोबल बाजारों के इस ब्रांड न्‍यू परिदृश्‍य में एक तरफ सस्‍ती पूंजी मूसलाधार बरस रही है, तो दूसरी तरफ कम लागत वाली पूंजी का जबर्दस्‍त सूखा है। यह एक नया असंतुलन है जो संभावनाओं व समस्‍याओं का अगला चरण हो सकता है।
यह बहस पुरानी है कि कीमतों का बढ़ना बुरा है या कम होना। वैसे इन्‍फेलशन बनाम  डिफ्लेशन की बहस हमेशा, दोनों की गुणवत्‍ता व संतुलन पर ही खत्‍म होती है जो अब ग्‍लोबल स्‍तर पर बिगड़ गया है। उत्‍पादन, प्रतिस्‍पर्धा या तकनीक बढ़ने से कीमतों कम होना अच्‍छा है। ठीक इसी तरह मांग व खपत बढने से कीमतों में कुछ बढोत्‍तरी आर्थिक सेहत के लिए

Monday, April 15, 2013

तीसरी ताकत की वापसी



शिंजो एबे ग्‍लोबल बाजारों के लिए सबसे कीमती नेता हैं। दुनिया की तीसरी आर्थिक ताकत यदि जागती है तो ग्‍लोबल बाजारों का नक्‍शा ही बदल जाएगा। विश्‍व की आर्थिक मुख्‍यधारा में जापान की वापसी बहुत मायने रखती है।

कोई दूसरा मौका होता तो जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे दुनिया में धिक्‍कारे जा रहे होते। लोग उन्‍हें जिद्दी और मौद्रिक तानाशाह कहते क्‍यों कि विश्‍व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था और चौथा सबसे निर्यातक, जब निर्यात बढ़ाने के लिए अपनी मुद्रा का अवमूल्‍यन करने लगे तो मंदी के दौर किसे सुहायेगा। लेकिन हठी व दो टूक शिंजों इस समय दुनिया के सबसे हिम्मती राजनेता बन गए हैं। उन्‍होंने येन के अवमूल्‍यन के साथ जापान की पंद्रह साल पुरानी जिद्दी मंदी के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है और मुद्रा कमजोरी को ताकत बनाने में हिचक रहे अमेरिका व यूरोप को नेतृत्‍व दे दिया है। परंपरावादी, जटिल और राजनीतिक अस्थिरता भरे जापान में सस्‍ता येन, महंगाई और मुक्‍त आयात जैसे रास्‍ते वर्जित हैं अलबत्‍ता शिंजों की एबेनॉमिक्‍स ने इन्‍हीं को अपनाकर जापानी आर्थिक दर्शन को सर के बल खड़ा कर दिया है। यहां से मुद्राओं के ग्‍लोबल अवमूल्‍यन यानी मुद्रा संघर्ष की शुरुआत हो सकती है लेकिन दुनिया को डर नहीं है क्‍यों कि शिंजो मंदी से उबरने की सूझ लेकर आए हैं।
याद करना मुश्किल है कि जापान से अच्‍छी आर्थिक खबर आखिरी बार कब सुनी गई थी। पंद्रह साल में पांच मंदियों का मारा जापान डिफ्लेशन यानी अपस्‍फीति  का शिकार है। वहां कीमतें बढती ही नहीं, इसलिए मांग व मुनाफों में कोई ग्रोथ नहीं है। बीते दो दशक में चौतरफा ग्रोथ के बावजूद जापान की सुस्‍ती नहीं टूटी। 1992 में जापान ने भी, आज के सपेन या आयरलैंड की तरह कर्ज संकट

Monday, May 7, 2012

दोहरी मंदी की दस्‍तक


स्‍पेनी डुएंडे ने अमरिकी ब्‍लैकबियर्ड घोस्‍ट (दोनो मिथकीय प्रेत) से कहा .. अब करो दोहरी ड्यूटी। यह दुनिया वाले चार साल में एक मंदी खत्‍म नहीं कर सके और दूसरी आने वाली है। ... यह प्रेत वार्ता जिस निवेशक के सपने में आई वह शेयर बाजार की बुरी दशा से ऊबकर अब हॉरर फिल्‍में देखने लगा था। चौंक कर जागा तो सामने टीवी चीख रहा था कि 37 सालों में पहली बार ब्रिटेन में डबल डिप (ग्रोथ में लगातार गिरावट) हुआ  है। स्‍पेन यूरोजोन की नई विपत्ति है। यूरोप की विकास दर और नीचे जा रही  है अमेरिका में  ग्रोथ गायब है। यानी कि देखते देखते चार साल (2008 से) बीत गए। सारी तकनीक, पूंजी और सूझ, के बावजूद दुनिया एक मंदी से निकल नहीं सकी और दूसरी दस्‍तक दे रही है। पिछले साल की शुरुआत से ही विश्‍व बाजार यह सोचने और भूल जाने की कोशिश में लगा था कि ग्रोथ दोहरा गोता नहीं लगायेगी। मगर अब डबल डिप सच लग रहा है। अर्थात मंदी के कुछ और साल। क्‍या एक पूरा दशक बर्बाद होने वाला है।
स्‍पेन में कई आयरलैंड
स्‍पेन की हकीकत सबको मालूम थी  मगर कहे कौन कि यूरोजोन की चौथी सबसे बड़ी अर्थवयवस्‍था दरक रही है। इसलिए संकट के संदेशवाहकों (स्‍टैंडर्ड एंड पुअर रेटिंग डाउनग्रेड) का इंतजार किया गया। स्‍पेन का बहुत बड़ा शिकार है। ग्रीस, पुर्तगाल और आयरलैंड की अर्थव्‍यवस्‍थाओं को मिलाइये और फिर उन्‍हें दोगुना कीजिये। इससे जो हासिल होगा वह स्‍पेन है इसलिए सब मान रहे थे कि कुछ तो ऐसा होगा जिससे ग्रीस और आयरलैंड, स्‍पेन में नहीं दोहरा जाएंगे। मगर अब यह साबित हो गया कि प्रापर्टी, बैंक और कर्ज की कॉकटेल में स्‍पेन दरअसल आयरलैंड का सहोदर ही नहीं है वरन वहां तो कई आयरलैंड कर्ज देने वाले बैंक डूब रहे हैं। यूरोप का सबसे बड़े मछलीघर (एक्‍वेरियम) और सिडनी जैसा ऑपेरा हाउस से लेकर हॉलीवुड की तर्ज पर मूवी स्‍टूडियो सजा स्‍पेनी शहर वेलेंशिया देश पर बोझ बन गया है। वेंलेंशिया में 150 मिलियन यूरो की लागत वाले एक एयरपोर्ट को लोग बाबा का हवाई अड्डा (ग्रैंड पा एयरपोर्ट) कहते हैं। बताते हैं कि स्‍पेन के कैस्‍टेलोन क्षेत्र के नेता कार्लोस फाबरा ने इसे उद्घाटन के वक्‍त अपने नाती पोतों से पूछा था कि बाबा का हवार्इ अड्डा कैसा लगा। भ्रष्‍टाचार के आरोपों में घिरे फाबरा के इस हवाई अड्डे पर अब तक वाणिज्यिक उड़ाने शुरु नहीं हुई हैं।  बैंक, प्रॉपर्टी, राजनीति की तिकड़ी स्‍पेन को डुबा रही है।  प्रॉपर्टी बाजार पर झूमने वाले कई और दूसरे शहरों में भी दुबई और ग्रेट डबलिन (आयरलैंड) की बुरी आत्‍मायें दौड़ रही हैं। स्‍पेन सरकार पर बोझ बने इन शहरों के पास खर्चा चलाने तक का पैसा नहीं है। नए हवाई अड्डों व शॉपिंग काम्‍प्‍लेक्‍स और बीस लाख से ज्‍यादा मकान खाली पड़े हैं। यूरोपीय केंद्रीय बैंक से स्‍पेनी बैंकों को जो मदद मिली थी, वह भी गले में फंस गई है। अगर स्‍पेन अपने बैंकों को उबारता है तो खुद डूब जाएगा क्‍यों कि देश पर 807 अरब यूरो का कर्ज है, जो देश के जीडीपी का 74 फीसद है। युवाओं में 52 फीसद की बेरोजगारी दर वाला स्‍पेन बीते सप्‍ताह स्‍पष्‍ट रुप से मंदी में चला गया है। पिछले 150 साल में करीब 18 बड़े आर्थिक संकट (इनमें सबसे जयादा बैंकिंग संकट) देखने वाला स्‍पेन आर्थिक मुसीबतों का अजायबघर है।  प्रसिद्ध स्‍पेनी कवि गार्सिया लोर्का ने कहा था कि दुनिया के किसी भी देश ज्‍यादा मुर्दे स्‍पेन में जीवित हैं। इसलिए स्‍पेन की खबर सुनकर यूरोप में दोहरी मंदी की आशंका को नकारने वाले  पस्‍त हो  गए है।

Monday, January 23, 2012

यूरोप करे, दुनिया भरे

मीर और खुशहाल यूरोप 2012 में दुनिया की सबसे बड़ी साझा मुसीबत बनने वाला है। अमेरिका  अपनी सियासत, मध्‍य पूर्व अपनी खींचतान और एशिया अपनी अफरा तफरी से मुक्‍त होकर जब विश्‍व की तरफ मुखातिब होंगे तब तक यूरोप दुनिया के पैर में बंधे सबसे बड़े पत्‍थर में तब्‍दील हो चुका होगा। दुनिया की दहलीज पर यूरोपीय संकट की दूसरी किश्‍त पहुंच गई है। 2012 में एक फीसदी से कम ग्रोथ वाला यूरोप दुनिया की मंदी का जन्‍मदाता होगा। कर्ज संकट का ताजा धुंआ अब जर्मनी के पश्चिम व पूरब से उठ रहा है। ग्रीस की आग बुझाने निकले फ्रांस के फायर टेंडर जलने लगे हैं। आस्ट्रिया की वित्‍तीय साख भी लपेट में आ गई है। कर्ज के अंगारों पर बैठे स्‍पेन, इटली पुर्तगाल, आयरलैंड की जलन दोगुनी हो गई है। इन सबके साथ यूरोप के सात छोटे देश भी बाजार में रुतबा गंवा बैठे हैं। रहा ग्रीस तो, वहां से तो अब सिर्फ दीवालियेपन की अधिकृत खबर का इंतजार है। यूरोप के कर्जमारों को  उबारने की पूरी योजना इन सारी मुसीबतों का एक मुश्‍त शिकार होने वाली है। यूरोप के पास मुश्किलों से उबरने के लिए पूंजी व संसाधनों की जबर्दस्‍त किल्‍लत होगी यानी  यूरोप का कर्ज इस साल दुनिया की देनदारी बन जाएगा।
मदद मशीन की मुश्किल
नए साल के पहले पखवाड़े में ही दुनिया की पांचवीं और यूरोप की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्‍यव्‍सथा अपनी साख गंवा बैठी। अमेरिका में राजनीतिक विरोध के बावजूद रेटिंग एजेंसी स्‍टैंडर्ड एंड पुअर ने बेखौफ होकर फ्रांस ट्रिपल ए रेटिंग छीन ली। यानी कि फ्रांस भी अब निवेशकों के लिए पूरी तरह सुरक्षित नहीं रहा। ऑस्ट्रिया ने भी अपनी तीन इक्‍कों वाली साख गंवा दी। फ्रांस व आस्ट्रिया की साख गिरने से कर्जमारे पिग्‍स (पुर्तगाल, इटली,ग्रीस, आयरलैंड, स्‍पेन) को उबारने वाली मशीन संकट में फंस गई है। एस एंड पी ने सबको चौंकाते हुए यूरोपियन फाइनेंशियल स्‍टेबिलिटी फैसिलिटी (ईएफएसएफ) का साख भी घटा दी। यह संस्‍था यूरोजोन के संकट निवारण तंत्र का

Monday, October 17, 2011

ये जो अमेरिका है !!

याद कीजिये इस अमेरिका को आपने पहले कब देखा था। दुनिया को पूंजी, तकनीक निवेश, सलाहें, बहुराष्‍ट्रीय कंपनियां और सपने बांटने वाला अमेरिका नहीं बल्कि बेरोजगार, गरीब, मंदी पीडित, सब्सिडीखोर, कर्ज में डूबा, बुढाता और हांफता हुआ अमेरिका।  न्‍यूयार्क, सिएटल, लॉस एंजल्‍स सहित 70 शहरों की सड़कों पर फैले आंदोलन में एक एक दूसरा ही अमेरिका उभर रहा है। चीखते, कोसते और गुस्‍साते अमेरिकी लोग (आकुपायी वाल स्‍ट्रीट आंदोलन) अमेरिकी बाजारवाद और पूंजीवाद पर हमलावर है। राष्‍ट्रपति ओबामा डरे हुए हैं उनकी निगाह में शेयर बाजार व बैंक गुनहगार हैं। न्‍यूयार्क के मेयर माइकल ब्‍लूमबर्ग को अमेरिका की सड़कों पर कैरो व लंदन जैसे आंदोलन उभरते दिख रहे हैं। इन आशंकाओं में दम है, अमेरिका से लेकर कनाडा व यूरोप तक 140 शहरों में जनता सड़क पर आने की तैयारी में है। आर्थिक आंकड़ों से लेकर सामाजिक बदलावों तक और संसद से लेकर वित्‍तीय बाजार तक अमेरिका में उम्‍मीद की रोशनियां अचानक बुझने लगी हैं। लगता है मानो दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्‍क में कोई तिलिस्‍म टूट गया है या किसी ने पर्दा खींच कर सब कुछ उघाड़ दिया है। महाशक्ति की यह तस्‍वीर महादयनीय है।
बेरोजगार अमेरिका
अमेरिकी बहुराष्‍ट्रीय कंपनियां करीब दो ट्रिलियन डॉलर की नकदी पर बैठी हैं!! लेकिन रोजगार नहीं हैं। सस्‍ते बाजारों में उत्‍पादन से मुनाफा कमाने के मॉडल ने अमेरिका को तोड़ दिया है। अमेरिका के पास शानदार कंपनियां तो हैं मगर रोजगार चीन, भारत थाइलैंड को मिल रहे हैं। देश में बेकारी की बढोत्‍तरी दर पिछले दो साल 9 फीसदी पर बनी हुई है। इस समय अमेरिका में करीब 140 लाख लोग बेकार  हैं। अगर आंशिक बेकारी को शामिल कर लिया जाए तो इस अमीर मुल्‍क में बेकारी की दर 16.5 हो जाती है। लोगों को औसतन 41 हफ्तों तक कोई काम नहीं मिल रहा है। 1948 के बाद बेकारी का यह सबसे भयानक चेहरा है। बेरोजगारी भत्‍ते के लिए सरकार के पास आवेदनों की तादाद कम नहीं हो रही है। बैंक ऑफ अमेरिका ने 30000 नौकरियां घटाईं हैं जबकि अमेरिकी सेना ने पांच वर्षीय भर्ती कटौती अभियान शुरु कर दिया। आलम यह है कि कर्मचरियों को बाहर का रास्‍ता दिखाने की रफ्तार 212 फीसदी पर है। पिछले माह अमेरिका में करीब सवा लाख लोगों की नौकिरयां गई हैं। इस बीच नौकरियां बढ़ाने के लिए ओबामा का 447 अरब डॉलर का प्रस्‍ताव प्रतिस्‍पर्धी राजनीति में फंस कर संसद में (इसी शुक्रवार को) गिर गया है, जिसके बाद रही बची उम्‍मीदें भी टूट गईं हैं। अमेरिका अब गरीब (अमेरिकी पैमानों पर) मुल्‍क में तब्‍दील होने लगा है।
गरीब अमेरिका
अमेरिकी यूं ही नहीं गुस्‍साये हैं। दुनिया के सबसे अमीर मुल्‍क में 460 लाख लोग बाकायदा गरीब (अमेरिकी पैमाने पर) हैं। अमेरिका में गरीबी के हिसाब किताब की 52 साल पुरानी व्‍यवस्‍था में निर्धनों की इतनी बड़ी तादाद पहली बार दिखी है। अमेरिकी सेंसस ब्‍यूरो व श्रम आंकड़े बताते हैं कि देश में गरीबी बढ़ने की दर 2007 में 2.1 फीसदी थी जो अब 15 फीसदी पर पहुंच गई है। मध्‍यमवर्गीय परिवारों की औसत आय 6.4 फीसदी घटी है। 25 से 34 साल के करीब 9 फीसदी लोग (पूरे परिवार आय के आधार पर) गरीबी की रेखा से नीचे हैं। यदि व्‍यक्तिगत आय को आधार बनाया जाए तो आंकड़ा बहुत बड़ा होगा। लोगों की गरीबी कर्ज में डूबी सरकार को और गरीब कर रही है। अमेरिका के करीब 48.5 फीसदी लोग किसी न किसी तरह सरकारी सहायता पर निर्भर हैं। अमेरिका का टैक्‍स पॉलिसी सेंटर कहता है कि देश के 46.5 फीसदी परिवार केंद्र सरकार कोई टैक्‍स नहीं देते यानी कि देश की आधी उत्‍पादक व कार्यशील आबादी शेष आधी जनसंख्‍या से मिलने वाले टैक्‍स पर निर्भर है। यह एक खतरनाक स्थिति है। अमेरिका को इस समय उत्‍पादन, रोजगार और ज्‍यादा राजस्‍व चाहिए जबकि सरकार उलटे टैक्‍स बढ़ाने व खर्च घटाने जा रही है।
बेबस अमेरिका  
इस मुल्‍क की कंपनियां व शेयर बाजार देश में उपभोक्‍ता खर्च का आंकड़ा देखकर नाच उठते थे। अमेरिका के जीडीपी में उपभोक्‍ता खर्च 60 फीसदी का हिस्‍सेदार है। बेकारी बढने व आय घटने से यह खर्च कम घटा है और अमेरिका मंदी की तरफ खिसक गया। अमेरिकी बचत के मुरीद कभी नहीं रहे इसलिए उपभोक्‍ता खर्च ही ग्रोथ का इंजन था। अब मंदी व वित्‍तीय संकटों से डरे लोग बचत करने लगे हैं। अमेरिका में बंद होते रेस्‍टोरेंट और खाली पड़े शॉपिंग मॉल बता रहे हैं कि लोगों ने हाथ सिकोड़ लिये हैं। किसी भी देश के लिए बचत बढ़ना अच्‍छी बात है मगर अमेरिका के लिए बचत दोहरी आफत है। कंपनियां इस बात से डर  रही हैं अगर अमेरिकी सादा जीवन जीने लगे और बचत दर 5 से 7 फीसदी हो गई तो मंदी बहुत टिकाऊ हो जाएगी।  दिक्‍कत इ‍सलिए पेचीदा है क्‍यों कि अमेरिका में 1946 से 1964 के बीच पैदा हुए लोग, (बेबी बूम पीढ़ी) अब बुढ़ा रहे हैं। इनकी कमाई व खर्च ने ही अमेरिका को उपभोक्‍ता संस्‍कृति का स्‍वर्ग बनाया था। यह पीढ़ी अब रिटायरमेंट की तरफ है यानी की कमाई व खर्च सीमित और चिकित्‍सा पेंशन आदि के लिए सरकार पर निर्भरता। टैक्‍स देकर के जरिये अमेरिकी सरकार को चलाने यह पीढ़ी अब सरकार की देखरेख में अपना बुढ़ापा काटेगी। मगर इसी मौके पर सरकार कर्ज में डूब कर दोहरी हो गई है।
अमेरिका आंदोलनबाज देश नहीं है। 1992 में लॉस एंजल्‍स में दंगों (अश्‍वेत रोडनी किंग की पुलिस पिटाई में मौत) के बाद पहली बार देश इस तरह आंदोलित दिख रहा है। अमेरिकी शहरों को मथ रहे आंदोलनों का मकसद और नेतृत्‍व भले ही अस्‍पष्‍ट हो मगर पृष्‍ठभूमि पूरी दुनिया को दिख रही है। मशहूर अमेरिकन ड्रीम मुश्किल में है,  बेहतर, समृद्ध और संपूर्ण जिंदगी व बराबरी के अवसरों ( इपिक ऑप अमेरिका- जेम्‍स ट्रुसलो एडम्‍स) का बुनियादी अमेरिकी सपना टूट रहा है। इस भयानक संकट के बाद दुनिया को जो अमेरिका मिलेगा वह पहले जैसा बिल्‍कुल नहीं होगा। अपनी जनता की आंखों में अमेरिकन ड्रीम को दोबारा बसाने के लिए अमेरिका को बहुत कुछ बदलना पड़ेगा। चर्चिल ने ठीक ही कहा था कि अमेरिका पर इस बात के लिए भरोसा किया जा सकता है कि वह सही काम करेगा लेकिन कई गलतियों के बाद। ... अमेरिका का प्रायश्चित शुरु हो गया है।
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Monday, September 26, 2011

वो रही मंदी !

डा नाज था हमें अपने विश्‍व बैंकों, आईएमएफों, जी 20, जी 8, आसियान, यूरोपीय समुदाय, संयुक्‍त राष्‍ट्र की ताकत पर !! बड़ा भरोसा था अपने ओबामाओं, कैमरुनों, मर्केलों, सरकोजी, जिंताओ, पुतिन, नाडा, मनमोहनों की समझ पर !!..मगर किसी ने कुछ भी नहीं किया। सबकी आंखों के सामने मंदी दुनिया का दरवाजा सूंघने लगी है। उत्‍पादन में चौतरफा गिरावट, सरकारों की साख का जुलूस, डूबते बैंक और वित्‍तीय तंत्र की पेचीदा समस्‍यायें ! विश्‍वव्‍यापी मंदी के हरकारे जगह जगह दौड़ गए हैं। ... मंदी के डर से ज्‍यादा बड़ा खौफ यह है कि बहुपक्षीय संस्‍थाओं और कद्दावर नेताओं से सजी दुनिया का राजनीतिक व आर्थिक नेतृत्‍व उपायों में दीवालिया है। यह पहला मौका है जब इतने भयानक संकट को से निबटने के लिए रणनीति बनाना तो दूर  दुनिया के नेता साझा साहस भी नहीं दिखा रहे हैं। यह अभूतपूर्व विवशता, दुनिया को दूसरे विश्‍व युद्ध के बाद सबसे भयानक आर्थिक भविष्‍य की तरफ और तेजी से धकेल रही है।
मंदी पर मंदी
मंदी की आमद भांपने के लिए ज्‍योतिषी होने की जरुरत नहीं है। आईएमएफ बता रहा है कि दुनिया की विकास दर कम से कम आधा फीसदी घटेगी। अमेरिका में बमुश्किल 1.5 फीसदी की ग्रोथ रहेगी जो अमेरिकी पैमानों पर शत प्रतिशत मंदी है। पूरा यूरो क्षेत्र अगर मिलकर 1.6 फीसदी की रफ्तार दिखा सके तो अचरज होगा। जापान में उत्‍पादन की विकास दर शून्‍य हो सकती है। यूरो जोन में कंपनियों के लिए ऑर्डर करीब 2.1 फीसदी घट गए हैं। यूरो मु्द्रा का इस्‍तेमाल करने वाले 17 देशों में सेवा व मैन्‍युफैक्‍चरिंग सूचकांक दो साल के न्‍यूनतम

Monday, September 19, 2011

शुद्ध स्‍वदेशी संकट

क्या हमारी सरकार दीवालिया (जैसे यूरोप) हो रही है?  क्या हमारे बैंक (जैसे अमेरिका) डूब रहे हैं? क्या हमारा अचल संपत्ति बाजार ढह (जैसे चीन) रहा है?  क्या हम सूखा, बाढ़ या सुनामी (जैसे जापान) के मारे हैं ? इन सब सवालों का जवाब होगा एक जोरदार नहीं !! तो फिर हमारी ग्रोथ स्टोरी त्रासदी में क्यों बदलने जा रही है ? हम क्यों औद्योगिक उत्पाहदन में जबर्दस्त गिरावट, बेकारी और बजट घाटे की समस्याओं की तरफ बढ़ रहे हैं। हम तो दुनिया की ताजी वित्तीय तबाही से लगभग बच गए थे। हमें तो सिर्फ महंगाई का इलाज तलाशना था, मगर हमने मंदी को न्योत लिया। भारतीय अर्थव्यवस्था का ताजा संकट विदेश से नहीं आया है इसे देश के अंदाजिया आर्थिक प्रबंधन, सुधारों के शून्य और खराब गवर्नेंस ने तैयार किया है। हमारी की ग्रोथ का महल डोलने लगा है। नाव में डूबना इसी को कहते हैं।
महंगाई का हाथ
महंगाई का हाथ पिछले चार साल से आम आदमी के साथ है। इस मोर्चे पर सरकार की शर्मनाक हार काले अक्षरों में हर सप्ताह छपती है और सरकार अंतरराष्ट्रीय तेल कीमतों के पीछे छिपकर भारतीयों को सब्सिडीखोर होने की शर्म से भर देती है। भारतीय महंगाई अंतरराष्ट्री य कारणों से सिर्फ आंशिक रुप से प्रेरित है। थोक कीमतों वाली (डब्लूपीआई) महंगाई में सभी ईंधनों (कोयला, पेट्रो उत्पाद और बिजली) का हिस्सां केवल

Monday, August 29, 2011

नेतृत्‍व का ग्‍लोबल संकट

राक ओबामा, एंजेला मर्केल, निकोलस सरकोजी, डेविड कैमरुन, नातो कान, मनमोहन सिंह, आंद्रे पापेद्रू (ग्रीस), बेंजामिन् नेतान्याहू, रो्ड्रियो जैप्टारो (स्पे न) आदि राष्ट्राध्यक्ष सामूहिक तौर पर इस समय दुनिया को क्या दे रहे हैं ??  केवल घटता भरोसा,  बढता डर और भयानक अनिश्चितता !!!!  सियासत की समझदारी ने बड़े कठिन मौके पर दुनिया का साथ छोड़ दिया है। हर जगह सरकारें अपनी राजनीतिक साख खो रही हैं। राजनीतिक अस्थिरता के कारण इस सप्‍ताह जापान की रेटिंग घट गई। दुनिया के कई प्रमुख देश राजनीतिक संकट के भंवर में है। भारत में अन्ना की जीत सुखद है मगर एक जनांदोलन के सामने सरकार का बिखर जाना फिक्र बढ़ाता है। मंदी तकरीबन आ पहुंची है। कर्ज का कीचड़ बाजारों को डुबाये दे रहा है। इस बेहद मुश्किल भरे दौर में पूरी दुनिया के पास एक भी ऐसा नेता नहीं है जिसके सहारे उबरने की उम्मीद बांधी जा सके। राजनीतिक नेतृत्व की ऐसी अंतरराष्ट्रीय किल्‍लत अनदेखी है। पूरी दुनिया नेतृत्व के संकट से तप रही है।
अमेरिकी साख का डबल डिप
ओबामा प्रशासन ने स्टैंडर्ड एंड पुअर के मुखिया देवेन शर्मा की बलि ले ली। अपना घर नहीं सुधरा तो चेतावनी देने वाले को सूली पर टांग दिया। मगर अब तो फेड रिजर्व के मुखिया बर्नांकी ने भी संकट की तोहमत अमेरिकी संसद पर डाल दी है। स्टैंडर्ड एंड पुअर ने दरअसल अमेरिका की वित्तींय साख नहीं बल्कि राजनीतिक साख घटाई थी। दुनिया का ताजी तबाही अमेरिका पर भारी कर्ज से नहीं निकली, बल्कि रिपब्लिकन व डेमोक्रेट के झगड़े