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Saturday, October 5, 2019

इनके जीते, जीत है


मंदी का इलाज है कहांवहीं जहां इसका दर्द तप रहा हैदरअसलमेक इन इंडिया के मेलों की शुरुआत (2014) तक भारतीय अर्थव्यवस्थाएक दशक तक अपने इतिहास की सबसे तेज विकास दर के बाद ढलान की तरफ जाने लगी थीलेकिन 2015 में जीडीपी का नवनिर्मित (फॉर्मूलानक्कारखाना गूंज उठा और भारत की स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं के दरकने के दर्द को अनसुना कर दिया गयाअलग-अलग सूबों के निवेश उत्सवों में निवेश के जो वादे हुएअगर उनका आधा भी आया होता तो हम दो अंकों की विकास दर में दौड़ रहे होते.

खपत और निवेश टूटने से आई इस मंदी की चुभन देश भर में फैली राज्य और नगरीय अर्थव्यवस्थाओं में जाकर महसूस की जा सकती हैजो पिछले दशक में मांग और नए रोजगारों का नेतृत्व करती रही हैं. 1995 से 2012 के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था का क्षेत्रीयस्थानीय और अंतरराज्यीय स्वरूप पूरी तरह बदल चुका हैपिछले सात-आठ वर्षों की नीतियां इस बदलाव से कटकर हवा में टंग गई हैंइसलिए मंदी पेचीदा हो रही है

भारतीय अर्थव्यवस्था की बदली ताकत का नया वितरण काफी अनोखा हैजिसे मैकेंजी जैसी एजेंसियांआर्थिक सर्वेक्षण और सरकार के आंकड़े नापते-जोखते रहे हैं.

·       दिल्ली में सरकार चाहे जो बनाते हों लेकिन भारत को मंदी से निकालने का दारोमदार 12 अत्यंत तेज और तेज विकास दर वाले राज्यों पर है. 2002-12 के दौरान इनमें से आठ की विकास दर भारत के जीडीपी से एक फीसद ज्यादा थीगोवाचंडीगढ़दिल्लीपुदुच्चेरीहरियाणामहाराष्ट्रगुजरातकेरलहिमाचलतमिलनाडुपंजाब और उत्तराखंड आज देश का 50 फीसद जीडीपी और करीब 58 फीसद उपभोक्ताओं की मेजबानी करते हैंअगले सात साल में इनमें आठ से दस राज्य यूरोप की छोटे देशों जैसी अर्थव्यवस्था हो जाएंगेमंदी से लड़ाई की अगुआई इन्हें ही करनी है.

·       अगले सात साल में भारत की करीब 38 फीसद आबादी (करीब 55-58 करोड़ लोगनगरीय होगीभारत के 65 नगरीय जिले (जैसे दिल्लीनोएडाहुगलीनागपुररांचीबरेलीइंदौरनेल्लोरउदयपुरकोलकातामुंबईसूरतराजकोट आदिदेश की खपत का नेतृत्व करते हैंदेश की करीब 26 फीसद आबादी, 45 फीसद उपभोक्ता वर्ग और 37 फीसद खपत और 40 फीसद जीडीपी इन्हीं में केंद्रित हैअगले पांच साल में खपत के सूरमा जिलों की संख्या 79 हो जाएगीखपत बढ़ाने की रणनीति इन जिलों के कंधों पर सवार होगी.

·       यूं ही नहीं भारत में रोजगार के अवसर गिने-चुने इलाकों में केंद्रित हैंलगभग 49 क्लस्टर (उद्योगनगरबाजारभारत मे जीडीपी में 70 फीसद का योगदान करते हैंइनके दायरे में करीब 250 से 450 शहर आते हैंयही रोजगार का चुंबक हैं और यहीं से बचत गांवों में जाती हैभारत के अंतरदेशीय प्रवास के ताजा अध्ययन इन केंद्रों के आकर्षण का प्रमाण हैंदुर्भाग्य से नोटबंदी और जीएसटी की तबाही का इलाका भी यही है.

2008 के बाद दुनिया में आए संकट को करीब से देखने के बाद दुनिया के कई देशों में यह महसूस किया गया कि उनकी स्थानीय समृद्धि कुछ दर्जन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के पास सिमट गईजबकि अगर स्थानीय अर्थव्यवस्था में 100 डॉलर लगाए जाएं तो कम से 60 फीसद पूंजी स्थानीय बाजार में रहती हैइसके आधार पर दुनिया में कई जगह लोकल इकोनॉमी (आर्थिक भाषा में लोकल मल्टीप्लायरताकत देने के अभियान शुरू हुएबैंकिंग संकट और ब्रेग्जिट के बीच उत्तर इंग्लैंड के शहर प्रेस्टन का लोकल ग्रोथ मॉडल चर्चा में रहा हैजहां उपभोक्ताओं से जुटाए गए टैक्स और संसाधनों का स्थानीय स्तर पर इस्तेमाल किया गया.

कॉर्पोरेट टैक्स में कटौती से मांग या रोजगार बढ़ने के दावे जड़ नहीं पकड़ रहे हैंबार्कलेज बैंक ने हिसाब लगाया हैअगर अपने मुनाफे पर टैक्स देने वाली कंपनियों की कारोबारी आय पिछले वर्षों की रफ्तार से बढे़ (जो कि मुश्किल हैतो यह कटौती जीडीपी को ज्यादा से ज्यादा 5.6 फीसद तक ले जाएगी और अगर आय कम हुई (जो कि तय लग रहा हैतो कॉर्पोरेट कर में कमी से जीडीपी हद से हद 5.2 फीसद तक जाएगायानी करीब 1.5 लाख करोड़ रुपए के तोहफे के बदले छह फीसद की ग्रोथ भी दुर्लभ है.
रोजगारों के बाजार में बड़ी कंपनियों की भूमिका पहले भी सीमित थी और आज भी हैहमारे पड़ोस की ग्रोथ फैक्ट्रियों और बाजारों के सहारे ही भारत की उपभोक्ता खपत 2002 से 2012 के बीच हर साल सात फीसद (7.7 फीसद की जीडीपी ग्रोथ के लगभग बराबरबढ़ी और निवेश जीडीपी के अनुपात में 35 फीसद के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचानतीजा यह हुआ कि करीब 14 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर निकले और लगभग 20 करोड़ लोग इंटरनेट से जुड़ गए.

रोजगार और खपत बढ़ाने के लिए ज्यादा नहीं केवल एक दर्जन राज्य स्तरीय और 50 स्थानीय रणनीतियों की जरूरत हैअब मेक इन इंडिया की जगह मेक इन लुधियानापुणेकानपुरबेंगलूरूसूरतचंडीगढ़ की जरूरत हैइन्हीं के दम पर मंदी रोकी जा सकती हैयाद रहे कि भारत का कीमती एक दशक पहले ही बर्बाद हो चुका है.



Saturday, April 13, 2019

उम्मीदों का तकाजा


ह जुलाई, 2016 थी, कैबिनेट में फेरबदल से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘‘मेरे लिए सफलता का अर्थ यह है कि लोग बदलाव महसूस करें. यदि उपलब्धियों का दावा करना पड़े तो मैं इसे सफलता नहीं मानूंगा.’’

उम्मीदों के उफान पर बैठकर सत्ता में पहुंचे मोदी का यह आत्मविश्वास नितांत स्वाभाविक था.

फिर अचानक क्या हुआ?

दो दर्जन से अधिक नई और बड़ी स्कीमों के जरिए भारत में युगांतर की अलख जगाने के बाद मरियल, हताश और बिखरे विपक्ष से मुकाबिल एक सशक्त सरकार तर्क और नतीजों पर नहीं बल्कि राष्ट्रवाद उबाल कर वोट मांग रही है. क्यों सरकार के मूल्यांकन केंद्र में बदलाव महसूस कराने वाली स्कीमें या कार्यक्रम पर नहीं बल्कि एक नाकारा और बदहाल पड़ोसी (पाकिस्तान) से आर-पार करने के नारे हैं?

चुनाव के नतीजों के परे हमें इस बात की फिक्र होनी चाहिए कि 2014 से देश में बहुत कुछ ऐसा हुआ था जो अभूतपूर्व था जैसे

·       केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार और लोकप्रिय नेतृत्व

·       महंगाई में निरंतर कमी

·       कच्चे तेल की न्यूनतम कीमत यानी कि विदेशी मुद्रा मोर्चे पर आसानी

·       ताजा मंदी से पहले तक विश्वसनीय अर्थव्यवस्था में बेहतर विकास दर

और सबसे महत्वपूर्ण

आर्थिक उदारीकरण के बाद पहली बार पांच सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं यानी क्लब फाइव (महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात और कर्नाटक) में तीन राज्यों में उसी दल का शासन था जो केंद्र में भी राज कर रहा है. उभरते हुए तीन राज्य (राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश) भी 2018 तक टीम मोदी का हिस्सा थे.

भारत के 11 बड़े राज्य (महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, केरल, बिहार, ओडिशा और संयुक्त आंध्र प्रदेश) 2020 तक देश की जीडीपी में 76 फीसदी के हिस्सेदार होंगे, उनमें सात (मार्च 2018 तक आंध्र प्रदेश) में भाजपा का शासन है. तीन प्रमुख छोटी अर्थव्यवस्थाएं यानी झारखंड, हरियाणा और असम भी भाजपा के नियंत्रण में हैं.

यह ऐसा अवसर था, जिसके लिए पिछली सरकारें तरसती रहीं. उदारीकरण के बाद सुधारों के कई प्रयोग इसी वजह से जमीन नहीं पकड़ सके क्योंकि बड़े और संसाधन संपन्न राज्यों से केंद्र के राजनैतिक रिश्तों में गर्मजोशी नहीं थी.

2017 के बाद राज्यों के चुनाव नतीजे ही सिर्फ इस आशंका को मजबूत नहीं करते बल्कि कुछ और तथ्य भी इसकी पुष्टि करते हैं कि क्यों एक ताकतवर सरकार को अपने कामकाज के बजाए भावनाओं की हवा बांधनी पड़ रही है.

         क्रिसिल की ताजा रिपोर्ट बताती है कि 2018 में सभी प्रमुख राज्यों की विकास दर उनके पांच साल के औसत से नीचे आ गई. प्रमुख कृषि प्रधान राज्यों में भी खेती विकास दर नरम पड़ी.

         2013 से 18 के बीच तेज विकास दर वाले सभी राज्यों की रोजगार गहन क्षेत्रों (कपड़ा, मैन्युफैक्चरिंग भवन निर्माण) में रोजगारों की वृद्धि दर घट गई. केवल गुजरात और हरियाणा कुछ ठीक-ठाक थे. गुजरात में ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चरिंग में रोजगार बढ़े लेकिन इस क्षेत्र में बिक्री की मंदी के ठोस संकेत मिल रहे हैं.

मोदी ने राज्यों को संसाधन देने में कोई कमी नहीं की. वित्त आयोग की सिफारिशों से लेकर जीएसटी के नुक्सान की भरपाई तक केंद्र ने राज्यों को खूब दिया. यहां तक कि योजना आयोग खत्म होने के बाद राज्यों से आवंटन और खर्च का हिसाब मांगने की व्यवस्था भी बंद हो गई.

आंकड़े बताते हैं कि देश का करीब 56-60 फीसदी विकास खर्च (पूंजी खर्च जिससे निर्माण होता है, रोजगार आते हैं) अब राज्यों के हाथ में है. सभी राज्यों के कुल पूंजी खर्च का 90 फीसदी हिस्सा‍ 17 प्रमुख राज्यों के नियंत्रण में है. इनमें दस राज्यों में 2018 तक मोदी की सेना के सूबेदार थे.
क्या अपनीटीम इंडियाकी वजह से मोदी कुछ ऐसा करके नहीं दिखा सके जिससे लोग बदलाव महसूस कर सकें

राष्ट्रवाद तो भाजपा की पारंपरिक राजनैतिक पूंजी है लेकिन 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी 12 फीसदी नया वोट लेकर आए. यह मोदी का वोटर था जो परिवर्तन के अलख और उम्मीदों के उफान के साथ भाजपा के पास आया और पिछड़े-गरीब पश्चिमोत्तर भारत में रिकॉर्ड सफलता का आधार बना.

वह विकासवाद का वोट था जिसे रोके रखने के लिए मौका, माहौल, मौसम तीनों मोदी के माफिक थे. इन्हें जोड़े रखने का जिम्मा मोदी के सूबेदारों पर था, जो चूक गए हैं. चुनाव नतीजे कुछ भी हों लेकिन केंद्र व अधिकांश राज्यों में राजनैतिक संगति का संयोग अब मुश्किल से बनेगा.

2019 में भाजपा की जीत का दारोमदार दरअसलमोदी के वोटरोंपर है जिनके चलते 2014 में भाजपा अपने दम पर बहुमत ले आई. राष्ट्रवाद से इत्तिफाक रखने वाले भाजपा छोड़ कर कहां जा रहे हैं!

Saturday, March 16, 2019

सत्ता की चाबी


क्या नरेंद्र मोदी को दोबारा जीत के करिश्मे के लिए 2014 से बड़ी लहर चाहिए? 

क्या लोग सरकार चुनते नहीं बल्कि बदलते हैं?

क्यों सत्ता विरोधी मत चुनावों का स्थायी भाव है?

चुनाव सर्वेक्षणों की गणिताई में इनके जवाब मिलना मुश्किल है. जातीय रुझानों या चेहरों की दीवानगी के आंकड़ों से परेतथ्यों की एक दूसरी दुनिया भी है जहां से हम वोटरों के मिजाज को आंक सकते हैं.

इसके लिए भारत के ताजा आर्थिक इतिहास की एक चुनावी यात्रा पर निकलना होगा. इस सफर के लिए जरूरी साजो-सामान कुछ इस प्रकार हैं:

-  गुजरातपंजाबकर्नाटकमध्य प्रदेशछत्तीसगढ़राजस्थानतेलंगाना के ताजा चुनाव नतीजे. गुजरात और कर्नाटक उद्योग-निर्यात-कृषि-खनिज-सेवा आधारित अर्थव्यस्थाएं हैं जबकि मध्य प्रदेशपंजाब और तेलंगाना की अर्थव्यवस्था में कृषि का बड़ा हिस्सा है. छत्तीसगढ़ कृषि व खनिज आधारित और राजस्थान सेवा व कृषि आधारित राज्य हैं. ये राज्य देश की अन्य अर्थव्यवस्थाओं का सैम्पल हैं. 

-     पिछले एक दशक मेंग्रामीण मजदूरीआर्थिक विकासकृषि विकास दर के आंकड़े और चुनाव नतीजे साथ रखने होंगे.
-     भारत में लोकसभा की करीब 380 सीटें पूरी तरह ग्रामीण हैं जिनमें 86 सीटें उन राज्यों में हैं जिनके सबसे ताजा नतीजे हमारे सामने हैं.

राज्यों के आर्थिक और कृषि विकास की रोशनी में विधानसभा नतीजों को देखने पर तीन निष्कर्ष हाथ लगते हैं.

1-   गुजरातकर्नाटकमध्य प्रदेशछत्तीसगढ़राजस्थान में चुनाव के साल आर्थिक विकास दर पिछले पांच साल के औसत से कम (क्रिसिल रिपोर्ट) थी. गुजरात में भाजपा मुश्किल से सत्ता में लौटी. अन्य राज्‍यों में बाजी पलट गई जबकि कुछ राज्यों में तो विपक्ष था ही नहीं या देर से जागा था. जहां मंदी का असर गहरा था जैसे छत्तीसगढ़वहां इनकार ज्यादा तीखा था. यानी लोगों के फैसले वादों पर नहींसरकारों के काम पर आधारित थे.

2-   2015-16 के बाद (चुनाव से एक या दो साल पहले) उपरोक्त सभी राज्यों में कृषि विकास दर में गिरावट आई. पूरे देश में ग्रामीण मजदूरी दर में कमी और सकल कृषि विकास दर में गिरावट के ताजा आंकड़े इसकी ताकीद करते हैं.

3- 2014 के बाद जिन राज्यों में सत्ता बदली है वहां चुनावी साल के आसपास राज्य की आर्थिक व कृषि विकास दर घटी है. तेलंगाना (बिहार और बंगाल भी) अपवाद हैं जहां विकास दर पांच साल के औसत से ज्यादा थी. यहां खेती की सूरत देश की तुलना में ठीकठाक थी इसलिए नतीजे सरकार के माफिक रहे.

इन आंकड़ों की रोशनी में लोकसभा चुनाव का परिदृश्य कैसा दिखता है.

  खेती महकमे के मुताबिकदेश के 11 राज्यों में खेती की हालत ठीक नहीं है. इनमें हरियाणापंजाबमध्य‍ प्रदेशगुजरात और उत्तर प्रदेश में पिछले तीन से पांच वर्षों में सामान्य से कम बारिश हुई है. बिहारआंध्र प्रदेश और बंगाल ऐसे बड़े राज्य हैं जहां खेती की मुसीबतें देश के अन्य हिस्सों से कुछ कम हैं.

-     ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भारी संसाधन झोंक कर मंदी रोकी जा सकती है. यूपीए ने 2004 के बाद ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भारी निवेश किया थावैसा ही कुछ तेलंगाना में सरकार ने किया.

मोदी सरकार के बजटों की पड़ताल बताती है कि 2015 से 2018 के बीच ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सरकार की मददइससे पहले के पांच वर्ष की तुलना में कम थी. ग्रामीण मंदी का सियासी असर देखकर 2017 के बाद राज्यों में कर्ज माफ हुए और केंद्र ने समर्थन मूल्य बढ़ाया. किसान नकद सहायता भी इसी का नतीजा है. लेकिन शायद देर हो चुकी है और कृषि संकट ज्यादा गहरा है. 

अपवादों को छोड़कर वोटरों का यही रुख 1995 के बाद हुए अधिकांश चुनावों में दिखा है. जिन राज्यों में आर्थिक या कृषि विकास दर ठीक थी वहां सरकारें लौट आईं. 2000 के बाद के एक दशक में राज्यों में सबसे ज्यादा सरकारें दोहराई गईं क्योंकि वह खेती और आर्थिक विकास का सबसे अच्छा दौर था. 2004 के चुनाव में वोटरों के फैसले पर सूखा और कृषि में मंदी का असर दिखाई दिया (राजग की पराजय). जबकि 2009 में महंगाई के बावजूद केंद्र में यूपीए को दोबारा चुना गया. 2014 में भ्रष्टाचार के अलावा खेती की बदहाली सरकार पलटने की एक बड़ी वजह थी.

आर्थिक आंकड़े सबूत हैं कि नेताओं की चालाकी के अनुपात में मतदाताओं की समझदारी भी बढ़ी है. लोग अपनी ज‌िंदगी की सूरत देखकर बटन दबाते हैं. ध्यान रहे कि कृ‍षि संकट वाले राज्यों में करीब 230 सीटें पूरी तरह ग्रामीण प्रभाव वाली हैं. सत्ता‍ की चाबी शायद इनके पास हैकिसी एक उत्तर या दक्षिण प्रदेश के पास नहीं. 

Sunday, May 13, 2018

दूसरी लहर


कुछ लड़ाइयां युद्ध बंद होने के बाद शुरू होती हैं. यूं कह लें कि कुछ सफलताएं चुनौतियों की शुरुआत होती हैं जैसे कर्नाटक को ही लें. यकीननकर्नाटक ऊंटों के लिए मशहूर नहीं है लेकिन चुनावी ऊंट तो कहीं भी करवट ले सकते हैं. इसलिए अगर... 
·       लोगों ने कर्नाटक में कांग्रेस को पलट दिया तो क्या गारंटी कि लोग मध्य प्रदेशराजस्थानछत्तीसगढ़ में भाजपा को नहीं पलटेंगे. अगर लोग सरकारें बदलना चाहते हैं तो कहीं भी बदलेंगे. गुजरात में गोली कान के पास से निकल गई.
·      और अगर कांग्रेस बनी रह गई तो पता नहीं कौन-कौन-सी लहरों को कर्नाटक के तट पर सिर पटक कर खत्म हुआ मानना होगा क्योंकि अन्य चुनावों की तरह कर्नाटक का चुनाव प्रधानमंत्री मोदी ही लड़ रहे हैं.

कर्नाटक के बाद नरेंद्र मोदी-अमित शाह की चक्रवर्ती भाजपा उसी चुनौती से रू-ब-रू होने वाली है जिसकी मदद से भाजपा ने सिर्फ पांच साल में भारत के वृहद भूगोल को कमल-कांति से जगमगा दिया. भारत में 2013 से लोगों पर सरकार बदलने का जुनून तारी है. अपवाद नियम नहीं होते इसलिए बिहारगुजरातबंगाल और दिल्ली के जनादेश अस्वाभाविक माने जाते हैं. इनके अलावापिछले पांच साल में केंद्र से लेकर राज्यों और यहां तक कि पंचायत नगरपालिकाओं तक हर जगह लोगों ने सरकारें पलट दीं.

भाजपा ने इस जुनून पर सवारी की और राष्ट्रीय व क्षेत्रीय दलों को रौंदते हुए वह कर्नाटक के मोर्चे पर आ डटी. अलबत्ता सरकारें पलटने वाले इस ताजा सफर का टिकटकर्नाटक में खत्म हो जाएगा क्योंकि पूरे देश में पिछले पांच साल से चल रही सत्ता विरोधी लहर का आखिरी पड़ाव है कर्नाटक.

मोदी-शाह की जोड़ी ने सरकारों को पलटने की चाह को इतना उग्र और घनीभूत कर दिया कि देश में चुनाव लडऩे का तौर-तरीका बदल गया. लेकिन अब उन्हें सरकार पलटने की दूसरी लहर से आए दिन और जगह-जगह निबटना होगा जो सीधे उनसे मुकाबिल होगी. 

सूबेदारों की बदली

बीते महीने कर्नाटक में चुनावी आतिशबाजी के बीचदिल्ली के बंद कमरों में सत्ता विरोधी लहर को थामने की कोशिश शुरू की गई. राजस्थान के मोर्चे पर सेनापति बदलने की तैयारी है. मुख्यमंत्री को रुखसत करने के शुरुआती प्रयास परवान नहीं चढ़े तो पार्टी अध्यक्ष अपने पद से हट गए. मुख्यमंत्रियों को बदलना यानी चुनाव से पहले नया चेहरा देनासरकारों के खिलाफ विरोध के तेवर कम करने का पुराना तरीका है. गुजरात में इसे आजमाया गया था.

सरकार से गुस्से की लहर में राज्य पहला निशाना होंगे. राज्य सरकारों की नाकामी केंद्र के खाते में भी जुड़ेगी. मुखिया बदल कर गुस्सा थामा जा सकता है लेकिन बदले गए मुखिया नुक्सान नहीं करेंगेइसकी कोई गारंटी नहीं है. 

नुमाइंदों से चिढ़
भाजपा के आलाकमान को अपने नुमाइंदों (सांसदों) से बढ़ती नाराजगी का एहसास गुजरात चुनाव के पहले ही हो गया था. पार्टी को सरकारी कार्यक्रमों के जमीनी क्रियान्वयन की हकीकत पता चल रही है. असंख्य सांसद व विधायक उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे हैं. सत्ता विरोधी लहर काटने के लिए नए चेहरे चुनाव में उतारे जाते हैं. भाजपा को यह काम बड़े पैमाने पर करना होगा ताकि स्थानीय मोहभंग को कम किया जा सके. लेकिन यह बदलाव निरापद नहीं होगा. विरोध और भितरघात इसके साथ चलते हैं.

परिवर्तन का चक्र 
नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वे पिछले चार साल में यथास्थिति के प्रति समग्र इनकार का प्रतीक बनकर उभरे हैं. 2014 के जनादेश के बाद पूरे देश में सत्ता विरोधी मत और परिवर्तन के तेवर उन्हें देखकर परवान चढ़े हैं. यह सरकारों को पलटने का जुनून ही था जिसने भाजपा को सफलता से सराबोर कर दिया. लेकिन चुनाव तो पांच साल पर होने ही हैं. गुजरात में भाजपा को पहली बार एहसास हुआ कि सरकार के खिलाफ लहर का रुख बदल सकता है और उत्तर प्रदेश में गोरखपुर व फूलपुर तक आते-आते यह रुख बदल भी गया.

बेचैन मतदाता परिपक्व होते लोकतंत्र की पहचान हैं. शिक्षा और सूचना जितना बढ़ती हैसरकारों से मोहभंग उतने ही प्रखर होते जाते हैं. प्रचार वीर सरकारें ज्यादा सशक्‍त  मोहभंग आमंत्रित करती हैं.



कर्नाटक के चुनाव का नतीजा चाहे जो निकले लेकिन इसके बाद सत्ता विरोधी जुनून का ग्रह गोचर बदलेगा. कर्नाटक के बाद भाजपा की जद्दोजहद (अपवादों के अलावा)सरकारें पलटने के जुनून को थामने की होगी. केवल 2019 का बड़ा चुनाव ही नहीं बल्कि 2022 तक हर प्रमुख चुनाव में भाजपा को बार-बार यह हिसाब देना होगा कि उसे ही दोबारा क्यों चुना जाए?

Monday, April 9, 2018

सूबेदारों पर दारोमदार



एक राजा था. उसके सिपहसालार धुरंधर थे. वे राजा के लिए जीत पर जीत लाते रहते थे. राजा नए सूबेदारों को जीते हुए सूबे सौंप कर अगली जंग में जुट जाता था.

फिर शुरू हुई सबसे बड़ी जंग की तैयारी. कवच बंधने लगे. सिपहसालारों ने जीते हुए मोर्चों का दौरा किया और थके से वापस लौट आए. राजा ने पूछा कि माजरा क्या है? एक पके हुए सलाहकार ने कहा कि हुजूर, यह जंग अब सिपहसालारों की नहीं रही. लोग अब सूबेदारों से जवाब मांग रहे हैं.

इस कहानी के पात्र रहस्यमय नहीं हैं. सरकारी पार्टी में यह किस्सा अलग-अलग संदर्भों के साथ बार-बार कहा-सुना जा रहा है. गुजरात से गोरखपुर तक वाया राजस्थान, मध्य प्रदेश सत्ता विरोधी तापमान बढऩे लगा है. पेशानी पर पसीना सवालों की इबारत में छलक रहा है. सूबेदार दिल्ली तलब होने लगे हैं.

तो सरकार से नाराजगी ने दिग्विजयी भाजपा को भी घेर लिया! 

लोकसभा चुनाव की भव्य जीत लेकर गुजरात तक, जीत पर जीत (बिहार व दिल्ली को छोड़कर) में झूमती भाजपा में किसी ने नहीं सोचा था कि लोग उनकी सरकारों से भी नाराज हो सकते हैं. गुजरात की हार जैसी जीत और उपचुनावों में बेजोड़ हार के बाद सरकार में ऐसे सवाल घुमड़ रहे हैं जिनका सामना हाल के वर्षों में किसी पार्टी ने नहीं किया. जाहिर है, इस तरह की निरंतर चुनावी विजय भी तो दुर्लभ थीं.

आर्थिक उदारीकरण के बाद पहली बार देश ने यह देखा कि पांच सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं यानी कि क्लब फाइव (महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात और कर्नाटक) में तीन और उभरते हुए तीनों प्रमुख राज्यों (राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश) पर उस पार्टी का शासन है जो केंद्र में भी राज कर रही है. भारत के जो 11 राज्य (महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, केरल, बिहार, ओडिशा और संयुक्त आंध्र) 2020 तक देश की जीडीपी में 76 फीसदी के हिस्सेदार होंगे, उनमें सात (आंध्र प्रदेश अभी तक एनडीए में था) पर भाजपा का शासन है. इसके बाद तीन प्रमुख छोटी अर्थव्यवस्थाएं झारखंड, हरियाणा और असम भी भाजपा के नियंत्रण में हैं.

यह ऐसा अवसर था, जिसके लिए यूपीए सरकार दस साल तक तरसती रही. सुधारों के कई अहम प्रयोग इसी वजह से जमीन नहीं पकड़ सके क्योंकि बड़े और संसाधन संपन्न राज्यों से केंद्र के राजनैतिक रिश्तों में गर्मजोशी नहीं थी.

लेकिन क्या केंद्र व राज्यों में राजनैतिक रिश्तों के रसायन से मोदी सरकार के मिशन परवान चढ़ सके? मोदी सरकार पिछले एक दशक की पहली ऐसी सरकार है जिसने 'स्वच्छता' से 'उड़ान' यानी जमीन से लेकर आसमान तक कार्यक्रमों और मिशनों की झड़ी लगा दी, फिर भी सरकारों से नाराजगी ने घेर ही लिया! 

क्यों नहीं उम्मीदों पर खरी उतरी मोदी की टीम इंडिया?

1. राज्यों में पहले से ही मुख्यमंत्रियों के पास खासी ताकत थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पीएमओ केंद्रित राजनैतिक गवर्नेंस राज्यों का आदर्श बन गई. सत्ता का विकेंद्रीकरण न होने से जमीनी क्रियान्वयन और संवाद जड़ नहीं पकड़ सका जबकि दूसरी तरफ घोषणाओं का अंबार लगा दिया गया. अब बारी मोहभंग की है. उदाहरण के लिए गोरखपुर.

2. राज्यों का प्रशासनिक ढांचा थक चुका है. इसे कहीं ज्यादा कठोर और नए सुधारों की जरूरत है. लेकिन पिछले चार साल में किसी राज्य में कोई नया बड़ा क्रांतिकारी सुधार या प्रयोग नजर नहीं आया. योजना आयोग को समाप्त करने से फायदा नहीं हुआ. राज्यों के आर्थिक फैसलों में आजादी मिलने की बजाए नया स्कीम राज मिला जिसे पुराने ढांचे पर लाद दिया गया.

3. पिछले तीन साल में राज्यों की वित्तीय स्थिति बिगड़ी है. बिजली घाटों की भरपाई, कर्ज माफी और राजस्व में कमी के कारण राज्यों का समेकित घाटा बारह साल और बाजार कर्ज दस साल के सर्वोच्च स्तर पर है. यह हालत चौदहवें वित्त आयोग से अधिक संसाधन मिलने के बाद है. जीएसटी की असफलता ने राज्यों के खजाने की हालत और बिगाड़ दी है.

केंद्र व 20 राज्यों और करीब 60 फीसदी जीडीपी पर शासन के बाद भी भाजपा को अगर अपनी सरकारों से नाराजगी का डर है और कुछ राज्यों में सूबेदारों की तब्दीली के जरिए नाराजगी को कम करने की नौबत आन पड़ी है तो मानना चाहिए कि लोकतंत्र मजबूत हो रहा है. सरकारों से नाराजगी लोकतंत्र की परिपक्वता का प्रमाण है. 

गुजरात से गोरखपुर तक मतदाता यह एहसास कराने लगे हैं कि प्रत्येक चुनावी जीत अगली जीत की गारंटी नहीं है. क्या लोग सियासत और सरकार का फर्क समझने लगे हैं अगर ऐसा है तो फिर याद रखना होगा कि इन लाखों अनाम लोगों की एक उंगली में बला की ताकत है.