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Sunday, February 11, 2018

टैक्स सत्यम्, बजट मिथ्या

सत्य कब मिलता है ?

लंबी साधना के बिल्कुल अंत में.

जब संकल्प बिखरने को होता है तब अचानक चमक उठता है सत्य. 

ठीक उसी तरह जैसे कोई वित्त मंत्री अपने 35 पेज के भाषण के बिल्कुल अंत में उबासियां लेते हुए सदन पर निगाह फेंकता है और बजट को सदन के पटल पर रखने का ऐलान करते हुए आखिरी पंक्तियां पढ़ रहा होता है, तब ...
अचानक कौंध उठता है बजट का सत्य.

टैक्स ही बजट का सत्य है, शेष सब माया है.

एनडीए सरकार के आखिरी पूर्ण बजट की सबसे बड़ी खूबी हैं इसमें लगाए गए टैक्स.

करीब 90,000 करोड़ रु. के कुल नए टैक्स के साथ यह पिछले पांच साल में सबसे ज्यादा टैक्स वाला बजट है.

पिछले पांच साल में अरुण जेटली ने 1,33,203 करोड़ रु. के नए टैक्स लगाए औसतन करीब 26,000 करोड़ रु. प्रति वर्ष. पांच साल में केवल 53,000 करोड़ रु. की रियायतें मिलीं. 2014-15 और 17-18 के बजटों में रियायतें थीं, जबकि अन्य बजटों में टैक्स के चाबुक फटकारे गए. जेटली के आखिरी बजट में टैक्सों का रिकॉर्ड टूट गया. 

टैक्स तो सभी वित्त मंत्री लगाते हैं लेकिन यह बजट कई तरह से नया और अनोखा है.

ईमानदारी की सजा

वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में जानकारी दी थी कि देश में आयकरदाताओं की तादाद 8.67 करोड़ (टीडीएस भरने वाले लेकिन रिटर्न न दाखिल करने वालों को मिलाकर) हो गई है. टैक्स बेस बढऩे से (2016-17 और 2017-18) में सरकार को 90,000 करोड़ रु. का अतिरिक्त राजस्व भी मिला. लेकिन हुआ क्या? ईमानदार करदाताओं का उत्साह अर्थात् टैक्स बेस बढऩे से टैक्स दर में कमी नहीं हुई.
याद रखिएगा कि इसी सरकार ने अपने कार्यकाल में कर चोरों को तीन बार आम माफी के मौके दिए हैं. एक बार नोटबंदी के बीचोबीच काला धन घोषणा माफी स्कीम लाई गई. तीनों स्कीमें विफल हुईं. कर चोरों ने सरकार पर भरोसा नहीं किया.
आर्थिक सर्वेक्षण ने बताया कि जीएसटी आने के बाद करीब 34 लाख नए करदाता जुड़े हैं लेकिन वह सभी जीएसटीएन को बिसूर रहे हैं और टैक्स के नए बोझ से हलकान हैं.

ताकि सनद रहे: टैक्स बेस में बढ़ोतरी यानी करदाताओं की ईमानदारी, सरकार को और बेरहम कर सकती है.  

सोने के अंडे वाली मुर्गी

भारतीय शेयर बाजारों में अबाधित तेजी को पिछले चार साल की सबसे चमकदार उपलब्धि कहा जा सकता है. मध्य वर्ग ने अपनी छोटी-छोटी बचतों से एक नई निवेश क्रांति रच दी. म्युचुअल फंड के जरिए शेयर बाजार में पहुंची इस बचत ने केवल वित्तीय निवेश की संस्कृति का निर्माण नहीं किया बल्कि भारतीय बाजार पर विदेश निवेशकों का दबदबा भी खत्म किया.
इस बजट में वित्त मंत्री ने वित्तीय निवेश या बचत को नई रियायत तो नहीं उलटे शेयरों में निवेश पर लॉन्ग टर्म कैपिटल गेंस और म्युचुअल फंड पर लाभांश वितरण टैक्स लगा दिया. शेयरों व म्युचुअल फंड कारोबार पर अब पांच (सिक्यूरिटी ट्रांजैक्शन, शॉर्ट टर्म कैपिटल गेंस, लांग टर्म कैपिटल गेंस, लाभांश वितरण और जीएसटी) टैक्स लगे हैं. बाजार गिरने के लिए नए गड्ढे तलाश रहा है.

ताकि सनद रहे: वित्तीय निवेश को प्रोत्साहन नोटबंदी का अगला चरण होना चाहिए था. ये निवेश पारदर्शी होते हैं. भारत में करीब 90 फीसदी निजी संपत्ति भौतिक निवेशों में केंद्रित है. नए टैक्स के असर से बाजार गिरने के बाद अब लोग शेयरों से पैसा निकाल वापस सोना और जमीन में लगाएंगे जो दकियानूसी निवेश हैं और काले धन के पुराने ठिकाने हैं. 

लौट आए चाबुक

उस नेता को जरूर तलाशिएगा, जिसने यह कहा था कि जीएसटी के बाद टैक्स का बोझ घटेगा और सेस-सरचार्ज खत्म हो जाएंगे. इस बजट ने तो सीमा शुल्क में भी बढ़ोतरी की है, जो करीब एक दशक से नहीं बढ़े थे. नए सेस और सरचार्ज भी लौट आए हैं. सीमा शुल्क पर जनकल्याण सेस लगा है और डीजल-पेट्रोल पर 8 रु. प्रति लीटर का सेस. आयकर पर लागू शिक्षा सेस एक फीसदी बढ़ गया है. यह सब इसलिए कि अब केंद्र सरकार ऐसे टैक्स लगाना चाहती है जिन्हें राज्यों के साथ बांटना न पड़े. ऐसे रास्तों से 2018-19 में सरकार को 3.2 लाख करोड़ रु. मिलेंगे.

जीएसटी ने खजाने की चूलें हिला दी हैं. इसकी वजह से ही टैक्स की नई तलवारें ईजाद की जा रही हैं. जीएसटी के बाद सभी टैक्स (सर्विस, एक्साइज, कस्टम और आयकर) बढ़े हैं, जिसका तोहफा महंगाई के रूप में मिलेगा.


सावधान: टैक्स सुधारों से टैक्स के बोझ में कमी की गारंटी नहीं है. इनसे नए टैक्स पैदा हो सकते हैं. 

Monday, October 31, 2016

जीएसटी को बचाइए


जीएसटी में वही खोट भरे जाने लगे हैं जिन्‍हें दूर करने लिए इसे गढ़ा जा रहा था.
गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स से हमारा सम्‍मोहन उसी वक्त खत्म हो जाना चाहिए था जब सरकार ने तीन स्तरीय जीएसटी लाने का फैसला किया था. दकियानूसी जीएसटी मॉडल कानून देखने के बाद जीएसटी को लेकर उत्साह को नियंत्रित करने का दूसरा मौका आया था. ढीले-ढाले संविधान संशोधन विधेयक को संसद की मंजूरी के बाद तो जीएसटी को लेकर अपेक्षाएं तर्कसंगत हो ही जानी चाहिए थीं. लेकिन जीएसटी जैसे जटिल और संवेदनशील सुधार को लेकर रोमांटिक होना भारी पड़ रहा है. संसद की मंजूरी के तीन महीने के भीतर उस जीएसटी को बचाने की जरूरत आन पड़ी है जिसे हम भारत का सबसे महान सुधार मान रहे हैं.

संसद से निकलने के बाद जीएसटी में वही खोट पैवस्त होने लगे हैं जिन्‍हें ख त्‍म करने के लिए जीएसटी को गढ़ा जा रहा था. जीएसटी काउंसिल की दूसरी बैठक के बाद ही संदेह गहराने लगा था, क्योंकि इस बैठक में काउंसिल ने करदाताओं की राय लिए बिना जीएसटी में पंजीकरण व रिटर्न के नियम तय कर दिए जो पुराने ड्राफ्ट कानून की तर्ज पर हैं और करदाताओं की मुसीबत बनेंगे.

पिछले सप्ताह काउंसिल की तीसरी बैठक के बाद आशंकाओं का जिन्न बोतल से बाहर आ गया. जीएसटी में बहुत-सी दरों वाला टैक्स ढांचा थोपे जाने का डर पहले दिन से था. काउंसिल की ताजा बैठक में आशय का प्रस्ताव चर्चा के लिए आया है. केंद्र सरकार जीएसटी के ऊपर सेस यानी उपकर भी लगाना चाहती है, जीएसटी जैसे आधुनिक कर ढांचे में जिसकी उम्मीद कभी नहीं की जाती.
काउंसिल की तीन बैठकों के बाद जीएसटी का जो प्रारूप उभर रहा है वह उम्मीदों को नहीं, बल्कि आशंकाओं को बढ़ाने वाला हैः
  • केंद्र सरकार ने जीएसटी काउंसिल की बैठक में गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स के लिए चार दरों का प्रस्ताव रखा है. ये दरें 6, 12,18 और 26 फीसदी होंगी. सोने के लिए चार फीसदी की दर अलग से होगी. अर्थात् कुल पांच दरों का ढांचा सामने है.
  •   मौजूदा व्यवस्था में आम खपत के बहुत से सामान व उत्पाद वैट या एक्साइज ड्यूटी से मुक्त हैं. कुछ उत्पादों पर 3, 5 और 9 फीसदी वैट लगता है जबकि कुछ पर 6 फीसदी एक्साइज ड्यूटी है. जीएसटी कर प्रणाली के तहत 3 से 9 फीसदी वैट और 6 फीसदी एक्साइज वाले सभी उत्पाद 6 फीसदी की पहली जीएसटी दर के अंतर्गत होंगे. जीरो ड्यूटी सामान की प्रणाली शायद नहीं रहेगी इसलिए टैक्स की यह दर महंगाई बढ़ाने की तरफ झुकी हो सकती है.
  •   केंद्र सरकार ने जीएसटी के दो स्टैंडर्ड रेट प्रस्तावित किए हैं. यह अनोखा और अप्रत्याशित है. जीएसटी की पूरे देश में एक दर की उक्वमीद थी. यहां चार दरों का रखा जा रहा है, जिसमें दो स्टैंडर्ड रेट होंगे. बारह फीसदी के तहत कुछ जरूरी सामान रखे जा सकते हैं. यह जीएसटी में पेचीदगी का नया चरम है. 
  • यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि ज्यादातर उत्पाद और सेवाएं 18 फीसद दर के अंतर्गत होंगी क्योंकि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के मुताबिक जीएसटी में गुड्स और सर्विसेज के लिए एक समान दर की प्रणाली है. इस व्यवस्था के तहत सेवाओं पर टैक्स दर वर्तमान के 15 फीसदी (सेस सहित) से बढ़कर 18 फीसदी हो जाएगी. यानी इन दरों के इस स्तर पर जीएसटी खासा महंगा पड़ सकता है.
  • चौथी दर 26 फीसदी की है जो तंबाकू, महंगी कारों, एयरेटेड ड्रिंक, लग्जरी सामान पर लगेगी. ऐश्वर्य पर लगने वाले इस कर को सिन टैक्स कहा जा रहा है. इस वर्ग के कई उत्पादों पर दरें 26 फीसदी से ऊंची हैं जबकि कुछ पर इसी स्तर से थोड़ा नीचे हैं. इस दर के तहत उपभोक्ता कीमतों पर असर कमोबेश सीमित रहेगा.
  •   समझना मुश्किल है कि सोने पर सिर्फ 4 फीसदी का टैक्स किस गरीब के फायदे के लिए है. इस समय पर सोने पर केवल एक फीसदी का वैट और ज्वेलरी पर एक फीसदी एक्साइज है, जिसे बढ़ाकर कम से कम से 6 फीसदी किया जा सकता था.   
  • किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि सरकार एक पारदर्शी कर ढांचे की वकालत करते हुए जीएसटी ला रही है, और पिछले दरवाजे से जीएसटी की पीक रेट (26 फीसदी) पर सेस लगाने का प्रस्ताव पेश कर देगी. सेस न केवल अपारदर्शी हैं बल्कि कोऑपरेटिव फेडरलिज्म के खिलाफ हैं क्योंकि राज्यों को इनमें हिस्सा नहीं मिलता है.

केंद्र सरकार सेस के जरिए राज्यों को जीएसटी के नुक्सान से भरपाई के लिए संसाधन जुटाना चाहती है. अलबत्ता राज्य यह चाहेंगे कि जीएसटी की पीक रेट 30 से 35 फीसदी कर दी जाए, जिसमें उन्हें ज्यादा संसाधन मिलेंगे. इसी सेस ने जीएसटी काउंसिल की पिछली बैठक को पटरी से उतार दिया और कोई फैसला नहीं हो सका.

अगर जीएसटी 4 या 5 कर दरों के ढांचे और सेस के साथ आता है तो यह इनपुट टैक्स क्रेडिट को बुरी तरह पेचीदा बना देगा जो कि जीएसटी सिस्टम की जान है. इस व्यवस्था में उत्पादन या आपूर्ति के दौरान कच्चे माल या सेवा पर चुकाए गए टैक्स की वापसी होती है. यही व्यवस्था एक उत्पादन या सेवा पर बार-बार टैक्स का असर खत्म करती है और महंगाई रोकती है.

केंद्र सरकार जीएसटी को लेकर कुछ ज्यादा ही जल्दी में है. जीएसटी से देश की सूरत और सीरत बदल जाने के प्रचार में इसके प्रावधानों पर विचार विमर्श और तैयारी खेत रही है. व्यापारी, उद्यमी, उपभोक्ता, कर प्रशासन जीएसटी गढऩे की प्रक्रिया से बाहर हैं. जीएसटी काउंसिल की बैठक में मौजूद राज्यों के मंत्री इसके प्रावधानों पर खुलकर सवाल नहीं उठा रहे हैं या फिर उनके सवाल शांत कर दिए गए हैं. 

जीएसटी काउंसिल की तीन बैठकों को देखते हुए लगता है कि मानो यह सुधार केवल केंद्र और राज्यों के राजस्व की चिंता तक सीमित हो गया है. करदाताओं के लिए कई पंजीकरण और कई रिटर्न भरने के नियम पहले ही मंजूर हो चुके हैं. अब बारी बहुत-सी टैक्स दरों की है जो जीएसटी को खामियों से भरे पुराने वैट जैसा बना देगी.

गुड्स एंड सर्विसेज टैक्‍स का वर्तमान ढांचा कारोबारी सहजता की अंत्‍येष्टि करने, कर नियमों के पालन की लागत (कंप्लायंस कॉस्ट) बढ़ाने और महंगाई को नए दांत देने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है. क्या हम जीएसटी बचा पाएंगे या फिर हम इस सुधार के बोझ तले दबा ही दिए जाएंगे?

Wednesday, August 3, 2016

आगेे और महंगाई है !


अच्‍छे मानसून के बावजूद, कई दूसरे कारणों के चलते अगले दो वर्षों में महंगाई  की चुनौती समाप्‍त होने वाली नहीं है। 

देश में महंगाई पर अक्सर चर्चा शुरू हो जाती हैलेकिन जब सरकार कोई अच्छे फैसले करती है तो उसका कोई जिक्र नहीं करता." ------ 22 जुलाई को गोरखपुर की रैली में यह कहते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय राजनीति और आर्थिक प्रबंधन की सबसे पुरानी दुविधा को स्वीकार कर रहे थेजिसने किसी प्रधानमंत्री का पीछा नहीं छोड़ा. कई अच्छी शुरुआतों के बावजूद महंगाई ने ''अच्छे दिन" के राजनैतिक संदेश को बुरी तरह तोड़ा है. पिछले दो साल में सरकार महंगाई पर नियंत्रण की नई सूझ या रणनीति लेकर सामने नहीं आ सकी जबकि अंतरराष्ट्रीय माहौल (कच्चे तेल और जिंसों की घटती कीमतें) भारत के माफिक रहा है. सरकार की चुनौती यह है कि अच्छे मॉनसून के बावजूद अगले दो वर्षों में टैक्सबाजारमौद्रिक नीति के मोर्चे पर ऐसा बहुत कुछ होने वाला हैजो महंगाई की दुविधा को बढ़ाएगा.
भारत के फसली इलाकों में बारिश की पहली बौछारों के बीच उपभोक्ता महंगाई झुलसने लगी है. जून में उपभोक्ता कीमतें सात फीसदी का आंकड़ा पार करते हुए 22 माह के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गईं. अच्छे मॉनसून की छाया में महंगाई का जिक्र अटपटा नहीं लगना चाहिए. महंगाई का ताजा इतिहास (2008 के बाद) गवाह है कि सफल मॉनूसनों ने खाद्य महंगाई पर नियंत्रण करने में कोई प्रभावी मदद नहीं की है अलबत्ता खराब मॉनसून के कारण मुश्किलें बढ़ जरूर जाती हैं. पिछले पांच साल में भारत में महंगाई के सबसे खराब दौर बेहतर मॉनसूनों की छाया में आए हैं. इसलिए मॉनसून से महंगाई में तात्कालिक राहत के अलावा दीर्घकालीन उम्मीदें जोडऩा तर्कसंगत नहीं है.
भारत की महंगाई जटिलजिद्दी और बहुआयामी हो चुकी है. नया नमूना महंगाई के ताजा आंकड़े हैं. आम तौर पर खाद्य उत्पादों की मूल्य वृद्धि को शहरी चुनौती माना जाता है लेकिन मई के आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण इलाकों में महंगाई बढऩे की रफ्तार शहरों से ज्यादा तेज थी. खेती के संकट और ग्रामीण इलाकों में मजदूरी दर में गिरावट के बीच ग्रामीण महंगाई के तेवर राजनीति के लिए डरावने हैं.
अच्छे मॉनसून के बावजूद तीन ऐसी बड़ी वजह हैं जिनके चलते अगले दो साल महंगाई के लिए चुनौती पूर्ण हो सकते हैं.
सबसे पहला कारण सरकारी कर्मचारियों के वेतन में प्रस्तावित बढ़ोतरी है. इंडिया रेटिंग का आकलन है कि वेतन आयोग की सिफारिशों के बाद खपत में 45,100 करोड़ रु. की बढ़ोतरी होगी. प्रत्यक्ष रूप से यह फैसला मांग बढ़ाएगालेकिन इससे महंगाई को ताकत भी मिलेगी जो पहले ही बढ़त की ओर है. जैसे ही राज्यों में वेतन बढ़ेगामांग व महंगाई दोनों में एक साथ और तेज बढ़त नजर आएगी.
रघुराम राजन के नेतृत्व में रिजर्व बैंक महंगाई पर अतिरिक्त रूप से सख्त था और ब्याज दरों को ऊंचा रखते हुए बाजार में मुद्रा के प्रवाह को नियंत्रित कर रहा था. केंद्रीय बैंक का यह नजरिया दिल्ली में वित्त मंत्रालय को बहुत रास नहीं आया. राजन की विदाई के साथ ही भारत में ब्याज दरें तय करने का पैमाना बदल रहा है. अब एक मौद्रिक समिति महंगाई और ब्याज दरों के रिश्ते को निर्धारित करेगी. राजन के नजरिए से असहमत सरकार आने वाले कुछ महीनों में उदार मौद्रिक नीति पर जोर देगी. मौद्रिक नीति के बदले हुए पैमानों से ब्याज दरें कम हों या न हों लेकिन महंगाई को ईंधन मिलना तय है.
तीसरी बड़ी चुनौती बढ़ते टैक्स की है. पिछले तीन बजटों में टैक्स लगातार बढ़ेजिनका सीधा असर जेब पर हुआ. रेल किराएफोन बिलइंटरनेटस्कूल फीस की दरों में बढ़ोतरी इनके अलावा थी. इन सबने मिलकर पिछले दो साल में जिंदगी जीने की लागत में बड़ा इजाफा किया. जीएसटी को लेकर सबसे बड़ी दुविधा या आशंका यही है कि यदि राज्यों और केंद्र के राजस्व की फिक्र की गई तो जीएसटी दर ऊंची रहेंगी. जीएसटी की तरफ बढ़ते हुए सरकार को लगातार सर्विस टैक्स की दर बढ़ानी होगीजिसकी चुभन पहले से ही बढ़ी हुई है.
महंगाई पर नियंत्रण की नई और प्रभावी रणनीति को लेकर नई सरकार से उम्मीदों का पैमाना काफी ऊंचा था. इसकी वजह यह थी कि मूल्य वृद्धि पर नियंत्रण के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नई सूझ लेकर आने वाले थे. मांग (मुद्रा का प्रवाह) सिकोड़ कर महंगाई पर नियंत्रण के पुराने तरीकों के बदले मोदी को आपूर्ति बढ़ाकर महंगाई रोकने वाले स्कूल का समर्थक माना गया था.
याद करना जरूरी है कि मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के बतौर एक समिति की अध्यक्षता की थीजो महंगाई नियंत्रण के तरीके सुझाने के लिए बनी थी. उसने 2011 में तत्कालीन सरकार को 20 सिफारिशें और 64 सूत्रीय कार्ययोजना सौंपी थीजो आपूर्ति बढ़ाने के सिद्धांत पर आधारित थी. समिति ने सुझाया था कि खाद्य उत्पादों की अंतरराज्यीय आपूर्ति बढ़ाने के लिए मंडी कानून को खत्म करना अनिवार्य है. मोदी समिति भारतीय खाद्य निगम को तीन हिस्सों में बांट कर खरीदभंडार और वितरण को अलग करने के पक्ष में थी. इस समिति की तीसरी महत्वपूर्ण राय कृषि बाजार का व्यापक उदारीकरण करने पर केंद्रित थी.
दिलचस्प है कि पिछले ढाई साल में खुद मोदी सरकार इनमें एक भी सिफारिश को सक्रिय नहीं कर पाई. सरकार ने सत्ता में आते ही मंडी (एपीएमसी ऐक्ट) कानून को खत्म करने या उदार बनाने की कोशिश की थी लेकिन इसे बीजेपी शासित राज्यों ने भी भाव नहीं दिया. एनडीए सरकार ने पूर्व खाद्य मंत्री और बीजेपी नेता शांता कुमार के नेतृत्व में एक समिति बनाई थी जिसने एफसीआइ के विभाजन व पुनर्गठन को खारिज कर दिया और खाद्य प्रबंधन व आपूर्ति तंत्र में सुधार जहां का तहां ठहर गया. 
मोदी सरकार यदि लोगों के ''न की बात" समझ रही है तो उसे बाजार में आपूर्ति बढ़ाने वाले सुधार शुरू करने होंगे.अंतरराष्ट्रीय बाजार में जिंसों की कीमतों में गिरावट उनकी मदद को तैयार है. 
दरअसलमौसमी महंगाई उतनी बड़ी चुनौती नहीं है जितनी इस अपेक्षा का स्थायी हो जाना कि महंगाई कभी कम नहीं हो सकती. भारत में इस अंतर्धारणा ने महंगाई नियंत्रण की हर कोशिश के धुर्रे बिखेर दिए हैं. इस धारणा को तोडऩे की रणनीति तैयार करना जरूरी है अन्यथा मोदी सरकार को महंगाई के राजनैतिक व चुनावी नुक्सानों के लिए तैयार रहना होगाजो सरकार के पुरानी होने के साथ बढ़ते जाएंगे.

Tuesday, May 26, 2015

मूल्यांकन शुरु होता है अब

करोड़ों बेरोजगार युवाओं और मध्य वर्ग को अपने प्रचार से बांध पाना मोदी के लिए दूसरे साल की सबसे बड़ी चुनौती होने वाली है.

ब्बीस मई 2016 शायद नरेंद्र मोदी के आकलन के लिए ज्यादा उपयुक्त तारीख होगी. इसलिए नहीं कि उस दिन सरकार दो साल पूरे करेगी बल्कि इसलिए कि उस दिन तक यह तय हो जाएगा कि मोदी ने भारत के मध्य वर्ग और युवा को ठोस ढंग से क्या सौंपा है जो बीजेपी की पालकी की अपने कंधे पर यहां तक लाया हैमोदी सरकार की सबसे बड़ी गफलत यह नहीं है कि वह पहले ही साल में किसानों व गांवों से कट गई. गांव न तो बीजेपी के राजनैतिक गणित का हिस्सा थे और न ही मोदी का चुनाव अभियान गांवों पर केंद्रित था. मोदी के लिए ज्यादा बड़ी चिंता युवा व मध्य वर्ग की अपेक्षाएं हैं जिन्होंने उनकी राजनीति को नया आयाम दिया है और पहले वर्ष में मोदी इनके लिए कुछ नहीं कर सके.
रोजगार और महंगाईभारतीय गवर्नेंस की सबसे घिसी हुई बहसे हैं लेकिन इन्हीं दोनों मामलों में मोदी से लीक तोड़ने की सबसे ज्यादा उम्मीदें भी हैं क्योंकि कांग्रेस के खिलाफ अभूतपूर्व जनादेश में पांच साल की महंगाई और 2008 के बाद उभरी नई बेकारी भिदी हुई थी. मोदी सरकार की पहली सालगिरह पर भाषणों को सुनते और विज्ञापनों को पढ़ते हुएअगर मुतमईन करने वाले सबसे कम तर्क आपको इन्हीं दो मुद्दों पर मिले तो चौंकिएगा नहीं.
याद कीजिए पिछले साल की गर्मियों में मोदी की चुनावी रैलियों में उमड़ती युवाओं की भीड़. कैसे भूल सकते हैं आप पड़ोस के परिवारों में मोदी के समर्थन की उत्तेजक बहसेंयह बीजेपी का पारंपरिक वोटर नहीं था. यह समाजवादी व उदारवादी प्रयोगों के तजुर्बों से लैस मध्य वर्ग था जो मोदी के संदेश को गांवों व निचले तबकों तक ले गया. यकीननएक साल में मोदी से जादू की उम्मीद किसी को नहीं थी लेकिन लगभग हर दूसरे दिन बोलते सुने गए और बच्चों से लेकर ड्रग ऐडिक्ट तक से मन की बात करने वाले प्रधानमंत्री की रोजगारों पर चुप्पी अप्रत्याशित थी. मोदी का मौन उनकी नौकरियों पर सरकार की निष्क्रियता की देन था.
दरअसलस्थायीअस्थायीनिजीसरकारी व स्वरोजगारसभी आयामों पर 2015 में रोजगारों का हाल 2014 से बुरा हो गया. लेबर ब्यूरो ने इसी अप्रैल में बताया कि प्रमुख आठ उद्योगों में रोजगार सृजन की दर तिमाही के न्यूनतम स्तर पर है. फसल की बर्बादी और रोजगार कार्यक्रम रुकने से गांव और बुरे हाल में हैं. सफलताओं के गुणगान में सरकार स्किल डेवलपमेंट का सुर ऊंचा करेगी लेकिन स्किल वाले महकमे के मुताबिकसबसे ज्यादा रोजगार (6 करोड़ सालाना) भवन निर्माणरिटेल और ट्रांसपोर्ट से निकलते हैं. इन क्षेत्रों में मंदी नापने के लिए आपको आर्थिक विशेषज्ञ होने की जरूरत नहीं है. रियल एस्टेट गर्त में हैरिटेल बाजार को सरकार खोलना नहीं चाहती और ट्रांसपोर्ट की मांग इन दोनों पर निर्भर है. दरअसलदूसरे मिशन इंतजार कर सकते थे अलबत्ता रोजगारों के लिए नई सूझ से लैस मिशन की ही अपेक्षा थी. अब जबकि मॉनसून डरा रहा है और ग्लोबल एजेंसियां भारत की ग्रोथ के लक्ष्य घटाने वाली हैं तो मोदी के लिएअगले एक साल के दौरान करोड़ों बेरोजगार युवाओं को अपने प्रचार से बांध पाना बड़ा मुश्किल होने वाला है.
हाल में पेट्रोल और डीजल की कीमतें जब अपने कंटीले स्तर पर लौट आईं और मौसम की मार के बाद जरूरी चीजों के दाम नई ऊंचाई छूने लगे तो मध्य व निचले वर्ग को सिर्फ यही महसूस नहीं हुआ कि किस्मत की मेहरबानी खत्म हो गई बल्कि इससे ज्यादा गहरा एहसास यह था कि इस सरकार के पास भी जिंदगी जीने की लागत को कम करने की कोई सूझ नहीं है. महंगाई से निबटने के मोदी मॉडल की चर्चा याद हैचुनाव के दौरान इस पर काफी संवाद हुआ था. गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी की एक रिपोर्ट का हवाला दिया गया. मांग की बजाए आपूर्ति के रास्ते महंगाई को थामने के विचार हवा में तैर रहे थे. कीमतों में तेजी रोकने के लिए प्राइस स्टेबलाइजेशन फंड को सरकार ने अपनी 'ताकतवरसूझ कहा था. अलबत्ता जुलाई 2014 में घोषित यह फंड मई, 2015 में बन पाया और वह भी केवल 500 करोड़ रु. के कोष के साथजो फिलहाल आलू-प्याज की महंगाई से आगे सोच नहीं पा रहा है. सत्ता में आने के बाद नई सरकार नेमहंगाई रोकने के लिए राज्यों को मंडी कानून खत्म करने का फरमान जारी किया था जिसे बीजेपी शासित राज्यों ने भी लागू नहीं किया. व्यापारियों की नाराजगी कौन मोल ले?
महंगाई सर पर टंगी हो और मांग कम हो तो कीमतों की आग में टैक्सों का पेट्रोल नहीं छिड़का जाना चाहिए. लेकिन सरकार का दूसरा बजट एक्साइज और सर्विस टैक्स के नए चाबुकों से लैस था. कच्चा तेल 100 डॉलर पार नहीं गया है लेकिन भारत में पेट्रो उत्पाद महंगाई से फिर जलने लगे हैं तो इसके लिए बजट जिम्मेदार हैजिसने पेट्रो उत्पादों पर नए टैक्स थोप दिए. सरकार जब तक एक साल के जश्न से निकल कर अगले वर्ष की सोचना शुरू करेगी तब तक सर्विस टैक्स की दर में दो फीसदी की बढ़त महंगाई को नए तेवर दे चुकी होगी. रबी की फसल का नुक्सान खाद्य उत्पादों की कीमतों में फटने लगा है. अगर मॉनूसन ने धोखा दिया तो मोदी अगले सालठीक उन्हीं सवालों का सामना कर रहे होंगे जो वह प्रचार के दौरान कांग्रेस से पूछ रहे थे.
नारे हालांकि घिस कर असर छोड़ देते हैंफिर भी अच्छे दिन लाने का वादा भारत के ताजा इतिहास में सबसे बड़ा राजनैतिक बयान थामध्य वर्ग पर जिसका अभूतपूर्व मनोवैज्ञानिक प्रभाव हुआ. मोदी इसी मध्य वर्ग के नेता हैंजिसकी कोई भी चर्चा रोजगार व महंगाई की चिंता के बिना पूरी नहीं होतीक्योंकि देश के महज दस फीसद लोग ही स्थायी वेतनभोगी हैं और आम लोग अपनी कमाई का 45 से 60 फीसद हिस्सा सिर्फ खाने पर खर्च करते हैं. सरकार जब अपना पहला साल पूरा कर रही है तो खपत दस साल के न्यूनतम स्तर पर हैरोजगारों में बढ़ोत्तरी शून्य है और महंगाई वापस लौट रही है. मोदी सरकार का असली मूल्यांकन अब शुरू हो रहा हैपहला साल तो केवल तैयारियों के लिए था.






Tuesday, May 12, 2015

यह वो जीएसटी नहीं

लोकसभा ने जीएसटी के जिस प्रारूप पर मुहर लगाई है उससे न तो कारोबार आसान होगा और न महंगाई घटेगी. देश को वह जीएसटी मिलता नहीं दिख रहा है जिसका इंतजार पिछले एक दशक से हो रहा था.

करीबन तीन साल पहले गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) पर राज्यों की एक बैठक की रिपोर्टिंग के दौरान राजस्व विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने मुझसे कहा था कि पूरे भारत में उत्पादन, सेवा और बिक्री पर एक समान टैक्स दरें लागू करना लगभग नामुमकिन है! उस वक्त मुझे उनकी यह टिप्पणी झुंझलाहट से भरी और औद्योगिक राज्यों की तरफ इशारा करती हुई महसूस हुई थी, क्योंकि वह दौर जीएसटी पर गतिरोध का था और गुजरात एक दशक से इस सुधार का विरोध कर रहा था. जीएसटी पर ताजा राजनैतिक खींचतान ने उस अधिकारी को सही साबित कर दिया. देश के सबसे बड़े कर सुधार का चेहरा बदल गया है. जीएसटी के नाम पर हमें जो मिलने वाला है उससे पूरे देश में कॉमन मार्केट बनना तो दूर, महंगाई बढऩे व कर प्रशासन में अराजकता का जोखिम सिर पर टंग गया है.
टैक्स जटिल हैं लेकिन जीएसटी पर एक दशक की चर्चा के बाद लोगों को इतना जरूर पता है कि भारत में उत्पादन, बिक्री और सेवाओं पर केंद्र से लेकर राज्य तक किस्म-किस्म के टैक्स (एक्साइज, सर्विस, वैट, सीएसटी, चुंगी, एंटरटेनमेंट, लग्जरी, पर्चेज) लगते हैं जो न केवल टैक्स चोरी को प्रेरित करते हैं बल्कि उत्पादों की कीमत बढ़ने की बड़ी वजह भी हैं. जीएसटी लागू कर इन टैक्सों को खत्म किया जा सकता है ताकि पूरे देश में समान टैक्स रेट के जरिए कारोबार आसान हो सके. यह अंततः उपभोक्ताओं के लिए उत्पादों और सेवाओं की कीमत कम करेगा. लेकिन जीएसटी का प्रस्तावित ढांचा इस मकसद से उलटी दिशा में जाता दिख रहा है.
एक दशक से अधर में टंगे जीएसटी को लेकर उत्साह इसलिए लौटा था क्योंकि गुजरात उन राज्यों में अगुआ था जो जीएसटी के हक में नहीं हैं. दिल्ली पहुंचने के बाद मोदी जीएसटी के मुरीद हो गए, जिससे इस टैक्स सुधार की उम्मीद को ताकत मिल गई. लेकिन जीएसटी को लेकर मोदी का नजरिया बदलने से राज्यों के रुख में कोई बदलाव नहीं हुआ. केरल के वित्त मंत्री व जीएसटी पर राज्यों की समिति के मुखिया के.एम. मणि की मानें तो गुजरात और महाराष्ट्र ने दबाव बनाया कि सभी तरह के जीएसटी के अलावा, राज्यों को वस्तुओं की अंतरराज्यीय आपूर्ति पर एक फीसदी अतिरिक्त टैक्स लगाने की छूट मिलनी चाहिए, उत्पादकों को जिसकी वापसी नहीं होगी. यह टैक्स उस राज्य को मिलेगा जहां से सामान की आपूर्ति शुरू होती है. गुजरात का दबाव कारगर रहा. यह नया टैक्स लोकसभा से पारित विधेयक का हिस्सा है जो औद्योगिक राज्यों का राजस्व बढ़ाएगा जबकि अन्य राज्यों को नुक्सान होगा. इस तरह औद्योगिक व उपभोक्ता राज्यों के बीच पुरानी खाई फिर तैयार हो गई है. इसलिए जीएसटी विधेयक अब न केवल राज्यसभा में फंस सकता है बल्कि राज्यों के विरोध के कारण इसे अगले साल से लागू किए जाने की संभावना भी कम हो गई है.
सियासत ने जीएसटी की तस्वीर पूरी तरह बदल दी है. अब इनडायरेक्ट टैक्स का एक नहीं बल्कि पांच स्तरीय ढांचा होगा. सीजीएसटी के तहत केंद्र के टैक्स (एक्साइज, सर्विस) लगेंगे और एसजीएसटी के तहत राज्यों के टैक्स. इसके अलावा अंतरराज्यीय बिक्री पर आइजीएसटी लगेगा जो सेंट्रल सेल्स टैक्स की जगह लेगा. सामान की अंतरराज्यीय आपूर्ति पर एक फीसदी अतिरिक्त टैक्स और पेट्रोल डीजल, एविएशन फ्यूल पर टैक्स अलग से होंगे. जीएसटी तो पूरे देश में एक समान टैक्स ढांचा लाने वाला था, केंद-राज्य के अलग-अलग समेकित जीएसटी तक भी बात चल सकती थी लेकिन जीएसटी के नाम पर पांच टैक्सों का ढांचा आने वाला है जो मुसीबत से कम नहीं है.
दरअसल, जीएसटी के तहत उत्पादकों और व्यापारियों को कच्चे माल पर दिए गए टैक्स की वापसी होनी है ताकि एक ही सेवा या उत्पाद पर बहुत से टैक्स न लगें. अब जबकि कई स्तरों वाला टैक्स ढांचा बरकरार है तो लाखों टैक्स रिटर्न की प्रोसेसिंग सबसे बड़ी चुनौती होगी. अगर जीएसटी अपने मौजूदा स्वरूप में आया तो हर रोज हजारों रिटर्न फाइल होंगे, जिन्हें जांचने के लिए तैयारी नहीं है. जीएसटी के लिए देशव्यापी कंप्यूटरराइज्ड टैक्स नेटवर्क बनना था, जिसकी प्रगति का पता नहीं है जबकि राज्यों के टैक्स सिस्टम पुरानी पीढ़ी के हैं. जीएसटी अगर इस तरह लागू हुआ तो अराजकता व राजस्व नुक्सान ही हाथ लगेगा.
जीएसटी की दर आखिर कितनी होगी? राज्यों की समिति 27 फीसद की जीएसटी दर (रेवेन्यू न्यूट्रल रेटिंग जिस पर राज्यों को राजस्व का कोई नुक्सान नहीं होगा) का संकेत दे रही है. यह मौजूदा औसत दर से दस फीसद ज्यादा है. अगर जीएसटी दर 20 फीसद से ऊपर तय हुई तो भारत का यह सबसे बड़ा कर सुधार महंगाई की आफत बनकर टूटेगा. दुनिया के जिन देशों ने हाल में जीएसटी लागू किया है वहां टैक्स पांच (जापान) से लेकर 19.5 फीसदी (यूरोपीय यूनियन) तक हैं. जीएसटी के मामले में सियासत को देखते हुए सरकार के लिए यह दर कम रख पाना बेहद मुश्किल होगा.
जीएसटी को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हृदय बदलने के अलावा और कुछ नहीं बदला है. केंद्र से लेकर राज्यों तक कोई तैयारी नहीं है. पूरी बहस केवल सरकारों के राजस्व पर केंद्रत है. कर वसूलने व चुकाने वाले, अर्थात् व्यापारी व उपभोक्ता अंधेरे में हैं. जीएसटी, सुर्खियां बटोरू स्कीम या मिशन नहीं है, यह भारत का सबसे संवेदनशील सुधार है जो हर अमीर-गरीब उपभोक्ता की जिंदगी से जुड़ा है. सरकार को ठहरकर इसकी पर्याप्त तैयारी करनी चाहिए. प्रधानमंत्री को अपने रसूख का इस्तेमाल कर राज्यों को इस पर सहमत करना चाहिए. जीएसटी लागू न होने से जितना नुक्सान होगा, उससे कहीं ज्यादा नुक्सान इसे बगैर तैयारी के लागू करने से हो सकता है.
अधिकांश लोग टैक्स का गणित नहीं समझते. लेकिन इतना जरूर समझते हैं कि ज्यादा टैक्स होने से महंगाई बढ़ती है और अगर पूरे देश में टैक्स की एक दर हो तो कारोबार आसान होता है. लोकसभा ने जीएसटी के जिस प्रारूप पर मुहर लगाई है उससे न तो कारोबार आसान होगा और न महंगाई घटेगी. देश को वह जीएसटी मिलता नहीं दिख रहा है जिसका इंतजार पिछले एक दशक से हो रहा था.