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Friday, January 1, 2021

तकनीक की तिजोरी

 


लॉकडाउन के साथ ही सुयश की पढ़ाई छूट गई, न स्मार्ट फोन न इंटरनेट.

दिल्ली की दमघोंट सुबहों में घरों में काम करने वाली उसकी मां खांसते हुए बताती है कि साहब के घर पानी ही नहीं, हवा साफ करने की मशीन भी है. काम तलाश रहे सुयश के पिता को यह तो मालूम है कि आने वाले दिनों में कोविड वैक्सीन लगे होने की शर्त पर काम मिलने की नौबत आ सकती है लेकिन यह नहीं मालूम कि वह अपने पूरे परिवार के लिए कोविड वैक्सीन खरीद भी पाएंगे या नहीं.

कोविड के बाद की दुनिया में आपका स्वागत है.

21वीं सदी का तीसरा दशक सबसे पेचीदा उलझन के साथ शुरू हो रहा है. महामारी के बाद की इस दुनिया में तकनीकों की कोई कमी नहीं है. लेकिन बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की होगी जो जिंदगी बचाने या बेहतर बनाने की बुनियादी तकनीकों की कीमत नहीं चुका सकते. जैसे कि भारत में करीब 80 फीसद छात्र लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन कक्षाओं में हिस्सा नहीं (ऑक्सफैम सर्वेक्षण) ले सके.

फार्मास्यूटिकल उद्योग ने एक साल से भी कम समय में वैक्सीन बनाकर अपनी क्षमता साबित कर दी. करोड़ों खुराकें बनने को तैयार हैं. लेकिन बहुत मुमकिन है कि दुनिया की एक बड़ी आबादी शायद कोविड की वैक्सीन हासिल न कर पाए. महंगी तकनीकों और उन्हें खरीदने की क्षमता को लेकर पहले से उलझन में फंसे चिकित्सा क्षेत्र के लिए वैक्सीन तकनीकी नहीं बल्कि आर्थि-सामाजिक चुनौती है. भारत जैसे देशों में जहां सामान्य दवा की लागत भी गरीब कर देती हो वहां करोड़ों लोग वैक्सीन नहीं खरीद पाएंगे और कितनी सरकारें ऐसी होंगी जो बड़ी आबादी को मुफ्त या सस्ती वैक्सीन दे पाएंगी.

वैक्सीन बनाने वाली कंपनियां पेटेंट के नियमों पर अड़ी हैं. रियायत के लिए डब्ल्यूटीओ में भारत-दक्षिण अफ्रीका का प्रस्ताव गिर गया है. कोवैक्स अलायंस और ऐस्ट्राजेनेका की वैक्सीन के सस्ते होने से उम्मीद है लेकिन प्रॉफिट वैक्सीन बनाम पीपल्स वैक्सीन का विवाद अभी सुलझा नहीं है.

विकासशील देशों को सस्ती वैक्सीन मिलने की उम्मीद कम ही है. सरकारें अगर लागत उठाने लगीं तो बजट ध्वस्त, नया भारी कर्ज और नए टैक्स. ऊपर से अगर इन देशों को वैक्सीन देर से मिली तो अर्थव्यवस्थाओं के उबरने में समय लगेगा.

वैक्सीन का विज्ञान तो जीत गया लेकिन अर्थशास्त्र बुरी तरह फंस गया है. 

आरोग्य सेतु ऐप की विफलता और लॉकडाउन के दौरान बढ़ी अशिक्षा के बीच करीबी रिश्ता है. भारत में अभी भी करीब 60 फीसद फोन स्मार्ट नहीं हैं यानी फीचर फोन हैं. आरोग्य सेतु अपने तमाम विवादों के अलावा इसलिए भी नहीं चल सका कि शहर से गांव गए अधिकांश लोग के पास इस ऐप्लिकेशन को चलाने वाले फोन नहीं थे.

जिस ऑनलाइन शिक्षा को कोविड का वरदान कहा गया उसने 80 फीसद भारतीय छात्रों एक साल पीछे कर दिया, क्योंकि या तो उनके पास स्मार्ट फोन नहीं थे या इंटरनेट. ग्रामीण इलाकों में बमुश्कि 15 फीसद लोगों के पास ही नेट कनेक्टिविटी है. भारत की आधी आबादी के पास इंटरनेट की सुविधा नहीं है. और यदि उन्हें इंटरनेट मिल भी जाए तो केवल 20 फीसद लोग डिजिटल सेवाओं का इस्तेमाल (सांख्यिकी मंत्रालय) कर सकते हैं.

मुसीबत तकनीक की नहीं बल्किउसे खरीदने की क्षमता है. इसलिए दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में एक दिल्ली में अधिकांश आबादी उन लोगों की तुलना में पांच से दस साल कम (न्यूयार्क टाइम्स का अध्ययन) जिएंगे जिनके पास एयर प्यूरीफायर हैं. 

अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष आर्थिक बेहतरी मापने के लिए एक नए सूचकांक का इस्तेमाल कर रहा है जिसे वेलफेयर मेज़र इंडेक्स कहते हैं. उपभोग, खपत, जीवन प्रत्याशा, मनोरंजन और खपत असमानता इसके आधार हैं. 2002 से 2019 के बीच भारत जैसे विकासशील देशों की वेलफेयर ग्रोथ करीब 6 फीसद रही है जो उनके प्रति व्यक्तिवास्तविक जीडीपी से 1.3 फीसद ज्यादा है यानी कि लोगों के जीवन स्तर में सुधार आया.

कोविड के बाद इस वेलफेयर ग्रोथ में 8 फीसद की गिरावट आएगी. यानी जिंदगी बेहतर करने पर खर्च में कमी होगी. 

चिकित्सा, शिक्षा, पर्यावरण, संचार में तकनीकों की कमी नहीं है लेकिन इन्हें सस्ता करने के लिए बड़ा बाजार चाहिए लेकिन आय कम होने और गरीबी बढ़ने से बाजार सिकुड़ रहा है इसलिए जिंदगी बचाने और बेहतर बनाने की सुविधा बहुतों को मिल नहीं पाएंगी.

यह नई असमानता की शुरुआत है. यहीं नहीं कि कोविड के दौरान कंपनियों की कमाई बढ़ी और रोजगार कम हुए बल्कि अप्रैल से जुलाई के बीच भारत के अरबपतियों की कमाई में 423 अरब डॉलर का इजाफा हो गया.

तकनीकों की कमी नहीं है. अब, सरकार को लोगों की कमाई बढ़ाने के ग्लोबल प्रयास करने होंगे नहीं तो बहुत बड़ी आबादी आर्थिक असमानता की पीठ पर बैठकर तकनीकी असमानता की अंधी सुरंग में उतर जाएगी, जिसके बाद तेज ग्रोथ लंबे वक्त के लिए असंभव हो जाएगी. कोविड के बाद जिन नई तकनीकों में भविष्य देखा जा रहा है वह भविष्य केवल मुट्ठी भर लोगों का हो सकता है.

 

Sunday, May 19, 2019

अबकी बार अलोकप्रिय...



नादेशों में हमेशा एक लोकप्रिय सरकार ही नहीं छिपी होतीकभी-कभी लोग ऐसी सरकार भी चुनते हैं जिसके पास अलोकप्रिय हो जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. 23 मई को जनादेश का ऊंट चाहे जिस करवट बैठेनई सरकार को सौ दिन के भीतर ही अलोकप्रियता का नीलकंठ बनना पड़ेगा.

अगर हर हाल में सत्ता पाना सबसे बड़ा चुनावी मकसद न होता तो जैसी आर्थिक चुनौतियां व हिमालयी दुविधाएं चौतरफा गुर्रा रही हैं उनके बीच किसी भी नए या पुराने नायक को जहर बुझी कीलों का ताज पहनने से पहले एक बार सोचना पड़ता.

भारत को संभालने की चुनौतियां हमेशा से भारत जितनी ही विशाल रही हैं लेकिन गफलत में मत रहिए, 2019, न तो 2009 है और न ही  2014. यह तो कुछ ऐसा है कि जिसमें अब श्रेय लेने की नहीं बल्कि कठोर फैसलों  से सियासी नुक्सान उठाने की बारी हैकरीब दस साल (मनमोहन-मोदीकी लस्तपस्त विकास दरढांचागत सुधारों के सूखे और आत्मतघाती नीतियों (नोटबंदीके बाद भारतीय अर्थव्यवस्था अपने नए नायक के लिए कांटों की कई कुर्सियां लिए बैठी है.

■ भारतीय कृषि अधिक पैदावार-कम कीमत के नियमित दुष्चक्र की शिकार हो चुकी हैसरकार कोई भी होजब तक बड़ा सुधार नहीं होताकम कमाई वाले ग्रामीणों को नकद सहायता (डायरेक्ट इनकमदेनी होगीअन्यथा गांवों का गुस्सासंकट में बदल जाएगा. 

■ भारत में निजी कॉर्पोरेट मॉडल लड़खड़ा गया हैपिछले पांच साल में निजी निवेश नहीं बढ़ाकंपनियों पर कर्ज बढ़ा और मुनाफे घटे हैंडूबती कंपनियों (जेटआइडीबीआइको उबारने का दबाव सरकार पर बढ़ रहा है या फिर बैंकों को बकाया कर्ज पर नुक्सान उठाना पड़ रहा है.बाजार में सिमटती प्रतिस्पर्धा और उभरते कार्टेल नए निवेशकों को हतोत्साहित कर रहे हैं.

■ रोजगार की कमी ने आय व बचत सिकोड़ कर खपत तोड़ दी है जिसे बढ़ाए बिना मांग और निवेश नामुमकिन है.

■ सुस्त विकासकमजोर मांग और घटिया जीएसटी के कारण सरकारों (केंद्र व राज्यका खजाना बदहाल हैकेंद्र का राजस्व (2019) में 11 फीसदी गिराबैंकों के पास सरकार को कर्ज देने के लिए पूंजी नहीं है. 2018-19 में रिजर्व बैंक ने 28 खरब रुपए के सरकारी बॉन्ड खरीदेजो सरकार के कुल जारी बॉन्ड का 70 फीसदी है.

■ बैंकों के बकाया कर्ज का समाधान निकलता इससे पहले ही गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसीबैंक कर्ज चुकाने में चूकने लगींकरीब 30 फीसदी एनबीएफसी को बाजार से नई पूंजी मिलना मुश्किल हैइधर 2022 से सरकारी कर्ज की देनदारी शुरू होने वाली है.

इन पांचों मशीनों को शुरू करने के लिए सरकार को ढेर सारे संसाधन चाहिए ताकि वह किसानों को नकद आय दे सकेबैंकों को नई पूंजी दे सकेथोड़ा बहुत निवेश कर सके जिसकी उंगली पकड़ कर मांग वापस लौटे और यहीं से उसकी विराट दुविधा शुरू होती हैसंसाधनों के लिए नई सरकार को अलोकप्रिय होना ही पड़ेगा.

होने वाला दरअसल यह है कि

■ सब्सिडी (उर्वरकएलपीजीकेरोसिनअन्य स्कीमेंमें कटौती होगी ताकि खर्च बच सकेक्योंकि लोगों को नकद सहायता दी जानी हैजब तक रोजगार नहीं लौटते तब तक यह कटौती लाभार्थियों पर भारी पड़ेगी.

■ सरकारों (खासतौर पर राज्योंको बिजलीपानीट्रांसपोर्ट जैसी सेवाओं की दरें बढ़ानी होंगी ताकि कर्ज और राजस्व का संतुलन ठीक हो सके. 

■ इसके बाद भी सरकारें भरपूर कर्ज उठाएंगीजिसका असर महंगाई और ऊंची ब्याज दरों के तौर पर दिखेगा.

■ खजाने के आंकड़े बताते हैं कि आने वाली सरकार अपने पहले ही बजट में टैक्स बढ़ाएगीजीएसटी की दरें बढ़ सकती हैसेस लग सकते हैं या फिर इनकम टैक्स  बढे़गा. 

भारतीय अर्थव्यवस्था आम लोगों की खपत पर चलती है और बदकिस्मती यह हैताजा संकट के सभी समाधान यानी नए टैक्स और महंगा कर्ज (मौसमी खतरे जैसे खराब मॉनसूनतेल की कीमतें यानी महंगाईखपत पर ही भारी पड़ेंगेइसलिए मुश्किल भरे अगले दो-तीन वर्षों में सरकारों के लिए भरपूर अलोकप्रियता का खतरा निहित है.

1933 की मंदी के समय मशहूर अर्थविद् जॉन मेनार्ड केंज ने अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट से कहा था कि अब चुनौती दोहरी हैएकअर्थव्यवस्था को उबारनाऔर दोबड़े और लंबित सुधार लागू करनातत्काल विकास दर के लिए तेज फैसले और नतीजे चाहिए जबकि सुधारों से यह रिकवरी जटिल और धीमी हो जाएगीजिससे लोगों का भरोसा कमजोर पड़ेगा.

लोगों का चुनाव पूरा हो रहा हैअब सरकार को तय करना है कि वह क्या चुनती हैकठोर सुधार या खोखली सियासतअब नई सरकार को तारीफें बटोरने के मौके कम ही मिलेंगे.   

Tuesday, January 1, 2019

एक था जीएसटी



99 फीसदी सामान व सेवाओं पर 18 फीसदी तक जीएसटी! 
97 फीसदी सामान सेवाएं तो पहले इसी दायरे में हैं
तो क्रांतिकारी उदारता का  यशोगान! 

कभी दूध कुछ इस तरह फट जाता है कि उससे पनीर तो दूररायता भी नहीं बनता. जीएसटी का हाल अब कुछ ऐसा ही समझिए. भारत की दूसरी आजादी (जैसा कि संसद में अर्धरात्रि इसकी शुरुआत के वक्त कहा गया था) 18 माह में ऐसी प्रणाली में बदल गई है जिसके आर्थिक मकसद ध्वस्त हो चुके हैं. जीएसटी दम तोड़ता हुआ एक सुधार हैचुनाव से पहले जिससे सियासी लाभ की बची-खुची बूंदें निचोड़ी जा रही हैं.

जीएसटी का राजस्व‍ संग्रह लक्ष्य से मीलों दूर है और खजानों का हाल खस्ता है. अगर सरकार शुरू से ही दो टैक्स दरों वाला जीएसटी लेकर चली होती तो बात दूसरी थी लेकिन अब तो जटिलताओं का अंबार गढ़ा जा चुका है.

सरकार को ठोस तौर पर यह भी पता नहीं कि गुजरात चुनाव से लेकर आज तक जीएसटी में रियायतों के बाद उत्पादों या सेवाओं की कीमतें कम हुई भी हैं क्योंकि कंपनियां लागत बढऩे के कारण मूल्य बढ़ा रही हैं. जीएसटी के तहत मुनाफाखोरी रोकने वाला तंत्र अभी शुरू नहीं हुआ जिससे पता चले कि रियायतों का फायदा किसे मिला है.

रियायतों के असर से खपत या मांग बढऩे या कंपनियों का कारोबार बढऩे के प्रमाण भी नहीं हैं.

तो फिर अचानक इस टैक्स दयालुता की वजह

·       पिछले 18 माह में सरकार को एहसास हो गया है कि राजस्व के मामले में मासिक एक लाख करोड़ रु. के संग्रह का लक्ष्य फिलहाल मुश्किल है. सेवाओं से टैक्‍स संग्रह में कमी आई है. जीएसटी अब केवल बड़े निर्माता और सेवा प्रदाता (जो पिछली प्रणाली में भी प्रमुख करदाता थे) के कर योगदान पर चल रहा है. छोटे करदाता और नए पंजीकरण वाले कारोबारी रियायतों की मदद से टैक्स चोरी के पुराने ढर्रे पर लौट आए हैं.

·       जीएसटी में अभी औसतन 60 फीसदी कारोबारी रिटर्न भर रहे हैं. ई वे बिल लागू होने के बाद पारदर्शिता आने की उम्मीदें भी खेत रही हैं. चुनाव के मद्देजनर टैक्स चोरी पर सख्ती मुश्किल है.

·       जीएसटी की प्रणालियां व नियम अभी तक स्थिर नहीं हैं. रफू-पैबंद जारी हैं. 

·       इसलिए चुनाव से पहले सरकार ने दो काम किए एकरिटर्न फॉर्म सालाना रिटर्न (9को अगले साल तक के लिए टाल दिया. इसके बिना करदाताओं के हिसाब सुचारु (इनवॉयस मैचिंग) करना और टैक्स क्रेडिट संभव नहीं है. यही वजह है कि जीएसटी का अर्थव्यवस्था पर कोई सकारात्मक असर नहीं दिखा. दोजीएसटी तो चल नहीं रहा तो इससे कम से कम चुनावी फायदा ही हो जाए.

जीएसटी के सियासी इस्तेमाल का केंद्र सरकार के पास यह आखिरी मौका था. पिछले 18 महीने में देश का राजनैतिक भूगोल बदल गया है. जीएसटी काउंसिल में अब विपक्ष के राज्यों की संख्या बढ़ चुकी है इसलिए आगे सहमति मुश्किल होने वाली है. काउंसिल की हालिया बैठक में इसके संकेत भी मिले. विपक्ष शासित राज्यजीएसटी को सिरे से बदलने की बातें करने लगे हैं.

कभी किसी मंत्री ने कहा था कि देश में हवाई चप्पल या कार पर एक जैसा कर नहीं हो सकता (अब 99 फीसदी...) या जीएसटी देश से टैक्स चोरी को मिटा देगा अथवा इससे कारोबार की लागत कम होगी या इससे जीडीपी बढ़ जाएगा. आज सरकार इन पर सवाल भी सुनना नहीं चाहती.

क्या जीएसटी राज्यों के वैट जैसे भविष्य की तरफ बढ़ रहा हैअपने शुरुआती वर्षों (2005-08में सफलता के बादराजनीति और वित्तीय दिक्कतों के चलते राज्यों ने वैट का अनुशासन तार-तार कर दिया. हालांकि जीएसटी वैट से कहीं ज्यादा सुगठित है लेकिन जब केंद्र सरकार ही चुनावी राजनीति के खातिर इसके अनुशासन का मुरब्बा बना चुकी तो राज्य भी अनुशासन तोड़ेंगे. ई वे बिल में राज्य स्तरीय रियायतें इसका नमूना हैं.

इसी फरवरी में हमने लिखा था कि जीएसटी का सुधारवाद अब इतिहास की बात है. भारत का सबसे नया सुधार सिर्फ सात माह में पुराने रेडियो की तरह हो गयाजिसे ठोक-पीट कर चलाया जा रहा है. अठारह माह बाद इस रेडियो में अब केवल चुनावी प्रसारण चल रहे हैं. कहना मुश्किल है कि अगले साल जीएसटी का क्या होगा लेकिन 2019 लगते-लगते यह साबित हो गया है कि हमारी सियासत सुधारों की समझ और साहस सिरे से दरिद्र हैं.

Monday, October 22, 2018

बाजी पलटने वाले!


सियासत अगर इतिहास को नकारे नहीं तो नेताओं पर कौन भरोसा करेगा? सियासत यह दुहाई देकर ही आगे बढ़ती है कि इतिहास हमेशा खुद को नहीं दोहराता लेकिन बाजार इतिहास का हलफनामा लेकर टहलता है, उम्मीदों पर दांव लगाने के लिए वह अतीत से राय जरूर लेता है. 
जैसे गांवों या खेती को ही लें.
इस महीने की शुरुआत में जब किसान दिल्ली की दहलीज पर जुटे थे तब सरकार को इसमें सियासत नजर आ रही थी लेकिन आर्थिक दुनिया कुछ दूसरी उधेड़बुन में थी. निवेशकों को 2004 और 2014 याद आ रहे थे जब आमतौर पर अर्थव्यवस्था का माहौल इतना खराब नहीं था लेकिन सूखा, ग्रामीण मंदी व आय में कमी के कारण सरकारें भू लोट हो गईं.
चुनावों के मौके पर भारतीय राजनीति की भारत माता पूरी तरह ग्रामवासिनी हो जाती है. अर्थव्यवस्था और राजनीति के रिश्ते विदेशी निवेश या शहरी उपभोग की रोशनी में नहीं बल्कि लोकसभा की उन 452 ग्रामीण सीटों की रोशनी में पढ़े जाते हैं जहां से सरकार बनती या मिट जाती है.
समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी और कर्ज माफी के बावजूद गांवों में इतनी निराशा या गुस्सा क्यों है?
पानी रे पानी: 2015 से 2018 तक भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था गहरी मंदी से जूझती रही है. पहले दो साल (2015 और 2016) सूखा, फिर बाद के दो वर्षों में सामान्य से कम बारिश रही और इस साल तो मॉनसून में सामान्य से करीब 9 फीसदी कम बरसात हुई जो 2014 के बाद सबसे खराब मॉनसून है. हरियाणा, पंजाब, गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र (प्रमुख खाद्यान्न उत्पादक राज्य) में 2015 से 2019 के बीच मॉनूसन ने बार-बार धोखा दिया है. इन राज्यों के आर्थिक उत्पादन में खेती का हिस्सा 17 से 37 फीसदी तक है.
यह वह मंदी नहीं: दिल्ली के हाकिमों की निगाह अनाजों के पार नहीं जाती. उन्हें लगता है कि अनाज का समर्थन मूल्य बढ़ाने से गांवों में हीरे-मोती बिछ जाएंगे. लेकिन मंदी तो कहीं और है. दूध और फल सब्जी का उत्पादन बढऩे की रफ्तार अनाज की तुलना में चार से आठ गुना ज्यादा है. छोटे मझोले किसानों की कमाई में इनका हिस्सा 20 से 30 फीसदी है. पिछले तीन साल में इन दोनों उत्पाद वर्गों को मंदी ने चपेटा है. बुनियादी ढांचे की कमी और सीमित प्रसंस्करण सुविधाओं के कारण दोनों में उत्पादन की भरमार है और कीमतें कम. इसलिए दूध की कीमत को लेकर आंदोलन हो रहे हैं. उपभोक्ता महंगाई के आंकड़े इस मंदी की ताकीद करते हैं.
गांवों में गुस्सा यूं ही नहीं खदबदा रहा है. शहरी मंदी, गांवों की मुसीबत बढ़ा रही है. पिछले दो साल में बड़े पैमाने पर शहरों से गांवों की ओर श्रमिकों का पलायन हुआ है. गांव में अब काम कम और उसे मांगने वाले हाथ ज्यादा हैं तो मजदूरी कैसे बढ़ेगी?  
कमाई कहां है ?: गांवों में मजदूरी की दर पिछले छह माह में गिरते हुए तीन फीसदी पर आ गई जो पिछले दस साल का सबसे निचला स्तर है. एक ताजा रिपोर्ट (जेएम फाइनेंशियल-रूरल सफारी) बताती है कि सूखे के पिछले दौर में भवन निर्माण, बालू खनन, बुनियादी ढांचा निर्माण, डेयरी, पोल्ट्री आदि से गैर कृषि आय ने गांवों की मदद की थी. लेकिन नोटबंदी जीएसटी के बाद इस पर भी असर पड़ा है. गैर कृषि आय कम होने का सबसे ज्यादा असर पूर्वी भारत के राज्यों में दिखता है. इस बीच गांवों में जमीन की कीमतों में भी 2015 के बाद से लगातार गिरावट आई है.
महंगाई के पंजे: अनाज से समर्थन मूल्य में जितनी बढ़त हुई है उसका एक बड़ा हिस्सा तो रबी की खेती की बढ़ी हुई लागत चाट जाएगी. कच्चे तेल की आग उर्वरकों के कच्चे माल तक फैलने के बाद उवर्रकों की कीमत 5 से 28 फीसदी तक बढऩे वाली है. डीएपी की कीमत तो बढ़ ही गई है, महंगा डीजल रबी की सिंसचाई महंगी करेगा.
मॉनसून के असर, ग्रामीण आय में कमी और गांवों में मंदी को अब आर्थिक के बजाए राजनैतिक आंकड़ों की रोशनी में देखने का मौका आ गया है. याद रहे कि गुजरात के चुनावों में गांवों के गुस्से ने भाजपा को हार की दहलीज तक पहुंचा दिया था. मध्य प्रदेश जनादेश देने की कतार में है.  
हरियाणा, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां 2015 से 2019 के बीच दो से लेकर पांच साल तक मॉनसून खराब रहा है; ग्रामीण आय बढऩे की रफ्तार में ये राज्य सबसे पीछे और किसान आत्महत्या में सबसे आगे हैं.
सनद रहे कि ग्रामीण मंदी से प्रभावित इन राज्यों में लोकसभा की 204 सीटे हैं. और इतिहास बताता है कि भारत के गांव चुनावी उम्मीदों के सबसे अप्रत्याशित दुश्मन हैं.


Saturday, May 5, 2018

अच्छे दिनों की कमाई


अमेरिकी अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन कहते थे कि किसी सरकार को सहारा के रेगिस्तान की जिम्मेदारी दे दीजिएपांच साल बाद वहां रेत की कमी हो जाएगी... 


अपने आसपास के किसी भी पेट्रोल पंप परफ्रीडमैन के तंज की समानार्थी देशज बड़बड़ाहटें सुनी जा सकती हैं. पिछले चार साल में पेट्रोल-डीजल की सबसे ऊंची कीमत चुकाते हुए लोग उस बचत की तलाश में मुब्तिला हैं जो सस्ते तेल के अच्छे दिनों के दौरान सरकार को हुई थी.


अच्छे दिनों के जितने मुंह उतने मतलब हैंअलबत्ता  उन दिनों की इस पहचान पर कोई टंटा शायद नहीं होगा कि एक लंबे वक्‍त के बाद पूरे चार साल (2014 से 2018) तक कच्चे तेल की कीमतें ललचाने वाले स्तर तक कम थीं. उपभोक्‍ताओं के लिए पेट्रोल डीजल इस दौरान भी महंगा रहा क्‍यों कि सरकार ने पेट्रो परिवार पर दबा कर एक्साइज ड्यूटी बढ़ाई थी.

कितनी बचत या कमाई हुई थी सरकार कोकहां गई वहक्या तेल की बढ़ती कीमतों से सरकार हमें बचा पाएगी?

आइएआंकड़े फींचते हैं 

- वह 2014 की दूसरी छमाही थी जब तेल की घटती कीमतों का त्योहार (जुलाई 2008-132 डॉलरजून 2014-46 डॉलर प्रति बैरल) शुरू हुआ जो 2017-18 की आखिरी तिमाही तक चला. इसी दौरान सरकार ने पेट्रो उत्पादों की कीमतों को बाजार को सौंप दिया और कंपनियां कच्चे तेल और अन्य लागतों के हिसाब से कीमतों को रोज बदलने लगीं.

- कच्चा तेल सस्ता हुआ लेकिन पेट्रोल-डीजल नहीं क्योंकि 2017 तक सरकार ने पेट्रोल पर 21.5 रु. और डीजल पर 17.3 रु. प्रति लीटर की एक्साटइज ड्यूटी लगा दी थी.

- इस बढ़े हुए टैक्स के कारण 2017 में पेट्रो एक्साइज ड्यूटी का संग्रह जीडीपी के अनुपात में 1.6 फीसदी यानी पर पहुंच गया जो 2014 में केवल 0.7 फीसदी थी. यह पिछले दशकों में तेल पर रिकॉर्ड टैक्स संग्रह था.

- इस कमाई का इस्तेमाल हुआएक-14वें वित्त आयोग की सिफारिश के मुताबिक राज्यों को ज्यादा संसाधन आवंटन और दो-सरकारी कर्मचारियों को सातवें वेतन आयोग के भुगतान के लिए.

- सस्ते कच्चे तेल वाले अच्छे दिनों में दो और फायदे हुए. थोक (5.2 से 1.8%) और खुदरा ( 9.4 से 4.5%) महंगाई घट गई. साथ ही सस्ते आयात के चलते विदेशी मोर्चे पर राहत आई. विदेशी आय-व्यय का अंतर बताने वाला करेंट एकाउंट डेफिसिट कम हो गया

यह थी अच्छे दिनों की कमाई और उसका खर्च... अब बारी है महंगे तेल के साथ आगे की चढ़ाई की.

- कच्चे तेल की वर्तमान कीमत (74-75 डॉलर प्रति बैरल) में प्रति दस डॉलर से महंगाई में 0.50 फीसदी की बढ़ोतरी होगी क्योंकि पेट्रो उत्पाद महंगे होंगे

- दस डॉलर प्रति बैरल की प्रत्येक तेजी पर करेंट एकाउंट डेफिसिट में 0.60 फीसदी की बढ़त और रुपए में कमजोरी

- अब अगर महंगाई रोकनी है तो सरकार को एक्साइज ड्यूटी घटानी होगी यानी दो रु. प्रति लीटर की एक्साइज ड्यूटी कमी से 280 अरब रु. के राजस्व का नुक्सान और केरोसिन व एलपीजी सब्सिडी में भारी इजाफा अलग से.

चुनावी चुनौती से भरपूर महंगे दिनों के लिए वित्त मंत्री अरुण जेटली और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अब राज्यों की मदद चाहिए.

- राज्यों को तेल की महंगाई रोकने के लिए वैट घटाना होगा. जो फायदा उन्हें मिला था वह लौटाना होगा. लेकिन यह असंभव है क्योंकि केंद्र से भरपूर मदद के बावजूद राज्यों की वित्तीय हालत बिगड़ती गई है

- पेट्रोल-डीजल को जीएसटी के दायरे में लाने की उम्‍मीद अब खत्म हो गई है. कीमतें बढ़ रही हैं और राजस्व में गिरावट रुकने की उम्मीद नहीं है

पिछले चार साल में सरकार ने सस्ते तेल पर भारी टैक्स थोपा लेकिन इस कमाई को संजोने का सूझबूझ भरा तरीका नहीं निकाला. जब दुनिया सस्ते कच्चे तेल का आनंद ले रही थी तब हम महंगा ईंधन इस उम्मीद से खरीद रहे थे कि सरकार जो टैक्स लगा रही है उससे आगे की मुश्किलें हल होंगी. लेकिन राजकोषीय आंकड़ों को कंघी करने से यह नजर आता है कि चार साल के दौरान वित्त मंत्री का सारा बजटीय कौशलदरअसलसस्ते कच्चे तेल और भारी टैक्स पर टिका था. सस्ते तेल के अच्छे दिन बीतते ही सब कुछ बदलने लगा है. 

तेल फिर खौल रहा है. इसमें उपभोक्ता भी झुलसेंगे और तेल कंपनियां भी. सरकारें चुनाव देखकर तेल की कीमतों की राजनीति करेंगी. 2014 के पहले भी यही तो हो रहा था.

हम बुद्धू लौट कर वापस घर आ गए हैं.  


कच्चा तेल जब सस्ता था तब सरकार ने खूब टैक्स लगायाअब हिसाब मांगने की बारी है