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Saturday, January 30, 2021

सबसे बड़ी कसौटी

 


अगर आप बजट से तर्कसंगत उम्मीदें नहीं रखते या हकीकतों से गाफिल हैं तो फिर निराश होने की तैयारी रखि‍ए!

क्या कहा वित्त मंत्री बोल चुकी हैं कि यह बजट अभू‍तपूर्व होने वाला है? 

यकीनन इस बजट को अभूतपूर्व ही होना चाहिए, उससे कम पर काम भी नहीं चलेगा क्योंकि भारत 1952 के बाद सबसे बुरी आर्थि‍क हालत में है.

यानी कि बीरबल वाली कहानी के मुताबिक दिल्ली की कड़कड़ाती सर्दी में चंद्रमा से गर्मी मिल जाए या दो मंजिल ऊंची टंगी हांडी पर खि‍चड़ी भी पक जाए लेकिन यह बजट पुराने तौर तरीकों और एक दिन की सुर्खि‍यों से अभूतपूर्व नहीं होगा. कम से कम इस बार तो बजट की पूरी इबारत ही बदलनी होगी क्योंकि इसे दो ही पैमानों कसा जाएगा:

क्या लॉकडाउन में गई नौकरियां बजट के बाद लौटेंगी?

सरकारी कर्मियों के डीए से लेकर लाखों निजी कंपनियों में काटे गए वेतन वापस हो जाएंगे.

ऐसा इसलिए कि भारत की अर्थव्यवस्था की तासीर ही कुछ फर्क है. हमारी अर्थव्यवस्था अमेरिका, ब्रिटेन या यूरोपीय समुदाय की पांत में खड़ी होती है जहां आधे से ज्यादा जीडीपी (56-57 फीसद) आम लोगों के खपत-खर्च से बनता है. यह प्रतिशत चीन से करीब दोगुना है.

केंद्र सरकार पूरे साल में जि‍तना खर्च (कुल बजट 30 लाख करोड़ रुपए) करती है, उतना खर्च आम लोग केवल दो माह में करते हैं. और करीब से देखें तो देश में होने वाले कुल पूंजी निवेश (जिससे उत्पादन और रोजगार निकलते हैं) में केंद्रीय बजट का हिस्सा केवल 5 फीसद है, इसलिए बजट से कुछ नहीं हो पाता.

केंद्र और राज्य सरकारें साल में कुल 54 लाख करोड़ रुपए खर्च करते हैं जो जीडीपी का 27 फीसद है. यह खर्च भी तब ही संभव है जब लोगों की जेब में पैसे हों और वे खर्च करें. इस खपत से वसूला गया टैक्स सरकारों को मनचाहे खर्च करने का मौका देता है. जो कमी पड़ती है उसके लिए सरकार लोगों की बचत में सेंध लगाती है, यानी बैंकों से कर्ज लेती है.

सरकार ने आत्मनिर्भर पैकेजों के ढोल पीट लिए लेकिन अर्थव्यवस्था उठ नहीं पाई क्योंकि इस मंदी में अर्थव्यवस्था की बुनियादी ताकत यानी आम लोगों की खपत 9.5 फीसद सिकुड़ (बीते साल 5.30 फीसद की बढ़त) गई. कंपनियों के निवेश से लेकर टैक्स और जीडीपी तक सब कुछ इसी अनुपात में गिरा है.

मंदी दूर करने के लिए वित्त मंत्री को तय करना होगा कि पहले वे सरकार का बजट ठीक करना चाहती हैं या आम लोगों का और, यकीन मानिए यह चुनाव बहुत आसान नहीं होने वाला.

भारत में सरकार जितनी बड़ी होती जाती है आम लोगों के बजट उतने ही छोटे होते जाते हैं. मंदी और बेकारी के बीच (सस्ते कच्चे तेल के बावजूद) केंद्र सरकार ने सड़क-पुल बनाने के वास्ते पेट्रोल-डीजल महंगे नहीं किए बल्कि‍ वह अपने दैत्याकार खर्च के लिए हमें निचोड़ रही है. केंद्र का 75 फीसद खर्च (रक्षा, सब्सि‍डी, कर्ज पर ब्याज, वेतन-पेंशन) तो ऐसा है जिस पर कैंची चलाना असंभव है.

मंदी तो आम लोगों का बजट ठीक होने से दूर होगी. यानी कि लोगों के हाथ में ज्यादा पैसा छोडऩा होगा या पेट्रोल-डीजल सस्ता करना होगा, बड़े पैमाने पर टैक्स घटाना होगा.

लेकिन सतर्क रहिए हालात कुछ ऐसे हैं कि अपने बजट की खातिर सरकार हमारा बजट बिगाड़ सकती है. यानी कि कोरोना या जीएसटी सेस लगाया जा सकता है. ऊंची आय वालों पर इनकम टैक्स और पूंजी लाभ कर दर बढ़ सकती है.

मुसीबत यह है कि सरकार अपने खर्च के जुगाड़ के लिए टैक्स आदि थोपने के बाद भी व्यापक खपत को रियायत नहीं देती. रियायतें कंपनियों को मिलती हैं, जिन्होंने मंदी में दिखा दिया कि वे रियायतों को मुनाफे में बदलती हैं, रोजगार और मांग में नहीं.

याद रहे कि पिछले बजट भी कमजोर नहीं थे इसलिए 2016 में अर्थव्यवस्था गिरी तो गिरती चली गई. भारतीय बजट आंख पर पट्टी बांधे व्यक्ति की तरह चुनिंदा हाथों में पैसा रखते-उठाते रहते हैं, बीते एक साल में यही हुआ है. मदद बेरोजगारों को चाहिए थी और विटामिन कंपनियों को दिया गया. लोगों की जेब में पैसे बचने चाहिए थे तो टैक्स बढ़ाकर पेट्रोल-डीजल खौला दिए गए इसलिए लॉकाडाउन हटने के बाद महंगाई और बेरोजगारी गहरा गए.

बीते एक बरस में मंदी दूर करने की सभी कोशि‍शें हो चुकी हैं. बजट आंकड़े खुली किताब हैं. बड़ी योजनाओं पर खर्च तो दूर, ऐक्ट ऑफ गॉड की शि‍कार केंद्र सरकार के पास राज्यों को टैक्स में हिस्सा देने के संसाधन भी नहीं हैं. इसलिए बजट को केवल अधि‍क से अधि‍क लोगों की आय में सीधी बढ़त पर केंद्रित करना होगा. महामंदी से जंग लोगों को लडऩी है. अगले एक साल में करोड़ों परिवारों का बजट नहीं सुधरा तो मंदी का इलाज तो दूर, संसाधनों की कमी से सरकार के कई अनि‍वार्य खर्च भी संकट में फंस जाएंगे.

Friday, December 4, 2020

आंगन सूखा, घर में पानी

 

गोल्ड रश फिल्म में चार्ली चैप्लिन भूख के कारण जूता उबाल कर खाते हैं. उसका एक दृश्य है जिसमें सोने की तलाश में निकले (खनिक) चैप्लिन को बर्फीले बियाबान में एक साइनबोर्ड दिखता है. रास्ता भूल चुके चैप्लिन दौड़ कर उसके पास पहुंचते हैं तो उन्हें पता चलता कि वह दरअसल एक व्यक्तिके कब्र की सूचना है जो बर्फीले तूफान फंस कर मर गया था.

चैप्लिन कहते थे कि जिंदगी करीब से देखने पर त्रासदी है और दूर से देखने पर कॉमेडी. कोविड के बाद भारत में विकास के ताजे आंकड़े भी ऐसे ही हैं. मंदी आधिकारिक (लगातार दो तिमाहियों में नकारात्मक विकास दर) तौर आ चुकी है लेकिन कंपनियों के मुनाफों में ग्रोथ देखते बनती है. गांव-शहर के बाजारों में मांग की अंतहीन अमावस है अलबत्ता शेयर बाजार में चिरंतन धनतेरस जारी है.

जुलाई-सितंबर के दौरान अर्थव्यवस्था में कुछ चेतना लौटती दिखी लेकिन ठीक उसी तिमाही में बेरोजगारी (तिमाही और मासिक) ज्यादा गहरा गई. उसी तिमाही में शेयर बाजार में सूचीबद्ध कंपनियों का मुनाफा (सालाना आधार पर) 129 फीसद बढ़ा जो मंदियों के पिछले भारतीय इतिहास में सबसे ज्यादा है.

मांग के बिना ग्रोथ, मुनाफों के बावजूद भयानक बेकारी! क्या है यह उलटबांसी?

लॉकडाउन ने बड़ी कंपनियों की खूब मदद की. खर्च कम हो गए, कर्ज का भुगतान टाल दिया गया, टैक्स में रियायतें पहले से मिल रही थीं. कंपनियों की बिक्री नहीं बढ़ी (टॉपलाइन) यानी मांग लौटी लेकिन लॉकडाउन में हुई बचत और सरकारी रियायत से मुनाफे फूल गए यानी बॉटमलाइन बेहतर हो गई. रिकॉर्ड बेरोजगारी ने साबित किया कि कॉर्पोरेट मुनाफों और रोजगार के बीच कोई रिश्ता नहीं है.

सीएमआइई के अध्ययन के मुताबिक, कोविड की मार के बावजूद 2020-21 के पहले छह माह में सभी (शेयर बाजार सहित) कंपनियों के मुनाफे करीब 24 फीसद बढ़े अलबत्ता वेतन में बढ़ोतरी नगण्य थी. मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों ने सितंबर की तिमाही मुनाफे में करीब 18 फीसद बढ़त के बदले वेतन में कटौती की. बैंकिंग और सूचना तकनीक कंपनियों के अलावा सभी क्षेत्रों में जून और सितंबर की तिमाही में वेतन 9 और 6 फीसद गिरे.

नतीजतन अक्तूबर में 55 लाख नए बेरोजगार जुड़े. नवंबर में बेकारी दर नई ऊंचाई पर पहुंची. रोजगार मिलने की गति जून के बाद न्यूनतम हो गई. अक्तूबर में गांवों में अस्थायी रोजगार भी कम हुए (सीएमआइई). सनद रहे कि इसी दौरान दो करोड़ मध्य वर्गीय नौकरियां गईं.

भारत में श्रम लागत का हिस्सा है इसलिए कंपनियों ने नौकरियां-वेतन काटकर लागत में दोगुनी तक कमी दर्ज की है, जबकि अन्य देशों में सरकारों की सहायता से कंपनियों को रोजगार बचाए.

कर्मचारी अभागे थे निवेशक नहीं. हर तरह से मंदी के बावजूद इन कृत्रिम मुनाफों ने शेयर बाजारों को रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंचाया, अंतरिम लाभांश बांटे गए, कंपनियों ने अपने शेयर वापस (बाइ-बैक) किए और निवेशकों ने खूब मुनाफा कमाया.

खेती ने जीडीपी को पूरी तरह ध्वस्त होने से बचाया है. एग्री कंपनियों के मुनाफे और शेयर मूल्य नए कीर्तिमान बना रहे हैं. निवेशकों पर लक्ष्मी मेहरबान हैं और किसान सड़क पर हैं!

कंपनियां कमा रही हैं तो अगली तीन-चार तिमाहियों में जीडीपी उबरने की उम्मीद क्यों नहीं है? वजह देश के तिहाई रोजगार (11 करोड़) छाटे उद्योगों से आते हैं जो जीडीपी का 29 फीसद (फैक्ट्री उत्पादन में 45 और सर्विसेज में 25 फीसद) का हिस्सा रखते हैं.

आत्मनिर्भर पैकेज ने बताया कि सरकार की गारंटी के बावजूद छोटे उद्योग कर्ज लेने की हिम्मत नहीं जुटा सके. सनद रहे कि भारत में केवल 20 फीसद छोटे उद्योग की पहुंच बैंकों तक है.

तो आगे क्या होगा?

जीडीपी के सबसे बड़े आधार टूट गए हैं. छोटे उद्योगों के उत्पादन (रोजगार) और मध्य वर्ग के लिए संगठित क्षेत्र में नौकरियां में गिरावट के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था की रिकवरी बेहद धीमी होगी

बड़ी कंपनियां अकेले मांग को पटरी पर नहीं ला सकतीं इसलिए वे मुनाफे-बचत से अधिग्रहण के जरिए बाजार कब्जाएंगी

नुक्सान भरपाई लिए फैक्ट्री उत्पादों की कीमतें भी बढ़ने लगी हैं, यानी मरियल मांग और टूटती कमाई पर महंगाई का बोझ आ ही गया. इसलिए बाजार में खपत या मांग नहीं है.

चेकस्लोवाकिया के पूर्व राष्ट्रपति और लेखक वाक्लाव हॉवेल ने लिखा था कि यह हास्यबोध ही है जो हालात के बेतुके और विद्रूप आयामों को पढ़ने में हमारी मदद करता है. हम खुद पर और दूसरे पर हंस कर ही वक्त की पैरोडी और परिस्थितियों का व्यंग्य समझ सकते हैं.

अगले 9 से 12 महीनों तक विकास दर को पंख नहीं उगने वाले. अर्थव्यवस्था अपनी विसंगतियों, विद्रूपताओं और परस्पर विरोधी संकेतों से हमें चौकाएगी. गए हुए रोजगारों और वेतन कटौतियों की वापसी के बाद ही ग्रोथ की गिनती शुरू होगी. तभी मौसम में बदलाव महसूस होगा. तब सहना और हंसना हमारे वश में है.