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Saturday, April 20, 2019

चुनिए, सिर धुनिए


‘‘मतदाता को क्या मतलब कि राजनैतिक दल चंदा से कहां जुटाते हैंउनका मतलब केवल प्रत्याशी से है’’ —सुप्रीम कोर्ट को सरकार का जवाब (अप्रैल 2019)


अपराधियों को चुनाव से दूर रखने के लिए संसद को कानून बनाना चाहिए —सुप्रीम कोर्ट की सलाह (सितंबर 2018) पर सरकार ने कानों में रुई ठूंस ली

''आपराधिक रिकार्ड वाले प्रत्याशियों का ब्योरा प्रमुख अखबारों में छपना चाहिए.'' चुनाव आयोग को सुप्रीम कोर्ट के आदेश (सितंबर 2018) पर कोई कार्रवाई नहीं

उंगली पर स्याही लगाकर दीवाने हुए जाते आम लोग ही लोकशाही की जिम्मेदारी उठाने के लिए बने हैंचंदों की गंदगीअपराधी नेताओं और अनंत चुनावी झूठ से उनको कोई फर्क नहीं पड़ता जिनको चुनने के लिए हमें ‘पहले मतदान फिर जलपान’ का ज्ञान दिया जाता हैऔर उनका क्या जो राजनीति को अपराध मुक्त करने की कसम उठाकर सत्ता में आए थे!

यह 2014 का अप्रैल थावाराणसी से कांग्रेस के प्रत्याशी का नाम हथियारों के सौदे में आया थाहरदोई की रैली में नरेंद्र मोदी ने वादा किया कि ‘‘सत्ता में आने के बाद सरकार एक कमेटी बनाएगी जो चुनाव आयोग को मिले हलफनामों के आधार पर सांसदों के आपराधिक रिकार्ड की जांच कर सुप्रीम कोर्ट से मुकदमा चलाने के लिए कहेगीइन्हें जेल भेजा जाएगाचाहे इनमें भाजपा या एनडीए के सांसद ही क्यों न हों."

नरेंद्र मोदी जीत गए और राजनीति को अपराध मुक्त करने का वादा हरदोई के मैदान में ही पड़ा रह गयाअलबत्ता थे कुछ जिद्दी लोग जो सियासत और जरायम के गठजोड़ को खत्म करने की मुहिम लेकर सबसे बड़ी अदालत पहुंच गएसुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने पिछले साल सरकार से कहा कि अपराधी प्रत्याशी कैंसर हैंचुनाव जिताऊ प्रत्याशी के तर्क से लोकतंत्र का गला घोंटना बंद किया जाएयह संसद की जिम्मेदारी है कि वह कानून बनाकर अपराधियों को हमेशा के लिए चुनावों से दूर करेइस आदेश के बाद भी प्रधानमंत्री को हरदोई वाला वादा याद नहीं आया!

चुनाव आयोग और सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश का इतना अमल भी सुनिश्चित नहीं करा सके कि कम से कम अपराधी प्रत्याशियों के बारे में कायदे से प्रचार किया जाए ताकि लोग यह जान सकें कि वे किसे अपना चौकीदार बनाने जा रहे हैंअब सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को अवमानना का नोटिस भेजा है.

सनद रहे कि इस लोकसभा चुनाव के पहले दो चरणों में 464 प्रत्याशी ‘अपराधी’ हैंइनमें 46 चौकीदारों (भाजपाऔर 58 न्यायकारों (कांग्रेसके हलफनामों में जरायम दर्ज हैअन्य प्रमुख दलों के करीब 61 अपराधी प्रत्याशी (एडीआर रिपोर्टहमें हमारी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी सिखा रहे हैं.

गलत सोचते थे हम कि जब बहुमत की सरकार होगीताकतवर नेता होगादेश के अधिकांश हिस्से में एक दल का राज होगा तो हमें ऐसे सुधार मिलेंगे जिनकी छाया में हम अपने लोकतंत्र पर गर्व कर सकेंगेलेकिन अब तो

·       जरा-सी बात पर तुनक कर कार्रवाई करने वाला सुप्रीम कोर्टइलेक्टोरल बांड से चंदे का ब्योरा सार्वजनिक करने का आदेश दे सकता था लेकिन उसने सूचनाओं को फाइलों में दबाकर अगली तारीख लगा दी.

·       जजों की नियुक्ति पर सरकार से जूझने वाली सबसे बड़ी अदालत अपराधी नेताओं के लिए कानून बनाने पर सरकार को बाध्य कर सकती थी लेकिन उसने उपदेश देकर बात खत्म कर दी.

·       अपराधी प्रत्याशी के ब्योरे का पर्याप्त प्रचार न होने पर पर्चे खारिज करने का आदेश देने में क्या हर्ज था?

इस बार चुनाव में वोटरों की लाइनें नोटबंदी की कतारों जैसी लग रहीं हैंमतदाता धूप में तप कर अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी पर बिछे जा रहे हैंलेकिन जैसे नोटबंदी के दौरान सियासी दलकंपनियां और बैंक पिछले दरवाजे से लोगों के विश्वास का सौदा कर रहे थे ठीक उसी तरह संवैधानिक संस्थाएं वह सब धतकरम होने देना चाहती हैं जिनके बाद लोकतंत्र के इस संस्करण पर भरोसा मुश्किल से बचेगा.

दुनिया में कई जगह लोकतंत्र हैलोग वोट भी देते हैं लेकिन वहां पालतू संसद चुनी जाती हैसंविधानों को उमेठ दिया जाता हैआजादियों को न्यूनतम रखा जाता हैसत्ता के फायदों को अपने तरीके से बांटा जाता हैहम ऐसा लोकतंत्र हरगिज नहीं चाहते जिसमें वोटर अपनी जिम्मेदारी निभाएं लेकिन वोट लेने वाले पूरी बेशर्मी के साथ कुछ भी करते चले जाएं !

मतदाता और रैली में जुटी किराये की भीड़ में फर्क बनाए रखना होगामतदान हमेशा स्वीकार ही नहीं होताइसे सवाल या इनकार भी बनाया जा सकता हैवोट देना हमारी मजबूती हैमजबूरी नहीं.


Sunday, January 14, 2018

अंधेरा कायम है...

किसी को कैसे विश्वास होगा कि जो सरकार देश के करोड़ों लोगों को अपनी ईमानदारी साबित करने के लिए नोट बदलने के लिए बैंकों की लाइनों में लगा सकती हैवह नैतिक और संवैधानिक तौर पर देश के सबसे जिम्मेदार वर्ग को जरा-सी पारदर्शिता के लिए प्रेरित नहीं कर सकती!

जो व्यवस्था आम लोगों के प्रत्येक कामकाज पर निगरानी चाहती है वह देश के राजनैतिक दलों को इतना भी बताने पर बाध्य नहीं कर सकती कि आखिर उन्हें चंदा कौन देता है?

नए इलेक्टोरल बॉन्ड या राजनैतिक चंदा कूपन की स्कीम देखने के बाद हम लिख सकते हैं कि राजनीति अगर चालाक हो तो वह अवैध को अवैध बनाए रखने के वैध तंत्र (बैंक) को बीच में ला सकती है. इलेक्टोरल बॉन्ड या कूपन इसी चतुर रणनीति के उत्पाद हैंजहां बैंकों का इस्तेमाल अवैधता को ढकने के लिए होगा.

- स्टेट बैंक चंदा कूपन (1,000, 10,000, एक लाखदस लाखएक करोड़ रुपए) बेचेगा. निर्धारित औपचारिकताओं के बाद इन्हें खरीद कर राजनैतिक दलों को दिया जा सकेगा. राजनैतिक दल 15 दिन के भीतर इसे बैंक से भुना लेंगे. कूपन से मिले चंदे की जानकारी सियासी दलों को अपने रिटर्न (इनकम टैक्स और चुनाव आयोग) में देनी होगी.

- दरअसलइलेक्टोरल बॉन्ड एक नई तरह की करेंसी है जिसका इस्तेमाल केवल सियासी चंदे के लिए होगा.

समझना जरूरी है कि भारत में राजनैतिक चंदे दागी क्यों हैं. यह इसलिए नहीं कि वे नकद में दिए जाते हैं. 2016 में नोटबंदी के ठीक बीचोबीच राजनैतिक दलों को 2,000 रुपए का चंदा नकद लेने की छूट मिली थी जो आज भी कायम है. चंदे इसलिए विवादित हैं क्योंकि देश को कभी यह पता नहीं चलता कि कौन किस राजनैतिक दल को चंदा दे रहा हैइस कूपन पर भी चंदा देने वाले का नाम नहीं होगा. यानी यह सियासी चंदे को उसके समग्र अवैध रूप में सुविधाजनक बनाने का रास्ता है.

सियासी चंदे को कितनी रियायतें मिलती हैंआइए गिनती कीजिएः

- अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने राजनैतिक चंदे को वीआइपी बना दिया था. चंदा देने वाली कंपनियां इसे अपने खाते में खर्च दिखाकर टैक्स से छूट ले सकती हैं जबकि सियासी दलों के लिए चंदे पूरे तरह टैक्स से मुक्त हैं. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स के आंकड़े बताते हैं कि 2012-16 के बीच पांच प्रमुख पार्टियों को उनका 89 फीसदी (945 करोड़ रुपए) चंदा कंपनियों से मिला. यह लेनदेन पूरी तरह टैक्स फ्री है.

- कांग्रेस की सरकार ने चंदे के लिए इलेक्टोरल ट्रस्ट बनाने की सुविधा दीजिसके जरिए सियासी दलों को पैसा दिया जाता है.

- नोटबंदी हुई तो भी राजनैतिक दलों के नकद चंदे (2000 रुपये तक) बहाल रहे.

- मोदी सरकार एक और कदम आगे चली गई. वित्त विधेयक 2017 में कंपनियों के लिए राजनैतिक चंदे पर लगी अधिकतम सीमा हटा ली गई. इससे पहले तक कंपनियां अपने तीन साल के शुद्ध लाभ का अधिकतम 7.5 फीसदी हिस्सा ही सियासी चंदे के तौर पर दे सकती थीं. कंपनियों को यह  बताने की शर्त से भी छूट मिल गई कि उन्होंने किस दल को कितना पैसा दिया है.

तो फिर सियासी चंदे के लिए यह न करेंसी यानी इलेकटोरल बांड क्‍यों ?

तमाम रियायतों के बावजूद नकद में बड़ा चंदा देना फिर भी आसान नहीं था. इलेक्टोरल बॉन्ड से अब यह सुविधाजनक हो जाएगा. अपनी पूरी अपारदर्शिता के साथ नकद चंदेए  बैंक कूपन के जरिए सियासी खातों में पहुंचेंगे. सिर्फ राजनैतिक दल को यह पता होगा कि किसने क्या दियामतदाताओं को नहीं. फर्जी पहचान (केवाइसी) के साथ खरीदे गए इलेक्टोरल कूपनकाले धन की टैक्स फ्री धुलाई में मदद करेंगे !

यह वक्‍त सरकार से सीधे सवाल पूछने का हैः

- राजनैतिक चंदे को दोहरी (कंपनी और राजनीतिक दल) आयकर रियायत क्यों मिलनी चाहिएइससे कौन-सी जन सेवा हो रही है?

- चंदे की गोपनीयता बनाए रखकर राजनैतिक दल क्या हासिल करना चाहते हैंदेश को यह बताने में क्या हर्ज है कि कौन किसको कितना चंदा दे रहा है.

भारत के चुनावी चंदे निरंतर चलने वाले वित्तीय घोटाले हैं. यह एक विराट लेनदेन है जो लोकतंत्र की बुनियादी संस्था अर्थात् राजनैतिक दल के जरिए होता है. यह एक किस्म का निवेश है जो चंदा लेने वाले के सत्ता में आने पर रिटर्न देता है. 

क्या हमें स्वीकार कर लेना चाहिए कि सरकार किसी की हो या नेता कितना भी लोकप्रिय होवह भारत की सबसे बड़ी राजनैतिक कालिख को ढकने के संकल्प से कोई समझौता नहीं करेगा! यह अंधेर कभी खत्म नहीं होगा!

Tuesday, January 2, 2018

'इंसाफ' के सबक

नए साल की दस्तक बड़ी सनसनीखेज है. 2017 के ठीक अंत में एक अनोखे न्याय ने हमें उधेड़कर रख दिया है.

2जी घोटाले को लेकर अदालत को बिसूरने से क्या फायदाउसने तो हमें हमारी व्यवस्था की सड़न दिखा दी है. 2जी घोटाले में सभी को बरी करने का फैसला उसी कच्चे माल का उत्पाद है जो हमारी जांच एजेंसियों ने अदालत के सामने रखा था.

भारत घोटालों में कभी दरिद्र नहीं रहा लेकिन 2जी जैसे घोटाले दशकों में एक बार होते हैं. इस पर हजार बोफोर्स और सौ राष्ट्रमंडल घोटाले कुर्बान. इस घोटाले से राजनीति तो जो बदली सो बदलीइसने भारत में प्राकृतिक संसाधन आवंटन की नीतियां बदल दीं और 2जी का मारा दूरसंचार उद्योग अब तक उठ कर खड़ा नहीं हो पाया.

2जी पर अदालती फैसले के दो निष्कर्ष बड़े दो टूक हैं:

- जांच एजेंसियांआरोपों के पक्ष में सबूत और दस्तावेज पेश नहीं कर पाईं.
जांच एजेंसियां भ्रष्टाचार या वित्तीय लेनदेन साबित नहीं कर सकीं. 

'लेनदेन' के नए तरीकों मसलनफैसला लेने वालों व लाइसेंस लेने वालों के बीच कारोबारी रिश्तों पर अदालत किसी नतीजे पर नहीं पहुंची.

इन निष्कर्षों ने भ्रष्टाचार से लड़ाई के मौजूदा तरीकों की चूलें हिला दी हैं.

सबूतों और दस्तावेजों की सुरक्षाः सरकारों के बदलते ही फाइलों के जलने की खबरें बेसबब नहीं होतीं. वित्तीय घोटालों में सबूत खत्म करना एक बड़ा घोटाला बन चुका है. 2जी पर फैसला बताता है कि जिन फाइलों पर फैसले हुए थेउनको या तो सबूत के तौर पर पेश नहीं किया जा सका या फिर आदेशों को बुरी तरह बिखरा या उलझा दिया गया. इसलिए जांच एजेंसियां चार्जशीट दाखिल करने के बाद आरोपों की कडिय़ां जोड़ने के लिए सबूत नहीं ला पाईं. अधिकारियों की उलझी गवाही और अलग-अलग  व्‍याख्‍याओं ने भारत के सबसे बड़े और पेचीदा घोटाले में सबके बरी होने का रास्ता खोल दिया.

आर्थिक घोटाले वैसे भी पेचीदा होते हैं और जांच एजेंसियों के पहुंचने तक सबूत अक्सर आरोपियों के नियंत्रण में रहते हैं. सबूतों का खात्मा न्याय की उम्मीद को तोड़ देता है. बची-खुची कसर गवाहों को खरीद कर पूरी हो जाती है. यदि कानूनी बदलावों के जरिए या अदालतों की पहल पर सरकारें बदलने के बाद जरूरी दस्तावेजों की सुरक्षा नहीं की गई तो आगे किसी भी घोटाले में सजा देना असंभव हो जाएगा.

भ्रष्टाचार के नए तरीकेः 2जी घोटाले में अदालत ने कलैगनार टीवी को डीबी रियल्टी से मिले पैसे को भ्रष्टाचार नहीं माना. वे दिन अब लद गए जब रिश्वतें नकद में दी जाती थीं और नेताओं के बिस्तर के नीचे नोट बरामद होते थे. आर्थिक घोटालों में लेनदेन के असंख्य तरीके हैंजिनमें अंतर कंपनी निवेशकर्जशेयरों के आवंटन से लेकर राजनैतिक पार्टी को चंदा तक शामिल हो सकता है. प्रत्यक्ष‍ रूप से ये भी लेनदेन वैध हैं लेकिन भ्रष्टाचार के कानून के तहत इनकी स्पष्ट व्‍याख्‍या चाहिए. 

2जी पर फैसले ने दिखाया है कि हमारा मौजूदा कानूनी तंत्र और जांच एजेंसियां लगातार बढ़ रहे इन जटिल घोटालों के आगे कितने बौने हैं.

ध्यान रखना जरूरी है कि इस फैसले को उन बदलावों (सार्थक या नुक्सानदेह) की रोशनी में देखा जाएगा जो इस घोटाले के बाद पिछले पांच साल में हुए. 

2जी घोटाले के बाद...

- आरोपियों पर फैसला आने से पांच साल पहले पीड़ितों को (122 कंपनियों के लाइसेंस रद्द) सजा दे दी गई. अरबों का निवेश डूबाहजारों की नौकरियां गईं. भारत की छवि बुरी तरह आहत हुई. इसके बाद कोई बड़ी विदेशी कंपनी भारत में दूरसंचार में निवेश के लिए आगे नहीं आई.

- भारत की दूरसंचार क्रांति का चेहरा बदल गया. इसके बाद स्पेक्ट्रम की नीलामी शुरू हुई. पारदर्शिता तो आई लेकिन महंगी बोलियां लगीं. दूरसंचार सेवाओं की दरें बढ़ींकंपनियों ने कर्ज लिया. उद्योग में मंदी आई और अब महंगे स्पेक्ट्रम की मारी और 4.85 लाख करोड़ रु. के कर्ज में दबी कंपनियां मदद के लिए सरकार के दरवाजे पर खड़ी हैं. 

- इससे दूरसंचार उद्योग में प्रतिस्पर्धा खत्म हो गई. आज 135 करोड़ लोगों का बाजार केवल तीन या चार ऑपरेटरों के हाथ में है. 

यह बदलाव अच्छे थे या बुरेइसका दारोमदार सिर्फ इस पर होगा कि 2जी वास्तव में घोटाला था या नहीं. शुक्र है कि यह फैसला अभी निचली अदालत से आया है. ऊपर की मंजिलों से उम्मीद बाकी है. लेकिन बीता बरस जाते-जाते हमें झिझोड़ कर यह बता गया है कि राजनैतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई कितनी कठिन होती जा रही है.

Sunday, October 15, 2017

ज्यों ज्यों बूड़े श्याम रंग


नेता सिर्फ पांच साल में खरबपति कैसे हो जाते हैं?
पिछले माहजब इस सवाल के साथ सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से करीब 289 सांसदों-विधायकों की 'उद्यमिताका रहस्य पूछा था तो बहुत सी उम्‍मीदों ने अचानक आंखें खोली कि अब तो 2014 के चुनावी वादे याद आ ही जाएंगे जिन में मुट्ठियां लहराते हुए राजनीति को साफ करने का संकल्प किया गया था. 
प्रधानमंत्री नेपिछले साल नोटबंदी के दौरान सभी सांसदों-विधायकों से अपने बैंक खातों की जानकारी पार्टी को देने को कहा था. जानकारी जरूर आई होगी लेकिन घंटों लाइन में लगने वाली जनता को यह पता नहीं चला कि नोटबंदी के दौरान उनके माननीय नुमाइंदों के बैंक खातों में क्या हो रहा था
बताते चलें कि साल बीतने को है लेकिन बीते सप्ताह तक प्रधानमंत्री की वेबसाइट पर 92 में केवल 29 मंत्रियों की संपत्ति के ब्यौरे उपलब्ध थे.
भ्रष्टाचार और इलेक्ट्रॉनिक्स में एक अनोखी समानता है. दोनों जितने नैनो यानी सूक्ष्म होते जाते हैंउनकी ताकत उतनी ज्यादा बढ़ती जाती है और  राजनीति इसमें डूबकर और उजली (ज्यों ज्यों बूड़े श्याम रंगत्यों त्यों उज्वल होय) होती जाती है. भ्रष्टाचार की ताकत बढऩे और उसके उज्ज्वल होने का मतलब उसका संस्थागत होते जाना है.
भ्रष्टाचार की बढ़ती सूक्ष्मता पूरी दुनिया में सबसे बड़ी चुनौती हैलड़ाई इसलिए कठिन होती जा रही है कि जब तक लोग भ्रष्टाचार को समझकर और जागरूक होकरइसके विरुद्ध लामबंद हो पाते हैंतब तक यह संस्थागत हो जाता है.
संस्थागत होते ही भ्रष्टाचार अपराध की जगह सुविधाआदतमजबूरीपरंपरा और नियम तक बन जाता है. आर्थिक फैसलों में तो विभाजक रेखाएं इतनी धुंधली हैं कि प्रत्यक्ष तौर पर साफ-सुथरे दिखने वाले नीतिगत फैसलों में महीन व्यापक भ्रष्टाचार छिपा होता है.
भ्रष्टाचार के जटिल व संस्थागत होने को कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है:

1. राजनैतिक दलों को मिलने वाला चंदा लोकतंत्र में भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी संस्था है. सभी दल इसे मजबूरी मानने लगेइसे बदलना तो दूर इसे पारदर्शी बनाने की कोशिशें भी हाशिए पर हैं. चंदे संस्थागत हो गए. चुनाव आयोग और अदालतें भी इसे ठीक करने में कुछ खास नहीं कर सकीं. हमें यह मालूम है कि चंदों के बदले सत्ता के फायदों में हिस्सेदारी होती है लेकिन यह भ्रष्टाचार सूक्ष्म और 'नीतिसंगतहै. हमें यह मान लेना पड़ता है कि सत्ता में आने वाली हर नई सरकार अपने पसंदीदा कारोबारियों को अवसरों से नवाजेगी. विकास की यह कीमत हमें भुगतनी पड़ेगी.

2. राजनेता या अधिकारी सरकार में पदों और रसूख का फायदा उठा सकते हैं. सांसद-विधायक संपत्ति की घोषणा तो करते हैं लेकिन अपने कारोबारी या वित्तीय संपर्कों की नहीं. 2015 में तंबाकू उत्पादों पर चेतावनी का फैसला करने वाली समिति में बीड़ी उद्योग से जुड़े दो सांसद थे. सांसदोंविधायकों और मंत्रियों को लेकर इस मामले में नियम इस कदर अधूरे हैं कि यह भ्रष्टाचार एक तरह से संस्थागत हो गया.
जब हमें अपने नुमाइंदों के बारे में ही जानकारी नहीं मिलती तो उनके परिवारों के बारे में कौन पूछेगाएसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स की याचिका पर देश की सर्वोच्च अदालत का अचरज सही था कि केवल पांच साल में कुछ सांसदों की संपत्ति 500 फीसदी कैसे बढ़ सकती है. 

3. बैंकों से कंपनियों को कर्जसरकारों से उद्योगों को जमीनखदानस्पेक्ट्रम आवंटन जाहिरा तौर पर साफ-सुथरे आर्थिक व्यवहार हैं लेकिन जरा यह उदाहरण देखिए कि कंपनियों ने सरकार से स्पेक्ट्रम खरीदाइसके लिए बैंको से कर्ज ले लिया गया लेकिन घाटा होने पर फीस की माफी और बैंक कर्ज को टालने का पैकेजलेकिन क्या यह सब कुछ साफ-सुथरा हैबैंकों के बकाया कर्ज की वजहें आर्थिक विफलताएं ही नहीं हैं. इस सूक्षम संस्थागत भ्रष्टाचार की पैमाइश व सफाई आसान नहीं है.

भ्रष्टाचार के मामले में हम अक्सर यह मान लेते हैं कि शीर्ष पर बैठे एक-दो साफ सुथरे लोग पूरी व्यवस्था में स्वच्छता का चमत्कार कर देंगे. लेकिन यह भ्रष्टाचार व्यक्तिगत है ही नहीं. उच्च राजनैतिक पदों पर भ्रष्टाचार अब अवसरों की पेचीदा बंदरबांट का हैअन्य फायदे तो अदृश्य हैं.

भ्रष्टाचार को लेकर व्यक्तिगत संघर्ष दूर तक नहीं जा पाते. कई बार साफ-सुथरे नेतृत्व भी अपने पीछे भयानक कालिख छोड़ जाते हैं. उच्च पदों पर संस्थागत भ्रष्टाचार के खिलाफ सफलताएं हमेशा संस्थाओं (कानूनअदालतऑडिटर) की मदद से ही मिली हैं. 

क्या पिछले तीन साल में भारत में भ्रष्टाचार से लडऩे वाली संस्थाएं मजबूत और विकसित हुई हैंनहीं तो फिर जब तक बंद है तब तक आनंद हैजब खुलेगा तब खिलेगा.



Monday, December 26, 2016

न होती नोटबंदी तो ..

डिमॉनेटाइजेशन में क्‍या ऐसा है  जो हमें इसकी मंशा पर नहीं बल्कि इसे नतीजों को लेकर बहुत अााश्‍वस्‍त नहीं करता 

रकारी नीतियों का मूल्यांकन मंशा से नहीं बल्कि ठोस नतीजों पर होता है. इसलिए जब नीतियां उलझती हैं तो राजनेता अमूर्त उम्मीदों की लंबी रस्सी थमा देते हैं. नोटबंदी को लेकर उम्मीदों का दौर खत्म हो रहा हैअब बारी पहले आधिकारिक नतीजों की हैजिनकी तरफ बढ़ता चार बड़े सवालों से मुकाबिल है।

एकः कितना काला धन नकदी में थानोटबंदी से पहले तक आयकर छापों में औसतन पांच फीसदी अघोषित धन नकद (काले धन पर श्वेत पत्र 2012) के तौर पर मिला है. रिजर्व बैंक के पास लगभग उतनी नकदी पहुंच गई है जितनी बाजार में थी. कालिख वालों को बच निकलने का एक और मौका क्यों मिल रहा है?

दोः काले धन के खिलाफ निर्णायक लड़ाई जरूरी है लेकिन क्या नोटबंदी से इस पर लगाम लगी हैलगता है कि काला धन नए गुलाबी नोटों में बदल गया है. बैंक भ्रष्ट साबित हुए हैं और अब इंस्पेक्टर राज आने वाला है.

तीनः रोजगार को गहरी चोट पहुंची है फायदे होंगे भी कि नहीं ? पता नहीं कष्ट कितना लंबा होगा? पैसा निकालने से पाबंदियां कब हटेंगी?

चारः अगर इनकम टैक्स के छापे ही काला धन का इलाज थे तो पूरे देश को सजा देने की क्या जरूरत थी?

इन सवालों की रोशनी में नोटबंदी को लेकर चार तरह के निष्कर्ष हमारे सामने हैः

पहलाः नोटबंदी असफल हो चुकी है क्योंकि पूरे अभियान में दर्जनों छेद थे.
दूसराः नोटबंदी इतनी कामयाब नहीं हुई कि त्याग व बलिदान बेकार जाते महसूस न होते.
तीनः इसकी सफलता इसके बाद उठाए जाने वाले कदमों से तय होगी.
चारः काले धन के खिलाफ ऐसा कुछ क्या हो सकता था कि इस दर्द से गुजरना ही न पड़ता.

दरअसलनोटबंदी के पूरे अभियान को गौर से देखने पर कुछ तथ्य सामने आते हैंजिनकी नामौजूदगी में पूरी कवायद पटरी से उतर गई. अगर कुछ फैसले पहले ही हो गए होते तो क्‍या पता कि नोटबंदी का दर्द देने की जरूरत ही नहीं पड़ती. दिलचस्प यह भी है कि नोटबंदी को निर्णायक नतीजे तक पहुंचाने के लिए इन्हीं फैसलों को लागू किये बिना बात नहीं बनेगी।  

क्या नोटबंदी का दर्द टल सकता था और कैसे?

1. कितना नकद लेन-देन और कितनी नकदीनोटबंदी शुरू होते ही इनकम टैक्स अफसरों को पता चल गया था कि ज्यादातर काला धन कॉर्पोरेटसरकारी खजानेबिजनेसराजनैतिक दलवित्तीय कंपनियोंबैंक और धार्मिक संस्थाओं व ट्रस्ट का हिस्सा बनकर सफेद होने जा रहा है. नकदी रखने की कोई सीमा नहीं है. इनकम टैक्स नियमों के तहत व्यक्तिगत करदाताओं को नकद जमा (सोने की खरीद भी) को बताने की शर्त नहीं है जब तक कि आयकर विभाग अघोषित संपत्ति की जांच न करे. कारोबारी नकदी (कैश इन हैंड) को लेकर तो नियम ही नहीं है.

काले धन पर एसआइटी ने आयकर कानून में संशोधन के जरिए नकद लेन-देन के लिए तीन लाख रुपए और कारोबार में 15 लाख रुपए तक नकद की सीमा तय करने की सलाह दी थीजिसे लागू किए बिना बात नहीं बनेगी.  

2. कौन खरीद रहा है सोना और जमीनसोने-जेवरात की बड़े पैमाने पर खरीद बगैर पैन नंबर या पहचान के होती है. इस कारोबार में ग्राहक की पहचान (केवाइसी) निर्धारित करना जरूरी है. नोटबंदी के बाद बड़े पैमाने पर सोने की खरीद हुई. ठीक इसी तरह अगर बेनामी संपत्ति को रोकने का कानून और पहचान रजिस्टर करने का नियम लागू होता तो नोटबंदी के दौरान खासकर कृषि भूमि में बड़े निवेश न होते.
नोटबंदी के बाद सबसे बड़ी उम्मीद मकान-जमीन सस्ते होने की है. सर्किल रेट (सरकारी दर) और बाजार मूल्य के बीच अंतर यहां काले धन की वजह है. सर्किल रेट घटाकर इसे रोका जा सकता है जो नोटबंदी के पहले होना चाहिए था. यह काम बाद में भी हो सकेगाइस पर शक है क्योंकि राज्य सरकारें मुश्किल से तैयार होंगी. नतीजतन नई नकदी वापस जमीन की खरीद में लग जाएगी.

3. दर्जनों कंपनियां-दसियों खातेकाले धन की धुलाई के कानूनी तरीकेगैर-कानूनी तरीकों से कई गुना ज्यादा हैं. नोटबंदी से पहले बैंकों- कंपनियों में अकाउंटिंग रिफॉर्म (फोरेंसिक अकाउंटिंग) होने चाहिए थे ताकि दर्जनों कंपनियां और विदेश में ट्रस्ट बनाकर या राउंड ट्रिपिंगमल्टीपल अकाउंटघाटा दिखानेखर्च दिखानेकैपिटल बढ़ाकर नकदी की धुलाई न हो पाती. जीएसटी लागू करने के बाद अगर नोटबंदी आती तो शायद कामयाबी ज्यादा होती.

4. सियासत की कालिख राजनैतिक दलों के लिए इनकम टैक्स कानून (धारा 13 ए) के तहत छूट व गोपनीयता बरकरार रखकर सरकार ने पूरे अभियान की साख को पलीता लगा लिया. राजनैतिक दलों के लिए 20,000 रुपए से कम की राशि को सार्वजनिक न करने की छूट है. ज्यादातर काला चंदा इसी छेद से आता है. 2005 से 2013 के बीच बीजेपी और कांग्रेस सहित पांच प्रमुख दलों के कुल 5,000 करोड़ रुपए के चंदे का 73 फीसदी हिस्सा अज्ञात स्रोतों से आया. सरकार अगर काले धन वालों को राहत देने के लिए नोटबंदी के बीच में ही कानून बदल सकती थी तो सियासत के लिए कानून क्यों नहीं बदला जा सकता?


सरकारों की मंशा कभी खराब नहीं होती. युद्ध भी शांति के इरादे के साथ लड़े जाते हैं. सरकारी नीतियों की सफलता उनके नतीजों से तय होती है. नोटबंदी के दो माह पूरे होने के बाद 30 दिसंबर को प्रधानमंत्री मोदी (यदि) देश से बात करेंगे तो उनके आह्वान पर ''पस्या" कर चुके लोग अब नोटबंदी के पीछे की मंशा नहीं बल्कि नतीजों पर जवाब की अपेक्षा करेंगे. 



सरकार में सबको मालूम है कि नकदीकॉर्पोरेट अकाउंटिंगअचल संपत्ति और राजनैतिक चंदे के नियम बदल कर ही नतीजे सामने आ सकते हैं. प्रधानमंत्री को अब यह साबित करना होगा कि नोटबंदी से उन ''खा" लोगों की जिंदगी पर क्या असर पड़ा जिन्हें सजा देने के लिए आम लोगों को गहरी यंत्रणा से गुजरना पड़ रहा है.