Monday, March 29, 2010

भरपूर भंडारों से निकली भूख

भारत इस समय पूरी दुनिया को कई बेजोड़ नसीहतें बांट रहा है। हम दुनिया को सिखा रहे हैं कि भरे हुए गोदामों के बावजूद भूख को कैसे संजोया जाता है। कैसे आठ करोड़ परिवारों (योजना आयोग के मुताबिक गरीबी की रेखा से नीचे आने वाले परिवार केवल छह करोड़ हैं) को गरीब होने का सर्टीफिकेट यानी बीपीएल कार्ड तो मिल जाता है मगर अनाज नहीं मिलता। करोड़ों की सब्सिडी लुटाकर ऐसी राशन प्रणाली बरसों-बरस कैसे चलाई जा सकती है, जिसे प्रधानमंत्री निराशाजनक कहते हों और सुप्रीम कोर्ट भ्रष्टाचार वितरण प्रणाली ठहराता हो। दरअसल भारत की खाद्य अर्थव्यवस्था खामियों की एक ग्रंथि बन गई है। आने वाली हर सरकार इस गांठ में असंगतियों का ताजा एडहेसिव उड़ेल देती है। सस्ता अनाज वितरण प्रणाली यानी टीपीडीएस (लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली), बीपीएल-एपीएल, अंत्योदय आदि कई घाटों पर पिछले बीस साल में कई बार डुबकी लगा चुकी है, लेकिन इसका मैल नहीं धुला। गरीबों की रोटी का जुगाड़, महंगाई पर नियंत्रण और अनाज उत्पादन को प्रोत्साहन... यही तो तीन मकसद थे खाद्य सुरक्षा नीति के? इन लक्ष्यों से नीति बार-बार चूकती रही, लेकिन सरकार की नई सूझ तो देखिए वह इसी प्रणाली के जरिए भूखों को खाने की कानूनी गारंटी दिलाने जा रही है।
संकट सिर्फ अभाव से ही नहीं आदतों से भी आता है। केवल मांग-आपूर्ति का रिश्ता बिगड़ने से ही बाजार महंगाई के पंजे नहीं मारने लगता। कभी-कभी सरकारें भी बाजार को बिगाड़ देती हैं। बाजार में अनाज और अनाज के उत्पादों की कीमतें काटने दौड़ रही हैं, लेकिन इस समय भारतीय खाद्य निगम के भंडारों में 200 लाख टन गेहूं और 240 लाख टन चावल है जो कि खाद्य सुरक्षा के भंडार मानकों का क्रमश: पांच व दोगुना है। सरकार रबी की ताजी खरीद को तैयार है, जबकि पहले खरीदा गया करीब 100 लाख टन अनाज खुले आसमान के नीचे चिडि़यों व चोरों की 'हिफाजत' में है। इस भरे भंडार से महंगाई को कोई डर नहीं लगता, क्योंकि खुले बाजार में सरकारी हस्तक्षेप का कोई मतलब नहीं बचा है और अनाज के बाजार में मांग व आपूर्ति का गणित सटोरियों की उंगलियों पर है। रही बात गरीबों को राशन से सस्ता अनाज बंटने की तो वह न भरपूर भंडार के वक्त मिलता है और न किल्लत के वक्त।
विसंगतियों की खरीद
खाद्य सुरक्षा की बुनियाद ही टेढ़ी हो गई है। समर्थन मूल्य प्रणाली इसलिए बनी थी कि भारी उत्पादन के मौसम में सरकार निर्धारित कीमत पर अनाज खरीदकर एक निश्चित मात्रा में अपने पास रखेगी जो महंगाई के वक्त बाजार में जारी किया जाएगा। इस भंडार से बेहद निर्धनों को सस्ता राशन भी दिया जाएगा। लेकिन यह तो महंगाई समर्थन मूल्य प्रणाली बन गई। इसने अनाज की कीमतों व आपूर्ति का पूरा ढांचा ही बिगाड़ दिया है। सरकारें भंडार में पड़े पिछले अनाज की फिक्र किए बगैर हर साल अनाज खरीदती हैं। अनाज की मांग व आपूर्ति से बेखबर, समर्थन मूल्य बाजार में अनाज की एक न्यूनतम कीमत तय कर देता है। सटोरियों व बाजार को मालूम है कि कुल उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा बफर मानकों के तहत सरकार के गोदाम में चला जाएगा, इसलिए अनाज बाजार में हमेशा महंगाई का माहौल रहता है। मौजूदा वर्ष की तरह 1998 व 2002 में भी सरकारी भंडारों में निर्धारित मानकों का कई गुना अनाज जमा था और लाखों टन अनाज बाद में बाहर सड़ा था। अब सरकार अनाज की भारी अनाज खरीद करने वाली है, फिर पिछला भंडार खुले आसमान के नीचे सड़ेगा और सब्सिडी बजट को खोखला करेगी, लेकिन बाजार में अनाज की कीमतें टस से मस नहीं होंगी। रही बात किसानों की तो उन्हें इस समर्थन मूल्य प्रणाली ने कभी आधुनिक नहीं होने दिया। किसान तो बाजार, मांग व आपूर्ति को देखकर नहीं सरकार को देखकर अनाज उगाते हैं। सरकार इस प्रणाली से किसानों की आदत व अपना खजाना बिगाड़ कर बहुत खुश है और उसका आर्थिक सर्वेक्षण पूरे फख्र के साथ इस विशेषता को स्वीकार करता है।
बेअसर बिक्री
सरकार अगर आंख पर पट्टी बांध कर अनाज खरीदती है तो कान पर हाथ रखकर उसे बाजार में बेचती है। हम बात कर रहे हैं अनाज की उस ओपन सेल की जो कि खाद्य सुरक्षा नीति का दूसरा पहलू है। बताया जाता है कि सरकार उपभोक्ताओं को महंगाई के दांतों से बचाने के मकसद से बाजार में अनाज रिलीज करती है। आप जानना चाहेंगे की महंगाई रोकने के लिए अनाज किसे बेचा जा जाता है? आटा बनाने वाली मिलों को। हाल में सरकार ने करीब 1240 रुपये क्विंटल की दर अनाज बेचा, मगर आटा वही बीस रुपये किलो पर मिल रहा है। अनाज दरअसल छोटी मात्रा में खुदरा व्यापारियों या सीधे उपभोक्ताओं को मिलना चाहिए, मगर मिलता है बड़े व्यापारियों को। उस पर तुर्रा यह कि ओपन सेल अक्सर बाजार की कीमत पर और कभी-कभी तो उससे ऊपर कीमत पर होती है, इसलिए व्यापारी भी सरकार का अनाज नहीं खरीदते। निष्कर्ष यह कि अनाज की सरकारी खरीद बाजार तो बिगाड़ देती है, मगर अनाज की सरकारी बिक्री से महंगाई का कुछ नहीं बिगड़ता।
फिर भी गरीब भूखा
अनाज की इतनी भारी खरीद, ऊंची लागत के साथ भंडारों का इंतजाम और राशन प्रणाली का विशाल तंत्र अगर देश के गरीबों को दो जून की सस्ती रोटी दे रहे होते तो इस महंगी कवायद को झेला जा सकता था। लेकिन इस प्रणाली से सिर्फ बर्बादी व भ्रष्टाचार को नया अर्थ मिला है। हकीकत यह है कि देश में गरीबों की तादाद से ज्यादा बीपीएल कार्ड धारक हैं और अनाज फिर भी नहीं बंटता। खाद्य सुरक्षा कानून बना रही सरकार भी यह मान रही है कि देश के जिन इलाकों में राशन प्रणाली होनी चाहिए वहां नहीं है और जहां है, वहां उपभोक्ताओं को इसकी जरूरत नहीं है। ऊपर से गरीब का कोई चेहरा या पहचान नहीं है। सरकार की एक दर्जन स्कीमें और आधा दर्जन आकलन गरीबों की तादाद अलग-अलग बताते हैं। इसलिए गरीबों की गिनती से लेकर आवंटन तक हर जगह खेल है। नतीजा यह कि एक दशक में खाद्य सब्सिडी 9,000 करोड़ रुपये से बढ़कर 47,000 करोड़ रुपये हो गई है, लेकिन राशन प्रणाली बिखर कर ध्वस्त हो गई।
सरकार इसी ध्वस्त प्रणाली पर खाद्य सुरक्षा की गारंटी का कानून लादना चाहती है। इसमें गरीबों को सस्ता अनाज मिलना उनका कानूनी अधिकार बनाया जाएगा। यह बात अलग है कि गरीबों तक अनाज पहुंचाने की कोई व्यवस्था तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक कि उनकी सही पहचान व गिनती न हो। हो सकता है सरकार खाद्य कूपन देने या सीधी सब्सिडी की तरफ जाए, लेकिन उस प्रणाली में भी पहचान और मानीटरिंग का एक तंत्र तो चाहिए ही। ऐसा तंत्र अगर होता तो मौजूदा प्रणाली भी चल सकती थी। रही बात समर्थन मूल्य व बाजार में हस्तक्षेप की तो इन नीतियों के मोर्चे पर नीम अंधेरा है। दरअसल जब अनाज के भरपूर भंडार और दुनिया के सबसे बडे़ राशन वितरण तंत्र के जरिए गरीब के पेट में रोटी नहीं डाली जा सकी और महंगाई नहीं थमी तो खाद्य सुरक्षा कानून से बहुत ज्यादा उम्मीद बेमानी है। यह बात अलग है कि भूख से निजात की कानूनी गारंटी की बहस खासी दिलचस्प है।...
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है जेरे-बहस यह मुद्दआ।
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)

Monday, March 22, 2010

सरकार जी! क्या हुआ साख को?

सरकार जी !! आपकी साख को अचानक क्या हो गया है? सरकार तो संज्ञा (व्यक्तिवाचक, भाववाचक, जातिवाचक .. आदि ), सर्वनाम, क्रिया, विशेषण सभी कुछ है, इसलिए फिक्र कुछ ज्यादा है। माहौल और ताजे बदलाव बताते हैं कि इस सर्वशक्तिमान सरकार का जलवा, बाजार में कुछ घट रहा है। सरकार के नवरत्न यानी सार्वजनिक उपक्रम कितने भी बेशकीमती क्यों न हों लेकिन उनके पब्लिक इश्यू को बाजार में ग्राहक नहीं मिलते। बाद में साख बचाने के लिए सरकारी वित्तीय संस्थाओं को मोर्चे पर जूझना पड़ता है। भारत भले ही फोन सेवाओं के लिए मलाईदार बाजार हो, लेकिन दूरसंचार क्षेत्र में नया उदारीकरण दुनिया के टेलीकाम दिग्गजों में कोई दिलचस्पी नहीं जगाता। दूरसंचार तकनीकों की थ्री जी यानी तीसरी पीढ़ी की अगवानी के लिए केवल देसी कंपनियां आगे आती हैं और वह भी अनमने ढंग से। पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप अर्थात निजी सार्वजनिक भागीदारी का मंत्र किसी को सम्मोहित नहीं करता। पीपीपी के नाम पर सिर्फ कागजी अनुबंध नजर आते हैं, वास्तविक परियोजनाएं नदारद हैं। निजी कंपनियां टेंडर-ठेके लेने में तो इच्छुक हैं, मगर सरकार के साथ मिलकर कुछ बनाने में नहीं। ..याद नहंी पड़ता कि सरकार की इतनी नरम साख पहले कब दिखी थी?
रत्नों के भी ग्राहक नहीं
सार्वजनिक उपक्रमों को सरकार ने जब नवरत्नों का आधिकारिक दर्जा दिया था, तब शायद ही उसने इस अंजाम के बारे में सोचा हो। कभी इन रत्नों को खरीदने के लिए निवेशक रुपयों से भरी थैली लिये बाजार में टहलते थे। सार्वजनिकउपक्रमों के शेयरों में निवेश को कमाई में बढ़ोतरी की गारंटी माना जाता था। इनके विनिवेश की चर्चा छिड़ने मात्र से शेयर बाजार बाग-बाग हो जाता था, लेकिन इस बार तो गजब हो गया। एक दो नहीं, बल्कि पांच सरकारी रत्नों के पब्लिक इश्यू शेयर बाजार में ग्राहकों को तरस गए। अंतत: सरकार को जीवन बीमा निगम यानी एलआईसी जैसे अपने वित्तीय दिग्गजों को मोर्चे पर लगाकर खरीद करानी पड़ी। बात हल्की फुल्की कंपनियों की नहीं, बल्कि देश की सबसे बड़ी ताप बिजली कंपनी एनटीपीसी, पनबिजली कंपनी एनएचपीसी, प्रमुख खनिज कंपनी एनएमडीसी और गांवों में बिजली का नेटवर्क बनाने वाली कंपनी आरईसी जैसे सरकारी जवाहरात की है। सिर्फ आयल इंडिया का इश्यू ही आंशिक सफल हुआ है। ये सरकारी कंपनियां शेयर बाजार की सरताज रही हैं क्योंकि इनके पास सुनिश्चित बाजार, मजबूत बैलेंस शीट अलावा सरकार की साख भी थी। मगर निवेशक तो निजी कंपनियों को ज्यादा भरोसेमंद मान रहे हैं। निजी कंपनियों के पब्लिक इश्यू सफल हो रहे हैं और सरकारी औंधे मुंह गिर रहे हैं। सार्वजनिक उपक्रम सतलुज जल विद्युत निगम का पब्लिक इश्यू टल चुका है, सेल, इंजीनियर्स इंडिया के इश्यू अधर में हैं और इंडियन आयल के पब्लिक इश्यू के बारे में पता नहीं है। .. सरकार जी, आसार अच्छे नहीं हैं। यही हाल रहा तो इन रत्नों के जरिए अगले साल विनिवेश के मद में 40,000 करोड़ रुपये कैसे आएंगे?
थ्री जी! माफ करिए जी
भारत ने अपना थ्री जी बाजार खोला तो दुनिया के दूरसंचार दिग्गजों ने मुंह मोड़ लिया। होती होगी थ्री जी रोमांचक दूरसंचार तकनीक । मिलती होगी इस पर डाटा, वीडियो की जबर्दस्त स्पीड। चलता होगा इस पर मोबाइल टीवी, मगर दुनिया के दूरसंचार दिग्गज यह सब कुछ देने भारत नहीं आ रहे हैं। उन्हें भारत के उभरते दूरसंचार बाजार ने जरा भी नहंी लुभाया। सरकार पिछले दो वर्षो से थ्री जी रत्न छिपाए बैठी थी। कितनी खींचतान, कितनी लामबंदी! कई बार अंतिम मौके पर आवंटन को टाला गया और जब माल बाजार में बिकने आया तो बड़े ग्राहक नदारद। थ्री जी स्पेक्ट्रम की नीलामी में विदेशी दिग्गजों की अरुचि यह बताती है कि दूरसंचार क्षेत्र में उदारीकरण को लेकर कहीं न कहीं कुछ समस्या जरूर है। किसी को टू जी लाइसेंस के आवंटनों में उठे विवाद डरा रहे हैं तो किसी को स्पेक्ट्रम की किल्लत। तो किसी को लगता है कि पता नहीं कब नियम बदल जाएं। अब थ्री जी वाली नई तकनीक तो आएगी मगर वही देसी खिलाड़ी सेवा देंगे, जिनकी सेवाओं की गुणवत्ता व नेटवर्क की हालत अब सरदर्द बन चुकी है। सरकार जी ! थ्रीजी से न आपको मोटा राजस्व मिलने की उम्मीद है और न हम यानी उपभोक्ताओं को नई प्रतिस्पर्धा।
पीपीपी की पालकी
पीपीपी यानी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मतलब विकास के लिए निजी क्षेत्र व सरकार की दोस्ती। ..केंद्र से लेकर राज्यों तक उदारीकरण का यह सबसे नया, सबसे बड़ा और सबसे ज्यादा असफल नारा है। केंद्र करीब दो साल से पीपीपी की दुकान सजाए बैठा है, लेकिन निजी कंपनियां करीब फटकती तक नहीं। केंद्र को देख कर राज्यों ने भी अपनी दुकान सजा ली, मगर वहां भी ठन ठन गोपाल। दिखाने को कंपनियों ने दर्जनों अनुबंध तो कर लिये हैं, मगर उसके बाद आगे कुछ भी नहीं है। सरकार के दस्तावेजों में सिर्फ पीपीपी अनुबंधों का आंकड़ा चमकता है, वास्तविक निवेश की सूचना नदारद है। केंद्र के स्तर पर बिजली और सड़क क्षेत्रों में निजी क्षेत्र से दोस्ती दिखती है, लेकिन वह बहुत सीमित है और पीपीपी नहीं बल्कि टेंडरिंग, बीओटी (बिल्ट ओन आपरेट) जैसे वाणिज्यिक अनुबंधों के बूते है। निजी क्षेत्र अभी पीपीपी का गणित समझ नहीं पाया है। कहीं कानून रोड़ा हैं तो कहीं कानून लागू कराने वाले। नियमों का मकड़जाल इतना कठिन है कि कंपनी को टेंडर लेना आसान दिखता है, मगर सरकार के कंधे से कंधा मिलाना मुश्किल। सरकार जी, बताइए तो कि पीपीपी की पालकी उठाने के लिए निजी क्षेत्र कब आगे आएगा?
सरकार की साख में ऐसी कमी अप्रत्याशित है। उम्मीद तो यह थी कि आर्थिक उदारीकरण के दो दशकों के बाद निवेशक ज्यादा मुतमइन होकर निवेश के लिए उत्सुक होंगे, लेकिन यहां तो उलटा हो गया है। सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण भी जब इस स्थिति की तरफ इशारा करता है तो यह सोचना पड़ता है कि नौकरशाही की सुस्त रफ्तार, नियमों को लेकर अनिश्चितता, जंग लगे कानून और भ्रष्टाचार की फलती-फूलती संस्कृति ने मिलकर कहीं सरकार नाम के मजबूत ब्रांड लोकप्रियता तो नहीं घटा दी है। सरकार जी! गंभीरता से सोचिए.. यह साख का सवाल है।
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)

Tuesday, March 16, 2010

ढूंढो तो, बुनियाद कहां है?

अभी तो नौ की तैयारी . पर जल्दी ही दस की बारी.. याद कीजिये, कुछ ऐसा ही तो अंदाज था वित्त मंत्री का बजट भाषण के दौरान। मगर जब वित्त मंत्री नौ और दस फीसदी की विकास दर का रंगीन सपना बुन रहे थे ठीक उसी समय सरकार के आंकड़ा भंडार से विकास दर के ताजे आंकड़े निकल रहे थे, जिनके मुताबिक दिसंबर में खत्म तिमाही में विकास दर तेज गोता खा गई थी। वित्त मंत्री का विकास उवाच, महंगाई पर शोर करते विपक्ष की आवाजों के बीच संसद की गोल दीवारों में खो गया मगर विकास दर का गिरने का आंकड़ा रिकार्ड में पुख्ता हो गया। ऐसा इसलिए क्योंकि आर्थिक विकास मांग, निवेश और कर्ज या पूंजी से मिलकर बनी खुराक से बढ़ता है और खुद सरकार के तथ्य यह बता रहे हैं कि मौजूदा सूरते हाल में इस खुराक का कोई जुगाड़ नहंी है। यानी कि नौ दस वाली बात भरी दोपहर की झपकी वाला सपना है, जिसमें किले कंगूरे तो दिखते हैं मगर कमबख्त बुनियाद नजर नहीं आती।
वो मांग कहां से लाएं?
महंगाई में मांग?.. बात ही बेतुकी है लेकिन हम हैं कि नौ फीसदी विकास दर की बारात के लिए सज रहे हैं। सत्रह अठारह फीसदी की दर वाली महंगाई से रोज की छीन झपट के बाद किसमें इतना दम बचता है कि वह कुछ और खरीदने की सोचे। इसलिए ही तो मौजूदा वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में 7.9 फीसदी की दर पर उछल रही विकास दर तीसरी तिमाही में छह फीसदी पर निढाल हो गई। ठीक यही वक्त था जब खरीफ के सूखे ने महंगाई को नये तेवर दिये थे। अर्थात मंदी से उबरने के बाद बाजार में जो उत्साह दिखा था उस पर जल्द ही टनों महंगाई पड़ गई। महंगाई हमेशा मांग की बड़ी दुश्मन रही है और हालत तब और बुरी हो जाती है जब हम यह देखते हैं कि मांग को बढ़ावा देने वाले बुनियादी कारक भी बदहाल हैं। यहां आंकड़ों की रोशनी जरूरी है। प्रति व्यक्ति आय बढ़ने की दर 5.3 फीसदी और प्रति व्यक्ति उपभोग खर्च की दर केवल 2.7 फीसदी? शायद बढ़ी हुई आय महंगाई खा गई? क्योंकि यह आंकड़ा महंगाई यानी वर्तमान बाजार मूल्य को शामिल नहीं करता। सिर्फ यही नहीं आर्थिक विकास दर को अगर मांग के नजरिये से पढ़ें तो सरकारी दस्तावेजों में और भी हैरतअंगेज आंकड़े चमकते हैं। पिछले तीन चार वर्षो में करीब नौ फीसदी की वृद्घि दर दिखा रहा निजी उपभोग अचानक 2009-10 में घटकर चार फीसदी रह गया है जबकि सरकार उपभोग खर्च की वृद्घि दर 16 से आठ फीसदी पर आ गई है। यानी एक तो पहले से मांग कम और ऊपर से महंगाई का ढक्कन। इसके बाद तेज विकास दर की उम्मीद कुछ हजम नहीं होती।
जो निवेश को लुभाये
बाजार में मांग का नृत्य निवेश को लुभाता है। मंदी आई तो सबसे पहले यह उत्सव बंद हुआ। उद्योगों ने अपनी जेब कस कर दबा ली। पिछले करीब डेढ़ साल में देश में नया निवेश अचानक तलहटी पर आ गया है। आंकड़ों की मदद लें तो दिखेगा कि 2008-09 तक देश में नया निवेश करीब 16 फीसदी की दर से बढ़ रहा था लेकिन मंदी की धमक के साथ यह घटकर शून्य से नीचे -2.4 आ गया। आंकड़ों के और भीतर उतरें तो दिखेगा कि नए निवेश का झंडा लेकर चलने वाला उद्योग क्षेत्र तो मानो निढाल है। मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में निवेश 2007-08 तक 19.8 फीसदी की दर से बढ़ रहा था लेकिन अब शून्य से नीचे 21 फीसदी गिर गया। गिरावट केवल बड़ी इकाइयों तक ही सीमित नहीं है, असंगठित औद्योगिक क्षेत्र के निवेश में यह गिरावट -42 फीसदी तक है। सिर्फ दूरसंचार क्षेत्र को छोड़कर सभी सेवाओं में निवेश घटा है। यह गिरावट हर पैमाने पर बहुत बड़ी है। मांग की कमी उद्योगों का भरोसा तोड़ती है और उसे लौटाने के लिए बाजार में मांग बढ़ने के ठोस संकेत चाहिए और चाहिए सस्ती पूंजी। यह खुराक मिलने में अभी वक्त लगेगा यानी कि तेज विकास की उम्मीद को साधने के लिए निवेश की बुनियाद भी नहीं है।
मगर पूंजी महंगी होती जाए
पूंजी सस्ती हो तो निवेशक लंबे समय की उड़ान भरते हैं यानी कि मांग की उम्मीद में जोखिम उठा लेते हैं लेकिन इस पहलू पर गहरी निराशा है। दरअसल उद्योग अपने बचत और मुनाफे को भी लगाने के मूड में नहीं हैं। आंकड़े यह कलई कायदे से खोलते हैं। 2008-09 में निजी क्षेत्र में बचत की दर जीडीपी के अनुपात में 31.1 फीसदी रही जबकि निवेश की दर केवल 24.9 फीसदी। यानी कि उद्योग अपनी बचत और मुनाफे को रोक कर अभी इंतजार करेंगे। पूंजी के दूसरे स्रोत यानी कर्ज और बाजार मदद नहीं करते बल्कि मुश्किल बढ़ाते हैं। महंगाई से डरा रिजर्व बैंक ठीक उस समय सस्ते कर्ज की दुकाने बंद कर रहा है जबकि इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। जनवरी में आए नए मौद्रिक उपायों के बाद ब्याज दर बढ़ने की शुरुआत हो चुकी है और अप्रैल की शुरुआत में जब उद्योग अपने नए बहीखाते खोल रहे होंगे और निवेश की योजनायें बना रहें होंगे तब बैंकों की ब्याज दर उन्हें निवेश से दूर भगा रही होगी। बल्कि हो सकता है कि उद्योगों की चिंता अपने पुराने कर्ज हों जिन पर बढ़ी हुई ब्याज दर का असर होने वाला है। पूंजी बाजार से पैसे उठाकर नया निवेश करना सबके बस का नहीं है लेकिन जिनके बस का है वह भी सरकारी नवरत्नों को मिले कौडि़यों के भाव यानी सरकारी कंपनियों के आईपीओ की विफलता देखकर आगे आने की हिम्मत नहीं जुटायेंगे।
वित्त मंत्री के साहसी आशावादिता आश्चर्यजनक है, क्योंकि हकीकत, उनके सपनों से बिल्कुल उलटी है। अगर अर्थव्यवस्था को मंदी की गर्त से उचक कर बाहर आना है तो उसे मांग की सीढ़ी, निवेश की रोशनी और पूंजी का सहारा चाहिए। मगर इस समय यह तीनों ही उपलब्ध नहीं हैं। विकास के नौ-दस फीसदी वाले खूबसूरत नृत्य के लिए मांग, पूंजी व निवेश का नौ मन तेल जुटने में अभी एक से डेढ़ साल लग जाएंगे। तब तक वित्त मंत्री से मिली उम्मीदों को इन्ज्वाय कीजिये, महंगाई के चुभन के बीच यह सपने कुछ राहत देंगे। रही बात हकीकत की तो अभी विकास दर के लिए 6 से सात फीसदी की मंजिल ही मुमकिन और भरोसेमंद दिखती है। अलबत्ता यह बात पूरी तरह सच है कि गरीबी हटाने या आय को निर्णायक ढंग से बढ़ाने की क्रांति छह सात फीसदी के विकास दर से नहीं हो सकती। इससे कुछ अमीर, और ज्यादा अमीर हो जाएंगे बस... पिछले दो दशकों का यही तजुर्बा है।
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)

Monday, March 8, 2010

वाह! क्या गुस्सा है?

बजट को सुनकर या पेट्रो व खाद कीमतों में वृद्धि को देखकर आपको नहीं लगता कि सरकार कुछ झुंझलाहट या गुस्से में है। सब्सिडी उसे अचानक अखरने लगी है। महंगाई के बावजूद तेल की कीमतों को बेवजह सस्ता रखना उसे समझ में नहीं आता। मोटा आवंटन पचा कर जरा सा विकास उगलने वाली स्कीमों से उसे अब ऊब सी हो रही है। मानो सरकार अपने लोकलुभावन चेहरे को देखकर चिढ़ रही है। बजट और आर्थिक समीक्षा जैसे दस्तावेज एक उकताहट में तैयार किए गए महसूस होते हैं। यह जिद या ऊब उन नीतियों के खिलाफ है, जो बरसों बरस से सरकारों के कथित मानवीय चेहरे का श्रंगार रही हैं। इसी लोकलुभावन मेकअप का बजट इस बार निर्दयता से कटा है और इस कटौती या सख्ती के राजनीतिक नुकसान का खौफ नदारद है। इधर सालाना आर्थिक समीक्षा, सरकार में संसाधनों की बर्बादियों की अजब दास्तां सुनाती है और विकास के मौजूदा निष्कर्षो से शीर्षासन कराती है। लगता है कि जैसे कि सरकार अपने खर्च के लोकलुभावन वर्तमान से विरक्ति की मुद्रा में है। यह श्मशान वैराग्य है या फिर स्थायी विरक्ति? पता नहीं! ..मगर पूरा माहौल सुधारों के अनोखे एजेंडे की तरफ इशारा करता है। अनोखा इसलिए, क्योंकि सुधार हमेशा किसी नई शुरुआत के लिए ही नहीं होते। पुरानी गलतियों को ठीक करना भी तो सुधार है न?
विरक्ति के सूत्र
सालाना आर्थिक समीक्षा और बजट, सरकार के दो सबसे प्रतिनिधि दस्तावेज हैं। इन दोनों में ही लोकलुभावन नीतियों से विरक्ति के सूत्र बड़े मुखर हैं। अगर बारहवें वित्त आयोग की रिपोर्ट को भी साथ में जोड़ लिया जाए तो एक त्रयी बनती है और तीनों मिलकर उन समीकरणों को स्पष्ट कर देते हैं, जिनके कारण सरकार को अपने लोकलुभावन मेकअप से चिढ़ हो गई। बड़ी-बड़ी स्कीमें और भीमकाय सब्सिडी !! इन्हीं दो प्रमुख प्रसाधनों ने हमेशा सरकारों के आर्थिक चेहरे का लोकलुभावन श्रंगार किया है और मजा देखिए कि वित्त आयोग व सर्वेक्षण ने इन्हीं दोनों के प्रति सरकार में विरक्ति भर दी है। नतीजे में पिछले एक दशक में सबसे ज्यादा नए कर और खर्च में सबसे कम बढ़ोतरी वाला एक बेहद सख्त बजट सामने आया।
बोरियत वाला जादू
सरकार अपनी स्कीमों के जादू से ऊब सी गई लगती है। लाजिमी भी है। (बकौल सर्वेक्षण) पिछले छह साल में सरकार के कुल खर्च में सामाजिक सेवाओं का हिस्सा 10.46 से बढ़कर 19.46 फीसदी हो गया, लेकिन सामाजिक सेवाओं का चेहरा नहीं बदला। सरकार का अपना विशाल तंत्र ही सामाजिक सेवाओं की बदहाली का आइना लेकर सामने खड़ा है। दुनिया भर के मानव विकास सूचकांक मोटे अक्षरों में लिखते हैं कि भारत के लोग बुनियादी सुविधाओं में श्रीलंका व इंडोनेशिया से भी पीछे हैं। साक्षरता की दर अर्से से 60 फीसदी के आसपास टिकी है। 1000 में से 53 नवजात आज भी मर जाते हैं। 30 फीसदी आबादी को पीने का पानी मयस्सर नहीं। स्कूलों में दाखिले का संयुक्त अनुपात अभी भी 61 फीसदी है। सरकार को दिखता है कि शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य और ग्रामीण विकास से लेकर कमजोर वर्गो तक स्कीमों से, पिछले छह दशकों में, कोई बड़ा जादू नहीं हुआ। अब इन स्कीमों में भ्रष्टाचार भी आधिकारिक व प्रामाणिक हो चुका है। यह सब देखकर स्कीमों के जादू से ऊब होना स्वाभाविक है। यह बजट इस बदले नजरिए का प्रमाण है। सरकार के चहेते मनरेगा परिवार से लेकर सभी बड़ी स्कीमों काबजट अभूतपूर्व ढंग से छोटा हो गया है।
नहीं सुहाती सब्सिडी
आसानी से भरोसा नहीं होता कि कांग्रेस सब्सिडी से चिढ़ जाएगी। सब्सिडी तो सरकार लोकलुभावन आर्थिक नीतियों का कंठहार है। जो केंद्र से लेकर राज्य तक फैला है और पिछले कुछ वर्षो में लगातार मोटा हुआ है, लेकिन अब सब्सिडी चुभने लगी है। 2002 के बाद पहली बार खाद की कीमत बढ़ी। आर्थिक सर्वेक्षण ने कहा कि सब्सिडी से न तो गरीबों का फायदा हुआ न खेती का और न खजाने का। वित्त आयोग ने तो हर साल सब्सिडी बिल में वृद्धि की सीमा तय कर दी। बात अब इतनी दूर तक चली गई है कि राशन प्रणाली को सीमित कर गरीबों को अनाज के कूपन देने के प्रस्ताव हैं। पेट्रो उत्पादों को सब्सिडी के सहारे सस्ता रखने पर सरकार तैयार नहीं है। सरकार के ये ज्ञान चक्षु सिर्फ खजाने की बीमारी देखकर ही नहीं खुले, बल्कि मोहभंग कहीं भीतर से है क्योंकि तेज विकास और भारी सरकारी खर्च के बाद भी गरीबी नहीं घटी। 37 फीसदी आबादी गरीबी की रेखा से नीचे है और सरकार के कुछ आकलन तो इसे 50 फीसदी तक बताते हैं। नक्सलवाद जैसी हिंसक और अराजक प्रतिक्रियाएं अब गरीबी उन्मूलन और विकास की स्कीमों की विफलता से जोड़ कर देखी जाने लगी हैं। आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि समावेशी विकास यानी इन्क्लूसिव ग्रोथ के लिए सबसे गरीब बीस फीसदी लोगों के जीवन स्तर में बेहतरी को मापना चाहिए। यह पैमाना अपनाने पर सरकार को सब्सिडी के नुस्खे का बोदापन नजर आ जाता है। इसलिए लोकलुभावन नीतियों की नायक सब्सिडी अचानक सबसे बड़ी खलनायक हो गई है। खाद और पेट्रो उत्पादों की सब्सिडी पर कतरनी चली है, राशन पर चलने वाली है।
..ढेर सारे किंतु परंतु
यह ऊब उपयोगी, तर्कसंगत और सार्थक है। लेकिन इसके टिकाऊ होने पर यकायक भरोसा नहीं होता। पिछले दशकों में एक से अधिक बार सरकार में सब्सिडी व बेकार के खर्च से विरक्ति जागी है, लेकिन स्कीमों का जादू फिर लौट आया और भारी सब्सिडी से बजटों का श्रंगार होने लगा। पांचवे वेतन आयोग को लागू किए जाने के बाद खर्च पर तलवार चली थी, लेकिन बाद के बजटों में खर्च ने रिकार्ड बनाया। आर्थिक तर्क पीछे चले गए और बजट राजनीतिक फायदे के लिए बने। इसीलिए ही तो सब्सिडी पर लंबी बहसों व अध्ययनों के बाद भी सब कुछ जहां का तहां रहा है। लेकिन इस अतीत के बावजूद यह मुहिम अपने पूर्ववर्तियों से कुछ फर्क है क्योंकि यह खर्च, सब्सिडी और लोकलुभावन स्कीमों को सिर्फ बजट के चश्मे से नहीं, बल्कि समावेशी विकास और सेवाओं की डिलीवरी के चश्मे से भी देखती है, जो एक बदलना हुआ नजरिया है।
सरकार अर्थव्यवस्था से खुश है पर अपने हाल से चिढ़ी हुई है। इसलिए यह बजट अर्थव्यवस्था में सुधार की नहीं, बल्कि सरकार की अपनी व्यवस्था में सुधार की बात करता है। बस मुश्किल सिर्फ इतनी है कि सरकार ने अपने इलाज का बिल, लोगों को भारी महंगाई के बीच थमा दिया। कहना मुश्किल है कि यह बदला हुआ नजरिया सिर्फ कुछ महीनों का वैराग्य है या यह परिवर्तन की सुविचारित तैयारी है। गलतियां सुधारने की मुहिम यदि गंभीर है तो इसका बिल चुकाने में कम कष्ट होगा, लेकिन अगर सरकार स्कीमों व सब्सिडी के खोल में वापस घुस गई तो? .. तो हम मान लेंगे एक बार फिर ठगे गए। फिलहाल तो सरकार की यह झुंझलाहट, ऊब और बेखुदी काबिले गौर है, क्योंकि इससे कुछ न कुछ तो निकलेगा ही..
बेखुदी बेसबब नहीं गालिब, कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है।
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)

Thursday, March 4, 2010

बुरा न मानो बजट है!!

कंपकंपा दिया वित्त मंत्री ने... पता नहीं किस फ्रिज में घोल कर रखा बजट का यह रंग जो पड़ते ही छील गया। दादा की बजट होली झटका जरूर देगी यह तो पता था, लेकिन उनके गुलाल में इतने कांटे होंगे इसका अंदाज नहीं था। तेल वालों से लेकर बाजार वाले तक सब कीमतें बढ़ाने दौड़ पड़े। महंगाई के मौसम और मंदी की कमजोरी के बीच दादा ने अपने खजाने की सेहत सुधारने का बोझ भी हम पर ही रख दिया। उपभोक्ता, उद्योग और आर्थिक विश्लेषक व निवेशक। हर बजट के यही तीन बड़े ग्राहक होते हैं। उपभोक्ता और उद्योग बजट का तात्कालिक असर देखते हैं, क्योंकि यह उनके जीवन या कारोबार पर असर डालता है, जबकि विश्लेषक और निवेशक इसकी बारीकी पढ़ते हैं और भविष्य की गणित लगाते हैं। तीनों के लिए यह बजट दिलचस्प ढंग से रहस्यमय है। महंगाई से बीमार उपभोक्ताओं को इस बजट में नए करों का ठंडा निर्मम रंग डरा रहा है, जबकि उद्योगों को इस बजट में रखे गए विकास के ऊंचे लक्ष्यों पर भरोसा नहीं (चालू साल की तीसरी तिमाही में विकास दर लुढ़क गई है) हो पा रहा है। लेकिन विश्लेषकों और निवेशकों को इसमें राजकोषीय सुधार का एक नक्शा नजर आ रहा है। पर इन सुधारों को लेकर सरकारों का रिकार्ड जरा ऐसा वैसा ही है। यानी कि सबकी मुद्रा, पता नहीं या वक्त बताएगा.. वाली है।
पक्का रंग महंगाई का
यह बजट के पहले ग्राहक की बात है अर्थात उपभोक्ता की। महंगाई के रंग पर बजट वह रसायन डाल रहा है, जिससे खतरा महंगाई के पक्के होने का है। इस बजट में कई ऐसे काम हुए हैं जो प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर महंगाई में ईधन बनेंगे। उत्पाद शुल्क की बढ़ोतरी को सिर्फ दो फीसदी मत मानिए। कंपनियां इसमें अपना मार्जिन जोड़ कर इसे उपभोक्ताओं को सौंपेंगी। इसके बाद फिर इसमें पेट्रो उत्पादों की मूल्य वृद्घि से बढ़ी हुई लागत मिल जाएगी। ब्याज दर में बढ़ोतरी की लागत और बुनियादी ढांचे से जुड़ी सेवाओं की महंगाई भी इसमें शामिल होगी। सिर्फ इतना ही नहीं तमाम तरह की नई सेवाएं जिन पर कर लगा है या कर का दायरा बढ़ा है, उनका असर भी कीमतों पर नजर आएगा। सरकार के भीतरी आंकड़े रबी की फसल से बहुत उम्मीद नहीं जगाते और अगर बजट उसी सख्त रास्ते पर चला जो प्रणब दा ने बनाया है तो साल के बीच में कुछ और सरकारी सेवाएं महंगी हो सकती हैं। ध्यान रखिए यह सब उस 18 फीसदी की महंगाई के ऊपर होगा जो कि पहले मौजूद है। देश के करोड़ों उपभोक्ताओं में आयकर रियायत पाने वाले भाग्यशाली वेतनभोगी बहुत कम हैं और उनमें औसत को होने वाला फायदा 1000 से 1500 रुपये प्रति माह का है। महंगाई का पक्का रंग इस रियायत की रगड़ से नहीं धुलेगा। ..महंगाई से ज्यादा खतरनाक होता है महंगाई बढ़ने का माहौल। क्योंकि ज्यादातर महंगाई माहौल बनने से बढ़ती है। उपभोक्ताओं के मामले में यह बजट महंगाई की अंतरधारणा को तोड़ नहीं पाया है।
तरक्की का त्योहार
बजट के दूसरे ग्राहक यानी उद्योग, दादा के रंग से बाल-बाल बच गए यानी उन पर कुछ ही छींटे आए हैं। दादा उतने सख्त नहीं दिखे जितनी उम्मीद थी। मगर उद्योग इससे बहुत खुश नहीं हो सकते क्योंकि बजट तेज विकास से रिश्ता बनाता नहीं दिखता। महंगाई के कारण मांग घटने का खतरा पहले से है। ऊपर से सरकार के खर्च में जबर्दस्त कटौती बड़ी परियोजनाओं के लिए मांग घटाएगी। दिलचस्प है कि जब वित्त मंत्री बजट भाषण पढ़ रहे थे, ठीक उसी समय इस वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में आर्थिक विकास दर के आंकड़े सरकार की फाइलों से निकल रहे थे। तीसरी तिमाही में जीडीपी की दर घटकर छह फीसदी रह गई है। यानी कि अब अगर सरकार को मौजूदा वित्त वर्ष में 7.2 फीसदी की विकास दर फीसदी का लक्ष्य हासिल करना है तो फिर साल की चौथी तिमाही 8.8 फीसदी की विकास दर वाली होनी चाहिए। यह कुछ मुश्किल दिखता है। अर्थात बजट और तरक्की की गणित गड़बड़ा गई है। उद्योगों का पूरा ताम झाम सिर्फ इस उम्मीद पर कायम है कि अगर अर्थव्यवस्था तेज गति से दौड़ी तो उन्हें खड़े होने का मौका मिल जाएगा। वरना तो फिलहाल मांग, बाजार और माहौल तेज विकास के बहुत माफिक नहीं है। ध्यान रहे जीडीपी के अनुपात में प्रति व्यक्ति उपभोग खर्च पिछले एक साल में 5.4 से घटकर 2.7 फीसदी रह गया है, जबकि निजी निवेश पिछले दो साल में 16.1 से घटकर 12.7 फीसदी पर आ गया है। इसमें से एक मांग और दूसरा निवेश का पैमाना है। क्या बजट से मांग और निवेश के उत्साह को मजबूती मिलेगी यानी कि नौ फीसदी की तरक्की का त्योहार जल्द मनाया जाएगा? फिलहाल इसका जवाब नहीं है।
उड़ न जाए रंग?
खर्चे में कटौती और सख्त राजकोषीय सुधार इस बजट का सबसे साफ दिखने वाला रंग है। उम्मीद कम थी कि वित्त मंत्री इतनी हिम्मत दिखाएंगे, लेकिन वित्त आयोग की कैंची के सहारे खर्चो को छोटा कर दिया गया। दरअसल यह इसलिए भी हुआ क्योंकि नए वित्त वर्ष से केंद्रीय करों में राज्यों को ज्यादा हिस्सा मिलेगा और इससे केंद्र के खजाने का खेल बिगड़ेगा। लेकिन राजकोषीय सुधारों का अतीत भरोसेमंद नहीं है। बजट आकलन और संशोधित अनुमानों में बहुत फर्क होता है। जब-जब करों से लैस सख्त बजट आए हैं, घाटे ने कम होने में और नखरे दिखाए हैं। दादा के इस दावे पर भरोसा मुश्किल है कि अगले साल सरकार का गैर योजना खर्च केवल चार फीसदी बढ़ेगा जो कि इस साल 16 फीसदी बढ़ा है। वित्त मंत्री सरकार के राजस्व में 15 फीसदी की बढ़ोतरी आंकते हैं जो इस साल केवल 5 फीसदी रही है। खर्च में कम और कमाई में ज्यादा वृद्घि??? भारतीय बजटों को यह गणित कभी रास नहीं आई है। साल के बीच में खर्च बढ़ता है और सारा सुधार हवा हो जाता है। इसलिए घाटे को एक फीसदी से ज्यादा घटाने और कर्ज में बढ़ोतरी रोकने पर तत्काल कोई निष्कर्ष उचित नहीं है। सुधारों के इस रंग का पक्कापन तो वक्त के साथ ही पता चलेगा।
इस बजट के तीन अलग-अलग रंग हैं और तीनों गड्डमड्ड भी हो गए हैं। महंगाई-मांग या खर्च-कमाई, निवेश-विकास या घाटा-सुधार .. एक सूत्र तलाशना मुश्किल है। दरअसल यह कई रंगों से सराबोर पूरी तरह होलियाना बजट है। होली खत्म होने और नहाने धोने के बाद पता चलता है कि कौन सा रंग कितना पक्का था? हम तो चाहेंगे इसका महंगाई वाला रंग जल्दी से जल्दी उतर जाए, जबकि विकास व सुधार वाला रंग और पक्का हो जाए? मगर हमारे आपके चाहने से क्या होता है.. वक्त के पानी में धुलने के बाद ही पता चलेगा है कि कौन सा रंग बचा और कौन सा उड़ गया? अगर अच्छा रंग बचे तो किस्मत और महंगाई बचे तो भी किस्मत। बजट और होली में सब जायज है। ..बुरा न मानो बजट है।
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अन्‍यर्थ के लिए
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)