Monday, April 26, 2010

झूठ के पांव

आईपीएल, ग्रीस, गोल्डमैन सैक्श और आइसलैंड में क्या समानता है? यह सभी बड़े, चमकदार, जटिल और विशाल झूठ व फर्जीवाड़े की ताजी नजीरें हैं जो भारत से लेकर यूरोप व अमेरिका तक फैली हैं। यकीनन इन्हें शानदार कुशलता से गढ़ा गया था, लेकिन मंजिल तक ये भी नहीं पहुंच पाए।.. रास्ते में ही बिखर गए। झूठ का सबसे बड़ा सच यही है कि यह किसी तरह से नहीं छिपता। न राष्ट्रीय झंडे और सरकारी मोहर की ओट में, न बड़े नाम और ऊंची साख की छाया में और न लोकप्रियता और सितारों की चमक में। यहां तक कि आंकड़ों की भूल भुलैया भी झूठ को ढक नहीं पाती। ग्रीस की सरकार ने अपने कर्ज को छिपाने के लिए जो झूठ बोला था, उसने देश को आर्थिक त्रासदी में झोंक दिया है। दुनिया के सबसे बड़े निवेश बैंक गोल्डमैन सैक्श का झूठ वित्तीय बाजारों को नए सिरे से हिला रहा है। आइसलैंड झूठ बोलकर बर्बाद हो चुका है और आईपीएल का झूठ भारत के क्रिकेट धर्म को पाप के पंक में डुबो रहा है। यकीनन यह धतकरम चुनिंदा लोगों ने खातों में खेल, कंपनियों के फर्जीवाड़े, वित्तीय अपारदर्शिता, आंकड़ों के जंजाल के जरिए किया था, लेकिन अब इनके झूठ की कीमत बहुत बड़ी और नतीजा बड़ा शर्मनाक होने वाला है।
सरकारी झूठ की ग्रीकगाथा
सरकारें जब सच छिपाती हैं तो कयामत आती है। ग्रीस के दीवालियेपन और बदहाली की संकट कथा का निचोड़ यही है। ग्रीस को यूरोमुद्रा अपनाने वाले देशों के संगठन में इस शर्त पर प्रवेश मिला था कि वह घाटे और कर्ज को निर्धारित स्तर पर रखने की शर्ते (ग्रोथ एंड स्टेबिलिटी पैक्ट) पूरी करेगा। ग्रीसने यह सब शर्ते पूरी करने के लिए सच पर पर्दा डाल दिया। ताजा आर्थिक संकट आने के बाद दुनिया को पता चला कि ग्रीस ने खातों में खेल किया था। 2009 में देश का घाटा जीडीपी के अनुपात में 12.5 फीसदी पाया गया, जबकि सरकार ने अपने पहले आकलन में इसे 3.7 फीसदी माना था। यूरोपीय समुदाय के आधिकारिक आंकड़ा संगठन (यूरोस्टैट) ने ग्रीस के इस फरेब को प्रमाणित कर दिया कि वहां की सरकार ने कई तरह के ब्याज भुगतान, कर्जो की माफी, स्वास्थ्य सब्सिडी आदि को अपने नियमित खातों से छिपाया और सब घाटे को नियंत्रित दिखाते हुए बाजार से कर्ज उठाया। यह झूठ बहुत बड़ा था, इसलिए अब ग्रीस की साख खत्म हो गई है। देश पूरी तरह दीवालिया है और यूरोजोन के नियामकों का सर शर्म से झुक गया है। ग्रीस की जनता इस झूठ की कीमत नए टैक्स, गरीबी, महंगाई और संकट से ठीक उसी तरह चुकाएगी जैसा कि आइसलैंड में हुआ है। बैंकों के झूठ के कारण दुनिया के सबसे समृद्ध देशों में एक आइसलैंड देखते-देखते राहत का भिखारी हो गया। पूरे संकट की जांच करने वाले आइसलैंड के ट्रुथ कमीशन की हाल में आई रिपोर्ट बताती है कि केंद्रीय बैंक के पास केवल 1.2 अरब डालर का विदेशी मुद्रा भंडार था, लेकिन बैंकों ने 14 अरब डालर का विदेशी कर्ज ले डाला। हकीकत खुली तो वित्तीय बाजारों में बैंकों और देश की साख कचरा और प्रतिभूतियां मिट्टी हो गई। इस बर्बादी का बिल देश की जनता टैक्स देकर चुका रही है।
खातों में खेल की ललित कला
क्रिएटिव अकाउंटिंग ???... ग्रीस से लेकर अमेरिका तक इस शब्द का अब एक ही अर्थ है- खातों में खेल और सच पर पर्दा। यूरोप में चर्चा है कि ग्रीस की सरकार को खातों में स्याह सफेद करने की ललित कला गोल्डमैन सैक्श ने सिखाई थी। पता नहीं कि इस प्रतिष्ठित निवेश बैंक ने दुनिया को और क्या-क्या सिखाया है? गोल्डमैन पिछले साल आए वित्तीय संकट पर अपने झूठ को लेकर कठघरे में है। अमेरिकी सरकार और गोल्डमैन सैक्श में ठन चुकी है। अमेरिका में सेबीनुमा और बेहद ताकतवर सरकारी नियामक सिक्योरिटी एक्सचेंज कमीशन ने हाल में गोल्डमैन पर निवेशकों को आने वाले संकट से धोखे में रखकर प्रतिभूतियां बेचने का आरोप लगाया है। ब्रिटेन व जर्मनी के वित्तीय नियामक और अमेरिका की सरकारी बीमा कंपनी एआईजी भी गोल्डमैन को कठघरे में खड़ा करने की तैयारी कर रही है। यह निवेश बैंकिंग उद्योग लिए नए संकट की शुरुआत है। निवेश बैंकों पर उनका झूठ अब भारी पड़ने लगा है। लेकिन निवेश बैंक ही क्यों खातों में खेल निजी कंपनियों का भी पुराना शगल रहा है, बीसीसीआई बैंक, जेराक्स, एनरान, सीआरबी से लेकर सत्यम तक खातों में खेल की कलाओं के तमाम उदारहण हमारे इर्द-गिर्द हैं। आईपीएल भी इसी वित्तीय झूठ का नमूना है, जिसमें क्रिकेट का खेल मैदान में हो रहा था मगर असली खेल पेंचदार कंपनियों, बेनामी निवेश, विदेश में लेन-देन और काले धन के निवेश का था।
पहरेदारों की लंबी नींद
अपनी बेईमानी को स्वाभाविक (बकौल मैकियावेली) मानते हुए आदमी ने ही तमाम नियामक बनाए हैं कि ताकि वे उसकी बेइमानी पकड़ें और पारदर्शिता तय करें, लेकिन इन नियामकों में भी भी तो मैकियावेली वाले आदमी ही हैं न? सो इनकी नींद ही नहीं टूटती। दुनिया में ज्यादातर वित्तीय घोटाले, खातों में गफलत और हिसाब किताब में हेरफेर या तो किसी संकट के बाद सामने आया है या फिर उस खेल और घोटाले में शामिल किसी खिलाड़ी ने ही पर्दा उठाया है। अमेरिका के नियामक ऊंघते रहे और मेरिल लिंच जैसे बैंकर झूठ बेचकर पैसा कूटते रहे। ग्रीस व आइसलैंड जब अपने खाते स्याह सफेद कर रहे थे, तब यूरोपीय नियामक सपनों में तैर रहे थे। वित्तीय फरेब की एनरान व सत्यम जैसी कथाएं प्राइस वाटर हाउस, आर्थर एंडरसन जैसे आडिटरों की निगहबानी में लिखी गई हैं। आयकर विभाग, कंपनी मामलों के मंत्रालय व तमाम नियामकों के सामने आईपीएल ने एक विराट झूठ का संसार रच दिया, जो अब ढह रहा है और वित्तीय धोखेबाजी का हर दांव इसमें चमकता दिख रहा है।
पूरी दुनिया में इस समय बड़े बडे़ झूठ खुलने का मौसम है, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है। इस समय भी जब आप यह पढ़ रहे हैं, तब भी दुनिया में कहीं न कहीं कोई वित्तीय बाजीगरी, खातों में कोई खेल चल रहा होगा और झूठ अपने पांव जमाने की कोशिश कर रहा होगा। झूठ रचने वाले हमेशा हिटलर का यह मंत्र साधते हैं कि झूठ बड़ा हो और बार बार कहा जाए तो लोग विश्वास कर लेते हैं। ..हिटलर सच था .. आम लोगों ने बड़े झूठ पर हमेशा भरोसा किया है और बाद में उसकी कीमत भी चुकाई है। .जब ग्रीस चमक रहा था, आइसलैंड अमीरी दिखा रहा था, गोल्डमैन गरज रहा था और आईपीएल झूम रहा था तब लोग कैसे जान पाते कि यह सब वित्तीय झूठ के करिश्मे हैं। ..दरअसल फरेब का फैशन बड़ा मायावी है और आम लोग बहुत भोले हैं। ..वह झूठ बोल रहा था इस कदर करीने से, कि मैं एतबार न करता तो और क्या करता?
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http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच, सातोरी)

Thursday, April 22, 2010

बजट की षटपदी (दो) – खर्च प्रसंग

यह अर्थार्थ स्‍तंभ का हिस्‍सा नहीं है लेकिन इसे एक तरह से अर्थार्थ भी माना जा सकता है। बजट के भीतर कर और खर्च को दो अलग-अलग दिलचस्‍प जगत हैं। बजट के अंतर्जगत की यात्रा पर दैनिक जागरण में दो चरणों मे प्रकाशित छह खबरों को लेकर कई स्‍नेही पाठकों काफी उत्‍सुकता दिखाई थी इसलिए लगा कि बजट की इस दिलचस्‍प दुनिया का ब्‍योरा सबसे बांट लिया जाए। सो बजट की यह षटपदी आप सबके सामने प्रस्‍तुत है। खुद ही देख लीजिये कि हमारी सरकारें कैसे कर लगाती है और कैसे खर्च करती हैं।
खातों में खेल-1
(केंद्र सरकार के खातों में दिलचस्प खेल जारी हैं। सरकार के पास विनिवेश फंड के खर्च का हिसाब- किताब रखने का खाता तक नहीं है।)

विनिवेश की रकम, बजट में गुम
-किस सामाजिक विकास के काम आई सरकारी रत्न बेचकर की गई कमाई?
-बजट में नहीं है विनिवेश की रकम के इस्तेमाल का ब्यौरा
-राष्ट्रीय निवेश फंड के इस्तेमाल का खाता तक नहीं
(अंशुमान तिवारी) सरकारी रत्नों को बेचकर की गई कमाई सरकार ने किस सामाजिक विकास में लगाई? सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश से आया पैसा किसके काम आया? विनिवेश का पूरा हिसाब-किताब बजट के भीतर शायद कहीं खो गया है। न सही खाता है न बही। वित्त मंत्रालय को बस विनिवेश से मिली रकम मालूम है। मगर इस रकम का इस्तेमाल कहां और कितना हुआ, यह जानकारी देने वाला खाता या हिसाब-किताब बजट में है ही नहीं।
पूरा मामला सरकारी खातों में गंभीर अपारदर्शिता का है। सरकार ने विनिवेश की रकम को सामाजिक विकास स्कीमों और सरकारी उपक्रमों के सुधार में लगाने का नियम तय किया था। लेकिन सरकारी खातों की ताजी पड़ताल बताती है कि विनिवेश की रकम के इस्तेमाल का ब्यौरा ही उपलब्ध नहीं है। सूत्रों के मुताबिक नियंत्रक व महालेखा परीक्षक (कैग) विनिवेश से मिली राशि को लेकर सरकार के खातों की पड़ताल कर रहा है और वित्त मंत्रालय से मामले की कैफियत भी पूछी गई है। मंत्रालय के अधिकारी इसके आगे कुछ बताने को तैयार नहीं है। बताते चलें कि सरकार ने पिछले वित्त वर्ष 2009-10 में विनिवेश से 25,958 करोड़ रुपये जुटाए हैं और इस साल 40,000 करोड़ रुपये जुटाने का कार्यक्रम है। जब पिछला हिसाब-किताब ही गफलत में है तो इसके इसके निर्धारित इस्तेमाल को लेकर भी संदेह है ।
सरकार ने विनिवेश से मिली रकम को रखने के लिए नेशनल इन्वेस्टमेंट फंड बनाया है। वर्ष 2008-09 के आंकड़े बताते हैं कि इसमें करीब 1,814.45 करोड़ रुपये की रकम है। बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। भारत की समेकित निधि में इस विनिवेश की राशि से 84.81 करोड़ रुपये की कमाई भी दिखाई गई, लेकिन इसके बाद इस रकम के इस्तेमाल और खर्च का कोई खाता या हिसाब बजट में उपलब्ध नहीं है। जबकि नियमों के तहत इस इस फंड से खर्च और कमाई का हर छोटा-बड़ा ब्यौरा बजट के हिस्से के तौर पर संसद के सामने होना चाहिए।
गौरतलब है कि विनिवेश से आई राशि को शेयर व ऋण बाजार में लगाया जाता है। यूटीआई एसेट मैनेजमेंट कंपनी (एएमसी), एसबीआई फंड्स और जीवन बीमा सहयोग एएमएसी विनिवेश से मिली रकम का निवेश एक पोर्टफोलियो मैनेजमेंट स्कीम के तहत शेयर बाजार में करती हैं। यह स्कीम सेबी के नियंत्रण मे है, लेकिन इस निवेश पर होने वाली कमाई या नुकसान का ब्यौरा भी सरकार के खातों में तलाशने पर नहीं मिलता।
एक जानकार के मुताबिक विनिवेश की राशि तो बजट में ही है, लेकिन इस खर्च का खाता न होने का मतलब है कि शायद इसका इस्तेमाल उन मदों में नहीं हुआ है जहां होना चाहिए था। अर्थात रत्नों की कमाई शायद बजट का घाटा कम करने में ही काम आई है। जिसे टालने के लिए सरकार ने यह तय किया था कि यह रकम स्पष्ट रूप से सामाजिक विकास व सार्वजनिक उपक्रमों के सुधार पर खर्च होगी।
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खातों में खेल-2
(सरकार के बजट का 'अन्य' खाता बहुत बड़ा हो गया है। करीब 30 फीसदी खर्च अन्य में डाल कर छिपा लिया जाता है, जो बजट में नजर नहीं आता। )

पूरी-पूरी स्कीमें निगल जाता है बजट का 'बेनामी' खाता
-अन्य खर्चो की छोटी सी मद हुई बहुत बड़ी
-हज सब्सिडी से लेकर इंदिरा आवास योजना तक अन्य खर्च में
-बड़ी मदों का आधा खर्च अन्य के खाते में
(अंशुमान तिवारी) बजट के खातों की खर्च की सबसे उपेक्षित और छोटी मद खर्च 'छिपाने' की शायद सबसे बड़ी मद बन चुकी है। बजट की खर्च सूची में सबसे नीचे छिपा नामालूम सा 'अन्य खर्च' पूरी-पूरी स्कीमें, भारी भरकम अनुदान और मोटी सब्सिडी तक निगल जाता है। पिछले कुछ वर्षो दौरान बजट में 'अदर एक्सपेंडीचर' दरअसल एक ब्लैक होल बन गया है। जिसमें हज सब्सिडी और इंदिरा आवास योजना जैसे बड़े-बड़े खर्चे भी गुम हो जाते हैं। और ऊपर से तुर्रा यह कि इस भीमकाय अन्य खर्च का कोई ब्यौरा बजट के जरिए देश को बताया भी नहीं जाता।
सरकार के खातों में इतने बड़े-बड़े गुन हैं कि दांतों तले उंगली दबानी पड़ती है। ताजा बजट 7,35,657 करोड़ रुपये के गैर योजना खर्च में 2,07,544 करोड़ रुपये अर्थात करीब 30 फीसदी खर्च अन्य के खाते में डाल कर निकल गया है। इस अन्य में राज्यों की पुलिस को चुस्त करने के लिए अनुदान जैसे अहम खर्च भी हैं। सूत्रों के मुताबिक सीएजी यानी नियंत्रक व महालेखा परीक्षक पिछले साल से इस अन्य के रहस्य से जूझ रहा है। पिछले साल आई सीएजी की रिपोर्ट में इस पर सरकार से जवाब मांगा गया था, लेकिन वित्त मंत्रालय सवालों से किनारा कर रहा है।
वर्ष 2007-08 और 08-09 में सरकारी खर्च की गहरी पड़ताल बताती है कि 29 प्रमुख खर्चो के मामले में क्रमश: करीब 20,000 करोड़ रुपये और 28,000 करोड़ रुपये का खर्च अन्य की छोटी मद में दिखा दिया गया। सूत्रों के मुताबिक वर्ष 2008-09 के बजट में 8,799 करोड़ रुपये की इंदिरा आवास योजना, 620 करोड़ रुपये की हज सब्सिडी और सफाई कर्मियों के लिए 100 करोड़ रुपये की योजना जैसे खर्च अन्य के अंधे कुएं में खो गए। वर्ष 2007-08 के बजट में हज सब्सिडी के अलावा गांवों में गोदाम बनाने और अनुसूचित जातियों के कल्याण की स्कीम भी अन्य खर्चो का हिस्सा बन गई।
अपारदर्शी हिसाब-किताब की यह बीमारी ग्रामीण विकास, आवास, स्वास्थ्य व परिवार कल्याण, नागरिक विमानन और कृषि जैसे बड़े मंत्रालयों के खर्च में और बढ़ी है। आकलन बताता है कि 29 बड़ी मदों में कुल खर्च का आधा से ज्यादा हिस्सा अन्य खर्च में खो गया है। दरअसल सरकार अन्य खर्चो के हिसाब को बजट के जरिए देश को नहीं बताती। इसलिए यह पता भी नहीं चलता कि इस अन्य की मद में क्या-क्या छिपा है। केंद्र के बजट में खर्च को कुछ बड़ी मदें (मेजर हेड) और एक छोटी मद (माइनर हेड) में बांटा जाता है। अन्य खर्च बजट की छोटी मद है। सिर्फ बड़ी मदों का खर्च बजट के जरिए संसद और देश के सामने रखा जाता है। छोटी मदों के खर्च को सरकारी खातों के नियंत्रक (सीजीए) अलग से हिसाब लगाकर फाइलों में दाखिल दफ्तर कर देते हैं। अन्य खर्चो की यह छोटी सी मद हर मंत्रालय के खर्च के साथ चिपकी रहती है और जाहिर है कि अब सरकार के लिए बड़े काम की साबित हो रही है।
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खातों में खेल (अंतिम)
केंद्र सरकार अब पंचायती राज संस्थाओं व स्थानीय निकायों को पैसा दे रही है। बजट का एक मोटा हिस्सा इन्हें सीधे मिलता है, लेकिन इन तक नहीं पहुंचती आडिट की रोशनी।

खर्च के अधिकार, हिसाब पर अंधकार
-स्वायत्त संस्थाओं को सीधे मिलने वाले हजारों करोड़ सरकार के राडार से बाहर
-मनरेगा, ग्राम सड़क सहित कुल योजना खर्च का 40 फीसदी आवंटन निचले निकायों व स्वायत्त संस्थाओं को
(अंशुमान तिवारी) प्रदेश व जिलों में स्वायत्त संस्थाओं, सोसाइटी और स्वयंसेवी संस्थाओं को सीधा आवंटन सरकार के बजट का अंधा कोना बन गया है। इन संस्थाओं को खर्च के अधिकार तो मिल गए हैं, लेकिन हिसाब को लेकर अंधेरा है। आवंटन होने के बाद खर्च और इनके खातों में बचत को जांचने का कोई तंत्र नहीं है, क्योंकि इन्हें मिला पैसा सरकारी खातों के राडार से बाहर हो जाता है। मनरेगा, ग्रामीण पेयजल, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना जैसी हाई प्रोफाइल स्कीमों सहित केंद्र के योजना खर्च का करीब 40 फीसदी हिस्सा इसे 'अंधेरे' में डूबा है।
सरकारी स्कीमों पर अमल की प्रणाली पिछले दशक में आमूलचूल बदल गई है। केंद्र की बड़ी-बड़ी सामाजिक विकास स्कीमें कभी राज्य सरकारें लागू करती थीं, लेकिन अमल सुनिश्चित कराने के लिए केंद्र प्रदेशों में स्वायत्त संस्थाओं और स्वयंसेवी संगठनों को सीधे पैसा देता है। इन संस्थाओं को बजट से सीधे मिलने वाला धन बढ़ते-बढ़ते ताजे बजट में 1,07,551.53 करोड़ रुपये पर जा पहुंचा है। लेकिन आवंटन के बाद इस खर्च की गली बंद हो जाती है। इन के खर्च मामले में सीएजी के भी हाथ बंधे हैं, क्योंकि इन स्वायत्त संस्थाओं के संचालन सरकारी खातों का हिस्सा नहीं हैं। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी सीएजी इस मामले में सरकार से जवाब-तलब कर रहा है।
सीधे आवंटन की यह प्रणाली जबर्दस्त असंगति और अपारदर्शिता का शिकार हो गई है। स्थानीय संस्थाओं को वित्तीय ताकत देते हुए केंद्र यह सुनिश्चित नहीं कर पाया कि इनके खाते सरकार की निगाह में रहने चाहिए। सूत्रों के मुताबिक स्वायत्त संस्थाओं को दी गई राशि आवंटन के बाद सरकारी खातों से निकलकर इन संस्थाओं के अपने अकाउंट में चली जाती है। निश्चित तौर पर पूरा आवंटन उसी वर्ष खर्च नहीं होता और इनके खातों में पड़ा रहता है। जबकि सरकार का बजट उसे खर्च मान लेता है और अगले साल संस्थाओं को नया आवंटन हो जाता है।
इन संस्थाओं को दिया जाने वाला यह पैसा केंद्र प्रायोजित स्कीमों का है जो कि विभिन्न मंत्रालय चलाते हैं। करीब 40,000 करोड़ रुपये के बजट वाली मनरेगा पूरी तरह इन संस्थाओं के हवाले है। 9,000 करोड़ रुपये इंदिरा आवास योजना, इतनी ही राशि वाले ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम, 12,000 करोड़ की ग्राम सड़क योजनाओं का 90 फीसदी आवंटन सीधे निचली संस्थाओं को होता है। इसी तरह स्कूली शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि की कई स्कीमों में भी बड़ा हिस्सा अब इन्हीं संस्थाओं के जरिए खर्च होता है।
इस सीधे आवंटन की राशि वित्त वर्ष 2007-08 में करीब 51,000 करोड़ रुपये थी, जो कि वर्ष 08-09 में बढ़कर 83,000 करोड़ रुपये और 09-10 में 95,000 करोड़ रुपये हो गई है। निचली संस्थाओं को सीधे आवंटन की प्रणाली एक नए तरह की वित्तीय विसंगति की वजह बन रही है और खर्च के एक बहुत बडे़ हिस्से को स्थापित मानीटरिंग प्रक्रिया से बाहर निकाल रही है।
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बजट की षटपदी (एक) : कर कथा

यह अर्थार्थ स्‍तंभ का हिस्‍सा नहीं है लेकिन इसे एक तरह से अर्थार्थ भी माना जा सकता है। बजट के भीतर कर और खर्च के दो अलग-अलग दिलचस्‍प जगत हैं। बजट की इस अंतर्जगत की यात्रा पर दैनिक जागरण में दो चरणों मे प्रकाशित छह खबरों को लेकर कई स्‍नेही पाठकों काफी उत्‍सुकता दिखाई थी इसलिए लगा कि बजट की इस दिलचस्‍प दुनिया का ब्‍योरा सबसे बांट लिया जाए। सो बजट की यह षटपदी आप सबके सामने प्रस्‍तुत है। खुद ही देख लीजिये कि हमारी सरकारें कैसे कर लगाती है और कैसे खर्च करती हैं।

बेदर्द बजट -1

वही पीठ और वही चाबुक, बार-बार.. लगातार
· -आजमाई हुई सूइयां : दस साल में पांच सरचार्ज और पांच सेस
· उत्पाद शुल्क दरें यानी पहाड़ का मौसम
· -एफबीटी और मैट नए हथियार
(अंशुमान तिवारी) अगर दुनिया में टैक्स से बड़ी कोई सचाई नहीं है!! (बकौल चा‌र्ल्स डिकेंस) तो सच यह भी है कि भारत में न तो करों के चाबुक बदले हैं और न उन्हें सहने वाली पीठ। बदलते रहे हैं तो सिर्फ बजट व वित्त मंत्री। सरचार्ज और सेस वित्त मंत्रियों की पसंदीदा सूइयां हैं, जिन्हें पिछले दस बजटों में चार बार घोंपकर अर्थव्यवस्था से अचानक राजस्व निकाला गया है। पेट्रोल-डीजल से तीन बार नया सेस वसूला गया है। और उत्पाद शुल्क तो वित्त मंत्रियों के हाथ का खिलौना हैं। जिस वित्त मंत्री ने जब जैसे चाहा इन्हें निचोड़ लिया। पिछले एक दशक में सिर्फ मैट और एफबीटी करों के दो नए चाबुक थे, जिन्होंने बहुतों को लहूलुहान किया है।
बजट भाषणों में अक्सर होने वाली कर दरों की निरंतरता की वकालत अक्सर होती है, लेकिन पछले दस बजटों को एक साथ देखें तो समझ में आ जाता है कि कर ढांचे में और कुछ हो या न हो मगर निरंतरता तो कतई नहीं है। सिर्फ सरचार्ज और सेस ही नहीं, बल्कि लाभांश वितरण कर और मैट की दरें भी एक से अधिक बार बदली गई हैं।
उत्पाद शुल्क का खिलौना
बजट उत्पाद शुल्क के कारण इतने रोमांचक होते हैं। कोई नहीं जानता कि एक्साइज ड्यूटी में अगले साल क्या होने वाला है। सिर्फ वर्ष 1999 से लेकर 2003-04 तक उत्पाद शुल्क का ढांचा दो बार पूरी तरह उलट गया। तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा वर्ष 1999-2000 में उत्पाद शुल्क की तीन मूल्यानुसार दरों (8,16,24) से शुरू हुए। अगले साल तीनों का विलय कर 16 फीसदी की एक सेनवैट दर बन गई, लेकिन साथ ही विशेष उत्पाद शुल्क की तीन (8,16,24) दरें पैदा हो गई। अगले साल तीनों विशेष दरें भी 16 फीसदी की एक दर में समा गई। और जब राजग सरकार का आखिरी बजट आया तो तीनों पुरानी दरें एक बार फिर बहाल हो गई। इसे देखने के बाद भारत में निवेश करने वाला लंबी योजना बनाए भी तो कैसे?
सर पर चढ़ कर चार्ज
वह वित्त मंत्री ही क्या जो सरचार्ज न लगाए? पिछले दस साल में यह इंजेक्शन चार बार लगा है और खासी ताकत के साथ। राजग सरकार का पहला बजट व्यक्तिगत व कंपनी आयकर पर 10 फीसदी और सीमा शुल्क पर भी इतना ही सरचार्ज लेकर आया। अगले साल ऊंची आय वालों के लिए सरचार्ज को 15 फीसदी कर दिया गया। वर्ष 2001-02 में सरचार्ज वापस हो गया, लेकिन अगले ही साल राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंता करते हुए बजट ने 5 फीसदी सरचार्ज की सूई फिर लगा दी गई। अपने अंतिम बजट में राजग सरकार ने आठ लाख से ऊपर की आय वालों पर 10 फीसदी का सरचार्ज लगाकर अपनी पारी पूरी की।
तेल का तेल
पेट्रोल-डीजल है तो राजस्व की क्या चिंता। पिछले दस सालों में वित्त मंत्रियों ने तीन बार पेट्रोल, डीजल आदि पर उपकर (सेस) लगाए हैं। यह जानते हुए भी कि इनकी बढ़ी कीमतें महंगाई बढ़ाती हैं। सिन्हा ने पहले बजट में डीजल पर एक रुपये प्रति लीटर का सेस लगाया था। दो साल बाद कच्चे तेल पर सेस बढ़ा और पेट्रोल पर भी सरचार्ज लग गया। वर्ष 2005-06 में चिदंबरम ने भी पेट्रोल-डीजल पर 50 पैसे प्रति लीटर का सेस लगाया था।
कर बिना लाभांश कैसा?
यह भी वित्त मंत्रियों का पसंदीदा कर रहा है। पिछले दस बजटों में चार बार इसका इस्तेमाल हुआ। एक बार सिन्हा ने इसे 10 से बढ़ाकर 20 फीसदी किया, मगर अगले ही साल घटाकर 10 फीसदी कर दिया तो चिदंबरम ने एक बार इसे 12.5 फीसदी किया और दूसरी बार 15 फीसदी कर दिया गया।
सिर्फ यही नहीं पिछले दस बजटों में दो बार शिक्षा उपकर लगा है। जबकि जीरो टैक्स कंपनियों पर मैट लगाकर और मैट बढ़ाकर वित्त मंत्रियों ने खजाने की सूरत संभाली है।
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बेदर्द बजट -2
किसी ने नहीं छोड़ा, मगर सिन्हा जी ने ज्यादा निचोड़ा
· -टैक्स के मामले में सिन्हा के चार बजट, चिदंबरम के पांच बजटों पर दोगुने भारी
· -पिछले दस बजटों में लगे कुल 50 हजार करोड़ रुपये के नए कर
(अंशुमान तिवारी) अगर टैक्स किसी सभ्य समाज का सदस्य होने की फीस (बकौल फ्रेंकलिन रूजवेल्ट) है तो अपनी पीठ ठोंकिए, क्योंकि पिछली दो सरकारों ने आपसे यह फीस बखूबी वसूली है। पिछले दस बजटों में लगे नए टैक्सों का गणित औसतन पांच हजार करोड़ रुपये प्रति वर्ष बैठता है। करीब एक दशक में दो अलग-अलग सरकारों के वित्त मंत्रियों ने नए टैक्स लगाकर या कर दरें बढ़ाकर हमारी आपकी जेब से करीब 50 हजार करोड़ रुपये निकाले हैं। बात अगर निकली है तो यह भी बताते चलें कि सबसे ज्यादा कर लगाने का तमगा राजग और उसके वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा के नाम है। उनकी सरमायेदारी में आए बजटों में कर लगे नहीं, बल्कि बरसे हैं। नए करों के पैमाने पर यशवंत सिन्हा के चार बजट, पी. चिंदबरम के पांच बजटों पर दोगुना से ज्यादा भारी हैं।
टैक्स बजट का असली दर्द हैं। कम ज्यादा हो सकता है, लेकिन यह भेंट देने में कोई वित्त मंत्री नहीं चूकता। पिछले दस साल के बजटों का एक दिलचस्प हिसाब- किताब उस पुरानी यहूदी कहावत के माफिक है, कर बगैर बारिश के बढ़ते हैं। ध्यान रहे कि यह बात उन नए या अतिरिक्त करों की है, जो किसी बजट में पुराने करों के अलावा लगाए जाते हैं।
राजग सरकार के वित्त मंत्री के तौर पर यशवंत सिन्हा ने अपने चार बजटों में 33 हजार 400 करोड़ रुपये के नए टैक्स लगाए, जबकि चिदंबरम के खाते में पांच बजटों में 17 हजार करोड़ रुपये के टैक्स दर्ज हैं। यह आंकड़ा वित्त मंत्रियों के बजट भाषणों पर आधारित है, जिसमें वह बताते हैं कि उनके कर प्रस्तावों से कितनी अतिरिक्त राशि खजाने को मिलने जा रही है।
वर्ष 1999-2000 से लेकर 2003-04 अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार के पांच बजटों में चार यशवंत सिन्हा ने पेश किए थे, जबकि अगले पांच बजट संप्रग के वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने। राजग के कार्यकाल का आखिरी बजट जसवंत सिंह लाए थे। राजग के सभी बजटों को यदि एक कतार में रखा जाए तो वह करीब 36 हजार 694 करोड़ रुपये के टैक्स की सरकार थी। राजग की सरकार ने तो चुनाव से पहले के आखिरी पूर्ण बजट यानी 2003-04 में भी 3 हजार 294 करोड़ रुपये के कर लगाए थे।
राजग के वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा निर्विवाद रूप से कर लगाने की मुहिम में चैम्पियन हैं। बात वर्ष 2002-03 के बजट की है। यह पिछले एक दशक में सबसे अधिक टैक्स वाला बजट था। इसमें 12 हजार 700 करोड़ रुपये के कर लगाए गए। उनके चार बजटों में सबसे कम टैक्स वाला बजट 2001-02 का था, मगर उस बजट में भी 4 हजार 677 करोड़ रुपये का कर लगा था। खास बात यह है कि राजग सरकार के बजट में अप्रत्यक्ष व प्रत्यक्ष दोनों कर बढ़े थे। इसमें भी प्रत्यक्ष करों यानी आयकर का बोझ कुछ ज्यादा था।
चिदंबरम की बजट मशीन ने करदाताओं का तेल अपेक्षाकृत कुछ कम निकाला है, लेकिन बख्शा उन्होंने भी नहीं। उन्होंने वर्ष 2005-06 और 2006-07 में हर साल 6 हजार करोड़ रुपये के कर लगाए। चिदंबरम ने आखिरी बजट को करों के बोझ से मुक्त कर दिया था, अलबत्ता संप्रग की दूसरी पारी के पहले बजट में इस साल जुलाई में प्रणब दादा ने 2 हजार करोड़ रुपये के अतिक्ति टैक्स लगाने का इंतजाम किया था।
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यशवंत सिन्हा : 'बजट आर्थिक नीतियों व आय व्यय का सालाना दस्तावेज होता है, जो उस समय की परिस्थितियों को देखकर बनाया जाता है। .. हमारे बजटों को भारी कर वाले बजट कहना ठीक नहीं होगा। दरअसल उन पर टैक्स बढ़ा जो छूट ले रहे थे या कम दरों पर कर दे रहे थे। सबसे जरूरी है- बजट का संतुलन, जो हमने किया था। एक असंतुलित बजट का खामियाजा देश व लोगों को भुगतना पड़ता है।'
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बेदर्द बजट -2
टैक्स ने जितना काटा, उतना बढ़ा घाटा
-भारी टैक्स वाले बजटों को लगी करधारकों की बद्दुआ, कर बढ़े तो बढ़ा घाटा भी
-मगर जब अर्थव्यवस्था हुई खुशहाल तो खजाना भी मालामाल
(अंशुमान तिवारी) यह टैक्स के कोड़े खाने वालों की बद्दुआ है या फिर वित्त मंत्रियों की अंधी गणित, लेकिन करों की कैंची से बजटों का घाटा कम नहीं हुआ है। पिछले दस बजटों में अधिकांश बार ऐसा हुआ है कि जब-जब कर बढ़े हैं, घाटा भी बढ़ गया है। घाटा दरअसल तेज आर्थिक विकास दर के सहारे ही कम हुआ है यानी अगर अर्थव्यवस्था खुशहाल तो सरकार की तिजोरी भी मालामाल।
वित्त मंत्री नए कर सिर्फ इसलिए लगाते हैं ताकि घाटा कम हो सके। पिछले एक दशक के सभी बजट भाषण पढ़ जाइए, हर वित्त मंत्री ने नए कर लगाते हुए यही सफाई दी है कि इससे घाटा कम किया जाएगा, लेकिन अगर आंकड़ों के भीतर उतर कर देखा जाए तो तस्वीर कुछ जुदा ही दिखती है। जिस साल भी नए कर लगाकर घाटा कम करने की जुगत भिड़ाई गई है, उसी साल के संशोधित आंकड़ों में घाटा बजट अनुमानों को चिढ़ाता हुआ नजर आया है।
वर्ष 1999-2000 से 2003-04 तक के सभी बजट जबर्दस्त टैक्स के बजट थे, लेकिन अचरज होता है कि यही बजट भारी घाटे के भी थे। इन पांच बजटों में पहले चार में (जीडीपी के अनुपात) में राजकोषीय घाटा 5.1 फीसदी से 5.9 फीसदी तक रहा, जो कि कर लगाने वाले वित्त मंत्रियों के अपने बजट अनुमानों को सर के बल खड़ा कर रहा था। सिर्फ 2003-2004 के बजट में यह पांच फीसदी से मामूली नीचे आया। इधर बाद के पांच बजट अपेक्षाकृत सीमित टैक्स के थे और इस दौरान घाटा 3.1 से 4.5 फीसदी के बीच रहा। पिछले वित्त मंत्री चिदंबरम का गणित आखिरी साल बिगड़ा जब राजकोषीय घाटा अचानक छह फीसदी हो गया।
नए करों का बोझ और घाटे का रिश्ता पिछले कई बजटों की कलई खोल देता है। राजग के वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने वर्ष 2002-03 के बजट में 12 हजार 700 करोड़ रुपये के नए टैक्स लगाए थे, लेकिन उस बजट में राजकोषीय घाटा रहा 5.9 फीसदी पर। जबकि कर लगाते हुए सिन्हा ने 5.3 फीसदी का लक्ष्य तय किया था। इससे बुरा हाल हुआ वर्ष 1999-2000 के बजट का, जब भारी टैक्सों के बावजूद घाटा जीडीपी के अनुपात में चार फीसदी के मुकाबले 5.6 फीसदी रहा। सिर्फ जिस एक वर्ष (2003-04) में घाटा बजट अनुमान से नीचे रहा है, वह वर्ष 8.5 फीसदी की तेज आर्थिक विकास दर का था।
यहीं बजट का दूसरा दिलचस्प पहलू सामने आता है कि खजाने की हालत कर लगाने से नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था के बेहतर होने से सुधरी है। पिछले एक दशक के दूसरे पांच बजट इसकी नजीर हैं। इन पांचों बजटों में दिलचस्प यह है कि चिदंबरम ने लगातार दो साल (2005-06, 2006-07) में प्रति वर्ष 6 हजार करोड़ रुपये के अतिरिक्त कर लगाए, लेकिन दोनों वर्षो में राजकोषीय घाटा बजट अनुमान से नीचे रहा। यह दोनों वर्ष दरअसल पिछले एक दशक में सबसे तेज आर्थिक विकास दर यानी 9.5 और 9.7 फीसदी के थे।
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Wednesday, April 21, 2010

चीन है तो चैन कहां रे?

यह अखाड़ा कुछ फर्क किस्म का है। यहां कमजोर भी जीतते हैं, वह भी सीना ठोंक कर। यह लड़ाई बाजार की है जिसमें कमजोर होना एक बड़ा रणनीतिक दांव है। देखते नहीं कि महाकाय, बाजारबली चीन ने अपनी मुद्रा युआन (आरएमबी) की कमजोरी के सहारे चचा सैम के मुल्क सहित दुनिया के बाजार पर इस तरह कब्जा कर लिया कि अब नौबत अमेरिका व चीन के बीच ट्रेड वार की है। अमेरिका चीन को आधिकारिक रूप से धोखेबाज यानी (करेंसी मैन्युपुलेटर) घोषित करते-करते रुक गया है। चीनी युआन का तूफान इतना विनाशक है कि उसने अमेरिकी बाजार से रोजगार खींचकर अमेरिका के खातों में भारी व्यापार घाटा भर दिया है। पाल क्रुगमैन जैसे अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि दुनिया के बाजार में छाया 'मेड इन चाइना' चीन की मौद्रिक धोखेबाजी का उत्पाद है। सस्ते युआन के सहारे चीन दुनिया के अन्य व्यापारियों को बाजार से दूर खदेड़ रहा है। अमेरिकी संसद में चीन के इस मौद्रिक खेल के खिलाफ कानून लाने की तैयारी चल रही है। अमेरिका के वित्त मंत्री गेटनर, हू जिंताओ को समझाने की कोशिश में हैं। क्योंकि करेंसी मैन्युपुलेटर के खिताब से नवाजे जाने के बाद चीन के लिए मुश्किलें बढ़ जाएंगी। वैसे बाजार को महक लग रही है कि शायद चीन अपनी इस मारक कमजोरी को कुछ हद तक दूर करने पर मान भी सकता है।
बाजारबली की मारक दुर्बलता
चीन को यह बात दशकों पहले समझ में आ गई थी कि कूटनीति और समरनीति की दुनिया भले ही ताकत की हो, लेकिन बाजार की दुनिया में कमजोर रहकर ही दबदबा कायम होता है। यानी कि निर्यात करना है और दुनिया के बाजारों को अपने माल से पाट कर अमीर बनना है तो अपनी मुद्रा का अवमूल्यन ही अमूल्य मंत्र है। 1978 में अपने आर्थिक सुधारों की शुरुआत से ही चीन ने निर्यात का मैदान मारने के लिए मुद्रा अवमूल्यन के प्रयोग शुरू कर दिए थे। आठवें दशक में चीन का निर्यात बुरी तरह कमजोर था। सस्ती मुद्रा का विटामिन मिलने के बाद यह चढ़ने और बढ़ने लगा। इसे देख कर अंतत: 1994 में एक व्यापक बदलाव के तरह चीन ने डालर व युआन की विनिमय दर को स्थिर कर दिया, जो कि इस समय 6.82 युआन प्रति डालर पर है। चीन का युआन, डालर व यूरो की तरह मुक्त बाजार की मुद्रा नहीं है। इसकी कीमत चीन के व्यापार की स्थिति या मांग-आपूर्ति पर ऊपर नीचे नहीं होती, बल्कि चीन सरकार इसका मूल्य तय करती है, जिसके पीछे एक जटिल पैमाना है। चीन की सरकार बाजार में डालरों की आपूर्ति को बढ़ने नहीं देती। चीनी निर्यातक जो डालर चीन में लाते हैं उन्हें चीन का केंद्रीय बैंक खरीद लेता है, जिससे युआन डालर के मुकाबले कम कीमत पर बना रहता है। अमेरिका का आरोप है कि चीन अपने यहां उपभोग को रोकता और बचत को बढ़ावा देता है, जिससे चीन के बाजारों में अमेरिकी माल की मांग नहीं होती, लेकिन अमेरिकी बाजार में सब कुछ मेड इन चाइना नजर आता है। अमेरिका का यह निष्कर्ष उसके व्यापार के आंकड़ों में दिखता है। पिछले साल चीन के साथ अमेरिका का व्यापार घाटा 227 अरब डालर था, जो अभूतपूर्व है। चीन ने अमेरिका को 296 अरब डालर का निर्यात किया, जबकि अमेरिका से चीन को केवल 70 अरब डालर का निर्यात हो सका। चीन का विदेशी मुद्रा भंडार भी इसका सबूत है कि जो पिछले एक दशक में पूरी दुनिया में जबर्दस्त निर्यात के सहारे 2,500 अरब डालर बढ़ चुका है और चीन के सकल घरेलू उत्पादन का 50 फीसदी है। दुनिया के सबसे बडे़ बाजार अमेरिका से साथ व्यापार संतुलन पक्ष में, इतना विशाल विदेशी मुद्रा भंडार और दुनिया एक तरफ मगर युआन की दर एक तरफ वाली नीति। छोटे निर्यात प्रतिस्पर्धी युआन की आंधी में कहां टिकेंगे? ....चीन ने दुर्बल मुद्रा से दुनिया के बाजारों को रौंद डाला है।
महाबली की बेजोड़ विवशता
महाबली इस समय ड्रैगन के जादू में बुरी तरह उलझ गया है। चीन इस महाबली को कर्ज से भी मार रहा और व्यापार से भी। अमेरिका के अर्थशास्त्री क्रुगमैन का हिसाब कहता है कि चीन के मौद्रिक खेल के कारण हाल के कुछ वषरे में अमेरिका करीब 14 लाख नौकरियां गंवा चुका है। उनके मुताबिक चीन अगर युआन को लेकर ईमानदारी दिखाता तो दुनिया की विकास दर पिछले पांच छह सालों में औसतन डेढ़ फीसदी ज्यादा होती। चीन ने सस्तंी मुद्रा से अन्य देशों की विकास दर निगल ली। अमेरिकी सीनेटर शुमर व कुछ अन्य सांसद चीन को मौद्रिक धोखेबाज घोषित करने और व्यापार प्रतिबंधों का विधेयक ला रहे हैं। अमेरिका के वित्त विभाग को बीते सप्ताह अपनी रिपोर्ट जारी करनी थी जिसमें चीन को मौद्रिक धोखेबाज का दर्जा मिलने वाला था, लेकिन अंतिम मौके पर रिपोर्ट टल गई। .. टल इसलिए गई क्योंकि महाबली बुरी तरह विवश है। चीनी युआन की कमजोर ताकत बढ़ाने में अमेरिका की बड़ी भूमिका है। चीन जो डालर एकत्र कर रहा है, उनका निवेश वह अमेरिका के बांडों व ट्रेजरी बिलों में करता है। यह निवेश इस समय 789 अरब डालर है, जो कि अमेरिकी सरकार के बांडों का 33 फीसदी है। दरअसल अमेरिका के लोगों ने बचत की आदत छोड़ दी है। सरकार कर्ज पर चलती है जो कि बांडों में चीन के निवेश के जरिए आता है। अगर चीन निवेश न करे तो अमेरिका में ब्याज दरें आसमान छूने लगेंगी। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मौद्रिक प्रवाह का पहिया इस समय चीन से घूमता है। अमेरिका के वित्तीय ढांचे में चीन के इस निवेश के अपने खतरे हैं, सो अलग लेकिन अगर मौद्रिक धोखेबाजी की डिग्री मिलने के बाद चीन ने निवेश रोक दिया तो चचा सैम के लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी। लेकिन अगर अमेरिका युआन की कमजोरी को चलने देता है तो अमेरिका के उद्योग ध्वस्त हो जाएंगे। ... अमेरिका के लिए कुएं और खाई के बीच एक को चुनना है।
दुनिया में दोहरा असमंजस
पांच छह साल पहले मुद्राओं की कीमतों को मोटे पर अंदाजने के लिए एक बिग मैक थ्योरी चलती थी, जिसमें दुनिया के प्रमुख शहरों में बर्गर की तुलनात्मक कीमत को डालर में नापा जाता था। तब भी युआन सबसे अवमूल्यित और स्विस फ्रैंक अधिमूल्यित मुद्रा थी। लेकिन अब बात बर्गर के हिसाब जितनी आसान नहीं है, बल्कि ज्यादा पेचीदा है। चीन के लिए दस फीसदी व्यापार बढ़ने का मतलब है कि अमेरिका के रोजगारों में दस फीसदी की कमी, लेकिन अगर चीन अपने युआन या आरएमबी को 25 फीसदी महंगा करता है तो उसे अपनी 2.15 फीसदी जीडीपी वृद्घि दर गंवानी होगी। दुनिया को उबारने में चीन का बड़ा हाथ है, इसलिए यह गिरावट उन देशों को भारी पड़ेगी जो मंदी से परेशान हैं और चीन उनका बड़ा बाजार है। इन देशों में आस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड प्रमुख होंगे। इस सबके बाद भी दुनिया में यह मानने वाले बहुत नहीं है कि ताकतवर युआन महाबली की समस्याएं हल कर देगा। अमेरिका में बचत शून्य है और निर्यात ध्वस्त। जिसे ठीक करने में युआन की कीमत की मामूली भूमिका होगी। अलबत्ता इतना जरूर है कि भारत, ताईवान, कोरिया, मलेशिया जैसों को बाजारबली चीन की प्रतिस्पर्धा से कुछ राहत मिल जाएगी।
दुनिया का सबसे सफल युद्ध वह है, जिसमें शत्रु को बिना लड़े पराजित कर दिया जाता है। ..यही तो कहा था ढाई हजार साल पहले चीन के प्रख्यात रणनीतिकार सुन त्जू ने। चीन ने दुनिया के बाजार को बड़ी सफाई के साथ बिना लड़े जीत कर सुन त्जू को सही साबित कर दिया। पूरी दुनिया युआन की खींचतान का नतीजा जानने को बेचैन है। नतीजा वक्त बताएगा, लेकिन दिख यह ही रहा है कि बाजार में खेल के नियम फिलहाल बीजिंग से तय होंगे। चीन अपनी शर्तो पर ही युआन के तूफान पर लगाम लगाएगा, क्योंकि भारी कर्ज और ध्वस्त वित्तीय तंत्र के कारण दुनिया के महाबलियों की तिजोरियां तली तक खाली हैं, जबकि चीन अपनी कमजोर मुद्रा के साथ इस समय महाशक्तिशाली है। दुनिया का ताजा आर्थिक विकास मेड इन चाइना है, जबकि दुनिया का ताजा आर्थिक विनाश मेड इन अमेरिका और यूरोप।.. जाहिर है कि दुनिया मूर्ख नहीं है अर्थात वह विकास को ही चुनेगी, यानी चीन की ही शर्ते सुनेगी।
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच, सातोरी)

Monday, April 12, 2010

सुरक्षित होने के खतरे

अच्छा होना हमेशा अच्छा ही नहीं होता। कम से कम इस निष्ठुर आर्थिक दुनिया का तो यही नियम है। यहां संतुलित और कुछ बेहतर होने की भी अपनी एक कीमत होती है। भारत सहित उभरती हुई अन्य अर्थव्यवस्थाएं संकटग्रस्त दुनिया के बीच (तुलनात्मक रूप से) निरापद होने की एक बड़ी कीमत चुकाने वाली हैं। भारत से लेकर कोरिया तक और ब्राजील से लेकर रूस तक विभिन्न अर्थव्यवस्थाएं मंदी से उबरने का कितना उत्सव मना पाएंगी यह तो पता नहीं, लेकिन उनकी चिंता का नया चक्र शुरू हो रहा है। चिंता बड़ी दिलचस्प है... यूरोजोन के निवेश सरोवर सूखने और डालरजोन (अमेरिका) में अनदेखे जोखिम के कारण दुनिया भर के प्रवासी निवेशक भारत जैसे मुल्कों में झुंड बांध कर उतरने लगे हैं। केवल मार्च में ही छह अरब डालर का विदेशी निवेश अकेले भारत के वित्तीय बाजारों में जज्ब हो चुका है। भारत का रुपया, रूस का रूबल, ब्राजील का रिएल, दक्षिण अफ्रीका का रैंड, मेक्सिको का पेसो, मलेशिया का रिंगिट आदि उभरते बाजारों की मुद्राएं, इस विदेशी खुराक से पहलवान हुई जा रही हैं। वित्तीय बाजारों में विदेशी निवेश की भरमार और बेवजह ताकत दिखाती घरेलू मुद्राओं के अपने खतरे हैं। ऊपर से डर यह है कि अगर ग्रीस डूबा तो फिर डालरों व यूरो का एक ज्वार इन बाजारों से आकर टकराएगा, जिसे संभालना बड़ा मुश्किल होगा।
ग्रीक ट्रेजडी, डालर कामेडी
डालर की कामेडी बड़ी मजेदार है। डालर खुद खोखला है, लेकिन प्रतिस्पर्धी मुद्रा इतनी मरियल है कि डालर में ताकत दिख रही है। संकट शुरू हुआ था डालर की दुनिया से, लेकिन बन आई यूरो पर। डालर के आसपास भी जोखिमों का घेरा है लेकिन उसकी तुलना में यूरो की स्याही ज्यादा गाढ़ी है, इसलिए बुनियादी रूप से कमजोर होते हुए भी डालर यूरो के मुकाबले मजबूत है। पिछले दो तीन माह में डालर ने अर्से से मजबूत यूरो को पछाड़ दिया है। यूरोजोन में ग्रीक ट्रेजडी किसी भी वक्त घट सकती है। यूरोप के बड़े मुल्क मदद को तैयार नहीं हैं अर्थात भारी कर्ज में दबे पिग्स देशों (पुर्तगाल, आयरलैंड, ग्रीस व स्पेन) में पहला हादसा होने को है। बाजार ने इसे कायदे से सूंघ लिया है। यूरो की सेहत बिगड़ रही है। ग्रीस का डिफाल्टर होना दक्षिण यूरोप के अन्य परेशान हाल देशों की किस्मत भी लिख देगा। पिछले एक सप्ताह में यूरोजोन के बाजार लगातार टूटे हैं। लेकिन इसके ठीक विपरीत उभरते बाजारों में तेजी का त्यौहार है। भारी विदेशी निवेश के सहारे पिछले एक पखवाड़े में उभरते बाजारों की कई मुद्राओं ने अपने एक साल के सर्वोच्च स्तर छू लिये हैं। दुनिया के निवेशकों को यूरो से तो उम्मीद है ही नहीं और डालर पर भी उनका भरोसा सीमित ही है, क्योंकि अमेरिका भी जीडीपी के अनुपात में 10.6 फीसदी के राजकोषीय घाटे (1.56 खरब डालर) पर बैठा है। जापान और ब्रिटेन भी भारी सरकारी कर्ज से हलाकान हैं। इसलिए डालर, येन या पौंड पर ज्यादा लंबे दांव लगाने वाले वाले लोग कम हैं। नतीजतन सबकी उम्मीदें उभरते बाजारों में उभर रहीं है, जहां मंदी का अंधेरा भी छंटने लगा है।
निवेशकों के काफिले
खरबों डालर को समेटे दुनिया की वित्तीय पाइपलाइनें इन नए सितारों की तरफ मुड़ गई हैं। इक्विटी निवेशक, हेज फंड, पेंशन फंड के काफिले भारत समेत पूर्वी एशियाई और लैटिन अमेरिकी देशों में पड़ाव डालने लगे हैं। भारत की स्थिति तो बड़ी दिलचस्प है। मार्च में विदेशी निवेशक इक्विटी में करीब 4 अरब डालर और ऋण बाजार में 2.2 अरब डालर लगा चुके हैं। इससे पहले दिसंबर तक पिछले कैलेंडर साल में 17.64 अरब डालर काविदेशी निवेश आ चुका है। विदेश से सस्ता पैसा लाकर भारत में ब्याज कमाने (आरबिट्रेज) का पूरा कारोबार भी काफी गुलजार है। संकट से उबरने और मंदी दूर करने के लिए दुनिया भर के बैंकों ने ब्याज दरें घटाकर बाजार में धन की नदियां बहा दीं। विश्व के बाजारों में कम ब्याज दर पर भारी पैसा उपलब्ध है, लेकिन निवेश के विकल्प कम हैं। दरअसल दुनिया के निवेशकों को यह अंदाज नहीं था कि अमेरिका का वित्तीय संकट यूरोजोन को तोड़ देगा। वह तो यूरोजोन को निवेश की नई उम्मीद के तौर पर देख रहे थे, लेकिन अमेरिका के साथ यूरोपीय उम्मीद भी बिखर गई। इसलिए पैसे की गठरी उठाए निवेशक भारत जैसे उभरते बाजारों में मंडरा रहे हैं। भारत में मंदी का असर अभी बाकी है, महंगाई है, ऊंचा राजकोषीय घाटा है, फिर भी विदेशी निवेशकों के लिए यह बाजार हर हाल में यूरोजोन से अच्छा है।
अनोखी आफत
उभरती अर्थव्यवस्थाओं के पास इस नए आकर्षण पर इतराने का वक्त नहीं है, क्योंकि चुनौतियां बिल्कुल फर्क हैं। भारत में इस अनोखी आफत ने पैमाने ही बदल दिए हैं। 1990-91 के संकट के बाद भारत में पहली बार चालू खाते का घाटा जीडीपी के अनुपात में तीन फीसदी पर आया है। कोई दूसरा वक्त होता तो इस चिंताजनक घाटे के कारण रुपया जमीन सूंघ रहा होता, लेकिन 280 अरब डालर के जबर्दस्त विदेशी मुद्रा भंडार के कारण उलझनों की गणित तब्दील हो गई है। अब समस्या इन डालरों को संभालने, लगाने और इनकी भरमार के असर से निबटने की है। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति भी विदेशी निवेश की इस चमक पर अपनी आशंका जाहिर कर चुकी है। रिजर्व बैंक के लिए इन डालरों को खरीद कर विदेश में निवेश करना घाटे का सौदा है, क्योंकि दुनिया में ब्याज दरें कम हैं। इधर देश में डालर लाने वाले निवेशकों को ऊंचा ब्याज मिलता है। दूसरी तरफ बाजार से डालर खरीदने के बदले छोड़ा जाने वाला रुपया महंगाई की आग भड़का देता है, लेकिन अगर रिजर्व बैंक डालर न खरीदे तो रुपये की ताकत निर्यातकों को निचोड़ देगी। देशी बाजार में इन डालरों को खपाने का विकल्प नहीं है, क्योंकि परियोजनाएं उपलब्ध नहीं हैं। रिजर्व बैंक ने पिछले साल दिसंबर में विदेशी मुद्रा बाजार से किनारा कर लिया था, लेकिन अब चर्चा है कि 45 रुपये पर पहुंचा डालर उसे बाजार में उतरने और डालर खरीदने पर बाध्य कर रहा है।
छप्पर फाड़कर मिलना अच्छा है, मगर उस मिले हुए को सहेजने के लिए दूसरे ठिकाने तो होने ही चाहिए। निवेश के नए स्वर्गो की यही दिक्कत है कि उनके पास इस भेंट को सहेजने के रास्ते जरा कम हैं। नतीजतन विदेशी निवेश की यह अनोखी आमद इनके यहां मुद्रास्फीति से लेकर, अचल संपत्ति की कीमतों में कृत्रिम तेजी और बाजारों में सट्टेबाजी जैसी बुराइयां ला सकती है। ऊपर से यह निवेश डरे हुए व परेशान निवेशकों का है, इसलिए इसके टिकाऊ होने की गारंटी भी जरा कम है। लेकिन इस निवेश पर रोक लगाना और बड़ी चुनौती है। उभरती अर्थव्यवस्थाएं यकीनन शेष दुनिया से बेहतर, सुरक्षित और अच्छी हैं। भविष्य बताएगा कि इन्हें इस बेहतरी का क्या ईनाम मिला, फिलहाल वर्तमान तो यह बता रहा है कि इन्हें निवेश की शरणार्थी समस्या के निबटने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। ..शाख से तोड़े गए फूल ने हंस करके कहा, अच्छा होना भी बुरी बात है इस दुनिया में।
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अन्‍यर्थ के लिए
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