Friday, May 28, 2010

चाईनीज चेकर ....Chinese Checker

An Artharth e-xlusive
---------------------------
( ????? ….. ठीक समझे आप यह साप्‍ताहिक स्‍तंभ अर्थार्थ नहीं है। लेकिन यह खास आपके लिए है अर्थात इस ब्‍लॉग पर अर्थार्थ पढ़ने वालों के लिए विशेष। ताजा और एक्‍सलूसिव। इसे न्‍यूज, तथ्‍य, संदर्भ, प्रसंग, परिFont sizeप्रेक्ष्‍य और विश्‍लेषण का अनोखा हाइब्रिड समझिये। यह कोशिश है खबरों की भीड़-भाड़ के बीच खो जाने वाली बड़ी असर की छोटी सी खबर को तलाशने, उसका खोल तोड़ने, गांठें खोलने और आने वाले वक्‍त की आहटों को भांपने की। अर्थार्थ तो प्रति सोमवार इसके साथ मिलेगा ही।
मगर चीन ही क्‍यों या
चाइनीज चेकर ही क्‍यों.???... क्‍यों कि आने वाले दौर में चीन के कदम बहुत गौर से देखने चाहिए। चीन हर तरह से तैयार है। चीन नपे तुले दांव चलता है। चीन दिलचस्‍प है । चीन आर्थिक खबरों में कम दिखता है। मगर चीन चुपचाप छा जाता है। चीन अमीर, आक्रामक और अबूझ है। हर आर्थिक घटनाक्रम की ,पीछे दुनिया, अमेरिका और यूरोप को तलाशती है मगर इस गुल गपाड़े में चतुर चीन चुपचाप सम्‍मोहन फैला कर अपना काम कर जाता है। चाइनीज चेकर में आप समय समय पर पढ़ेंगे दुनिया की आर्थिक बिसात पर चीन की चालों का विश्‍लेषण। चीन के बारे में ताजा मालूम-नामालूम खबरों की रोशनी में।)
तो ड्रैगन की रहस्‍यमय दुनिया में आपका स्‍वागत है। बताइयेगा जरुर कि यह नया Artharth e-xlusive आपको कैसा लगा।

यह रहा पहला चाइनीज चेकर।....

----------------------------------------

चीनी नुस्‍खे, खास यूरोप के लिए

------------------------
र्ज की बीमारी से बुरी तरह कमजोर और टूटे यूरोप को अब क्‍या चीन की दवा चाहिए ? ... उसी चीन ,की जिसे 18-19 वीं सदी में ओपियम युद्ध हार कर यूरोप (ब्रिटेन) के सामने घुटने टेकने पड़े थे। मालूम है, डिफाल्‍ट होने के करीब पहुंच चुके ग्रीस को इस समय कौन मदद करने पहुंचा है ?....अपना पड़ोसी चीन। ग्रीस के प्रधानमंत्री जॉर्ज पापेंद्रो अपने देश को उबारने के लिए चीन की शरण में हैं। .... चीन खुशी खुशी तैयार है। चीन की सबसे बड़ी शिपिंग कंपनी कॉस्‍को ग्रीस के शिपिंग उद्योग को संकट के तूफान से निकाल कर किनारे तक लाएगी। लबालब भरी तिजोरियों के सहारे चीन की यह कंपनी ग्रीस के लिए 200 मिलियन यूरो की दवा लेकर पहुंच गई है। कॉस्‍को एथेंस के करीब चीन एक लॉजिस्टिक्‍स सेंटर बनाने वाली है। डूबते ग्रीस को यह निवेश बड़ा सहारा देगा।
ग्रीस के लिए शिपिंग नमक है और पर्यटन रोटी। ग्रीस के अमीरों की नई पीढ़ी अपनी शिपिंग कंपनी खोलने के सपने देखकर कर बड़ी होती है। लाजिमी भी है आखिर शिपिंग पर्यटन के बाद ग्रीस का दूसरा बड़ा उद्योग जो है। ग्रीस के जीडीपी में करीब पांच फीसदी का हिस्‍सेदार, करीब दो लाख लोगों को रोजगार देने वाला। एक देश के पास 3079 मालवाहक जहाज !!! हैरत की तो बात है ही। यह किसी एक देश के पास मालवाहक जहाजों का सबसे बड़ा बेड़ा है। ग्रीस दुनिया में टैंकर व बल्‍क कैरियर परिवहन में पहले नंबर पर है। प्राचीन यूनान से लेकर आज के ग्रीस तक दुनिया के जबर्दस्‍त जहाजी इसी मुल्‍क से आते हैं। दुनिया के सबसे एतिहासिक समुद्री मार्गों के चौराहे पर स्थित ग्रीस के लिए शिपिंग स्‍वाभाविक है इसलिए तभी तो ग्रीस के नए पुराने (गैलिक्सिडी, कोर्फू और मैसोलांग आदि) शहर समुद्री परिवहन में दुनिया की ताकत रहे हैं। इसके बाद बताने की जरुरत नहीं ग्रीस में शिपिंग टायकून्‍स की क्‍या हैसियत है और ग्रीस के लिए शिपिंग उद्योग कितना जरुरी है।
मगर बात तो हम ड्रैगन की कर रहे थे। दुनिया को पता भी नहीं चला और ड़ैगन ने बीते साल अकटूबर में चुपचाप एथेंस के बंदरगाह पाइरियस पर एक कंटेनर टर्मिनल खरीद लिया। यह मानो ग्रीस के सबसे अहम उद्योग पर दांत गड़ाने की तैयारी थी। अपनी जहाजी दुनिया में चीन के प्रवेश के एक साल के भीतर ही मंदी का मारा और कर्ज संकट से घिरा ग्रीस, शिपिंग उद्योग को लेकर ड़ैगन के सामने खड़ा है। दरअसल एक तरह से ग्रीस का शिपिंग उद्योग चीन का अहसानमंद है। बीते कुछ वर्षों में ग्रीस के इस सबसे अहम कारोबार को चीन ने ही पाला पोसा है। चीन ने ग्रीस की शिपिंग कंपनियों को लोहा अयस्‍क ढोने के बड़े बड़े ठेके दिये हैं, जिनके सहारे ग्रीस में शिपिंग रईसों की बाढ़ आ गई। यानी कि चीन ग्रीस से दूर जरुर है मगर सिर्फ नक्‍शे पर । ग्रीस की आर्थिक रीढ़, शिपिंग अब ड्रैगन की नई पसंद है। ....
800 आधुनिक जलयान, 400 मिलियन टन का परिवहन, 1500 बंदरगाहों से संपर्क और 160 देशों से कारोबार करने वाली चीन की महाकाय शिपिंग कंपनी कॉस्‍को इस समय ग्रीस के लिए रेस्‍क्‍यू बोट यानी जीवन रक्षक जहाज लेकर पहुंची है। यह दांव बड़ा गहरा है। चीन अच्‍छी तरह जानता है कि जो मौके पर मारे वही मीर.........


ड्रैगन बीमार यूरोप पर अपना मंत्र फेंक रहा है। .....


यूरोप में चीन की चालें बड़ी सधी और दिलचस्‍प होने वाली हैं.... गौर से देखियेगा !!


यही तो है चाइनीज चेकर !!

------------------------------

Monday, May 24, 2010

शायलाकों से सौदेबाजी

शुतुरमुर्ग एक समस्या का नाम भी है। इसके शिकार लोग अक्सर लैला और कैटरीना जैसे चक्रवातों से बचने के लिए छतरी लगा लेते हैं। संप्रभु कर्ज संकट में फंसे देशों में यह रोग बहुत आम है। इन्हें कभी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की ऑक्सीजन में जिंदगी नजर आती है तो कभी वह टैक्स से जनता को निचोड़ कर ताकत जुटाने की कोशिश करते हैं। मगर इससे न तो संकट टलता है और न खत्म होता है। कर्ज में चूकना और देनदारी को नए सिरे से तय करने का दर्द भरा इलाज ही वस्तुत: इनकी नियति होती है। कर्जदार देशों को अंतत: उस निर्मम दुनिया से निबटना होता है जिस पर दर्जनों शायलॉक (मर्चेट आफ वेनिस- शेक्सपियर) राज करते हैं। कर्ज देने वाले बैंकों व देशों के साथ देनदारी के पुनर्गठन का मतलब ऐसी लंबी सुरंग से गुजरना है, जिससे क्षत विक्षत हुए बिना बाहर आना मुश्किल है। हाल का सबसे बड़ा (2002 में 141 बिलियन डॉलर) डिफॉल्टर अर्जेटीना पिछले आठ साल से इस सुरंग में भटक रहा है। इस खतरनाक रास्ते पर किसी अंतरराष्ट्रीय संधि या व्यवस्था की रोशनी भी नहीं है।
....और सूद में चिडि़यों की बीट
र्ज व्यक्ति पर हो या देश पर, वसूली गलादाब ही होती है। 1890 के करीब दक्षिण अमेरिकी मुल्क पेरु जब कर्ज चुकाने में चूका तो कर्जदारों से सौदा दो मिलियन टन गुआनो (चिडि़यों की उर्वर बीट), 66 साल के लिए रेलवे पर नियंत्रण और टिटिकाका झील में बोट चलाने के अधिकारों के बदले छूटा। दुनिया के ताकतवर महाजन अभी पिछली सदी के मध्य तक कर्जो के बदले दक्षिण अमेरिकी व अफ्रीकी देशों के रेलवे, नौवहन, टैक्स तंत्र जैसे आय के मुख्य स्रोत कुर्क करते रहे हैं। मैक्सिको कर्ज न चुकाने के कारण 1861 में फ्रांस के हमले (स्पेन व ब्रिटेन की मदद से) का शिकार होकर गुलाम बना था। वेनेजुएला के समुद्री परिवहन पर जर्मनी, ब्रिटेन व इटली का प्रतिबंध हो या निकारागुआ और डोमनिकन रिपब्लिक के सीमा शुल्क प्रशासन पर अमेरिका का कब्जा, पिछली सदी की इन चर्चित घटनाओं के मूल में संप्रभु कर्जो से चूकने की ही कहानी है। वैसे यह बातें कुछ पुरानी सी लगती हैं क्योंकि आधुनिक दुनिया अब कर्ज के बदले चिडि़यों की बीट और रेलवे पर कब्जे जैसे सौदे नहीं करती। मगर यकीन मानिए कि कर्ज में चूकने वालों के प्रति वह उतनी ही निर्मम है। यही वजह है कि देशों को दिए जाने वाले कर्ज के बाजार में आज भी महाजनों का ही राज है।
महाजनों के क्लब
यूरोप के पिग्स (पुर्तगाल, इटली, ग्रीस, स्पेन आदि) अगर कर्ज देने में चूके तो हो सकता है कि दुनिया को एक बार फिर संप्रभु कर्ज की समस्या के अंतरराष्ट्रीय तंत्र (सॉवरिन डेट रिस्ट्रक्चरिंग मेकेनिज्म-एसआरडीएम) की याद आए लेकिन हकीकत यह है कि पिछली दो सदियों से संप्रभु कर्ज के बाजार पर महाजनों का ही राज है। दुनिया चाहे जितनी काबिल हो गई हो लेकिन वह कर्ज के फेर में बर्बाद होने वाले देशों को पारदर्शी ढंग से कर्ज चुकाने का तंत्र नहीं दे सकी है। इसके बदले दुनिया को मिले हैं पेरिस क्लब और लंदन क्लब। यकीनन, यही नाम हैं कर्ज देने वाले पक्षों के दो समूहों के। लंदन क्लब सातवें दशक में बना, जबकि पेरिस क्लब उसे बीस साल पहले बन चुका था। यह समूह तदर्थ हैं। इनका कोई कानूनी आधार नहीं है लेकिन कर्ज देने वाले इनके जरिए ही सौदेबाजी करते रहे हैं। लंदन क्लब वाणिज्यिक कर्जो के लिए सौदेबाजी करता है। जबकि पेरिस क्लब सरकारों के स्तर से दिए गए संप्रभु कर्जो की। संप्रभु कर्ज के खेल में विश्व बैंक व आईएमएफ की भूमिका केवल परेशान देश को ऑक्सीजन देने तक है। कर्ज देने वाले अपनी शर्तो पर कर्ज का पुनर्गठन करते हैं। 2002 में अर्जेटीना के कर्ज संकट के बाद दुनिया संप्रभु कर्जो को लेकर कुछ सतर्क हुई है। संप्रभु बांड जारी करने वाले देशों के अधिकारों की फिक्र होने लगी है और निर्मम हेज फंड (वल्चर फंड) की मनमानी को रोकने के कुछ नए नियम बनाए गए हैं लेकिन यह सब कोई अंतरराष्ट्रीय संधि या कानून नहीं है। अर्जेटीना का इतिहास बताता है कि वह अपना 75 फीसदी कर्ज ही पुनर्गठित कर सका। 20 बिलियन डॉलर के मूलधन, 10 बिलियन डॉलर काब्याज और कुछ अन्य विवादित कर्ज दक्षिण अमेरिका के इस मुल्क के हलक में अभी भी फंसा है।
कर्ज का 'हेयरकट' साख का मुंडन
डिफॉल्टर देश जब कर्ज देने वालों के सामने लेन देन पूरा करने के लिए कर्ज घटाने का प्रस्ताव करता है तो उसे वित्तीय बाजार हेयरकट कहता है। मगर कर्ज पुनर्गठन की यह प्रक्रिया उस देश की साख का मुंडन कर देती है। अर्जेटीना के 141 बिलियन डॉलर के डिफॉल्ट में करीब 82 बिलियन डॉलर मूलधन था और हेयरकट कर्ज समायोजन प्रस्ताव का हिस्सा था। संप्रभु कर्ज के पुनर्गठन की लंबी व पेचीदा सौदेबाजी के बाद कर्जो की देनदारी आगे खिसकाई जाती है और कर्जदारों को नए बांड दिए जाते हैं, जिसमें कर्ज देने वाले पक्षों को नुकसान भी होता है। कई देश वाणिज्यिक कर्जदारों को अपनी कंपनियों में इक्विटी देकर स्वैप करते हैं। चिली इसका ताजा और सफल उदाहरण है। मगर पूरी प्रक्रिया डिफॉल्टर देश को वित्तीय बाजार में दागी कर देती है। अर्जेटीना ने इसी अप्रैल में अपने कर्जदारों को हेयरकट का नया प्रस्ताव दिया है। अर्जेटीना की पेशकश है कि कर्जदार पिछले कर्ज के बदले नए बांडों को डिस्काउंट पर खरीदकर बात नक्की करें। अर्जेटीना अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाजार में अभी भी कालेपानी की सजा झेल रहा है। वह निर्वासन दूर करने व सामान्य देश बनने के लिए गिड़गिड़ा रहा है।
शायलॉक याद है आपको? शेक्सपियर के मशहूर नाटक मर्चेट ऑफ वेनिस का खलनायक, सूदखोर (लोन शार्क) महाजन, जो एंटोनियो से कर्ज के बदले उसके शरीर का एक हिस्सा मांगता है। कर्ज की दुनिया शेक्सपियर के जमाने से आज तक लगभग वैसी ही बेढंगी है। यहां रंग और ढंग बदला है लेकिन तासीर नहीं। अब तो यूरोपीय सेंट्रल बैंक ने खुद बाजार से यूरोपीय देशों के कचरा रेटिंग वाले बांड (16 बिलियन डॉलर के सौदे) खरीद रहा है। यह यूरो जोन के केंद्रीय बैंक का (बाजार की भाषा में न्यूक्लियर ऑप्शन) ब्रह्मास्त्र है। इसके बावजूद वित्तीय बाजार मान रहा है कि यूरोपीय बैंक का मंत्र, आईएमएफ की मदद और जर्मनी की दया ग्रीस को उबार नहीं सकती। महाजनों की दुनिया, 130 बिलियन डॉलर के कर्जदार ग्रीस को कर्ज पुनर्गठन की कीलों भरी कुर्सी पर बैठाने के लिए बेताब है। स्पेन, पुर्तगाल भी शायद इसी कतार में हैं।
इतनी बारिश हो चुकी है रात इस दीवार पर
कल सुबह जो धूप निकली तो भी यह गिर
जाएगी
----------------------

Monday, May 17, 2010

ऐसा भी हो सकता है?

ग्री का अपशकुन अब किसका घर घेरेगा? ऋण संकट का वेताल अब किस के आंगन में उतरेगा?.. यही तो सोच रहे हैं न आप? जवाब इस पहेली में छिपा है। आगे लिखी पंक्तियां पढि़ए और सवाल का जवाब दीजिए.. आईएमएफ की निगाह में ये देश ऋण संकट के वायरस का स्वागत करने को तैयार बैठे हैं। इनकी राज्य सरकारें डिफाल्ट होने लगी हैं। इनका कुल सार्वजनिक कर्ज इनके जीडीपी के मुकाबले 100 से 250 फीसदी तक हैं। इनके बजट अब कर्ज का बोझ नहीं संभाल सकते।
जरा बताइए तो यह इशारा किन देशों की तरफ है???
स्पेन, पुर्तगाल, आयरलैंड !!!!
नहीं.. इनके बारे में तो सबको पता है
यह बात अमेरिका, यूके (ब्रिटेन), जापान और कुछ हद तक जर्मनी की है !!!
चौंक गए न? ग्रीस के तूफान ने मजबूत दिखने वाले बड़ों के नकाब खींच दिए हैं। वित्तीय बाजार अब रेत से सर निकालकर यह निर्मम सच बोलने की हिम्मत जुटा रहा है कि बड़े भीतर से बड़े खोखले हैं। अमीर देशों के क्लब जी 20 के आधा दर्जन महारथी ऋण संकट के टाइम बम पर बैठे हैं। इनके सरकारी कर्ज खतरे के हर निशान से ऊपर हैं। वित्तीय बाजार इन्हें नया कर्ज देने में हिचक रहा है। वित्तीय संस्थाएं जल्द ही ट्रिपल ए रेटिंग के अवसान का ऐलान कर सकती हैं। मतलब उस सुनहरी साख का खात्मा होने वाला है जो दिग्गज देशों के सरकारी (सावरिन) बांड्स को मिलती है और इन्हें हर तरह से सुरक्षित होने का तमगा देती है। बताने की जरूरत नहीं कि वित्तीय बाजार निहायत कायर है। खतरे के एक अलार्म पर यहां कोई किसी की चिंता नहीं करता, बस सारी भेड़ें खाई में कूद पड़ती हैं।
कितनी दूर तक जाएगी बात?
सरकारों पर तंज करने वाले कहते हैं कि आम लोग अगर सरकारों की तरह व्यवहार करने लगें तो आप पुलिस को बुला लेंगे.. बात भी ठीक है, खाली जेब हो तो कोई कर्ज नहीं देता, लेकिन सरकारें खूब ऐसा करती हैं। अंतरराष्ट्रीय पैमाने के मुताबिक अगर किसी देश का कर्ज जीडीपी से 60 फीसदी ऊपर हो और ऊपर से वह विदेशी कर्ज हो तो उस मुल्क को कर्ज संकट रोग कभी भी पकड़ सकता है। मगर मूडी के आकलन के मुताबिक सिर्फ 2007 से 2009 के बीच दुनिया के जीडीपी के अनुपात में सरकारों का संप्रभु कर्ज 62 फीसदी से बढ़कर 85 फीसदी हो गया है। इनमें भी जी 20 के सदस्य नौ प्रमुख देशों में सात का संप्रभु कर्ज उनके जीडीपी की तुलना में दस फीसदी बढ़ गया है। जब कि इस दौरान जी 20 में औसत बजट घाटे एक फीसदी से बढ़कर करीब आठ फीसदी हो गए। निवेशकों को खतरा साफ दिख रहा है और संप्रभु डिफाल्ट तो छूत का रोग है। इसे देखते ही वित्तीय बाजार नाक मुंह पर सतर्कता का मास्क बांध लेता है।
इनका हाल तो देखो!
न्यूयार्क के मैनहट्टन में सिक्स्थ एवेन्यू पर लगी अमेरिका की राष्ट्रीय कर्ज घड़ी में नौ अक्टूबर, 2008 को कर्ज की वास्तविक स्थिति दिखाने के लिए अंक कम पड़ गए थे। अमेरिका के कर्ज ने तब दस ट्रिलियन डालर के आंकड़े को पार किया था। यह शायद अमेरिका में कर्ज संकट की उलटी गिनती की शुरुआत थी। यह घड़ी 16 मई रविवार को करीब 12.9 ट्रिलियन डालर का सार्वजनिक कर्ज दिखा रही थी। अमेरिका में केंद्रीय स्तर पर भले ही सब कुछ ढंका छिपा हो, मगर नीचे तो शुरुआत हो चुकी। अमेरिका का सबसे बड़ा राज्य, अर्नाल्ड श्वार्जनेगर का कैलिफोर्निया कर्ज चुकाने में चूकने वाला है और ओबामा से मदद की गुहार कर रहा है। 2009 में अमेरिकी नगर निकायों ने दीवालियेपन के 11000 मामले दायर किए हैं। जबकि 1937 से अब तक ऐसे केवल 600 मामले आए थे। चर्चा हैरिसबर्ग व डेट्रायट जैसे शहरी निकायों के दीवालिया होने की भी है। इससे 2800 बिलियन डालर का म्युनिसिपल बांड बाजार गर्त में है। अमेरिकी की फेडरल सरकार का संप्रभु कर्ज जीडीपी का करीब 85 फीसदी है और सकल कर्ज 150 फीसदी पर है। अमेरिका को इस साल बाजार से 1.6 ट्रिलियन डालर जुटाने हैं, वित्तीय बाजार डरा हुआ है, कोई नहीं जानता कि कैलिफोर्निया का हाल देख लोगों को अंकल सैम के बांडों पर कब तक भरोसा रहेगा।
और इनका क्या होगा?
दुनिया के अगुआ बांड हाउस पिमोको के ब्रिटेन के बाजार से हाथ खींचने की चर्चा लंदन के वित्तीय बाजारों में ठीक उस समय उभरी, जब ब्रितानी सरकार चुनाव से इंच भर दूर थी और करीब 200 बिलियन पौंड सरकारी कर्ज कार्यक्रम सर पर खड़ा था। पिमोको जैसे कई अन्य निवेशक भी यूके की हालत देख कर उखड़ रहे हैं। 1.5 ट्रिलियन पौंड का कुल सरकारी कर्ज और पूरे यूरोपीय समुदाय में सबसे ऊंचा बजट घाटा (जीडीपी के मुकाबले 12 फीसदी) किसी भी निवेशक को डरायेगा। ब्रिटेन यूरो जोन से बाहर है, इसलिए वह मुद्रा का अवमूल्यन कर रहा है, जो हालत और खराब करेगी। इस अमीर मुल्क को अगले तीन साल में 550 बिलियन पौंड का कर्ज चाहिए, लेकिन वित्तीय बाजार तो उसकी ट्रिपल ए रेटिंग वापस लेने की चर्चा कर रहा है। जर्मनी भी जीडीपी के अनुपात में करीब 78 फीसदी कर्ज के साथ खतरे के निशान से ऊपर है। वहां कई राज्यों में कर्ज का हाल कैलिफोर्निया से पांच गुना ज्यादा बुरा है।

पूरब तक फैला अंधियारा
दुनिया के अर्थशास्त्री इस समय इस बहस में जुटे हैं कि पहले यूके डिफाल्ट होगा या जापान। दरअसल जापान कुछ ज्यादा ही नाजुक हालत में है। आईएमएफ मानता है कि वहां इस साल सरकार का कर्ज जीडीपी की तुलना में 227 फीसदी पर पहुंच जाएगा। जापान को 213 ट्रिलियन येन के कर्ज चुकाने के लिए इस साल नया कर्ज चाहिए। पूरब के इस दिग्गज मुल्क में बचत दर नवें दशक के 15 फीसदी से घटकर अब दो फीसदी पर आ गई है। जापान के लोग सरकार के बांडों में पैसा लगाने की स्थिति में नहीं हैं। जापान का स्टेट पेंशन फंड (दुनिया का सबसे बड़ा पेंशन फंड) सरकारी बांड बेच रहा है। बैंकिंग उद्योग पहले से बेहाल है। आर्थिक विकास दर बहुत कमजोर है। दुनिया को मालूम है कि जापान का इतिहास भयंकर आर्थिक भूलों से भरा है।
यह सारा ब्यौरा अगर आपको किसी हारर स्टोरी की तरह लगे तो माफ करिएगा। लेकिन हकीकत छिपाने से फायदा भी क्या? सिटी ग्रुप के अर्थशास्त्री विलियम ब्यूटर तो और भी मुंहफट हैं। वह कहते हैं कि ''कुत्तों की जो नस्लें आज सबसे अच्छी मानी जा रही हैं, वह कभी दुनिया की सबसे खराब नस्लों में गिनी जाती थीं।'' उनका इशारा बड़ों के हाल की तरफ है, वित्तीय पैमानों पर दुनिया के कई पिछड़े मुल्क आज इन अगड़ों से ज्यादा बेहतर हैं। दिसंबर में हमने इसी स्तंभ में लिखा था महासंकट की उलटी गिनती शुरू होने वाली है। ग्रीस से शुरू होकर यह अपशकुन अब दुनिया के कई मुल्कों का दरवाजा खटखटाने लगा है। हर अमीर मुल्क कर्ज का डायनामाइट लपेटे नाच रहा है और भारी घाटों व राजस्व में कमी का पलीता हाथ में है। कोई नहीं जानता कौन किसका कितना कर्ज चुका पाएगा और जनता से क्या-क्या वसूला जाएगा? इलाज की कोशिशें भी जारी हैं, मगर इलाज भी संकट जितना ही भारी है। .. दानिशमंदों (बुद्धिमानों ) की नादानी दुनिया को अक्सर बहुत महंगी पड़ी है। यह संकट इसी की नजीर है।
बूदो बाश क्या पूछो लोगों हम उस शहर से आए हैं
नादानी दानाई जहां है दानाई नादानी है .. फिराक
----------------

Monday, May 10, 2010

महात्रासदी का ग्रीक कोरस

व धुएं में घिरे एथेंस के मार्फिन बैंक की खिड़की पर एक महिला का शव टंगा है। ..ग्रीस के शहरों में अराजकता दौड़ रही है, दंगे जानलेवा हो चले हैं। . इस देश पर आतंकवाद, युद्ध या प्रकृति का कहर नहीं टूटा है। एक चुनी हुई सरकार भी है, लेकिन लोकतंत्र और ओलंपिक का जन्मदाता देश जल रहा है। सड़कों पर दंगा करती भीड़ को समझ में नहीं आता कि उनके प्यारे फलते-फूलते ग्रीस (यूनान) में अचनाक क्या हो गया है? ..यही बात तो 2001 में ब्यूनस आयर्स (अर्जेटीना) की सड़कों पर मरते-मारते लोग भी समझ नहीं पा रहे थे कि वह नौकरियां गंवाकर अचानक सड़कों पर कचरा क्यों बीनने लगे? ..पूरा विश्व देख रहा है कि देशों का कर्ज संकट में फंसना या देनदारी में चूकना (सावरिन डिफाल्ट) कितनी दर्दनाक विपत्ति है। एक ऐसी आपदा जो गुस्साई प्रकृति, सिरफिरे आतंकी या युद्धखोर राजनेताओं के चलते नहीं, बल्कि सरकारों और स्मार्ट व ज्ञानी गुणी वित्तीय कारोबारियों के चलते आती है। देशों का कर्ज संकट गलतियों का पीड़ादायक दोहराव है, जिसने सिर्फ कुछ महीनों में एक संपन्न देश को वस्तुत: भिखारी बना दिया है। ऊपर से दुनिया यह मान रही है कि ग्रीस दरअसल वित्तीय महात्रासदी का कोरस (ग्रीक रंगमंच की परंपरा में ट्रेजडी से पहले गाया जाने वाला सहगान) मात्र है। इस ट्रेजडी के कई अंक अभी बाकी हैं।
जब देश डूबते हैं..!!
अंतरिक्ष में मानव की पहली उड़ान (अपोलो 8) के कमांडर फ्रैंक बोरमैन मजाक में कहते थे कि नर्क की संकल्पना के बिना जैसे ईसाइयत नहीं रह सकती, ठीक उसी तरह दीवालियेपन के बिना पूंजीवाद भी मुश्किल है। अमेरिकी मानते रहें कि व्यक्ति के लिए दीवालिया होना नई शुरुआत का मौका है, मगर जरा ग्रीस से पूछिए वह किस नई शुरुआत के बारे में सोच रहा है? किसी देश के लिए संप्रभु कर्ज संकट दरअसल घोर नर्क है जो देश की वित्तीय साख, उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति, वित्तीय तंत्र की मजबूती और देश में निवेश की उम्मीदें आदि सब कुछ लील जाता है। दरअसल जब देश डिफाल्टर होते हैं, और वह भी विदेशी बाजारों से लिए गए कर्जो में तो ग्रीस जैसे उदाहरण बनते हैं। एक बार बस बाजार को पता भर चले कि देश की हालत नरम-गरम है तो कर्ज की रेटिंग गिरने लगती है और बात नए कर्जो पर रोक, बैंकों की बर्बादी से होती मुद्रा अवमूल्यन, दीवालियेपन तक तक आ जाती है। अंतत: अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी संस्थाएं अनुदान देती हैं और देश संकट की एक लंबी सुरंग में चला जाता है। इस महाव्याधि का इलाज भी कम मारक नहीं होता, लेकिन उस पर चर्चा फिर कभी। फिलहाल तो यह देखें कि ग्रीस ने यह नया इतिहास कैसे बनाया?
ग्रीक व्यथा की अंतर्कथा
यूरोप में कहावत है कि ग्रीस अपनी क्षमता से अधिक इतिहास बनाता है। संप्रभु दीवालियेपन की शायद सबसे पहली घटना ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में ग्रीस में ही घटी थी, जब इसकी दस नगरपालिकाएं कर्ज चुकाने में चूक गई थी। वैसे ग्रीस के ताजा इतिहास में ज्यादा रोमांच है। अमीर देशों में शुमार ग्रीस 2000 से 2007 तक यूरो जोन की सबसे तेज दौड़ती (4.2 फीसदी विकास दर) अर्थव्यवस्थाओं में एक था। मगर 2008 की मंदी ने ग्रीस के दो सबसे बड़े उद्योगों पर्यटन व शिपिंग को तोड़ दिया और सरकार का राजस्व बुरी तरह घट गया। पर इसमें अचरज क्या? यह तो लगभग हर देश के साथ हुआ था, दरअसल ग्रीस में असली लोचा यहीं पर था। घाटा बढ़ने के बावजूद ग्रीस कर्ज लेता रहा और अपना वित्तीय सच दुनिया से छिपाता रहा। पिछले साल के अंत में दुनिया को पता चला कि ग्रीस में घाटे व कर्ज के आंकड़े झूठ हैं। इस मुल्क ने 216 बिलियन यूरो का कर्ज ले रखा है, जो कि उसके जीडीपी का 120 फीसदी है। दुनिया को पता था कि ग्रीस सरकार के बांडों में 70 फीसदी निवेश विदेशी है, इसलिए 2009 के अंत से ग्रीस में महासंकट की उलटी गिनती शुरू हो गई थी। इस साल मार्च में जब ग्रीस की सरकार ने वित्तीय पाबंदियों का कानून बनाकर खतरे का बटन दबाया तो वित्तीय बाजार में ग्रीस के बांडों की रेटिंग जंक यानी कचरा होने लगी और दुनिया समझ गई कि ग्रीस तो अब गया।
फिर भी तो नहीं सीखते !!
2010 का पहला सूरज चढ़ने तक दुनिया यह जान गई थी कि ग्रीस डूबेगा, लेकिन यह अब भी एक रहस्य है कि डूबते ग्रीस के बांड इस साल की शुरुआत में ओवरसब्सक्राइब कैसे हो गए? दरअसल दुनिया ने कभी वक्त पर उस पूर्व चेतावनी तंत्र की नहीं सुनी है, जिसे इतिहास कहा जाता है। वित्तीय बाजार के विस्तार के साथ देशों का कर्ज में चूकना तेजी से बढ़ा है। 1824 से 2006 के बीच दुनिया में संप्रभु दीवालियेपन की 257 घटनाएं हुई थीं, लेकिन अकेले 1981 से 1990 के बीच देशों के कर्ज में चूकने की 74 और 1998 से 2004 के बीच 16 घटनाएं हुई। 1500 से 1900 ईसवी के बीच फ्रांस आठ बार और स्पेन 13 बार दीवालिया हुआ। हालांकि इतना पीछे जाने की जरूरत नहीं है। अर्जेटीना, मेक्सिको, रूस, थाइलैंड इस मर्ज के सबसे ताजे उदाहरण हैं। पिछले करीब 220 साल में छह बार दीवालिया हुआ अर्जेटीना तो दुनिया के अर्थशास्त्रियों के बीच मजाक का विषय है। देशों के दीवालियेपन पर आर्थिक शोध का अंबार लगा है, लेकिन इसे पढ़े बिना भी यह जाना जा सकता है कि यह आर्थिक नर्क जब भी बना है तब बेतहाशा खर्च, राजकोषीय असंतुलन और वित्तीय अपारदर्शिता व विदेशी बाजारों से अंधाधुंध कर्ज इसके मूल में रहे हैं। शोध बताते हैं कि बैंकों व मुद्राओं के संकट अंतत: देशों को दीवालियेपन पर आकर रुके हैं। अर्जेटीना, उरुग्वे, यूक्रेन, इंडोनेशिया और ग्रीस के ताजे संकट इसकी नजीर हैं। जानकार कहेंगे कि ग्रीस तकनीकी तौर पर डिफाल्टर नहीं है, क्योंकि वह आईएमएफ की आक्सीजन पर है, लेकिन बाजार मुतमइन है कि ग्रीस व्यावहारिक रूप से डिफाल्टर है। जैसे ही ग्रीस अपने कर्ज की देनदारी को टालेगा या कर्जो का पुनर्गठन करेगा। उस पर आधिकारिक डिफाल्टर की मुहर लग जाएगी।
ग्रीस की रंगमंचीय परंपरा में दशकों से मार्च अप्रैल के महीनों में थियेटरों में ट्रेजडी का मंचन का होता है। ..ग्रीस ने अपनी यह परंपरा नहीं छोड़ी, इस समय वहां एक सुपर ट्रेजडी का मंचन हो रहा है। यह बात दीगर कि ग्रीस के लोग इस त्रासदी का हिस्सा बनना कतई नहीं चाहते थे, लेकिन वह करें भी क्या? सरकारें हमेशा मनमाना कर गुजरती हैं, बाद में आम जनता मरती व भरती है। ग्रीस जैसे संकट की कल्पना भी किसी देश के लिए डरावनी है, लेकिन हकीकत बड़ी जालिम है। वित्तीय बाजार ग्रीस को महात्रासदी का पहला अध्याय मान रहे हैं। ग्रीस यूरोप में अकेला बीमार नहीं है और जो दूसरे बीमार हैं उन्होंने ही ग्रीस को कर्ज भी दे रखा है। यानी कि त्रासदी के लिए अगले मंच तैयार हो रहे हैं, ऊपर से इस संप्रभु कर्ज संकट का इलाज भी किसी आपदा से कम नहीं है। यूरोप के समृद्ध मुल्क कर्ज के खेल में देशों की बर्बादी को तीसरी दुनिया की आपदा बताते थे, मगर इस अपशकुन ने अब उनका घर भी देख लिया है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद पहली बार कोई अमीर देश इस तरह डूब रहा है। ..मेरे डूब जाने का बाइस तो पूछो, किनारे से टकरा गया था सफीना।
-----------------------------
( विनम्र संदर्भ: इसी स्‍तंभ में आठ दिसंबर 2009 में लिखा गया था कि महासंकट की उलटी गिनती प्रारंभ हो गई है। तब भारत में इसकी चर्चा मुश्किल से सुन पड़ती थी। वह तो बजट के कयास और मंदी खत्‍म होने खूबूसरत ख्‍यालों का मौसम था। ग्रीक की समस्‍या के साथ सॉवरिन डिफाल्‍ट की महात्रासदी शुरु हो गई है। आंच हम तक आ रही है। .............. और मजा देखिये कि आज 10 मई 2010 के अखबारों में सरकार के मुख्‍य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु कह रहे हैं कि यूरोप का संकट भारत के पूंजी बाजार में विदेशी निवेश की बाढ़ लाने वाला है। 12 अप्रैल 2010 को आप पढ़ चुके हैं कि सुरक्षित होने के खतरे सर पर हैं। ..... आमीन.!!!! दोनों स्‍तंभ बायें तरफ आर्काइव में हैं। )

Monday, May 3, 2010

ऊंटों के सर पर पहाड़

यूरोपीय बैंकरों के सपने में आज कल राबिन हुड आता है, घोड़े पर सवार, टैक्स का चाबुक फटकारता हुआ!! हेज फंड मैनेजरों को पिछले कुछ महीनों से बार-बार टोबिन टैक्स वाले जेम्स टोबिन (विदेश मुद्रा कारोबार पर टैक्स) की आवाजें सुनाई पड़ने लगी हैं!! नया कर लगाकर ओबामा अमेरिकी बैंकों के लिए उद्धारक की जगह अब मारक हो गए हैं! भारतीय रिजर्व बैंक भी विदेशी निवेशकों को टोबिन टैक्स का खौफ दिखाता है!! और पूरी दुनिया की वित्तीय संस्थाओं के प्रमुख तो अब आईएमएफ का नाम सुनकर सोते से जाग पड़ते हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष विश्व के महाकाय वित्तीय कारोबार पर टैक्स की कटार चलाने को तैयार है। ..यह बदलाव हैरतअंगेज है। उदार पूंजी के आजाद परिंदों के लिए पूरी दुनिया मिलकर तरह-तरह के जाल बुनने लगी है। हर कोई मानो वित्तीय संस्थाओं से उनकी गलतियों और संकटों की कीमत वसूलने जा रहा है। वित्तीय बाजार के सम्राट कठघरे में हैं और खुद को भारी जुर्माने व असंख्य पाबंदियों के लिए तैयार कर रहे हैं। यकीनन, एक संकट ने बहुत कुछ बदल दिया है।
और बिल कौन चुकाएगा?
वित्तीय बाजार के ऊंट अब पहाड़ के नीचे हैं। दुनिया के दिग्गज बैंकों व वित्तीय संस्थाओं की पारदर्शिता कसौटी पर है। इनके ढहते समय राजनीतिक नुकसान देखकर सरकारों ने इन्हें जो संजीवनी दी थी, अब उसका बिल वसूलने की बारी है। ताजा हिसाब बताता है कि दुनिया के भर के बैंकों व वित्तीय संस्थाओं ने डेरीवेटिव्स के खेल में करीब 1.5 ट्रिलियन डालर गंवाए हैं। जबकि बैलेंस शीट से बाहर जटिल वित्तीय सौदों का नुकसान दस ट्रिलियन डालर तक आंका जा रहा है। एक आकलन के मुताबिक संकट से पहले तक दुनिया भर बैंकों की शेयर पूंजी दो ट्रिलियन डालर के करीब थी। यानी कि बैंकों के पास घाटा है पूंजी नहीं। वित्तीय विश्लेषक मान रहे हैं कि बैंकों को उबारने पर दुनिया की सरकारें 9 ट्रिलियन डालर तक खर्च कर चुकी हैं। इस रकम को उंगलियों पर गिनना (डालरों के हिसाब में ट्रिलियन बारह शून्य वाली रकम है। रुपये में बदलने के बाद यह और बड़ी हो जाती है) बहुत मुश्किल है। बेचैनी इसलिए है कि बैंकों के साथ देश भी दीवालिया होने लगे हैं। आइसलैंड ढह गया है, संप्रभु कर्जो में डिफाल्टर बर्बाद ग्रीस को यूरोपीय समुदाय और आईएमएफ ने रो झींक कर 60 बिलियन डालर की दवा दी है। सरकारों को यह पता नहीं आगे कितनी और कीमत उन्हें चुकानी होगी। इसलिए वित्तीय खिलाडि़यों या संकट के नायकों पर नजला गिरने वाला है। दिलचस्प है कि जिस अमेरिका ने पिछले साल नवंबर में जी 20 देशों की बैठक में इस टैक्स को खारिज कर दिया था, उसी ने बैंकों पर नया कर थोप कर करीब 90 बिलियन डालर निकाल लिये है। ..अमेरिका को देखकर अब पूरी दुनिया वित्तीय कारोबार पर तरह-तरह के करों का गणित लगाने लगी है।
हमको राबिन हुड मांगता!
यूरोप के लोग वित्तीय संस्थाओं के लिए राबिन हुड छाप इलाज चाहते हैं। अमीरों से छीनकर गरीबों को बांटने वाला इलाज। आक्सफैम जैसे यूरोप के ताकतवर स्वयंसेवी संगठनों ने वित्तीय संस्थाओं पर राबिन हुड टैक्स लगाने की मुहिम चला रखी है। मांग है कि बैंकों व वित्तीय संस्थाओं के आपसी सौदों पर 0.05 फीसदी की दर से कर लगाकर हर साल करीब 400 बिलियन डालर जुटाए जाने चाहिए। पूरे प्रसंग में राबिन हुड का संदर्भ प्रतीकात्मक मगर बेहद अर्थपूर्ण है। दरअसल आंकड़ों वाली वित्तीय दुनिया भी नैतिकता के सवालों में घिरी है। अमेरिकन एक्सप्रेस, सिटीग्रुप, एआईजी, गोल्डमैन, मोरगन, बैंक आफ अमेरिका, वेल्स फार्गो से लेकर यूरोप के आरबीएस, लायड्स और बर्बादी के नए प्रतीक ग्रीस के एप्सिस बैंक तक, पूरी दुनिया का लगभग हर बड़ा बैंक दागदार है और कर्जदार है अपने देश की आम जनता का, जिसके टैक्स की रकम से इन्हें उबारा गया है। मुनाफे तो इनके अपने थे, लेकिन इनकी बर्बादी सार्वजनिक हो गई है। जाहिर है, कोई सरकार आखिर कब तक इनकी गलतियों का बोझ ढोएगी? इसलिए यह सवाल अब बडे़ होने लगे हैं कि बैंक दुनिया में सबसे ज्यादा मुनाफा कमाते हैं। यहां अन्य उद्योगों की तुलना में प्रति कर्मचारी मुनाफा 26 गुना ज्यादा है। तो फिर इन्हें अपनी बर्बादी से बचाने का बिल चुकाना चाहिए। राबिन हुड टैक्स का आंदोलन चलाने वाले कहते हैं कि यह संकट एक अवसर है। इनके अकूत मुनाफे से कुछ हिस्सा निकलेगा तो भूखे-गरीबों और बिगड़ते पर्यावरण के काम आएगा। ..यह वित्तीय सूरमाओं से प्रायश्चित कराने की कोशिश है।
गलती करने का. तो टैक्स भरने का
वित्तीय अस्थिरता का इलाज निकालने के लिए अधिकृत आईएमएफ ने ताजी रिपोर्ट में अपना फंडा साफ कर दिया है। मतलब यह कि जोगलती करें, वे टैक्स भरें। क्योंकि सरकारों के पास खैरात नहीं है। मुद्राकोष दो तरह के टैक्स लगाने की राय दे रहा है। पहला कर इस मकसद से कि आगे अगर कोई बैंक डूबे तो उसे उबारने के लिए पहले से इंतजाम हो। यह कर बैंकों की कुल देनदारियों पर लगेगा। बकौल आईएमएफ इससे हर देश को अपने जीडीपी आकारके कम से कम दो फीसदी के बराबर की राशि जुटानी होगी। अमेरिका में इससे 300 अरब डालर मिलने का आकलन है। जबकि दूसरा कर वित्तीय कामकाज कर कहा जा रहा है। यह बैंकों के अंधाधुंध मुनाफों और अधिकारियों दिए जाने वाले मोटे बोनस पर लगेगा। इसके अलावा विभिन्न देशों में वित्तीय कारोबार पर कर से लेकर विदेशी मुद्रा वापस ले जाने पर टोबिन टैक्स जैसी कई तरह की चर्चाएं हैं। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय कारोबार का आकार (बैंक आफ इंटरनेशनल सेटलमेंट के आंकड़े के अनुसार सालाना 60 ट्रिलियन डालर का शेयर, 900 ट्रिलियन डालर का विदेशी मुद्रा, 2200 ट्रिलियन डालर का डेरीवेटिव्स, 950 ट्रिलियन डालर का ओटीसी डेरीवेटिव्स और स्वैप कारोबार) इतना बड़ा है कि छोटा सा टैक्स भी बहुत बड़ा हो जाता है। हिसाब किताब लगाने वाले कहते हैं कि विश्व का सालाना वित्तीय कारोबार पूरी दुनिया के जीडीपी से 11 गुना ज्यादा है !!! .. एक तो इतना बड़ा कारोबार, ऊपर से खतरे हजार और डूबने पर सरकार से मदद की गुहार... ओबामा लेकर गार्डन ब्राउन और एंजेला मर्केल तक सब कह रहे हैं ..बहुत नाइंसाफी है।
वित्तीय बाजार में ग्रीस की साख जंक यानी कचरा हो गई है। दीवालियेपन की दंतकथाएं बना चुका मशहूर स्पेन फिर आंच महसूस कर रहा है। इसलिए वित्तीय संस्थाएं भले ही कुनमुनाएं लेकिन माहौल उनके हक में नहीं है, क्योंकि देशों का दीवालिया होना बहुत बड़ी आपदा है। मुमकिन है कि एक माह बाद जून में कनाडा में होने वाली बैठक में जी 20 देशों के अगुआ मिलकर वित्तीय जगत के सम्राटों के लिए टैक्स की सजा मुकर्रर कर दें। कोई नहीं जानता कि बैंकों को मिलने वाली सजा बाजारों को उबारेगी या डुबाएगी? पता नहीं बैंक इन करों का कितना बोझ खुद उठायेंगे और कितना उपभोक्ताओं के सर डाल कर बच जाएंगे? ..दो साल पहले तक वित्तीय सौदों पर टैक्स व सख्ती की बात करने गंवार और पिछड़े कहाते थे, मगर आज हर तरफ पाबंदियों की पेशबंदी है। पता नहीं तब का खुलापन सही था या आज की पाबंदी। असमंजस में फंसी दुनिया अपने नाखून चबा रही है। ..बाजार की जबान में सब कुछ बहुत 'वोलेटाइल' है। ..''देखे हैं हमने दौर कई अब खबर नहीं, पैरों तले जमीन है या आसमान है।''
अन्‍यर्थ .... http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)