Monday, July 30, 2012

सुब्‍बाराव के बाल


रिजर्व बैंक गवर्नर डी सुब्‍बाराव अपने बालों से परेशान हैं। जब उनके सर पर घने बाल थे तब वह सैलून पर 25 रुपये देते थे। दस साल पहले तक वह 50 रुपये में बाल कटा लेते थे। मगर अब उनके सर पर बालों के अवशेष मात्र हैं, तो सैलून वाला 150 रुपये लेता है। उन्‍हें यह समझ में नहीं आता कि भारत में महंगाई कैसे बढ़ती है और कीमतों को किस तरह से नापा जा रहा है। बेचारे रिजर्व बैंक गवर्नर!  नाप जोख की यह मुसीबत तो सूखा, बा‍रिश, ग्रोथ, मांग, ब्‍याज दरों का लेकर भी है।  हमारे आर्थिक आंकड़ो की बुनियादी किताब ठीक उस वक्‍त गुम हो गई है जब हम एक जटिल, अस्थिर और चुनौतीपूर्ण आर्थिक माहौल में घिरे है। सरकार के तमाम विभागों और दिमागों के बीच आंकड़ों के असमंजस ने नीतिगत फैसलों की प्रक्रिया को ही अगवा कर लिया है। ब्‍याज दरों में कमी को लेकर भ्रम है। महंगाई को लेकर मतभेद हैं। औद्योगिक उत्‍पादन घटने बढ़ने की गणना धोखे से भरी है और सूखा है या नहीं इस पर सरकार अब तक पहलू बदल रही है। नीतियों की गाड़ी पहले से ठप थी अब दागी और घटिया आंकड़ो का भारी पत्‍थर भी इसके सामने आ गया है।
महंगाई की नाप जोख
महंगाई को लेकर रिजर्व बैंक गवर्नर (राष्‍ट्रीय सांख्यिकी दिवस संबोधन) की हैरत दरअसल अब एक मुसीबत है। भारत में महंगाई आंकड़ों अंतर इतना पेचीदा हो चुका है कि इसमें फंस कर जरुरी फैसले रुक गए हैं। । सरकार के भीतर महंगाई के कई सरकारी आंकडे तैर रहे हैं। ब्‍याज दरों में कमी के लिए मुद्रास्‍फीति की मूल दर को आधार बनाया जाता है जिसे पॅालिसी इन्‍फ्लेशन कहते हैं। इसकी गणना में खाद्य उत्‍पादों की कीमतें शामिल नहीं होतीं। यह दर पांच फीसदी पर है। अर्थात रिजर्व बैंक इसे माने तो ब्‍याज दर

Monday, July 23, 2012

लाइबोर के चोर


रे उन्‍होंने लाइबोर चुरा लिया!! लाइबोर क्‍या ?? लाइबोर यानी दुनिया के वित्‍तीय सिस्‍टम की सांस लाइबोर यानी कि ग्‍लोबल बैंकिंग का सबसे कीमती आंकड़ा!  दुनिया भर में बैंक कर्ज पर ब्‍याज दर तय करने का दैनिक पैमाना। लाइबोर जिसे देखकर टोकियो से न्‍यूयार्क तक और वेलिंगटन से सैंटियागो तक बैंक रोज अपनी दुकानें खोलते हैं। लाइबोर, (लंदन इंटरबैंक ऑफर्ड रेट-ब्‍याज दर) जो रोज यह तय करता है कि दुनिया भर की कंप‍नियां, उपभोक्‍ता, सरकारों को करीब 10 मुद्राओं में अलग अलग तरह के कर्ज किस ब्‍याज दर पर दिये जाएंगे। दुनिया में करीब 800 ट्रिलियन डॉलर का वित्‍तीय कारोबार जिस सबसे अहम पैमाने बंधा है, उस लाइबोर को, एक दर्जन छंटे हुए बैंक उड़े। उनके फायदे के लिए लाइबोर दो साल तक झूठे आंकडो के आधार पर मनमाने ढंग से तय हुआ और और पूरी दुनिया निरी बेवकूफ बनती रही। पूरा वित्‍तीय जगत सन्‍न है। लाइबोर की चोरी वित्‍तीय दुनिया के इतिहास का सबसे बड़ा संगठित संगठित वित्‍तीय अपराध साबित हो रहा है, पहले से ही बदनाम ग्‍लोबल बैंकिंग की पूरी संस्‍कृति ही अब दागी हो गई है। एक पुरानी अमेरिकी कहावत को सच लग रही है कि बैंकों में लुटेरों को नौकरी देने की जरुरत नहीं है, यह काम तो बैंकर खुद कर सकते हैं।
बैंक की नोक पर
वित्‍तीय बाजारों में कहावत है कि आप लाइबोर में कोई दिलचस्‍पी न रखते हों लेकिन लाइबोर आपमें पूरी रुचि रखता है। लंदन की घडि़यों में रोज सुबह 11 बजे 11.10 तक का वक्‍त पूरी दुनिया की बैंकिंग उद्योग के लिए सबसे कीमती होता है। इस दस मिनट के भीतर यह तय हो जाता है कि उस सरकारों लेकर  उपभोक्‍ताओं तक के बैंक कर्ज से लेकर जटिल वित्‍तीय निवेशों (डेरीवेटिव) पर क्‍या ब्‍याज दर लगेगी। लाइबोर को देखकर विश्‍व के बैंक अलग अलग तरह के कर्जों पर अपनी ब्‍याज दरें तय करते हैं। लाइबोर का दैनिक उतार चढा़व बैंकों की वित्‍तीय सेहत का प्रमाण होता है। ऊंची लाइबोर (ब्‍याज) दर बैंकों की खराब सेहत और निचली दर बैंकों की खुशहाली का सबूत है। लाइबोर जटिल हो सकता है लेकिन इसका घोटाला बड़ी आसानी

Monday, July 16, 2012

पिछड़ने की कला

फिसड्डी होने के लिए दौड़ना कतई जरुरी नहीं है। हारने के कई नायाब तरीके भी होते हैं। मसलन दौड़ ही बंद करा दी जाए। या दौड़ने के तरीकों पर कमेटियां बिठा दी जाएं। अथवा दौड़ की तैयारी को इतना कनफ्यूज कर दिया जाए कि स्‍पर्धा का वक्‍त गुजर जाए। इसके बाद दौड़ने की जहमत भी नहीं उठानी पड़ती और हारना आदत बन जाता है। भारत की सरकार ने पिछले आठ वर्षों में हारने के लिए दरअसल इन्‍हीं बेजोड़ नुस्‍खों का इस्‍तेमाल किया है। फैसलों पर ऊंघते मंत्रिसमूह, एक दूसरे के प्रस्‍तावों में टंगड़ी फंसाते विभाग, राजकाज के तरीकों पर लड़ती संस्थायें और विवादित होते नियामक !.... पिछले आठ साल भारत ऐसे ही चल रहा है। भारत को क्रांतिकारी सुधारों कमी ने नहीं बल्कि गवर्नेंस के एक निहायत नाकारा तरीके ने विकलांग कर दिया है। भारत का नेतृत्‍व दुनिया की निगाह में फिसड्डी (अंडरअचीवर) इसलिए है क्‍यों कि सरकार को संकट का इलहाम हुए काफी वक्‍त बीत चुका है मगर   घटिया, लटकाऊ और लचर गवर्नेंस की लत इतनी मजबूत है कि पिछले एक माह में उम्‍मीद को दो बूंद पानी देने वाला एक फैसला नहीं हुआ।
गवर्नेंस का पत्‍थर   
यूपीए ने पिछले एक आठ साल में राजकाज के एक बिल्‍कुल अनसुने तरीके का ईजाद किया। मंत्रियों की समिति, सचिवों की समिति और विशेषज्ञ समितियों के जरिये फैसले करने (दरअसल रोकने) की नई पद्धति ने देश को वस्‍तुत: ठप कर दिया। यह फैसले न करने वाली सरकार का जन्‍म था,  वह भी  ठीक उस वक्‍त पर जब देश और तेज फैसलों की उम्‍मीद बांधे बैठा था। गार (कर चोरी रोकने के सामान्‍य नियम) के नियमों पर इसी सप्‍ताह (छह माह में) तीसरी समिति बैठ गई है। यह हाल उस मुद्दे का है जिस पर प्रधानमंत्री सबसे ज्‍यादा फिक्रमंद थे और प्रणव मुखर्जी के रुखसत होते ही सक्रिय हो गए थे। एक विशालकाय केंद्रीय कैबिनेट के अंतर्गत और सामानांतर करीब 27 मंत्रिसमूह , दवा, अनाज, जंगल, सरकारी कंपनियों का विनिवेश, गैस, महिलाओं के उत्‍पीड़न, भ्रष्‍टाचार, मंत्रियों के विवेकाधिकार खत्‍म करने तक दर्जनों प्रस्‍ताव इन समितियों फाइलों में बंद हैं। पिछले चार साल से किसी मंत्रिसमूह किसी भी नीति या प्रस्‍ताव को मंजूरी की मेज तक नहीं पहुंचाया है। प्रणव मुखर्जी सरकार छोड़ने तक 13 मंत्रिसमूहों और 12 अधिकार प्राप्‍त समूहों के मुखिया थे। यह गवर्नेंस इतनी महंगी क्‍यों पड़ी इसे समझना जरुरी है। 2005-06 में ग्रोथ के शिखर पर बैठा देश केवल सरकारी मंजूरियों में तेजी चाहता था। ठीक ऐसे मौके पर मनमोहन सरकार ने गवर्नेंस के पैरों में मंत्रिसमूहों के पत्‍थर बांध दिये। सरकार में  मंत्रिमंडल सर्वशक्तिमान होता है। विभाग या मंत्रालय कैबिनेट को प्रस्‍ताव भेजते हैं जिन पर हरी झंडी मिलती है। सरकारें वर्षों से ऐसा करती आईं हैं। लेकिन मंत्रिसमूहों और समितियों के नए तरीके ने कैबिनेट से इतर निर्णय के नए स्‍तर बना दिये। कई जगह मंत्रियों की समिति के नीचे सचिवों की समिति और फिर अलग से विशेषज्ञ समि‍ति भी बन गईं!!  यानी कि विभाग से लेकर कैबिनेट तक जाने के चार या पांच स्‍तर। अगर इसके बाद अगर संसद से मंजूरी लेनी हो तो फिर संसदीय समिति और संसद के दरवाजे एक्‍सट्रा। सिंगल विंडो क्लियरेंस की उम्‍मीद लगाये भारत की नीतियां और फैसले, कुछ इस तरह से समितियों की अंधी गलियों में खो गए। गवर्नेंस का दूसरा काला पक्ष यह भी है कि जब आर्थिक मशीन को तेल पानी देने जैसे आसान फैसलों (बिजली के लिए कोयला आपूर्ति) पर मंत्रिसमूह बैठ रहे थे तब स्‍पेक्‍ट्रम, खदाने और ठेके बांटने बड़े बड़े फैसले घंटो में हो रहे थे। नतीजन फैसले न लेने का भी दाग लगा और और दागी फैसलों का भी।

Monday, July 9, 2012

नई दरारें, गहरे जोखिम


क्‍या  हम हिंदुस्‍तानी अपनी आर्थिक मुश्किलों में जरा भी मॉडर्न नहीं हुए? यूरोप को देखो क्‍या हाई प्रोफाइल, फ्रेश मुसीबतों से दो चार है और हम बाबा के जमाने की समस्‍याओं पर मगज खर्च कर रहे हैं। यह फब्‍ती अर्थशास्‍त्र के एक मनचले छात्र की थी। वह भारत में घाटे, सब्सिडी जैसी पुरानी चर्चाओं से ऊब कर क्रेडिट डिफॉल्‍ट स्‍वैप (कर्ज में चूकने का बीमा),  हेयरकट (आंशिक कर्ज माफी) जैसी जटिल नई यूरोपीय उलझनों पर फिदा हुआ जा रहा था।.. गुरु जी ने टोका! ऐसा नहीं कहते बेटा! हमने भी बहुत तरक्‍की की है। पहले कभी सुना था कि भारत के बैंकों के पास पैसे की इतनी कमी पड़ जाएगी कि  उनका काम बीमा और म्‍युचुअल फंड कं‍पनियों से कर्ज लेकर चलेगा ? अथवा आधुनिक वित्‍तीय कंपनियां ही लोगों को सोने जैसे दकियानूसी निवेश का दीवाना बनाने लगेंगी जिससे पूरा वित्‍तीय नेटवर्क को खतरे में फंस जाएगा। रिजर्व बैंक की ताजी फाइनेंशियल स्‍टेबिलिटी रिपोर्ट सबूत है कि भारत का वित्‍तीय तंत्र अब नए किस्‍म के जोखिमों में तैर रहा है। यह दरारें ऊपर से नहीं दिखतीं, मगर भीतर से बड़ी गहरी हैं।
बैंकों पर कर्ज  
भारत के बैंक कभी वित्‍तीय बाजार को अपनी उंगली पर नचाते थे मगर आज यह रोजमर्रा की पूंजी के लिए बीमा व म्‍युचुअल फंड कंपनियों से कर्ज के मोहताज हैं। यह एक नए तरह की (लिक्विडिटी डे‍फशिट) समस्‍या है और एक ऐसा खतरा है जिसके असर सोचकर रिजर्व बैंक भी दुबला हुआ जा रहा है। बैंकों के इस नए सिनेमा की पटकथा जमाकर्ताओं ने लिखी है, जो जमा पर घटती ब्‍याज दर के कारण बैंकों में पैसा रखने में बहुत इच्‍छुक नहीं दिखते। भारत का बैंकिंग उद्योग जमाकर्ताओं के भरोसे की कथा सुनाते थकते नहीं था लेकिन 2011-12 में बैकों की जमा वृद्धि दर दस साल के सबसे निचले 

Monday, July 2, 2012

याद हो कि न याद हो


ह जादूगर यकीनन करामाती था। उसने सवाल उछाला। कोई है जो बीता वक्‍त लौटा सके। .. मजमे में सन्‍नाटा खिंच गया। जादूगर ने मेज से यूपीए सरकार के पिछले बजट उठाये और पढ़ना शुरु किया। भारी खर्च वाली स्‍कीमें, अभूतपूर्व घाटेभीमकाय सब्सिडी बिलकिस्‍म किस्‍म के लाइसेंस परमिट राज, प्रतिस्‍पर्धा पर पाबंदी,.... लोग धीरे धीरे पुरानी यादों में उतर गए और अस्‍सी के दशक की समाजवादी सुबहें, सब्सिडीवादी दिन और घाटा भरी शामें जीवंत हो उठीं। यह जादू नही बल्कि सच है। उदार और खुला भारत अब अस्सी छाप नीतियों में घिर गया है। यह सब कुछ सुनियोजित था या इत्तिफाकन हुआ अलबत्‍ता संकटों की इस ढलान से लौटने के लिए भारत को अब बानवे जैसे बड़े सुधारों की जरुरत महसूस होने लगी है। इन सुधारों के लिए प्रधानमंत्री को वह सब कुछ मिटाना होगा जो खुद उनकी अगुआई में पिछले आठ साल में लिखा गया है।
बजट दर बजट
ढहना किसे कहते हैं इसे जानने के लिए हमें 2005-06  की रोशनी में 2011-12 को देखना चाहिए। संकटों के सभी प्रमुख सूचकांक इस समय शिखर छू रहे हैं। जो यूपीए की पहली शुरुआत के वक्‍त अच्‍छे खासे सेहत मंद थे। राजकोषीय घाटा दशक के सर्वोच्‍च स्‍तर पर (जीडीपी के अनुपात में छह फीसद) है और विदेशी मुद्रा की आवक व निकासी का अंतर यानी चालू खाते का घाटा बीस साल के सबसे ऊंचे स्‍तर (4.5 फीसद) पर। ग्रोथ भी दस साल के गर्त में है। राजकोषीय संयम और संतुलित विदेशी मुद्रा प्रबंधन भारत की दो सबसे बडी ताजी सफलतायें थीं, जिन्‍हें हम पूरी तरह गंवा चुके हैं।  ऐसा क्‍यों हुआ इसका जवाब यूपीए के पिछले आठ बजटों में दर्ज है। उदारीकरण के सबसे तपते हुए वर्षों में समाजवादी कोल्‍ड स्‍टोरेज से निकले पिछले बजट ( पांच चिदंबरम चार प्रणव) भारत की आर्थिक बढ़त को कच्‍चा खा गए। बजटों की बुनियाद यूपीए के न्‍यूनतम साझा कार्यक्रम ने तैयार की थी। वह भारत का पहला राजनीतिक दस्‍तावेज था जिसने देश के आर्थिक संतुलन को मरोड़ कर