Tuesday, September 16, 2014

चीन का डिजिटल डिजाइन


पिछले साल नवंबर में जबभारत की सियासत बड़े परिवर्तन के लिए पर तोल रही थी, ठीक उसी वक्त बीजिंग में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपने तीसरे प्लेनम में राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ अर्थव्यवस्था को रिफ्रेश करने की जुगत में लगी थी. चीन के सुधार पुरोधा देंग जियाओपिंग ने आर्थिक सुधारों को चीन की (माओ की क्रांति के बाद) दूसरी क्रांति भले ही कहा हो लेकिन देंग से जिनपिंग तक आते-आते 35 साल में चीनी नेतृत्व को यह एहसास हो गया कि ज्यादा घिसने से सुधारों का मुलम्मा भी छूट जाता है. इसलिए कम्युनिस्ट पार्टी की महाबैठक से सुधारों का जो नया एजेंडा निकला वह ‘‘मेड इन चाइना’’ की ग्लोबल धमक पर नहीं बल्कि देश की भीतरी तरक्की पर केंद्रित था. दुनिया अचरज में थी कि विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अपनी देसी इकोनॉमी में ऐसा क्या करने वाली है जिससे 1.35 अरब लोगों की आय में बढ़ोतरी होती रहेगी? संयोग से राष्ट्रपति जिनपिंग के दिल्ली पहुंचने से पहले दुनिया को चीन की ‘‘तीसरी क्रांति’’ के एजेंडे का मोटा-मोटा खाका मिल गया है. चीन 2025 तक अपने जीडीपी को दोगुना करने वाला है. यह करिश्मा इंटरनेट इकोनॉमी से होगा
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Monday, February 3, 2014

चुनावी सियासत के आर्थिक कौतुक

लोकलुभावन नीतियां ही भारत की सियासत का चिरंतन सत्‍य हैं, जिसके सामने कांग्रेस की युवा हुंकार और भाजपा की अनुभवी गर्जना मिमियाने लगती है।
भारत की चुनावी राजनीति का शिखर आने से पहले आर्थिक राजनीति की ढलान आ गई है। देश केवल नई सरकार ही नहीं पिछले सुधारों में सुधार और कुछ मौलिक प्रयोगों का इंतजार भी कर रहा था और उम्मीद थी कि ग्रोथ, रोजगार व बेहतर जीवन स्‍तर से जुड़ी नई सूझ, चुनावी विमर्श का हिससा बनेगी लेकिन चुनावी बहसें अंतत: एक तदर्थवादी और दकियानूसी आर्थिक सोच में फंसती जा रही है। भारत में सत्‍ता परिवर्तन पर बड़े दांव लगा रहे ग्‍लोबल निवेशकों को भी यह अंदाज होने लगा है कि यहा के राजनीतिक सूरमा चाहे जितना दहाड़ें लेकिन आर्थिक सुधारों की बात पर  वह चूजों की तरह दुबक जाते हैं। सुधारों की बाहें फटकारने वाली कांग्रेस ने एलपीजी सब्सिडी को लेकर प्‍याज और पत्‍थर दोनों ही खा लिये और यह साबित कर दिया सुधारों की बात उसने धोखे से कर दी थी। विदेशी निवेश जैसे मुद्दों पर  भाजपा का अतीत तो वामपं‍थियों जैसा रहा है इसलिए आर्थिक सुधारों पर वह ज्‍यादा ही दब्‍बू व भ्रमित दिख रही है। और चुनावी सियासत के नए सूरमा आम आदमियों के पास तो सुधारों की सोच ही गड्मड्ड है। अधिसंख्‍य भारत जो बदले हुए परिवेश में नई सूझबूझ की बाट जोह रहा था वह इन चुनावों को  भी गंभीर आर्थिक मुद्दों पर करतब व कौतुक के तमाशे में बदलता देख रहा है।
एलपीजी सब्सिडी की ताजी कॉमेडी सबूत है आर्थिक सुधार भारत के लिए अपवाद ही हैं। कांग्रेस ने एलपीजी सब्सिडी की प्रणाली किसी दूरगामी सोच व तैयारी के साथ नहीं बदली थी। वह फैसला तो बीते साल उस वक्‍त हुआ, जब भारत की रेटिंग पर तलवार टंगी थी और सरकार को सुधार करते हुए दिखना था। इसलिए पहले छह और फिर नौ सिलेंडर किये गए। सरकार को उस वक्‍त भी यह नहीं पता था कि सब्सिडी वाले नौ और शेष महंगे सिलेंडरों की यह राशनिंग प्रणाली कैसे लागू होगी और भोजन पकाने के सिर्फ एकमात्र ईंधन पर निर्भर शहरी आबादी इसे कैसे अपनाएगी। वह फैसला तात्‍कालिक सुधारवादी आग्रहों से निकला और बगैर किसी होमवर्क के लागू हो गया। सरकार आधार और डायरेक्‍ट बेनीफिट ट्रांसफर स्‍कीम के जोश में थी इसलिए एक एलपीजी सब्सिडी के एक अधकचरे फैसले को एक पायलट स्‍कीम से जोड़कर उपभोक्‍ताओं की जिंदगी मुश्किल कर दी गई। लोग सब्सिडी पाने के लिए आधार नंबर व बैंक खाते की जुगत में धक्के खाने लगे और गिरते पड़ते जब करीब 20 फीसद एलपीजी उपभोक्‍ताओं ने 291 जिलों में आधार से जुड़े बैंक खाते जुटा लिये तो अचानक राहुल गांधी ने बकवास अध्यादेश की तर्ज पर पूरी स्‍कीम खारिज कर दी। आर्थिक नीतियों के मामले में कांग्रेस अब वहीं खड़ी है जहां वह 2009 के चुनाव के पहले थी।
सुधारों को लेकर कांग्रेस का यह करतब तो दस साल से चल रहा है लेकिन भाजपा में सुधारों की सूझ को लेकर नीम अंधेरा ज्‍यादा चिंतित करता है क्‍यों कि नरेंद्र मोदी के भाषण आर्थिक चुनौतियों की बहस को अक्‍सर अलादीन के चिराग जैसे कौतुक में बदल देते हैं। आर्थिक सुधारों की बहस सब्सिडी, विदेशी निवेश और निजीकरण के इर्द गिर्द घूमती रही है। यह तीन बड़े सुधार एक व्‍यापक पारदर्शिता के ढांचे के भीतर आर्थिक बदलाव बुनियादी रसायन बनाते दिखते हैं। इन चारों मुद्दों पर राजनीतिक सर्वानुमति कभी नहीं बनी । जबकि देशी विदेशी निवेशक भारत की अगली सरकार को इन्‍ही कसौटियों पर कस रहे हैं। सब्सिडी की बहस राजकोष की सेहत सुधारने से लेकर सरकारी भ्रष्‍टाचार तक फैली है। इस बहस में भाजपा का पिछला रिकार्ड कोई उम्‍मीद नहीं जगाता। केंद्र में अपने एकमात्र कार्यकाल में भाजपा ने सब्सिडी को लेकर निष्क्रिय रही जबक यूपीए राज के सब्सिडी सुधारो में भाजपा ने विपक्ष की लीक पीटी क्‍यों कि उसकी राज्‍य सरकारें सब्सिडी के तंत्र को पोस रहीं हैं।
उदारीकरण के पिछले दो दशकों में विदेशी निवेश की बड़ी भूमिका रही है लेकिन यह इस पहलू पर भाजपा का असमंजस ऐतिहासिक है। तभी तो क्‍यों कि राजसथान की नई सरकार ने खुदरा में विदेशी निवेश का फैसला पलट दिया है। विदेशी निवेश खिलाफ भाजपा की आक्रामक स्‍वदेशी मुद्रायें, भारत में निवेश क्रांति लाने के नरेंद्र मोदी के दावों की चुगली खाती हैं। ठीक इसी तरह सरकारी उपक्रमों व सेवाओं के निजीकरण पर भाजपा में सोच का कुहरा, निवेशकों को उलझाता है। पारदर्शिता, आर्थिक विमर्श का नया कोण है। समाजवादी और निजी दोनों तरह की अर्थव्‍यवसथाओं का प्रसाद पा चुके लोग अब भ्रष्‍टाचार के खात्‍मे को तरक्‍की से जोड़ते हैं और आर्थिक सुधारों पर ऐसी बहस की चाहते हैं, जो आम लोगों के अनुभवों से जुड़ी हो और तर्कसंगत अपेक्षायें जगाती है। भाजपा जब इस बहस के बदले बुलेट ट्रेन, नए शहरों व ब्रॉड बैंड नेटवर्क के दावे करती है तो नारेबाजी की गंध पकड़ में आ जाती है।  
देश में आर्थिक तरक्‍की राह में नए पत्थर अड़ गए हैं जिन पर भाषणों के करतब कारगर नहीं होते। जमीन, खदान, स्‍पेक्‍ट्रम जैसे  प्राकृतिक संसाधनों का पारदर्शी आवंटन, सस्‍ता कर्ज, महंगाई में कमी, केंद्र व राज्‍य के बीच इकाईनुमा तालमेल, नियामकों की ताकत, नेताओं के विवेकाधिकारों में कमी, छोटे कारोबार शुरु करने की सुविधा व लागत जैसे जटिल मुद्दे  सुधारों की बहस का नया पहलू हैं जबकि अभी तो केंद्र सरकार के स्‍तर पर सब्सिडी, विदेशी निवेश व निजीकरण की पुरानी बहसें ही हल होनी हैं। राज्‍यो में तो इन बहसों की शुरुआत तक नहीं हुई है। यही वजह है कि चुनाव आते ही सियासी दल की अपनी उस आर्थिक हीनग्रंथि जगा दिया है जो जटिल बहसों से उनकी रक्षा करती है। अभी तक के चुनावी विमर्श बता रहे हैं कि लोकलुभावन नीतियां ही भारत की सियासत का चिरंतन सत्‍य हैं, जिसके सामने कांग्रेस की युवा हुंकार और भाजपा की अनुभवी गर्जना मिमियाने लगती है। सब्सिडी भारत की लोकलुभावन राजनीति का वह किनारा है जहां भाजपा व कांग्रेस की धारायें मिलकर एक हो जाती है और चुनाव के पहले इस धारा में स्‍नान होड़ शुरु हो गई है। ठोस सुधारों के घाट पर कोई नहीं उतरना चाहता।

Monday, January 27, 2014

मौद्रिक रोमांच

काले धन व महंगाई  की बहसों में रिजर्व बैंक ने धमाकेदार इंट्री ली है। वह काली अर्थव्‍यवस्‍था से निबटने के लिए अपने तरीके आजमा रहा है और महंगाई से बेफिक्र राजनीति को नए फार्मूलों में बांध रहा है।

रिजर्व बैंक जैसा कोई केंद्रीय नियामक जब राजनीतिक व व्‍यवस्‍थागत चुनौतियों से अपने तरीके जूझने लगता है तो सियासत के कबूतरों के बीच बिल्लियां दौड़ जाती हैं। रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन ने यही किया है। 2005 से पहले के सभी करेंसी नोट का प्रचलन समाप्‍त करने के साथ रिजर्व बैंक ने काला धन को रोकने की बहस को मौद्रिक रोमांच से भर दिया है। जबकि दूसरी तरफ ब्‍याज दरें तय करने के लिए थोक की जगह खुदरा महंगाई को आधार बनाने की तैयारी शुरु हो गई है जो न केवल मौद्रिक व्‍यवस्‍था में एक बड़ा क्रांतिकारी बदलाव है बल्कि इसके बाद उपभोक्‍ता महंगाई पर नियंत्रण अगले कई वर्षों तक देश का सबसे बड़ा आर्थिक राजनीतिक सवाल बन जाएगा। यह कदम उस वक्‍त सामने आए हैं जब काले धन के सबसे बड़े उत्‍सव यानी आम चुनाव की तैयारी चल रही है और भारी महंगाई की तोहमतें सियासत का दम घोंट रही हैं। दोनों फैसलों का फलित यह है कि देश में कर्ज लंबे समय तक महंगा रहेगा। यानी कि आर्थिक पारदर्शिता में बढ़त और महंगाई में कमी के बिना सस्‍ते कर्ज की उम्‍मीद बेमानी है।

Monday, January 20, 2014

गति से पहले सुरक्षा

मंदी से उबरी दुनिया में अब तेज ग्रोथ के चमत्‍कार नहीं होंगे बल्कि सफलता का आकलन इस पर होगा कि कौन कितना निरंतर व सुरक्षित है

ड़ी खबर यह नहीं है कि पांच साल पुराने ग्‍लोबल वित्‍तीय संकट के समापन का आधिकारिक ऐलान हो गया है बल्कि ज्‍यादा बड़ी बात यह है कि दुनिया ने अब बहुत तेज दौड़ने यानी ग्रोथ की धुआंधार रफ्तार से तौबा कर ली है। 2008 से पहले तक ग्रोथ की उड़न तश्‍तरी पर सवार ग्‍लोबल अर्थव्‍यवस्‍था अब धीमे व ठोस कदमों से चलने की शपथ ले रही है। यही वजह है कि बीते सप्‍ताह जब विश्‍व बैंक ने दुनिया के मंदी से उबरने का ऐलान किया तो बाजार उछल नहीं पड़े और न ही अमेरिका में ग्रोथ चमकने, यूरोप का ढहना रुकने, जापान की वापसी और भारत चीन में माहौल बदलने के ठोस संकेतों से आतिशबाजी शुरु हो गई। बल्कि विश्‍व के आर्थिक मंचों से नसीहतों की आवाजें और मुखर हो गईं जिनमें यह संदेश साफ था कि अगर सुधारों को आदत नहीं बनाया गया तो आफत लौटते देर नहीं लगेगी। खतरनाक गति नहीं बल्कि सुरक्षित निरंतरता, वित्‍तीय बाजारों का नया सूत्र है और मंदी के पार की दुनिया इसी सूत्र की रोशनी में आगे बढ़ेगी।
2014 का पहला सूरज सिर्फ साल बदलने का संदेश नहीं लाया था बल्कि यह पांच साल लंबे दर्द और पीड़ा की समाप्ति का ऐलान भी था। विश्‍व बैंक के आंकड़ों की  रोशनी में  अर्थव्यवस्‍था की ग्‍लोबल तस्वीर भरोसा जगाती है। इस साल दुनिया की विकास दर 3.2 फीसद रहेगी, जो बीते साल 2.4 फीसद थी। 2008-09 के बाद यह पहला मौका है जब दुनिया में ग्रोथ के तीनों बड़े इंजनों, अमेरिका, जापान और यूरोप में गुर्राहट लौटी है।

Monday, January 13, 2014

निजीकरण का ऑडिट

निजी कंपनियों का सीएजी ऑडिट,  निजीकरण से उपभोक्‍ताओं के लाभ की थ्‍योरी को सवालों में घेरने वाला है, जो पिछले एक दशक में निजीकरण के फैसलों का आधार रही है।

भारत के आर्थिक सुधार पुरुष बीते हफ्ते जब इतिहास से दया के लिए चिरौरी कर रहे थे तब तारीख डा. मनमोहन सिंह को केवल एक असफल प्रधानमंत्री के तौर पर ही दर्ज नहीं कर रहा था तारीख यह भी लिख रही थी कि भारत की दूसरी आजादी उसी व्‍यकित की अगुआई में दागी हो गई जिसे खुद  उसने ही गढ़ा था। अनोखा संयोग है कि मनमोहन सिंह का रिटायरमेंट सफर और देश के उदारीकरण दूसरा ऑडिट एक साथ शुरु हो रहे हैं। देश का संवैधानिक ऑडीटर निजी कंपनियों के खातों को खंगालेगा और जरुरी सेवाओं की कीमतें तय करने के फार्मूले परखेगा। इस पड़ताल में घोटालों का अगला संस्‍करण निकल सकता है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की पहली जांच में देश को प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबांट व नेता कंपनी गठजोड़ का पता चला था जबकि दूसरा ऑडिट , निजीकरण से उपभोक्‍ताओं के लाभ की थ्‍योरी को सवालों में घेरने वाला है, जो पिछले एक दशक में निजीकरण के फैसलों का आधार रही है। भारत के सुधार पुरोधा का यह परम दुर्भाग्‍य है कि उनके जाते जाते भारत के खुले बाजार की साख कुछ और गिर चुकी होगी।