काले धन के खिलाफ देश में गुस्सा है। अदालतें सक्रिय हैं। पारदर्शिता के ग्लोबल अाग्रह बढ़ रहे हैं। अर्थव्यवस्था से कालिख की सफाई के एक संकल्पबद्ध अभियान के लिए उपयुक्त मौका है लेकिन भारत के इतिहास का सबसे भव्य व महंगा चुनाव
लडऩे वाली पार्टी की सरकार क्या इतनी साहसी साबित होगी?
सन् 1963. अमेरिकी सीनेट
कमेटी की सुनवाई. जोसेफ वेलाची यानी अमेरिका के पहले घोषित माफिया डॉन ने जैसे ही
कबूला कि मुल्क में अपराधियों की समानांतर सरकार (कोजा नोस्त्रा) चलती है तो सांसद
समझ गए कि आर्थिक व सामाजिक अपराध के विशाल नेटवर्क के सामने अब मौजूदा कानून बोदे
हैं. वेलाची की गवाही के बाद अमेरिका में एक तरफ माफिया की दंतकथाएं बन रहीं थी तो
दूसरी तरफ नीति-निर्माता,
कानूनविद रॉबर्ट ब्लेकी की मदद से, एक बड़े कानून की तैयारी में जुटे थे. मारियो
पुजो के क्लासिक उपन्यास गॉड फादर (1969) के प्रकाशन के ठीक साल भर बाद 1970 में रैकेटियर
इन्फ्लुएंस्ड ऐंड करप्ट ऑर्गेनाइजेशंस (रीको) ऐक्ट पारित हुआ. रीको कानून माफिया
तक ही सीमित नहीं रहा. हाल में मेक्सिको की खाड़ी में तेल रिसाव से हर्जाना वसूलने
से लेकर पोंजी स्कीम चलाने वाले रॉबर्ट मैडॉफ को घेरने तक में इसका इस्तेमाल हुआ
है. विदेशों में जमा काले धन का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचने के बाद, भारत में भी
श्रीको मूमेंट्य आ गया है और अगर नहीं, तो आ जाना चाहिए. भारत में अब काले धन को थामने
के उपायों की एक बड़ी मुहिम शुरू हो सकती है जिसके कारखाने व ठिकाने तमाम कारोबारों, वित्तीय
संस्थानों, जमीन-जायदाद से
लेकर राजनैतिक दलों के चंदे तक फैले हैं. यह सबसे बड़ा स्वच्छता मिशन होगा, जिसका
इंतजार दशकों से हो रहा है और पीढिय़ों तक
याद किया जाएगा.
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