Monday, December 8, 2014

सियासत के झूठे सच

पैसे के बाद अगर कोई दूसरी चीज राजनीति के साथ गहराई तक गुंथी हैतो वह नेताओं के झूठ व बड़बोलापन है. चुनावों की प्रतिस्पर्धी राजनीति में दूरदर्शिता और दूर की कौड़ी के बीच विभाजक रेखा पतली है. नेता अक्सर इसे लांघ कर चांद-तारे बांटने लगते हैं

विदेश में जमा काला धन वापस लाने के वादे पर मोदी सरकार की किरकिरी को समझने के लिए खोजी पत्रकार होने की जरूरत नहीं है. कोई भी सर्च इंजन, एक क्लिक पर आपके सामने मोदी के चुनावी भाषणों के दर्जनों वीडियो उगल देगा, जो यह बताते हैं कि काले धन पर तब क्या-क्या कहा गया था और अब क्या फरमाया जा रहा है? गूगल की थोड़ी-सी मदद से अब, नेताओं के झूठ, अर्धसत्य व कुछ भी बोल देने के नमूनों का पिटारा खुल जाता है और सियासत कुछ ज्यादा ही खोखली नजर आने लगती है. राजनीति ही इकलौता पेशा है जिसमें झूठ बोलना, वादे करना और मुकर जाना, कानूनी तौर पर मान्य है. इसलिए अगर तकनीक की मदद न आती तो, सियासत के झूठे सचों पर लगाम के बारे में सोचना भी मुश्किल था. तकनीक, शोध और खोजी पत्रकारिता ने, अमेरिका में सियासी भाषणों और बयानों के झूठ उघाड़कर नेताओं को शर्मिंदा करने का अभियान एक दशक पहले ही शुरू कर दिया था. भारत में नेताओं के मनमाने बयानों की तासीर परखने का प्रचलन इसलिए जड़ें नहीं पकड़ पाया क्योंकि इस हमाम में कपड़े न पहनने की रवायत सभी सियासी दलों ने मिलकर बनाई है. लेकिन अब मौका भी है और साधन भी, जिनके जरिए भारत में भी नेताओं के लिए कुछ भी बोल-बताकर बच निकलने के रास्ते बंद किए जाने चाहिए.
‘‘
धोखा देने और झूठ बोलने के मामले में अव्वल कौन है? मोअम्मर गद्दाफी, होस्नी मुबारक, सद्दाम हुसैन जैसे तानाशाह या जिमी कार्टर, जॉर्ज डब्ल्यू. बुश या बराक ओबामा जैसे लोकतांत्रिक दिग्गज?’’
वाशिंगटन पोस्ट ने यह सवाल, अप्रैल 2011 में एक किताब की समीक्षा में पूछा था. किताब थी व्हाइ लीडर्स लाइ? ट्रूथ अबाउट लाइंग इन इंटरनेशनल पॉलिटिक्स (नेता झूठ क्यों बोलते हैं? अंतरराष्ट्रीय राजनीति में झूठ का सच) शिकागो यूनिवर्सिटी के प्रो. जॉन जे. मर्शेइमर की यह दिलचस्प और अनोखी पुस्तक मानती है कि गलतबयानी करने में लोकतांत्रिक नेता, तानाशाहों से कहीं आगे हैं. राजनीति और खास तौर पर चुनावी सियासत में कुछ भी कह देना या आसमान के सितारे तोडऩे छाप वादे करना गैर-कानूनी नहीं हैं, इसलिए नेताओं के झूठ सियासत का स्वभाव बन गए हैं. बड़े और प्रभावशाली झूठ के उदाहरण जुटाते हुए मर्शेइमर की किताब यह भी बताती है कि नेताओं के झूठ की एक नहीं, कई किस्में हो सकती हैं. ग्रीस (यूनान) का हाल बताता है कि नेताओं के झूठ कितने महंगे पड़ते हैं. ग्रीस ने यूरोपीय संघ का हिस्सा बनने के लिए अपने बजट घाटों को छिपाया और बाद में पूरा देश ही दिवालिया हो गया. यही वजह है कि जैसे ही बयानों व दस्तावेजों को संजोने और वापस तलाशने की तकनीक हाथ आई, दुनिया के कई देशों में जनता नेताई वचनों का सच जांचने के लिए उतावली हो उठी. पिछले कुछ वर्षों में अमेरिका में सियासी बयानों की फैक्ट चेकिंग एक अभियान बन गई है. अखबारों से लेकर स्वयंसेवी संस्थाएं तक फैक्ट चेकर और ट्रुथ-ओ-मीटर पर सियासी बयानों की सच्चाई नापती हैं, चुनावी वादों का क्रियान्यावन परखती हैं और भाषणों व वादों को ‘‘सफेद झूठ’’, ‘‘आधा सच’’ और ‘‘सच’’ जैसी रेटिंग देती हैं. अमेरिका में चुनावी विज्ञापनों को रोकने पर मजेदार कानूनी लड़ाई शुरू हो चुकी है. चुनावी बयानबाजी के पैरोकार नेताओं के बड़बोले भाषणों को अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ रहे हैं जबकि विरोधी इसे जनता के साथ धोखा मानते हैं.
चुनावों की प्रतिस्पर्धी राजनीति में दूरदर्शिता और दूर की कौड़ी के बीच विभाजक रेखा पतली है. नेता अक्सर इसे लांघ जाते हैं और चांद-तारे तोड़कर बांटने लगते हैं. भारत की सियासत ने भी गरीबी हटाने व हर हाथ को काम जैसे सपने बांटे हैं, तल्ख, धीमी व कठिन गवर्नेंस ने जिन्हें हमेशा झूठा साबित कर दिया है क्योंकि मौजूदा शहरों का इंतजाम ठीक करते हुए ही स्मार्ट सिटी का प्रयोग हो सकता है, ट्रेनों का सुरक्षित चलना तय करने के साथ बुलेट ट्रेन सोची जा सकती है, कमाई का स्तर बढ़ाकर सबके सिर पर छत का सपना संजोया जा सकता है. फिर भी शुक्र है कि भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों में है जहां लोग लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं में भरोसा करते हैं. विज्ञापन एजेंसी एडलमैन का ग्लोबल ट्रस्ट सर्वे इस साल जनवरी में आया था जो बिजनेस, सरकार, मीडिया और स्वयंसेवी संस्थाओं पर, सजग लोगों के भरोसे की पैमाइश करता है. यह सर्वे भारत को उन पांच शीर्ष देशों में रखता है, जो विश्वास से भरपूर हैं, अलबत्ता सरकार पर भरोसा घटने के कारण भारत 2014 में इस रैंकिंग में तीसरे से पांचवें स्थान पर खिसक गया है. सरकार पर विश्वास में यह कमी नेताओं के बड़बोलेपन से उपजी है. चुनाव अभियानों के वादे ढहने से पहले केवल एक निराशा फैलती थी लेकिन अब पढ़ा-लिखा समाज के वादे पूरे न होने के बाद इनके पीछे के षड्यंत्र तलाशता है, ऊबता है और संदेह से भर उठता है. पैसे के बाद अगर कोई दूसरी चीज राजनीति के साथ गहराई तक गुंथी है, तो वह नेताओं के झूठ व बड़बोलापन है. इस झूठ की वजहें खंगालने वाले मर्शेइमर का दिलचस्प निष्कर्ष है कि नेता आपस में एक-दूसरे से उतना झूठ नहीं बोलते जितना कि वे जनता से बोलते हैं. ये झूठ बड़े मिथकों, तरह-तरह के वादों (लिबरल लाइज) और खौफ फैलाने के तरीकों में लपेटे जाते हैं और चुनावों में इनका भरपूर इस्तेमाल होता है. भारत का ताजा लोकसभा चुनाव भी इससे अलग नहीं था. यह चुनाव वादों, घोषणाओं और अपेक्षाओं का सबसे मुखर उत्सव तो था ही लेकिन किस्मत से इस बार तकनीक हर कदम पर साथ थी, अब यही तकनीक हमारे दुलारे नेताओं को उनके बोल-वचन दुरुस्त करने पर मजबूर करेगी. क्योंकि नेता इस चुनाव में जिस आधुनिक समाज से मुखातिब थे वह ठगे जाने के एहसास से सबसे ज्यादा चिढ़ता है.


Monday, December 1, 2014

छह महीने और तीन प्रतीक


सरकारों को हमेशा उलटी तरफ से देखना बेहतर होता है. सरकार के छह माह नहीं बीते हैं बल्कि प्रधानमंत्री के पास केवल साढ़े चार साल बचे हैं 

मोदी सरकार के पहले मंत्रिमंडल विस्तार, अडानी की विवादित ऑस्ट्रेलियाई परियोजना को स्टेट बैंक से कर्ज की मंजूरी और ‘‘प्रागैतिहासिक’’ किसान विकास पत्र की वापसी के बीच क्या रिश्ता है? यह तीनों ही नई सरकार और उसके प्रभाव क्षेत्र के सबसे बड़े फैसलों में एक हैं, अलबत्ता इन्हें आपस में जोडऩे वाला तथ्य कुछ दूसरा ही है. इनके जरिए सरकार चलाने का वही दकियानूसी मॉडल वापस लौटता दिख रहा है, जिसे बदलने की उम्मीद और संकल्पों के साथ नई सरकार सत्ता में आई थी और उपरोक्त तीनों फैसले अपने अपने क्षेत्रों में नई बयार का प्रतीक बन सकते थे.
बड़े बदलावों की साख तभी बनती है जब बदलाव करने वाले उस परिवर्तन का हिस्सा बन जाते हैं. मोदी सरकार के पहले मंत्रिमंडल विस्तार ने नई गवर्नेंस में बड़े बदलाव की उम्मीद को छोटा कर दिया. बड़े मंत्रिमंडलों का आविष्कार गठबंधन की राजनीति के लिए हुआ था. महाकाय मंत्रिमंडल न तो सक्षम होते हैं और न ही सुविधाजनक. बस, इनके जरिए सहयोगी दलों के बीच सत्ता को बांटकर सरकार के ढुलकने का खतरा घटाया जाता था. नरेंद्र मोदी गठबंधनों की राजनीति की विदाई के साथ सत्ता में आए थे. उनके सामने न तो, कई दलों को खपाने की अटल बिहारी वाजपेयी जैसी मजबूरियां थीं न ही मनमोहन सिंह जैसी राजनैतिक बाध्यताएं, जब राजनैतिक शक्ति 10 जनपथ में बसती थी. सरकार और पार्टी पर जबरदस्त नियंत्रण से लैस मोदी के पास एक चुस्त और चपल टीम बनाने का पूरा मौका था. 
मनमोहन सिंह कई विभाग और बड़ी नौकरशाही छोड़कर गए थे, मोदी सरकार में भी नए विभागों के जन्म की बधाई बजी है. कुछ विभागों में तो एक मंत्री के लायक भी काम नहीं है जबकि कुछ विभाग चुनिंदा स्कीमें चलाने वाली एजेंसी बन गए हैं. कांग्रेस राज ने मनरेगा, सर्वशिक्षा जैसी स्कीमों से एक नई समानांतर नौकरशाही गढ़ी थी, वह भी जस-की-तस है. दरअसल, स्वच्छता मिशन, आदर्श ग्राम, जनधन जैसी कुछ बड़ी स्कीमें ही सरकार का झंडा लेकर चल रही हैं, ठीक इसी तरह चुनिंदा स्कीमों का राज यूपीए की पहचान था. अब वित्त मंत्री, विभागों के खर्चे काट रहे हैं जबकि प्रधानमंत्री ने सरकार का आकार बढ़ा दिया है. लोग कांग्रेस की ‘‘मैक्सिमम’’ गवर्नेंस को ‘‘मिनिमम’’ होते देखना चाहते थे, एक नई ‘‘मेगा’’ गवर्नेंस तो कतई नहीं.
बीजेपी इतिहास का पुनर्लेखन करना चाहती है, लेकिन इसके लिए हर जगह इतिहास से दुलार जरूरी तो नहीं है? किसान विकास पत्र 1 अप्रैल, 1988 को जन्मा था जब बहुत बड़ी आबादी के पास बैंक खाते नहीं थे और निवेश के विकल्प केवल डाकघर तक सीमित थे. अगर बचतों पर राकेश मोहन समिति की सिफारिशें लागू हो जातीं, तो इसे 2004 में ही विश्राम मिल गया होता. रिजर्व बैंक की डिप्टी गवर्नर श्यामला गोपीनाथ की जिन सिफारिशों पर 2011 में यह स्कीम बंद हुई थी उनमें केवल किसान विकास पत्र के मनी लॉन्ड्रिंग में इस्तेमाल का ही जिक्र नहीं था बल्कि समिति ने यह भी कहा था कि भारत की युवा आबादी को बचत के लिए नए आधुनिक रास्ते चाहिए, प्रागैतिहासिक तरीके नहीं.
किसान विकास पत्र से काले धन की जमाखोरी बढ़ेगी या नहीं, यह बात फिर कभी, फिलहाल तो इस 26 साल पुराने प्रयोग की वापसी सरकार में नई सूझ की जबरदस्त कमी का प्रतीक बनकर उभरी है. नए नए वित्तीय उपकरणों के इस दौर में वित्त मंत्रालय, रिजर्व बैंक और तमाम विशेषज्ञ मिलकर एक आधुनिक बचत स्कीम का आविष्कार तक नहीं कर सके. बचत को बढ़ावा देने के लिए उन्हें उस उपकरण को वापस अमल में लाना पड़ा जिसे हर तरह से इतिहास का हिस्सा होना चाहिए था क्योंकि यह उन लोगों के लिए बना था जिनके पास बैंक खाते नहीं थे. अब तो लोगों के पास जन धन के खाते हैं न?
‘‘भारत का सिस्टम बड़ी कंपनियों के हक में है. मंदी के दौरान किस बड़े कॉर्पोरेट को अपना घर बेचना पड़ा?’’ वर्गीज कुरियन लेक्चर (रूरल डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट, आणंद-25 नवंबर) में रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन की बेबाकी उस पुरानी बैंकिंग की तरफ संकेत था, जहां से अडानी की ऑस्ट्रेलियाई कोयला खदान परियोजना को कर्ज की मंजूरी निकली थी. इस परियोजना को कर्ज देने के लिए स्टेट बैंक का अपना आकलन हो सकता है तो दूसरी तरफ उन छह ग्लोबल बैंकों के भी आकलन हैं जो इसे कर्ज देने को जोखिम भरा मानते हैं.
वित्तीय बहस से परे, सवाल बैंकिंग में कामकाज के उन अपारदर्शी तौर तरीकों का है जिसके कारण रिजर्व बैंक को यह कहना पड़ा कि बैंक फंसे हुए कर्जे छिपाते हैं, बड़े कर्जदारों पर कोई कार्रवाई नहीं होती जबकि छोटा कर्जदार पिस जाता है. भारत की बैंकिंग गंभीर संकट में है, इसे अपारदर्शिता और कॉर्पोरेट बैंकर गठजोड़ ने पैदा किया है, जो बैंकों को डुबाने की कगार पर ले आया है. ग्रोथ के लिए सस्ता कर्ज चाहिए, जिसके लिए पारदर्शी और सेहतमंद बैंक अनिवार्य हैं. मोदी सरकार ने पहले छह माह में भारतीय बैंकिंग में परिवर्तन का कौल नहीं दिखाया, अलबत्ता देश के सबसे बड़े बैंक ने विवादित बैंकिंग को जारी रखने का संकल्प जरूर जाहिर कर दिया.

मोदी पिछले तीन दशक में भारत के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिनके पास किसी भी परिवर्तन को साकार करने का समर्थन उपलब्ध है लेकिन बदलाव के बड़े मौकों पर परंपरा और यथास्थितिवाद का लौट आना निराशाजनक है. मोदी प्रतीकों के महारथी हैं. उनके पहले छह माह प्रभावी प्रतीक गढऩे में ही बीते हैं लेकिन नई गवर्नेंस, फैसलों की सूझ और पारदर्शिता का भरोसा जगाने वाले ठोस प्रतीकों का इंतजार अभी तक बना हुआ है. सरकारों को हमेशा उलटी तरफ से देखना बेहतर होता है. सरकार के छह माह नहीं बीते हैं बल्कि प्रधानमंत्री के पास केवल साढ़े चार साल बचे हैं और वक्त की रफ्तार उम्मीदों का ईंधन तेजी से खत्म कर रही है.
http://aajtak.intoday.in/story/six-months-and-three-symbols-1-789686.html

Monday, November 24, 2014

मोदी के भारतवंशी


भारतवंशियों पर मोदी के प्रभाव को समझने के लिए शेयर बाजार को देखना जरुरी है. यहां इस असर की ठोस पैमाइश हो सकती है. इन अनिवासी भारतीय पेश्‍ोवरों की अगली तरक्की, अब प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारत की सफलता से जुड़ी है.
मोदी सरकार बनाने जा रहे हैं इसमें रत्ती भर शक नहीं है. आप यह बताइए कि आर्थिक सुधारों पर स्वदेशी के एजेंडे का कितना दबाव रहेगा?” यह सवाल भारतीय मूल के उस युवा फंड मैनेजर का था जो इस साल मार्च में मुझे हांगकांग में मिला था, जब नरेंद्र मोदी का चुनाव अभियान में देश को मथ रहा था. वन एक्सचेंज स्क्वायर की गगनचुंबी इमारत के छोटे-से दफ्तर से वह, ऑस्ट्रेलिया और जापान के निवेशकों की भारी पूंजी भारतीय शेयर बाजार में लगाता है. हांगकांग की कुनमुनी ठंड के बीच इस 38 वर्षीय फंड मैनेजर की आंखों में न तो भावुक भारतीयता थी और न ही बातों में सांस्कृतिक चिंता या जड़ों की तलाश, जिसका जिक्र विदेश में बसे भारतवंशियों को लेकर होता रहा है. वह विदेश में बसे भारतवंशियों की उस नई पेशेवर पीढ़ी का था जो भारत की सियासत और बाजार को बखूबी समझता है और एक खांटी कारोबारी की तरह भारत की ग्रोथ से अपने फायदों को जोड़ता है. भारतवंशियों की यह प्रोफेशनल और कामयाब जमात प्रधानमंत्री मोदी की ब्रांड एंबेसडर इसलिए बन गई है क्योंकि उनके कारोबारी परिवेश में उनकी तरक्की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारत की सफलता से जुड़ी है. यही वजह है कि भारत को लेकर उम्मीदों की अनोखी ग्लोबल जुगलबंदी न केवल न्यूयॉर्क मैडिसन स्क्वेयर गार्डन और सिडनी के आलफोंस एरिना पर दिखती है बल्कि इसी फील गुड के चलते, शेयर बाजार बुलंदी पर है. इस बुलंदी में उन पेशेवर भारतीय फंड मैनेजरों की बड़ी भूमिका है जिनमें से एक मुझे हांगकांग में मिला था.
भारत के वित्तीय बाजारों में विदेशी निवेश की एक गहरी पड़ताल उन मुट्ठी भर भारतीयों की ताकत बताती है जो मोदी की उम्मीदों के सहारे

Monday, November 17, 2014

मोदी की कूटनीतिक करवट


अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में भारत ने अपना हमसफर चुन लिया है. जी 20 की बैठक के बाद अगर भारत और अमेरिका की दोस्ती देखने लायक होगी तो भारत और चीन के रिश्तों का रोमांच भी दिलचस्‍प रहेगा

मेरिकी अभियान की सफलता के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सलाहकारों को यह एहसास हो गया था कि तमाम पेचोखम से भरपूर, व्यापार की ग्लोबल कूटनीति में भारत कुछ अलग-थलग सा पड़ गया है. चीन और अमेरिका की जवाबी पेशबंदी जिस नए ग्लोबल ध्रुवीकरण की शुरुआत कर रही है, दो विशाल व्यापार संधियां उसकी धुरी होंगी. अमेरिका की अगुआई वाली ट्रांस पैसिफिक नेटवर्क (टीपीपी) और चीन की सरपरस्ती वाली एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग (एपेक) अगले कुछ वर्षों में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) को निष्प्रभावी कर सकती हैं. इन दोनों संधियों में भारत का कोई दखल नहीं है और रहा डब्ल्यूटीओ तो वहां भी एक बड़ा समझैता रोक कर भारत हाशिए पर सिमटता जा रहा था. यही वजह थी कि जी20 के लिए प्रधानमंत्री के ब्रिस्बेन पहुंचने से पहले भारत के कूटनीतिक दस्ते ने न केवल अमेरिका के साथ विवाद सुलझकर डब्ल्यूटीओ में गतिरोध खत्म किया बल्कि दुनिया को इशारा भी कर दिया कि अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में भारत ने अपना हमसफर चुन लिया है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र् मोदी की कूटनीतिक वरीयताएं स्पष्ट होने लगी हैं. राजनयिक हलकों में इसे लेकर खासा असमंजस था कि चीन के आमंत्रण के बावजूद, प्रधानमंत्री एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग शिखर बैठक के लिए बीजिंग क्यों नहीं गए?

Monday, November 10, 2014

गवर्नेंस का राजनैतिक असमंजस

राज्य सरकारें नौकरशाही की चुस्ती से काम चला सकती हैं लेकिन केंद्र सरकार के निर्णय राजनैतिक शिखर से निकलते हैंजिनसे गवर्नेंस की दिशा तय होती है.कई महत्वपूर्ण नीतियों की राजनैतिक दिशा अब तक धुंधली है इसलिए प्रशासनिक असमंजस बढ़ रहा है।

रकारी तंत्र में बैठे हुए लोग उसके लिए क्या उपाय करेंगे, जो गंदगी पुरानी है. यह बहुत बड़ी चुनौती है. राष्ट्र के नाम रेडियो संबोधन मन की बात में प्रधानमंत्री ने गवर्नेंस के जिस असमंजस को स्वच्छता अभियान के संदर्भ में जाहिर किया था, वही बात वित्त मंत्री अरुण जेटली ने वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के मंच से कही कि आर्थिक स्थिति सुधरने में वक्त लगेगा. मोदी-जेटली के इशारे साफ हैं. उम्मीदों की उड़ान के पांच माह बाद सरकार में यथार्थवाद थिरने लगा है. कई महत्वपूर्ण नीतियों की राजनैतिक दिशा अब भी धुंधली है इसलिए प्रशासनिक गलियारों में जन कल्याण की स्कीमों से लेकर आर्थिक सुधारों तक संशय जड़ें जमाने लगा है. सरकार और बीजेपी संगठन के के साथ ताजा संवादों में भी यह तथ्य उभरा है कि अब सरकारी नीतियों की राजनैतिक दिशा निर्धारित करनी होगी ताकि वह फर्क नजर आ सके, जिसे लाने की आवाज बड़े जोर से लगाई गई थी.
ग्रामीण रोजगार गारंटी स्कीम (मनरेगा) को जारी रखने को लेकर अर्थशास्त्रियों का खत इसी संशय की उपज था कि मोदी सरकार जनकल्याण की स्कीमों को लेकर कौन-सा मॉडल अपनाएगी? सरकार का अधकचरा जवाब आया कि मनरेगा कुछ बदलावों के साथ बनी रहेगी. इसने जनकल्याण की स्कीमों के मोदी मॉडल को लेकर ऊहापोह और बढ़ा दी. सवाल मनरेगा का नहीं बल्कि उस मॉडल के स्वीकार या नकार का है जिसे कांग्रेस ने