Tuesday, January 13, 2015

संयम की नियंत्रण रेखा

भारत ग्लोबल कूटनीति में जब निर्णायक करवट की दहलीज पर खड़ा हैतब पाकिस्तान सबसे बड़ी दुविधा बन गया है।

पाकिस्तान को लेकर मोदी का आशावाद, उनकी सरकार के शपथ ग्रहण के साथ ही खत्म हो जाना स्वाभाविक ही था. हैरत तो, दरअसल, उस वक्त हुई जब पाकिस्तान को लेकर मोदी, अटल बिहारी वाजपेयी साबित नहीं हुए. कश्मीर के अलगाववादी नेता शब्बीर शाह और पाकिस्तानी राजदूत अब्दुल बासित के बीच मुलाकात के बाद अगस्त में दोनों मुल्कों की सचिव स्तरीय वार्ताएं न केवल रोक दी गईं बल्कि सरकार ने रिश्तों की रूल बुक यानी शिमला समझौते व लाहौर घोषणा को सामने रखते हुए सख्ती के साथ स्पष्ट कर दिया कि कश्मीर पर भारत और पाकिस्तान ही बात करेंगे, कोई तीसरा पक्ष नहीं रहेगा. मोदी सरकार का रुख साफ था कि इस अहमक पड़ोसी को लेकर न तो कांग्रेस की परंपरा चलेगी और न वाजेपयी की. पाकिस्तान को उसकी भाषा में जवाब देने की नीति तय करने के बाद मोदी ग्लोबल अभियान पर निकल गए थे क्योंकि उम्मीद थी कि पाकिस्तान बदलाव को समझते हुए संतुलित रहेगा. लेकिन पिछले छह माह में पाकिस्तान के पैंतरों ने भारत को चौंकाया है. कूटनीतिक व प्रतिरक्षा नियंता लगभग मुतमईन हैं कि पाकिस्तान, भारत को लंबे वार गेम में उलझना चाहता है. पसोपेश यह है कि ऐसे में सरकार के संयम की नियंत्रण रेखा क्या होनी चाहिए? वाजपेयी या कांग्रेस की तरह प्रतिरक्षात्मक रहना कितना कारगर साबित होगा?
भारत -पाक रिश्तों के इतिहास में भाजपाई नेतृत्व वाला हिस्सा छोटा जरूर है लेकिन बेहद निर्णायक रहा है. इसकी तुलना में राजीव-बेनजीर समझौते यानी अस्सी के दशक के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में, दोतरफा रिश्तों का रसायन ठंडा ही रहा. वाजपेयी वैचारिक रूप से पाकिस्तान बनाने के सिद्धांत के विपरीत थे लेकिन पड़ोसी को लेकर उनकी सदाशयता और सकारात्मकता ने उन्हें कभी दो-टूक नहीं होने दिया, जिसका नुक्सान भी हुआ. फरवरी 1999 में वाजपेयी के नेतृत्व में अमन की बस लाहौर पहुंची तो दोस्ती के गीत बजे लेकिन मई आते आते करगिल हो गया और पूरा देश पाकिस्तान के खिलाफ घृणा से भर गया. 2001 में आगरा की शिखर बैठक में दोस्ती की एक असफल कोशिश हुई लेकिन 2002 में संसद पर हमले के बाद माहौल और बिगड़ गया. वह पहला मौका था जब वाजपेयी दो-टूक हुए, भारतीय सेना सीमा की तरफ बढ़ी और मुशर्रफ ने नरम पड़ते हुए, आतंक पर रोकथाम का वादा किया जो कभी पूरा नहीं हुआ
मोदी के शपथग्रहण में नवाज शरीफ की मौजूदगी, वाजपेयी मॉडल का हिस्सा थी लेकिन जब अगस्त में दो-टूक तेवरों के साथ पाकिस्तान से वार्ता रोकी गई तो साफ हो गया कि मोदी खुद को वाजपेयी की तरह पाकिस्तान से उलझए नहीं रखेंगे. पाकिस्तान से रिश्ते, उनकी ग्लोबल डिजाइन का एक छोटा-सा हिस्सा हैं.
मोदी की वैश्विक महत्वाकांक्षाएं रहस्य नहीं हैं. उन्होंने घरेलू गवर्नेंस की अनदेखी का जोखिम उठा कर खुद को विश्व मंच पर स्थापित करने की कोशिश की है. अलबत्ता उनकी कोशिशों में पड़ोसी ही बाधा बने हैं. चीन ने आंख में आंख डालकर घुसपैठ की और पाकिस्तान ने तो बारूदी मोर्चा ही खोल दिया. गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि के तौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा, मोदी के नए नवेले ग्लोबल कूटनीतिक अभियान का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव है और मोदी इसे हर तरह से भव्य व निरापद रखना चाहते थे. लेकिन यह आयोजन आतंक, असुरक्षा और अंदेशों का साये में आ ही गया है जो पाकिस्तान की डिजाइन का मकसद है. दरअसल, मोदी ने जब अगस्त में पाकिस्तान से वार्ताएं रोकीं थीं तब तक न तो उनकी ग्लोबल योजनाएं स्पष्ट थीं और न ही ओबामा के भारत आने का कार्यक्रम था. लेकिन अब जब भारत अपनी ग्लोबल कूटनीति में निर्णायक करवट की दहलीज पर खड़ा है, तब विदेश और प्रतिरक्षा संवादों से गुजरते हुए यह महसूस किया जा सकता है कि पाकिस्तान को लेकर भारत की दो-टूक रणनीति को दुविधाओं ने घेर लिया है.
 पाकिस्तान को लेकर मोदी के तेवर उनके चुनाव अभियान के माफिक हैं, जो पिछली सरकार की पाकिस्तान नीति को लचर साबित करता था. यही वजह है कि जब पाकिस्तान की हरकतों से मोदी की सख्त छवि सवालों में घिरी, तो सीमा पर प्रतिरक्षा तंत्र ने ऐलानिया जवाबी कार्रवाई की. रक्षा और गृह मंत्रियों के बेलाग लपेट बयान भी यह बताते हैं कि रक्षा तंत्र, कांग्रेस व वाजपेयी के दौर की प्रतिरक्षात्मक रणनीति से आगे निकल आया है. अरब सागर में आग लगने के बाद डूबी नौका में आतंकी थे या नहीं, यह बात दीगर है लेकिन इसे लेकर सुरक्षा बलों ने जो सक्रियता दिखाई वह बताती है कि करगिल व 26/11 के बाद रक्षा बल किसी तरह का जोखिम लेने को तैयार नहीं हैं. कूटनीतिक हलकों में माना जा रहा है कि अगर ओबामा की यात्रा से पहले या बाद में भी, पाकिस्तान प्रेरित बड़ा दुस्साहस होता है तो भारत के लिए फैसले की कठिन घड़ी होगी क्योंकि सीमा पर बात काफी आगे बढ़ चुकी है. 
 मोदी ने वहीं से शुरुआत की है जहां वाजपेयी ने छोड़ा था. वाजपेयी का अंतिम बड़ा निर्णय आक्रामक ही था जब संसद पर हमले के बाद सेना को सीमा की तरफ बढ़ाया गया था. वाजपेयी से मोदी तक आते पाकिस्तान ज्यादा आक्रामक, विघटित और अविश्वसनीय हो गया है. पाकिस्तान को लेकर वाजपेयी जैसी सदाशयता मोदी की, ग्लोबल महत्वाकांक्षाओं के माफिक है और  घरेलू राजनीति में लोकप्रिय बने रहने के लिए इंदिरा गांधी वाला हॉट परस्यूट कारगर है.  दोनों विकल्पों के अपने नुक्सान हैं लेकिन मोदी कांग्रेस की तरह बीच में नहीं टिक सकते, क्योंकि पाकिस्तान से उनके रिश्तों की शुरुआत दो-टूक हुई है. उन्हें वाजपेयी बनना होगा या इंदिरा गांधी. 2015 में मोदी के इस चुनाव का नतीजा भी आ ही जाएगा और देश को उसके असर के लिए तैयार रहना होगा.

Monday, January 5, 2015

बेहद सख्त है यह जमीन

लगभग हर राज्य भूमि अधिग्रहण विवादों की बारूदी सुरंगों पर बैठा है। मोदी की मुश्किल यह है कि खाद्य उत्पादों की कीमतें घटने और समर्थन मूल्यों में बढ़त पर रोक से माहौलअबखेती के खिलाफ हो रहा  है 

 माम लोकप्रियता के बावजूद मोदी सरकार के लिए किसानों को यह समझ पाना शायद सबसे मुश्किल होगा कि जमीन का अधिग्रहण तर्कसंगत है, ठीक उसी तरह जैसे कांग्रेस सरकार निवेशकों को समझने में नाकाम रही थी कि वह आर्थिक सुधारों की राह पर आगे बढ़ रही है. जमीन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राजनैतिक कौशल की सबसे कड़ी परीक्षा लेने वाली है.
भूमि अधिग्रहण को उदार करने के साथ जमीन, गांव, किसान, खेती और स्वयंसेवी संगठन राजनैतिक बहसों के केंद्र में वापस लौट रहे हैं, जो बीजेपी के हाइ-प्रोफाइल चुनावी विमर्श से बाहर थे. कानून में अध्यादेशी बदलाव साहसिक हैं लेकिन शुरुआत सहमति से होती तो बेहतर था, क्योंकि जमीन को लेकर संवेदनशीलता चरम पर है. भूमि की जमाखोरी व मनमाने कब्जे माहौल बिगाड़ चुके हैं और लगभग हर राज्य भूमि अधिग्रहण विवादों की बारूदी सुरंगों पर बैठा है. इस संवेदनशील कानून को उदार करते हुए किस्मत, सरकार के साथ नहीं है. देशी व विदेशी माहौल में बदलाव से खेती के अच्छे दिन कमजोर पड़ रहे हैं. 2008 से 2014 के बीच फसलों का समर्थन मूल्य 130 फीसदी बढ़ा जबकि इससे पहले आठ वर्षों में बढ़ोतरी केवल 30 फीसदी थी. 2009 से 2013 के बीच सरकार ने बफर स्टॉक की जरूरत से दोगुना-तिगुना अनाज खरीद डाला. समर्थन मूल्यों में इस कदर इजाफा और अनाज की भारी सरकारी खरीद तर्कसंगत नहीं थी. लेकिन इससे बाजार खेती माफिक हो गया. मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद समर्थन मूल्य पर बोनस तय करने में राज्यों के अधिकार सीमित कर दिए. यह पाबंदी भी व्यावहारिक थी लेकिन बीजेपी के भीतर और संसद में भी इसका विरोध हुआ है. पिछले एक दशक में खेती में चार फीसदी की औसत ग्रोथ के बावजूद 2009 से 2014 तक खाद्य उत्पादों में महंगाई का गणित खेती के पक्ष में था. कृषि उत्पादों का ग्लोबल बाजार बढऩे से 2010 से 2013 के बीच भारत का कृषि निर्यात भी तिगुना हो गया. नेशनल सैंपल सर्वे की ताजा रिपोर्ट बताती है कि बेहतर खेती और ग्रामीण रोजगार गारंटी पर भारी खर्च के चलते कृषि मजदूरी छह फीसदी (महंगाई निकाल कर) सालाना की दर से बढ़ी है जो पिछले एक दशक में सर्वाधिक है. हालांकि सर्वे यह भी बताता है कि खेती के लिए सबसे अच्छे दशक के दौरान करीब 52 फीसदी किसान कर्ज में दब गए. उन पर बकाया कर्ज में 26 फीसदी हिस्सा सूदखोर महाजनों का है. खाद्य उत्पादों की कीमतें घटने, समर्थन मूल्यों में बढ़त पर रोक और कमॉडिटी के ग्लोबल बाजार में गिरावट के बीच माहौल, अब, खेती के खिलाफ है और किसान आत्महत्याएं इसे और पेचीदा बना रही हैं. इसलिए भूमि अधिग्रहण को लेकर संवेदनशीलता कई गुना बढऩे वाली है. ग्रामीण, किसान और स्वयंसेवी संगठनों की राजनीति के लिए जमीन पूरी तरह तैयार है क्योंकि अध्यादेश के बाद कई पैमानों पर भूमि अधिग्रहण की व्यवस्था, 2013 के कानून से पहले वाली स्थिति में होगी. जहां निजी-सरकारी भागीदारी की परियोजनाओं सहित लगभग सभी बड़े निर्माणों के लिए भू-स्वामियों की अनुमति या अधिग्रहण के जीविका पर असर के आकलन की शर्त हटा ली गई है.
इस विरोध को थामने के लिए बीजेपी का राजनैतिक हाथ जरा तंग है. भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव पर पार्टी के सांसदों व संघ परिवार को टटोलते हुए, इस असमंजस को खुलकर महसूस भी किया जा सकता है. मोदी का पूरा चुनाव अभियान शहरों से संवाद करता था, गांव चर्चा में नहीं थे. संघ परिवार से मदद की गुंजाइश कम ही है क्योंकि स्वदेशी जागरण मंच तो यूपीए से भी सख्त अधिग्रहण कानून का मसौदा बनाकर बैठा था. बीजेपी शहरों की पार्टी है, चहेते उद्योगों को नवाजने के आरोप उसकी पीठ पर लदे हैं जो भूमि अधिग्रहण को उदार बनाने के तर्कों की चुगली खाएंगे. कांग्रेस चुनाव के खौफ में थी इसलिए उसने सभी पक्षों से मशविरा किए बगैर एक बेतुका भूमि अधिग्रहण कानून देश पर थोप दिया, जिससे न किसानों को फायदा मिला और न उद्योगों को. ठीक उसी तरह बीजेपी आर्थिक सुधारों पर अपनी साख बचाने के लिए अध्यादेश लेकर कूद पड़ी है जिसके आधार पर न तो अधिग्रहण होगा और न ही निवेश. संसद से मंजूरी व सहमति के बाद ही बात आगे बढ़ेगी.
सरकार इस कानून में बदलावों पर आम राय की कोशिश के जरिए संभावित विरोध की धार को कुछ कम कर सकती थी. दिलचस्प है कि सरकार के इस बड़े राजनैतिक जोखिम के बावजूद उद्योग खुश नहीं है क्योंकि गैर बुनियादी ढांचा निवेश के लिए अधिग्रहण की शर्तें जस की तस हैं और ज्यादातर निवेश मैन्युफैक्चरिंग में ही होना है. दरअसल, अध्यादेश का दंभ दिखाकर सरकार ने भूमि अधिग्रहण की जमीन को और पथरीला कर लिया है. मोदी उस समय गुजरात के मुखिया थे जब सितंबर 2012 में सुरेंद्रनगर व मेहसाणा जिलों के 44 गांवों को मिलाकर मंडल बेचराजी स्पेशल इन्वेस्टमेंट रीजन बनाने की अधिसूचना जारी हुई थी. एक साल तक चला विरोध अंतत: गांधीनगर तक पहुंचा और अगस्त 2013 में स्पेशल इन्वेस्टमेंट रीजन का दायरा घटाते हुए में 36 गांवों को अधिग्रहण से बाहर किया गया. गुजरात बीजेपी के नेता भी मानते हैं कि 12 वर्ष में पहली बार किसी जनांदोलन के सामने मोदी सरकार को हथियार डालने पड़े थे. भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव के साथ मोदी सरकार, राजनीति के महत्वपूर्ण मोड़ पर आ खड़ी हुई है. विकास के लिए जमीन की आपूर्ति और भूमि अधिकारों की हिफाजत के बीच संतुलन बेहद नाजुक है.
मोदी को अब न केवल संघ परिवार और विपक्ष की भरपूर मदद चाहिए बल्कि व्यापक जनसमर्थन की भी जरूरत है. कोई शक नहीं कि अगर मोदी, भूमि अधिग्रहण के फायदे किसानों को समझ सके तो उनकी सफलता का परचम खेत से कारखानों तक लहराएगा. लेकिन फिलहाल तो भूमि अधिग्रहण की कडिय़ल और बारूदी जमीन उनकी राजनैतिक दक्षता का इम्तिहान लेने को बेताब है.


Monday, December 29, 2014

लोकलुभावनवाद की ‘घर वापसी’

आक्रामक हिंदुत्व का प्रेत और सुधारों की नई क्रांतिकारी सूझ की कमी सरकार को सहज व सुरक्षित गवर्नेंस विकल्पों की तरफ ढकेल रही है मोदी सरकार भी संसाधनों की बर्बादी वाली इन्क्लूसिव ग्रोथ की ओट में छिप जाना चाहती है.
र्म बदल करने वालों का तो पता नहीं लेकिन मोदी सरकार के आर्थिक प्रबंधन की घर वापसी का ऐलान जरूर हो गया है. भारी सरकारी खर्च, केंद्रीय स्कीमों का राज, सरकार का जनलुभावन शृंगार और भारी घाटे के साथ, मोदी सरकार का आर्थिक दर्शन उसी घर में बसने वाला है जिस पर कांग्रेस ने इन्क्लूसिव ग्रोथ का बोर्ड लगा रखा था. मोदी सरकार इसकी जगह सबका साथ, सबका विकास का पोस्टर लगा देगी. नई सरकार का पहला बजट जल्दबाजी में बना था, जो टीम मोदी के वित्तीय और आर्थिक दर्शन को स्पष्ट नहीं करता था लेकिन धर्मांतरण के हड़बोंग के बीच जारी हुई तिमाही आर्थिक समीक्षा ने मोदी सरकार की आर्थिक रणनीति से परदा हटा दिया है. मोदी सरकार दकियानूसी और लोकलुभावन आर्थिक प्रबंधन की तरफ बढ़ रही है, जिसकी एक बड़ी झलक आने वाले बजट में मिल सकती है.
विकास के लिए सरकारी खर्च का पाइप खोलने की सूझ जिस इलहाम के साथ आई है वह और भी ज्यादा चिंताजनक है. समीक्षा ने स्वीकार किया है कि निजी कंपनियां निवेश को तैयार नहीं हैं. नई सरकार आने के बाद निजी निवेश शुरू होना चाहिए था लेकिन हकीकत यह है कि सरकारी उपक्रम दो लाख करोड़ रु. की नकदी पर बैठे हैं जबकि निजी कंपनियां करीब 4.6 लाख करोड़ रु. की नकदी पर. इसके बाद निजी निवेश न होना दरअसल मेक इन इंडिया की शुरुआती असफलता पर वित्त मंत्रालय की मुहर जैसा है. केंद्र में सरकार बदलने के बाद सारा दारोमदार निजी कंपनियों के निवेश पर था, जिससे रोजगार और ग्रोथ लौटने की उम्मीद बनती थी. लेकिन सरकार को पहले छह माह में ही यह एहसास हो गया है कि निजी निवेश को बढ़ावा देने की ज्यादा कवायद करने की बजाए सरकारी खर्च के पुराने मॉडल की शरण में जाना बेहतर होगा.
भारी सरकारी खर्च की वापसी उत्साहित नहीं करती बल्कि डराती है क्योंकि केंद्र सरकार के भारी खर्च से उभरी विसंगतियों का दर्दनाक अतीत हमारे पास मौजूद है. सरकार के पास उद्योग, पुल, सड़क, बंदरगाह बनाने लायक न तो संसाधन हैं और न मौके. यह काम तो निजी कंपनियों को ही करना है. आम तौर पर सरकारें जब अच्छी गुणवत्ता की ग्रोथ और रोजगार पैदा नहीं कर पातीं तो अपने खर्च को सब्सिडी और लोकलुभावन स्कीमों में बढ़ाती हैं, जैसा कि हमने यूपीए राज के पहले चरण की कथित इन्क्लूसिव ग्रोथ में देखा था, जो बाद में बजट, ग्रोथ और निवेश को ले डूबी. मोदी सरकार का खर्च रथ भी उसी पथ पर चलेगा. नई-नई स्कीमों को लेकर मोदी का प्रेम जाहिर हो चुका है. योजना आयोग के पुनर्गठन में पुरानी केंद्रीय स्कीमों को बंद करना फिलहाल एजेंडे पर नहीं है इसलिए एनडीए की नई स्कीमों से सजे इस मोदी के रथ पर कांग्रेस सरकार की स्कीमें पहले से सवार होंगी.
केंद्र सरकार का खर्च अभियान एक कांटेदार गोला है जो अपनी कई नुकीली बर्छियों से जगह-जगह छेद करता है. सरकार का राजस्व सीमित है और औद्योगिक मंदी खत्म होने तक राजस्व में तेज बढ़ोतरी की उम्मीद भी नहीं है. सरकार के सामने भारी खर्च का बिल आने वाला है जिसमें सब्सिडी, वित्त आयोग की सिफारिशों के तहत राज्यों के करों में ज्यादा हिस्सा, केंद्रीय बिक्री कर में हिस्सेदारी का राज्यों का भुगतान और सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों पर अंतरिम राहत शामिल होंगे. इसलिए अगले बजट में घाटे की ऊंचाई देखने लायक होगी. ब्याज दरों में कमी के लिए रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को कोसने से फायदा नहीं है. अब सरकार जमकर कर्ज लेगी, जिससे ब्याज दरों में कमी के विकल्प बेहद सीमित हो सकते हैं. 
मोदी सरकार के सामने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए दो विकल्प थे. एक है सस्ता कर्ज. महंगाई में कमी से इसकी जमीन तैयार हो गई है. बैंकिंग सुधार का साहस और बजट घाटे पर नियंत्रण दो और जरूरतें थीं जो अगर पूरी हो जातीं तो अगले साल से ब्याज दरों में तेज कटौती की शुरुआत हो सकती थी. दूसरा था सरकार का भारी खर्च, जो ऊंचे घाटे, कर्ज व महंगे ब्याज की कीमत पर होगा. अर्थव्यवस्था को मंदी से निकालने के लिए सस्ता कर्ज, सरकार के खर्च से बेहतर विकल्प होता है क्योंकि वह निजी उद्यमिता को बढ़ावा देता है, लेकिन मोदी सरकार ने दूसरा विकल्प यानी भारी खर्च का रास्ता चुना है. इससे सरकार का लोकलुभावन मेकअप तो ठीक रहेगा लेकिन घाटे में बढ़ोत्तरी और भ्रष्टाचार व घोटालों का खतरा कई गुना बढ़ जाएगा. 
मोदी सरकार, वाजपेयी की तरह भगवा ब्रिगेड को आक्रामक सुधारों से जवाब नहीं देना चाहती बल्कि यूपीए की तरह संसाधनों की बर्बादी वाली इन्क्लूसिव ग्रोथ की ओट में छिप जाना चाहती है. आक्रामक हिंदुत्व का प्रेत, संसद में गतिरोध और सुधारों की नई क्रांतिकारी सूझ की कमी मोदी सरकार को सहज और सुरक्षित गवर्नेंस विकल्पों की तरफ ढकेल रही है. आर्थिक समीक्षा इशारा कर रही है कि आने वाला बजट स्कीमों से भरपूर होगा, जो घाटे को नियंत्रित करने का संकल्प नहीं दिखाएगा. उम्मीदों से रची-बुनी, बहुमत की सरकार का इतनी जल्दी ठिठक कर लोकलुभावन हो जाना यकीनन, निराश करता है लेकिन हकीकत यह है कि मोदी सरकार को अपने साहस की सीमाओं का एहसास हो गया है.

अगले साल भारत को 6 फीसदी के आसपास की विकास दर पर मुतमईन होना पड़ सकता है, जो आज की आबादी और विश्व बाजार से एकीकरण की रोशनी में, सत्तर-अस्सी के दशक की 3.5 फीसद ग्रोथ रेट के बराबर ही है, जिसे हिंदू ग्रोथ रेट कहा जाता था. गवर्नेंस बनाम उग्र हिंदुत्व के विराट असमंजस में बलि तो आर्थिक ग्रोथ की ही चढ़ेगी.

Monday, December 22, 2014

2002 बनाम 2014


मोदी ने उग्र हिंदुत्व को खारिज कर गवर्नेंस के ठोस एजेंडे पर तत्काल अमल शुरू नहीं किया तो उनके परिवार के योगीसाक्षी और साध्वी उन्हें अगले कुछ महीनों में ही 2002 का वाजपेयी बना देंगे.

रेंद्र मोदी सरकार सिर्फ अच्छी गवर्नेंस की उम्मीदों का मुकुट पहन कर ही सत्ता में नहीं पहुंची थी. सरकार बनते ही बीजेपी परिवार में दो प्रतिस्पर्धाएं एक साथ शुरू हुई हैं. एक तरफ सुशासन का परचम है, तेज आर्थिक प्रगति का उछाह है तो दूसरी तरफ उग्र हिंदुत्व की उम्मीदें भी कम ऊंची नहीं थीं. होड़ यह थी कि इनमें से कौन-सा एजेंडा अपनी धाक व धमक पहले कायम करता है. सरकार के छह माह बीतते-बीतते सुशासन के निर्गुण-निराकार आह्वानों पर उग्र हिंदुत्व का ठोस एजेंडा भारी पड़ता दिखता है. बीजेपी की पीठ पर लदा यह वेताल इतनी जल्दी सामने आ जाएगा, इसका अंदाजा खुद शायद मोदी को भी नहीं था लेकिन उग्र हिंदुत्व के पैरोकारों ने वाजपेयी सरकार के दौरान मिले अनुभवों का इस्तेमाल करते हुए अपने एजेंडे पर अमल की शुरुआत में देरी नहीं की है जबकि सरकार वाजपेयी की गवर्नेंस के तजुर्बों से सबक नहीं ले पाई. इसलिए, मोदी सरकार अपनी भोर में ही उस उलझन में फंसती दिख रही है, वाजपेयी सरकार अपनी प्रौढ़ावस्था में जिस असमंजस से दो चार हुई थी.
मोदी अच्छी गवर्नेंस दे सकते हैं, इस पर किसी को शक नहीं है. लेकिन यह संदेह वाजिब है कि क्या मोदी, कट्टर हिंदुत्व के वेताल को संभाल सकते हैं जो हमेशा से बीजेपी की पीठ पर सवार है और ग्रोथ का एजेंडा पटरी से उतारने की कुव्वत रखता है? इस अक्तूबर में विहिप की स्वर्ण जयंती तैयारियों को परखते हुए हमें यह एहसास हुआ था कि भगवा समूह अपने लक्ष्यों और कार्यक्रमों को लेकर ज्यादा स्पष्ट है जबकि गवर्नेंस को लेकर मोदी की मंजिलें धुंधली व खोखली हैं. वाजपेयी, अपनी सरकार के शुरुआती दौर में इस उग्र परिवार से निबटने में ज्यादा चतुर नजर आए थे. गठजोड़ की सरकार में सहयोगी दलों के दबाव ने भी उन्हें उग्र हिंदुत्व से बचने का मौका दिया था लेकिन शायद ज्यादा मदद, उन्हें उस न्यूनतम साझा कार्यक्रम से मिली, जो चुनाव से पहले बन गया था. हिंदुत्व और स्वदेशी के जिद्दी आग्रह घोषित तौर पर इस कार्यक्रम से बाहर थे और आर्थिक सुधारों व गवर्नेंस के लक्ष्य निर्धारित थे. इसलिए सत्ता में बैठते ही सरकार ने रफ्तार पकड़ ली और उग्र हिंदुत्व जब तक दस्तक देता, तब तक सुधारों की राह पर कई कदम उठ चुके थे.
आदर्श रूप से मोदी को सत्ता में आते ही सुधार और गवर्नेंस के ठोस लक्ष्य तय कर देने चाहिए थे. संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने से पहले सुशासन का रोड मैप चर्चा में आ जाना चाहिए था ताकि भगवा विमर्श की आवाज दबी रहती. लेकिन बयानों, फैसलों व कदमों में असंगति ने सरकार की वरीयताएं बुरी तरह गड्डमड्ड कर दी हैं. संस्कृत को तीसरी भाषा बनाने का लक्ष्य पहले जरूरी था या शिक्षा में ठोस बदलावों का? बैंकों की हालत सुधारना जरूरी था या जन धन? बंद पड़े बिजली घरों को कोयला मिलना पहली जरूरत था या पचास स्कीमों से लदे-फदे गांवों पर एक और स्कीम लादना? मोदी सरकार की शुरुआती घोषणाएं हवा में लटकी हैं, संसाधनों की बुनियाद नदारद है. गवर्नेंस में उभरती थकान व यथास्थिति उग्र हिंदुत्व की बहस शुरू करने के माफिक है. प्रधानमंत्री भी अब ऐक्शन मैन की जगह उपदेशक व काउंसलर की भूमिका में आ गए हैं जो सुधारों का एजेंडा नहीं बताता बल्कि नशीली दवाएं छोड़ने की सलाह देता है.
मोदी का चुनाव अभियान अच्छी गवर्नेंस की उम्मीद और उग्र हिंदुत्व के एजेंडे का चतुर सामंजस्य था, जिसके हस्ताक्षर प्रत्याशियों के चयन से लेकर प्रचार अभियान और नतीजों तक, हर जगह मौजूद थे. सरकार में आने के बाद मोदी कुछ निश्चिंत से हो गए जबकि उग्र हिंदुत्व के पैरोकारों ने अपने लक्ष्यों को साधना शुरू कर दिया. यही वजह है कि सरकार के पहले छह माह में ही लव जेहाद, धर्मांतरण व मंदिर जैसे मुद्दे बीजेपी के मंच व नेताओं के बयानों में नजर आने लगे. इससे न केवल विकास की बहस भटक रही है बल्कि बेतरह कमजोर विपक्ष को संसद रोकने की ताकत भी मिल गई. अगर 300 अरब डॉलर के विदेशी मुद्रा भंडार के बावजूद रुपया कमजोर है, कंपनियां मेक इन इंडियापर भरोसा नहीं कर पा रही हैं, महंगाई घटने के बाद भी उपभोक्ता खर्च नहीं बढ़ रहा है तो उसकी वजहें केवल ग्लोबल नहीं हैं. दरअसल, नई सरकार कुछ बड़ा किए बगैर ही ठिठक गई है और उग्र हिंदुत्व का वेताल बड़ा होने लगा है.

भगवा सेना के सामने मोदी का ताजा असमंजस 2001 के वाजपेयी जैसा है, जब अयोध्या में मंदिर निर्माण को लेकर सरकार व विहिप के बीच मोर्चा खुला था. 2002 की शुरुआत होने तक, शिला पूजन को लेकर टकराव बढ़ गया, तनाव का पारा चढ़ा, गोधरा में ट्रेन जली, गुजरात के दंगे हुए और पूरा माहौल विषाक्त हो गया. वाजपेयी ने 2002 और ’03 में आर्थिक सुधारों की भरसक कोशिश की. 2003 के अंत में तीन विधानसभाएं भी जीतीं लेकिन देश को सबसे अच्छी गवर्नेंस व सबसे तेज ग्रोथ देने वाली सरकार 2004 में वापस नहीं लौट सकी. शायद 2002 के तनाव व दंगों से उभरी असुरक्षा, वाजपेयी सरकार की बेजोड़ परफॉर्मेंस पर भारी पड़ी थी. भगवा ब्रिगेड की धमक, ग्रोथ, रोजगार और गवर्नेंस की उम्मीदों के लिए जोखिम भरी है. अगर मोदी ने उग्र हिंदुत्व को खारिज कर गवर्नेंस के ठोस एजेंडे पर तत्काल अमल शुरू नहीं किया तो उनके परिवार के योगी, साक्षी और साध्वी उन्हें अगले कुछ महीनों में ही 2002 का वाजपेयी बना देंगे.

Monday, December 15, 2014

वाजपेयी,गवर्नेंस और मोदी


वाजपेयी की गवर्नेंस की रोशनी में मोदी सरकार को परखनाकीमती निष्कर्ष उपलब्ध कराता है.
ह अक्तूबर 1998 की दोपहर थी. वाजपेयी सरकार की दूसरी पारी को कुछ महीने बीते थे और मेल-मोबाइल से परे उस दौर में सरकार की रणनीति के सूत्रधार प्रमोद महाजन से मिलने के लिए अशोक रोड के बीजेपी दफ्तर में बाट जोहने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. कमरे में घुसते ही महाजन मुस्कराए, टेलीकॉम! मैंने तुरंत सवाल दागा कि लाइसेंसों का क्या होगा? महाजन ने कुछ सोचते हुए कहा, ''नई दूरसंचार नीति लाएंगे और क्या?” दूरसंचार के उदारीकरण को पहले दिन से रिपोर्ट कर रहे मेरे जैसे पत्रकार के लिए महाजन की टिप्पणी, सनसनीखेज से कम कुछ भी नहीं थी. नेशनल टेलीकॉम पॉलिसी (1994) को सिर्फ चार साल बीते थे. टेलीकॉम क्षेत्र विवादों का एक्सचेंज बन गया था. ऊंची बोली लगाकर बुरी तरह फंस चुकी कंपनियां लाइसेंस फीस देने की स्थिति में नहीं थीं. इस बीच केंद्र में तीन सरकारें गुजर चुकी थीं और वाजपेयी सरकार की दूसरी पारी में भी दो संचार मंत्री (बूटा सिंह और सुषमा स्वराज) रुखसत हो चुके थे. संचार मंत्रालय तब प्रधानमंत्री के पास था और महाजन उनके सलाहकार थे. मैंने महाजन से पूछा कि अभी तो पिछली नीति ही लागू नहीं हुई है? उन्होंने कहा, ''वाजपेयी जी चाहते हैं विवादों का कीचड़ साफ करने के लिए नई नीति बनाई जाए. हम बजट तक इसे ले आएंगे.मार्च,1999 में नई दूरसंचार नीति लागू हो गई और उसके बाद भारत की टेलीकॉम क्रांति दुनिया के लिए अध्ययन का सबब बन गई.
वाजपेयी की गवर्नेंस की रोशनी में मोदी सरकार को परखना, कीमती निष्कर्ष उपलब्ध कराता है. दूरसंचार निजीकरण के पहले दौर (1995) में लाइसेंसों के लिए ऊंची बोली लगाना कंपनियों की गलती थी. लेकिन गठजोड़ की सरकार के लिए अस्थिर राजनैतिक माहौल में इस फैसले को पलटना, लाइसेंस फीस माफ करना और नई नीति लाना सियासी जोखिम का चरम था क्योंकि 50,000 करोड़ रु. के घोटाले (लाइसेंस फीस माफी) के आरोप सरकार का इंतजार कर रहे थे.
तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने अपनी किताब कन्फेशंस ऑफ अ स्वदेशी रिफॉर्मर में स्वीकार किया कि ''यह फैसला नैतिक रूप से कठिन था.यह संवेदनशील फैसला सिर्फ वाजपेयी के राजनैतिक साहस से निकला था कि दूरसंचार क्षेत्र में तरक्की के लिए कंपनियों का 'बेल आउटजरूरी है. यह फैसला न सिर्फ संसद और अदालत में सही साबित हुआ बल्कि करोड़ों हाथों में मौजूद मोबाइल फोन आज भी इसकी तस्दीक करते हैं.
राजनैतिक साहस का इम्तिहान चुनाव नहीं, सरकारें लेती हैं, जब संकट प्रबंधन की चुनौती मेज पर होती है. मोदी सरकार को दो संकट विरासत में मिले. एक कोयला और प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन और दूसरा डूबते कर्ज से दबे बैंक. इन दोनों को ठीक किए बिना ग्रोथ और नई नौकरियां नामुमकिन हैं. इन संकटों के समाधान के जरिए प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन और बैंकिंग में दूरदर्शी बदलाव हो सकते हैं, जो टेलीकॉम में हुआ था.
कोयला खदानों का आवंटन रद्द हुए चार माह बीत रहे हैं. हमारे पास सिर्फ एक कामचलाऊ फैसला है जिसके जरिए रद्द की गई खदानें अगले साल मार्च तक आवंटित हो जाएं तो बड़ी बात होगी. समग्र खनन सुधार चर्चा में नहीं है और सड़ती बैंकिंग पर जन-धन का पोस्टर लगा दिया गया है. वाजपेयी के पास मोदी जैसा संख्या बल नहीं था. तेरह माह बाद अप्रैल, 1999 में जयललिता ने समर्थन खींचकर सरकार को कार्यवाहक बना दिया लेकिन नई दूरसंचार नीति सिर्फ तीन माह (दिसंबर,1998-मार्च,1999) में बन गई. एक कमजोर सरकार में गवर्नेंस की यह साहसी रफ्तार हर तरह से अनोखी थी.
सरकारें, सूझ-बूझ, दूरदर्शिता और कालजयी फैसलों से परखी जाती हैं. आर्थिक सुधारों के सूत्रधार डॉ. मनमोहन सिंह के दस साल और नरेंद्र मोदी के छह माह देखने के बाद ऐसा लगता है कि वाजपेयी सरकार मानो, दूरदर्शिता के शून्य से भरे अगले दस साल और छह माह के लिए ही नीतियों का ईंधन जुटा रही थी. घाटे नियंत्रित करने वाला बजट मैनेजमेंट कानून, कम्पीटिशन कानून, स्वदेशी के आग्रहों को नकार कर डब्ल्यूटीओ नियमों के तहत भारतीय बाजार के दरवाजे खोलना, सरकारी उपक्रमों का सबसे बड़ा निजीकरण, फेरा की समाप्ति और नया कानून, पेट्रोलियम सुधार, सड़क परियोजनाएं, कंपनियों को विदेशी कर्ज की छूट, दूरसंचार और सूचना तकनीक सेवाओं में सिलसिलेवार उदारीकरण...साहस और सूझ-बूझ की फेहरिस्त वाकई बड़ी लंबी है.
गठजोड़ की सरकार में वाजपेयी इतना कुछ कैसे कर सके? शायद इसलिए कि उनके पास गवर्नेंस के लक्ष्यों का रोड मैप था और दंभ रहित, जिंदादिल और ठहाकेबाज वाजपेयी ने अपने मंत्रियों को दूर की सोचने तथा फैसले करने की छूट दी थी. जबरदस्त बहुमत वाली मोदी सरकार में इन दोनों की कमी बुरी तरह खलती है. वाजपेयी ऐसा इसलिए भी कर सके क्योंकि उन्होंने प्रचार के कंगूरे नहीं बल्कि गवर्नेंस की बुनियाद गढ़ी थी. चुनाव तब भी होते थे. अलबत्ता वाजपेयी गवर्नेंस के लिए राजनीति कर रहे थे, राजनीति के लिए गवर्नेंस नहीं.
एक वरिष्ठ उद्योगपति ने मई में चुनाव नतीजों के बाद मुझसे कहा था कि वाजपेयी सरकार ने पांच साल में जितना काम किया, अगर मोदी उसका 30 फीसदी भी कर दें तो देश की ग्रोथ को 15 साल का ईंधन मिल जाएगा. अपनी तीसरी पारी के पहले स्वाधीनता दिवस (2000) पर लाल किले से वाजपेयी ने आह्वान किया था कि भारत को अगले एक दशक में अपनी प्रति व्यक्ति आय दोगुनी करनी होगी. 2007-08 में यह लक्ष्य हासिल हो गया. महंगाई को निकाल दें तो भी प्रति व्यक्ति आय 50 फीसदी बढ़ी है जो 125 करोड़ की आबादी के लिए छोटी बात नहीं है. क्या नरेंद्र मोदी के पहले छह महीनों से यह भरोसा मिलता है कि अगले एक दशक में यह करिश्मा दोहराया जाएगा? प्रचार भरे छह माह के साथ मोदी सरकार के कार्यकाल का दस फीसदी हिस्सा गुजर गया है लेकिन सरकार में वह हिम्मत, सूझ और दूरदर्शिता अब तक नदारद है जो वाजपेयी सरकार के पहले हफ्तों में ही नजर आ गई थी.