Tuesday, June 28, 2016

रघुराम राजन और मध्‍य वर्ग


क्‍या रघुराम राजन मौद्रिक नीति को उन लोगों की तरफ मुखातिब कर रहे थे जो कर्ज तो नहीं लेते लेकिन मौद्रिक नीति से बुरी तरह से प्रभावित जरूर होते हैं. 
घुराम राजन क्या भारतीय मध्य वर्ग का बैंकर बनने की कोशिश कर रहे थे? क्या वे ऐसी मौद्रिक नीति बनाने की  कोशिश में लगे थे जो बहुसंख्यक मध्य वर्ग की जरूरतों को तवज्जो देती हो? क्या लोकलुभावन और संवेदनशील दिखने वाली सरकार, दरअसल कर्ज लेने वालों के प्रति अतिरिक्त उदार हो चली है या फिर राजन कुछ ज्यादा ही जनवादी हो गए थे? क्या राजन मुट्ठीभर कर्ज लेने वालों के बजाए लाखों बैंक जमाकर्ताओं और उपभोक्ताओं का प्रवक्ता बनने की कोशिश कर रहे थे? क्या बड़े बैंक कर्जदारों और उन्हें बचाने वाले बैंकरों के प्रति राजन की निर्ममता उन्हें ऐसा केंद्रीय बैंकर बना रही थी जो भारत में उद्योग-नेता गठजोड़ के माफिक नहीं था?
अब तक हमने मौद्रिक नीति पर बहुसंख्यकों के मतलब वाली बहस कभी नहीं की है. हमारी चर्चाएं कर्ज की आपूर्ति और ब्याज दरों में कमी-बेशी से बाहर कभी नहीं निकलतीं, जो सीमित लोगों की चिंता है. भारतीय बैंकिंग और मौद्रिक नीति के प्रभाव को व्यापक दायरे में देखने के बाद महसूस होता है कि शायद राजन इस नीति को उन लोगों की तरफ मुखातिब कर रहे थे जो कर्ज तो नहीं लेते लेकिन मौद्रिक नीति से बुरी तरह से प्रभावित जरूर होते हैं. 
राजन के पूर्ववर्ती गवर्नर सुब्बा राव इस बात पर अचरज में थे कि उनके बाल तो कम हो रहे हैं लेकिन बाल कटाने की लागत बढ़ती जाती है. राजन ने महंगाई की उलझन को पकडऩे की कोशिश की, जो औसत भारतीय मध्य वर्ग की सबसे बड़ी मुसीबत है. महंगाई नियंत्रण किसी भी केंद्रीय बैंक का पहला कर्तव्य है. इस काम के लिए ब्याज दरों में कमी-बेशी के जरिए मुद्रा के प्रवाह को नियंत्रित किया जाता है ताकि बाजार में कम चीजों के पीछे ज्यादा रुपया न दौड़े और कीमतें यानी महंगाई काबू में रहे. 
राजन से पहले तक ब्याज दरें तय करने के लिए थोक महंगाई को आधार बनाया जाता था और जीडीपी ग्रोथ की जरूरत को लक्ष्य किया जाता था. यह फॉर्मूला उस महंगाई को रोकता ही नहीं था, जो हमारी जेब काटती है. राजन ने ब्याज दरें तय करने के फॉर्मूले को खुदरा महंगाई से जोड़ दिया, जो ज्यादा पारदर्शी और स्थायी था. इसे वित्तीय बाजार ने भी स्वीकार किया.
फॉर्मूला बदलने के साथ रिजर्व बैंक ने सरकार को बाध्य किया कि ब्याज दरों में कमी के लिए उपभोक्ता महंगाई को कम किया जाए. कर्ज पर ब्याज दरें कम होने का सबसे ज्यादा फायदा सरकार को होता है जो बैंकों से सबसे ज्यादा कर्ज लेती है. यह नीति सरकार को फालतू के खर्च घटाकर कर्ज कार्यक्रम (राजकोषीय घाटे) को सीमित रखने पर भी बाध्य करती थी जो बाजार में कर्ज की मांग को प्रभावित करता है. पिछले तीन साल के आंकड़े बताते हैं कि उपभोक्ता महंगाई भी घटी और सरकार ने घाटे पर भी काबू किया.
राजन ने अपने एक भाषण में महंगाई और ब्याज दरों के रिश्ते को समझाने के लिए दोसे का उदाहरण दिया था. मतलब यह कि महंगाई बढ़ती रहे और ब्याज दरें कम की जाएं तो पेंशनर और जमाकर्ताओं के लिए दोसे खरीदने की क्षमता सीमित होती चली जाती है. यह उदाहरण उन्हें पहला ऐसा केंद्रीय बैंकर बनाता है जो बैंकिंग ढांचे में जमाकर्ताओं के हितों को कर्ज लेने वालों के बराबर तरजीह दे रहे थे. जाहिर है कि बैंक में जमा रखने वाले लोगों की संक्चया कर्ज लेने वालों के मुकाबले बहुत बड़ी है. जमा ही बैंकिंग का आधार है.
राजन जमाकर्ताओं को सकारात्मक रिटर्न (महंगाई दर-जमा ब्याज दर) देने के हिमायती थे. उन्होंने सुझाया था कि सरकार को अपने एक साल के कर्जों पर महंगाई दर से दो फीसदी ज्यादा ब्याज देना चाहिए ताकि जमा पर ब्याज दरें तर्कसंगत रहें. यह राय वित्त मंत्रालय को नहीं भाई, जिसने इसी मार्च में छोटी बचतों पर ब्याज दरें कम की हैं. उल्लेखनीय है कि राजन के गवर्नर बनने के कुछ माह बाद जनवरी 2014 से जमा पर रियल टर्म रिटर्न सकारात्मक हो गए थे.
हम भले ही बैंकों के मामले में कर्ज और ब्याज से आगे कुछ न सोचते हों लेकिन भारत में बैंकिंग की हकीकत में बिल्कुल फर्क है. यहां 45 फीसदी वयस्क आबादी के पास बैंक खाते नहीं हैं यानी कि वह बैंकिंग के दायरे से बाहर हैं. केवल 6.4 फीसदी वयस्क ऐसे हैं जिन्होंने किसी वित्तीय संस्थान से कर्ज लिया है. (वर्ल्ड बैंक ग्लोबल फिनडेक्स डाटाबेस 2014) इनमें भी उपभोक्ता कर्ज लेने वालों की संख्या और उनके कर्जों के आकार बहुत सीमित है.
दरअसल, भारत में कर्ज का वास्तविक संसार बड़े उद्योगों का है. ब्याज दरों में चैथाई फीसदी की कटौती से आम उपभोक्ता की मासिक किस्त कुछ सौ रुपए घटती है लेकिन कर्ज के सबसे बड़े ग्राहकों यानी उद्योगों और सरकार के लिए यह कमी करोड़ों रु. का मामला है. रिजर्व बैंक के आंकड़े इस बात की तस्दीक करते हैं कि पिछले साल 31 मार्च तक सरकारी बैंकों के कुल फंसे हुए कर्ज का एक-तिहाई हिस्सा केवल 30 कर्जदारों के नाम था. पांच प्रमुख सरकारी बैंकों के करीब 4.87 लाख करोड़ रु. के कर्ज सिर्फ 44 कर्जदारों के खाते में दर्ज हैं और यह सभी औसत 5,000 करोड़ रु. के ऊपर के कर्जदार हैं. इस कर्ज की वसूली के बिना बैंकों की लागत घटना और कर्ज सस्ता होना नामुमकिन है. समझना मुश्किल नहीं है कि राजन के नेतृत्व में रिजर्व बैंक ने बड़े कर्जदारों से वसूली और बैंकों की सफाई का जो अभियान चलाया, वह किसे परेशान कर रहा होगा.
राजन के विरोधी उन्हें अमेरिका से प्रभावित बताते हैं लेकिन अमेरिका में उपभोग के लिए भी कर्ज लिया जाता है, वहां महंगाई कोई मुद्दा नहीं है और वहां सस्ता कर्ज ही सब कुछ है. इसके उलट भारत की बैंकिंग जमाकर्ताओं की है, जिनके लिए बैंक बैलेंस पर रिटर्न और महंगाई सबसे बड़ी चिंता है.
राजन की मौद्रिक कोशिशों को भारत के बैंकिंग परिदृश्य के संदर्भ में देखने के बाद यह सवाल पीछा नहीं छोड़ता कि क्या रघुराम राजन मध्य वर्ग के हितों को मौद्रिक नीति का स्थायी कारक बनाना चाहते थे जबकि उन्हें हटाने की मुहिम छेडऩे वाले कुछ और ही चाह रहे थे?
ध्यान रहे कि केंद्र सरकार मौद्रिक नीति को तय करने के नए पैमाने जारी करने वाली है. यदि वह जमाकर्ताओं से ज्यादा कर्ज लेने वालों के पक्ष में हुए तो हमारे कई संदेह सही साबित हो सकते हैं.

Wednesday, June 22, 2016

सफेद हाथियों का शौक


सरकारी कंपनियों को बनाए रखने के आग्रह दलीय बाधाएं तोड़कर भारतीय राजनीति का संस्कार बन चुके हैं
रकारी कंपनियों की बिक्री (निजीकरण) का फैसला गंभीर है. यह मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति से पीछे हटना है. सरकारी उपक्रमों को बेचने से बजट में कुछ संसाधन आएंगे लेकिन यह तो सब्जी का बिल चुकाने के लिए घर को बेचने जैसा है. बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि सरकार एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस को बेचने की सोच रही है. मैं कभी सोच भी नहीं सकता जो विमानन कंपनियां हमारा झंडा दुनिया में ले जाती हैं, उन्हें बेचा जाएगा."


यदि आपको लगता है कि यह किसी कॉमरेड का भाषण है तो चौंकने के लिए तैयार हो जाइए. यह पी.वी. नरसिंह राव हैं जो भारतीय आर्थिक सुधारों के ही नहीं, पब्लिक सेक्टर कंपनियों में सरकार की हिस्सेदारी बेचने की नीति के भी पहले सूत्रधार थे. यह भाषण वाजपेयी सरकार की निजीकरण नीति के खिलाफ था जो उन्होंने बेंगलूरू में कांग्रेस अधिवेशन (मार्च 2001) के लिए तैयार किया था. भाषण तो नहीं हो सका लेकिन अधिवेशन के दौरान उन्होंने जयराम रमेश से चर्चा में निजीकरण पर वाजपेयी सरकार की नीति के विरोध में गहरा क्षोभ प्रकट किया था. रमेश की किताब टु द ब्हिंक ऐंड बैकइंडियाज 1991 स्टोरी में यह संस्मरण और भाषणनुमा आलेख संकलित है. 

सरकारी उपक्रमों को लेकर नरसिंह राव के आग्रह दस साल चली मनमोहन सरकार को भी बांधे रहे. अब जबकि मोदी सरकार में भी घाटे में आकंठ डूबे डाक विभाग को पेमेंट बैंक में बदला जा रहा है या स्टील सहित कुछ क्षेत्रों में नए सार्वजनिक उपक्रम बन रहे हैं तो मानना पड़ेगा कि सरकारी कंपनियों को लेकर भारतीय नेताओं का प्रेम आर्थिक तर्कों ही नहीं, दलीय सीमाओं से भी परे है.

सरकार बैंक, होटल, बिजली घर ही नहीं चलाती, बल्कि स्टील, केमिकल्स, उर्वरक, तिपहिया स्कूटर भी बनाती है, और वह भी घाटे पर. सरकार के पास 290 कंपनियां हैं, जो 41 केंद्रीय मंत्रालयों के मातहत हैं. बैंक इनके अलावा हैं. 234 कंपनियां काम कर रही हैं जबकि 56 निर्माणाधीन हैं. सक्रिय 234 सरकारी कंपनियों में 17.4 लाख करोड़ रु. का सार्वजनिक धन लगा है. इनका कुल उत्पादन 20.6 लाख करोड़ रु. है. सक्रिय कंपनियों में 71 उपक्रम घाटे में हैं. सार्वजनिक उपक्रमों से मिलने वाला कुल लाभ करीब 1,46,164 करोड़ रु. है यानी इनमें लगी पूंजी पर लगभग उतना रिटर्न आता है जितना ब्याज सरकार कर्जों पर चुकाती है. 

सार्वजनिक उपक्रमों का दो-तिहाई मुनाफा कोयला, तेल, बिजली उत्पादन व वितरण से आता है जहां सरकार का एकाधिकार यानी मोनोपली है या फिर उन क्षेत्रों से, जहां निजी प्रतिस्पर्धा आने से पहले ही सरकारी कंपनियों को प्रमुख प्राकृतिक संसाधन या बाजार का बड़ा हिस्सा सस्ते में या मुफ्त मिल चुका था.

सार्वजनिक उपक्रमों का कुल घाटा 1,19,230 करोड़ रु. है. यदि बैंकों के ताजा घाटे और फंसे हुए कर्ज मिला लें तो संख्या डराने लगती है. 863 सरकारी कंपनियां राज्यों में हैं जिनमें 215 घाटे में हैं. जब हमें यह पता हो कि निजी क्षेत्र के एचडीएफसी बैंक का कुल बाजार मूल्य एक दर्जन सरकारी बैंकों से ज्यादा है या रिलायंस इंडस्ट्रीज की बाजार की कीमत इंडियन ऑयल, भारत पेट्रोलियम, गेल और हिंदुस्तान पेट्रोलियम से अधिक है तो आर्थिक पैमानों पर सरकारी कंपनियों को बनाए रखने का ठोस तर्क नहीं बनता.  

सरकारी कंपनियों में महीनों खाली रहने वाले उच्च पद यह बताते हैं कि इनकी प्रशासनिक साज-संभाल भी मुश्किल है. रोजगार के तर्क भी टिकाऊ नहीं हैं. रोजगार बाजार में संगठित क्षेत्र (सरकारी और निजी) का हिस्सा केवल छह फीसदी है. केवल 1.76 करोड़ लोग सरकारी क्षेत्र में थे, जिनमें 13.5 लाख लोग सरकारी कंपनियों में हैं. विनिवेश व निजीकरण से रोजगार नहीं घटा, यह पिछले प्रयोगों ने साबित किया है. 

इन तथ्यों के बावजूद और अपने चुनावी भाषणों में मिनिमम गवर्नमेंट की अलख जगाने वाली मोदी सरकार नए सार्वजनिक उपक्रम बनाने लगती है तो हैरत बढ़ जाती है. जैसे डाक विभाग के पेमेंट बैंक को ही लें. 2015 में डाक विभाग का घाटा 14 फीसदी बढ़कर 6,259 करोड़ रु. पहुंच गया. खाता खोलकर जमा निकासी की सुविधा देने वाले डाक घर अर्से से पेमेंट बैंक जैसा ही काम करते हैं. केवल कर्ज नहीं मिलता जो कि नए पेमेंट बैंक भी नहीं दे सकते.

सरकारी बैंक बदहाल हैं और निजी कंपनियां पेमेंट बैंक लाइसेंस लौटा रही हैं. जब भविष्य के वित्तीय लेनदेन बैंक शाखाओं से नहीं बल्कि एटीएम मोबाइल और ऑनलाइन से होने वाले हों, ऐसे में डाक विभाग में 800 करोड़ रु. की पूंजी लगाकर एक नया बैंक बनाने की बात गले नहीं उतरती. असंगति तब और बढ़ जाती है जब नीति आयोग एयर इंडिया सहित सरकारी कंपनियों के विनिवेश के सुझावों पर काम कर रहा है.

सरकार को कारोबार में बनाए रखने के आग्रह आर्थिक या रोजगारपरक नहीं बल्कि राजनैतिक हैं. सत्ता के विकेंद्रीकरण और स्वतंत्र नियामकों के उभरने के साथ राजनेताओं के लिए विवेकाधीन फैसलों की जगह सीमित हो चली है. अधिकारों के सिकुडऩे के इस दौर में केवल सरकारी कंपनियां ही बची हैं जो राजनीति की प्रभुत्ववादी आकांक्षाओं को आधार देती हैं जिनमें भ्रष्टाचार की पर्याप्त गुंजाइश भी है. यही वजह है कि भारत को आर्थिक सुधार देने वाले नरसिंह राव निजीकरण को पाप बताते हुए मिलते हैं. मनमोहन सिंह दस साल के शासन में सार्वजनिक उपक्रमों का विनिवेश नहीं कर पाते हैं, जबकि निजी क्षेत्र की उम्मीदों के नायक नरेंद्र मोदी सरकारी कंपनियों के नए प्रणेता बन जाते हैं.

प्रधानमंत्रियों की इस सूची में केवल गठजोड़ की सरकार चलाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी ही साहसी दिखते थे. उन्होंने निजीकरण की नीति बनाई और लगभग 28 कंपनियों के निजीकरण के साथ यह साबित किया कि होटल चलाना या ब्रेड बनाना सरकार का काम नहीं है.

सार्वजनिक कंपनियों में नागरिकों का पैसा लगा है. जब ये कंपनियां घाटे में होती हैं तो सिद्धांततः यह राष्ट्रीय संपत्ति की हानि है. जैसा कि सरकारी बैंकों में दिख रहा है जहां बजट से गया पैसा भी डूब रहा है और जमाकर्ताओं का धन भी लेकिन अगर यह नुक्सान राजनैतिक प्रभुत्व के काम आता हो तो किसे फिक्र होगी? हमें यह मान लेना चाहिए कि सरकारी कंपनियों को बनाए रखने के आग्रह दलीय बाधाएं तोड़कर भारतीय राजनीति का संस्कार बन चुके हैं, जिससे जल्दी मुक्ति अब नामुमकिन है.

Tuesday, June 14, 2016

आंकड़ों की चमकार

सरकार के आंकड़ों को लेकर संदेह के संवादों  का  खतरा अब बढऩे लगा है.  

थ्यसंगत विमर्श में रुचि लेने वाले एक मित्र से जब मैंने पिछले सप्ताह कहा कि देश में बिजली का उत्पादन मांग से ज्यादा यानी सरप्लस हो गया है तो उनके माथे पर बल पड़ गए. वे बिजली की व्यवस्था में पीक डिमांड, एवरेज और रीजनल सरप्लस जैसे तकनीकी मानकों से अपरिचित नहीं थे लेकिन बार-बार बिजली जाने से परेशान, पसीना पोंछते मेरे मित्र के गले यह बात उतर नहीं रही थी कि सचमुच मांग से ज्यादा बिजली बनने लगी है.

उनकी यह हैरत उस मध्यवर्गीय उपभोक्ता जैसी ही थी जो सब्जी, तेल, दाल खरीदते समय यह नहीं समझ पाता कि महंगाई यानी मुद्रास्फीति में रिकॉर्ड कमी के आंकड़े ब्रह्मांड के किस ग्रह से आते हैं. ठीक इसी तरह रोजगार में कमी, सूखे के हालात, मांग में गिरावट और कंपनियों की बिक्री के नतीजे पढ़ते हुए, आर्थिक विकास दर के आठ फीसदी (7.9 फीसदी) के करीब पहुंचने के ताजा आंकड़े एक तिलिस्मी दुनिया में पहुंचा देते हैं.

हमने ऊपर जिन तीन आंकड़ों का जिक्र किया है, वे तकनीकी तौर पर सही हो सकते हैं, लेकिन शायद एक विशाल देश में आंकड़ों का व्यावहारिक तौर पर सही होना और ज्यादा जरूरी है, क्योंकि सांख्यिकीय पैमानों की बौद्धिक बहस में टिकाऊ होने के बावजूद अगर बड़े और प्रमुख आंकड़े व्यावहारिक हकीकत से कटे हों तो उनकी राजनैतिक विश्वसनीयता पर शक-शुबहे लाजिमी हैं.

सबसे पहले बिजली को लें, जो गर्मी में सबसे ज्यादा छकाती है. केंद्रीय बिजली अधिकरण (सीईए) ने जैसे ही कहा कि इस साल बिजली का उत्पादन सरप्लस यानी मांग से ज्यादा हो जाएगा तो कई मंत्रियों के ट्विटर हैंडल चिचिया उठे. सीईए ने बताया था कि देश में पीक डिमांड (सर्वाधिक मांग के समय) और नॉन पीक डिमांड (औसत मांग) के समय, बिजली का उत्पादन मांग से क्रमश 3.1 फीसदी और 1.1 फीसदी ज्यादा रहेगा. यह आंकड़ा बिजली की मांग और आपूर्ति पर आधारित है, घंटों और स्थान के आधार पर परिवर्तनशील है. सरकार ने कोयले की बेहतर आपूर्ति के आधार पर बिजली उत्पादन में क्रांति का दावा किया तो कांग्रेसी कह उठे कि काम तो पिछले एक दशक में हुआ है, बीजेपी सरकार तो उसकी मलाई खा रही है.

बहरहाल, अगर आपके इलाके में खूब बिजली कटती है (जो अखिल भारतीय सच है) तो मांग से ज्यादा बिजली उत्पादन के दावे पर भरोसा असंभव है. अलबत्ता अगर तकनीकी चीर-फाड़ करें तो लगेगा कि सीईए बजा फरमाता है. सीईए ने एक निर्धारित समय (घंटा भी हो सकता है) पर पूरे देश में बिजली की मांग व आपूर्ति का औसत निकाला जो उत्पादन में सरप्लस बताता जान पड़ता है. यह स्थिति पिछले साल की तुलना में बेहतर है.

इस तथ्य के बावजूद यह समझना जरूरी है कि भारत में सबसे बुरे वर्षों में भी अलग-अलग समय पर राज्यों में बिजली का उत्पादन सरप्लस रहा है लेकिन इसके साथ ही देश के कई दूसरे हिस्से हमेशा बिजली की कटौती झेलते हैं. कई जगह बिजली कंपनियां घाटा कम करने के लिए कटौती करती रहती हैं. इसलिए बिजली के तात्कालिक सरप्लस उत्पादन का आंकड़ा तकनीकी तौर पर भले ही सही हो, लेकिन इस गर्मी में अक्सर बिजली गायब रहने के दैनिक तजुर्बे से बिल्कुल उलट है जो सरकार के जोरदार दावे पर उत्साह के बजाए खीझ पैदा करता है.

अप्रैल में बढ़त दर्ज करने से पहले तक थोक कीमतों वाली महंगाई पिछले 18 महीने से शून्य से नीचे थी. फुटकर महंगाई की दर भी ताजा बढ़ोतरी से पहले तक पांच फीसदी से नीचे आ गई थी. आंकड़े सिद्धांततः सही हो सकते हैं, लेकिन यहां भी तकनीकी पेच है. खुदरा महंगाई दर जिस सर्वेक्षण पर आधारित होती है, उसके आंकड़े 310 कस्बों और 1,180 गांवों से जुटाए जाते हैं. इस व्यवस्था में गलतियों की भरपूर गुंजाइश है. इन कमजोर आंकड़ों से जो सूचकांक बनता है, उसमें मौसमी चीजों (सब्जी, फल), दूध और दालों की कीमतों का हिस्सा कम है. कपड़ों, शिक्षा परिवहन के खर्चों की गणना का फॉर्मूला भी पुराना है. इसलिए अक्सर सब्जी की दुकान पर खड़े होकर जो महंगाई महसूस होती है, मुद्रास्फीति के घटने के आंकड़े उस पर नमक मलते जान पड़ते हैं.

भारत में जीडीपी के ताजा आंकड़े तो कल्पनाओं की बाजीगरी लगते हैं. मार्च, 2016 की तिमाही में जीडीपी की करीब 51 फीसदी ग्रोथ डिस्क्रीपेंसीज या असंगतियों के चलते आई है. चौंकिए नहीं, जीडीपी की गणना के फॉर्मूले में एक कारक का नाम ही असंगति है. ठोस आंकड़ों के अभाव में सरकार उत्पादन व खर्च का एक मोटा-मोटा अंदाज लगा लेती है और जीडीपी की ग्रोथ तय कर दी जाती है. यह अंदाजा ही डिस्‍क्रिपेंसी या असंगति है.

सरकार के प्रधान आंकड़ाकार टीसीए अनंत को कहना पड़ा कि आंकड़े मिलने में देरी के कारण डिसक्रिपेंसीज कुछ ज्यादा ही हो गई हैं. लेकिन कितनी ज्यादा? इस असंगति के खाते ने मार्च, 2016 की तिमाही में जीडीपी में 143 लाख करोड़ रु. का उत्पादन जोड़ दिया, जो 2015 की इसी तिमाही में केवल 29,933 करोड़ रु. था. आंकड़ों के विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर असंगतियों की इस भेंट को जीडीपी से निकाल दें तो मार्च की तिमाही में जीडीपी ग्रोथ 7.9 नहीं बल्कि 3.9 फीसदी रह जाएगी, क्योंकि इनके अलावा सरकार के खर्च में बढ़ोतरी मामूली है, निजी निवेश व निर्यात गिरा है, जिनके दम पर जीडीपी बढ़ता है.

ध्यान रखना जरूरी है कि विकास और बदलाव संख्याओं में नहीं, जमीन पर महसूस होता है जैसा कि रेलवे की सेवाओं में या काले धन को लेकर नजर आ रहा है. लेकिन ऐसा हर क्षेत्र में नहीं हो पाया है. सरकारें हमेशा अपनी उपलब्धियों का प्रचार करती हैं लेकिन आंकड़ों में गफलत साख के लिए खतरनाक हो सकती है.

पिछले दो साल में सरकारी आर्थिक आंकड़ों पर निवेशकों का भरोसा कम हुआ है. वे आंकड़ों की स्वतंत्र पड़ताल को मजबूर हो रहे हैं. सरकारी दावे तकनीकी तौर पर सही हो सकते हैं लेकिन अगर आंकड़े असंगति से भरे और व्यावहारिकता से कटे हों तो इनके अति सुहानेपन के विपरीत एक प्रतिस्पर्धी संवाद पैदा होता है जो बेहतरी की तथ्यात्मक कोशिशों को भी नकारात्मकता और शक-शुबहे से भर देता है. सरकार के आंकड़ों को लेकर संदेह के संवादों का खतरा अब बढऩे लगा है.  


Tuesday, June 7, 2016

अब की बार बैंक बीमार


बैंकों की हालत दो साल में देश बदलने के दावों की चुगली खाती है.

भारतीय बैंकों के कुल फंसे हुए कर्ज अब 13 लाख करोड़ रुपए से ऊपर हैं जो न्यूजीलैंड, केन्या, ओमान, उरुग्वे जैसे देशों के जीडीपी से भी ज्यादा है. सुनते थे कि चीन की बैंकिंग बुरे हाल में है लेकिन बैंकों के कर्ज संकट के पैमाने पर एशिया की अन्य अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत के बैंकों की हालत सबसे ज्यादा खराब है. प्रमुख सरकारी बैंकों के वित्तीय नतीजे बताते हैं कि 25 में से 15 सरकारी बैंकों का मुनाफा डूब गया है. बैंकिंग उद्योग का ताजा घाटा अब 23,000 करोड़ रुपए से ऊपर है, जबकि बैंक पिछले साल इसी दौरान मुनाफे में थे.

मोदी सरकार अपनी सालगिरह के उत्सव और गुलाबी आंकड़ों की चाहे जो धूमधाम करे लेकिन यकीन मानिए, बैंकिंग के संकट ने इस जश्न में खलल डाल दिया है. भारतीय बैंकों की हालत अब देसी निवेशकों की ही नहीं बल्कि ग्लोबल चिंता का सबब है और इसे सुधारने में नाकामी पिछले दो साल में मोदी सरकार की सबसे बड़ी विफलता है. कमजोर होते और दरकते बैंक ब्याज दरों में कमी की राह रोक रहे हैं. बैंकों पर टिकी मोदी सरकार की कई बड़ी स्कीमें भी इस संकट के कारण जहां की तहां खड़ी हैं.

वित्त मंत्रालय, बैंकिंग क्षेत्र और शेयर बाजार को टटोलने पर भारतीय बैंकिंग में लगातार बढ़ रहे संकट के कई अनकहे किस्से सुनने को मिलते हैं, जो ताजा आंकड़ों से पुष्ट होते हैं. बैंकों की ताजा वित्तीय सूरतेहाल (2015-16 की आखिरी तिमाही) के मुताबिक, केवल पिछले एक साल में ही बैंकों का फंसा हुआ कर्ज यानी बैड लोन (एनपीए) 3.09 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर 5.08 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच गया. अकेले मार्च की तिमाही में ही बैंकों का एनपीए 1.5 लाख करोड़ रुपए बढ़ा है. सरकारी बैंकों का एनपीए अब शेयर बाजार में उनके मूल्य से 1.5 गुना है. यानी अगर किसी ने ऐसे बैंक में निवेश किया है तो वह प्रत्येक 100 रुपए के निवेश पर 150 रुपए का एनपीए ढो रहा है.

बैंकों के इलाज के लिए सरकार नहीं बल्कि रिजर्व बैंक ने कोशिश की है. एनपीए को लेकर सरकार की तरफ से ठोस रणनीति की नामौजूदगी में रिजर्व बैंक ने पिछले साल से बैंकों की बैलेंस शीट साफ करने का अभियान शुरू किया, जिसके तहत बैंकों को फंसे हुए कर्जों के बदले अपनी कुछ राशि अलग से सुरक्षित (प्रॉविजनिंग) रखनी होती है. इस फैसले से एनपीए घटना शुरू हुआ है लेकिन  इसका तात्कालिक नतीजा यह है कि 25 में से 15 प्रमुख सरकारी बैंक घाटे के भंवर में घिर गए हैं. मार्च की तिमाही के दौरान भारी घाटा दर्ज करने वाले बैंकों में पंजाब नेशनल बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, बैंक ऑफ इंडिया जैसे बड़े बैंक शामिल हैं. देश के सबसे बड़े बैंक, स्टेट बैंक का मुनाफा भी बुरी तरह टूटा है. यह सफाई अभियान कुछ और समय तक चलने की उम्मीद है यानी बैंकों को फंसे हुए कर्जों के बदले और मुनाफा गंवाना होगा. लिहाजा, अगले छह माह तक बैंकों की हालत सुधरने वाली नहीं है.

महंगे कर्ज को लेकर रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन को कठघरे में खड़ा करने वालों से बैंकों की बैलेंस शीट पर एक नजर डालने की उम्मीद जरूर की जानी चाहिए. मई में कर्ज की मांग घटकर दस फीसदी से भी नीचे आ गई जो सबूत है कि बैंकों को नया कारोबार नहीं मिल रहा है. बैंकों में जमा की ग्रोथ रेट पांच दशक के न्यूनतम स्तर पर है. एनपीए के कारण बैंकिंग उद्योग का पूंजी आधार सिकुड़ गया है. दरअसल, ऊंची ब्याज दरों की वजह रिजर्व बैंक की महंगाई नियंत्रण नीति नहीं है, बैंकों की बदहाली ही ब्याज दरों में कमी को रोक रही है.

बैंकों की हालत दो साल में देश बदलने के दावों की चुगली खाती है. सरकार सूझ और साहस के साथ इस संकट से मुकाबिल नहीं हो सकी. पिछले साल अगस्त में आया बैंकिंग सुधार कार्यक्रम इंद्रधनुष बैंक कर्जों और घाटे की आंधी में उड़ गया. यह कार्यक्रम बैंकों के संकट को गहराई से समझने में नाकाम रहा. बैंकों के फंसे कर्जों को उनकी बैलेंस शीट से बाहर करने की जुगत चाहिए, लेकिन उसके लिए सरकार हिम्मत नहीं जुटा सकी. बैंकों का पूंजी आधार इतनी तेजी से गिरा है कि बजट से बैंकों में पैसा डालने (कैपिटलाइजेशन) से भी बात बनने की उम्मीद नहीं है.

यह समझ से परे था कि जब सरकारी बैंक पिछले कई दशकों की सबसे बुरी वित्तीय हालत में हैं तो सरकार ने अपने प्रमुख लोकलुभावन मिशन बैंकों पर लाद दिए. बैंकिंग का ऐसा इस्तेमाल सत्तर-अस्सी के दशक में होता था जब लोन मेले लगाए जाते थे. पिछले दो साल में शुरू हुई लगभग आधा दर्जन योजनाएं बड़े सरकारी बैंकों पर केंद्रित हैं. मुद्रा बैंक, स्टार्ट-अप इंडिया, सोने के बदले कर्ज तो सीधे कर्ज बांटने से जुड़ी हैं जबकि जन धन, बीमा योजनाएं और डायरेक्ट बेनीफिट ट्रांसफर सेवाओं में बैंकिंग नेटवर्क का इस्तेमाल होगा जिसकी अपनी लागत है. आज अगर मोदी सरकार की कई स्कीमों के जमीनी असर नहीं दिख रहे हैं तो उसकी वजह यह है कि बैंकों की वित्तीय हालत इन्हें लागू करने लायक है ही नहीं.

आइएमएफ की ताजा रिपोर्ट बताती है कि एशिया की अन्य अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत के सरकारी बैंकों की हालत ज्यादा खराब है. 3 मई को जारी रिपोर्ट के मुताबिक, एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भारत में कुल (ग्रॉस) लोन में नॉन-परफॉर्मिंग एसेट का हिस्सा अन्य एशियन देशों की तुलना में सबसे ज्यादा है. कुल बैंक कर्ज के अनुपात में 6 फीसदी एनपीए के साथ भारत अब मलेशिया, इंडोनिशया और जापान ही नहीं, चीन से भी आगे है.


अच्छे मॉनसून से विकास दर में तेजी की संभावना है. इसे सस्ते कर्जों और मजबूत बैंकिंग का सहारा चाहिए, लोकलुभावन स्कीमों का नहीं. सरकार को दो साल के जश्न से बाहर निकलकर ठोस बैंकिंग सुधार करने होंगे, जिनसे वह अभी तक बचती रही है. बैंकिंग संकट अगर और गहराया तो यह ग्रोथ की उम्मीदों पर तो भारी पड़ेगा ही, साथ ही भारत के वित्तीय तंत्र की साख को भी ले डूबेगा, जो फिलहाल दुनिया के कई बड़े मुल्कों से बेहतर है.

Monday, May 30, 2016

हार जैसी जीत


बंगाल और तमिलनाडु के नतीजे दिखाते हैं कि कैसे खराब गवर्नेंस की धार भोथरी कर चुनावी जीत की राह खोली जा सकती है.

मिलनाडु और पश्चिम बंगाल के नतीजों के बाद पृथ्वीराज चव्हाण, भूपेंद्र सिंह हुड्डा और हेमंत सोरेन जरूर खुद को कोस रहे होंगे कि वे भी जयललिता और ममता बनर्जी क्यों नहीं बन सके जिन्हें भ्रष्टाचार और खराब गवर्नेंस के बावजूद लोगों ने सिर आंखों पर बिठाया. दूसरी तरफ, अखिलेश यादव, हरीश रावत, प्रकाश सिंह बादल और लक्ष्मीकांत पार्सेकर को वह मंत्र मिल गया होगा, जो खराब गवर्नेंस की धार भोथरी कर चुनावी जीत की राह खोलता है.


2016 में विधानसभा चुनावों के नतीजे निराश करते हैं, खास तौर पर पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु के. इन नतीजों से कुछ परेशान करने वाले नए सवाल उभर रहे हैं, जो किसी बड़े राजनैतिक बदलाव की उम्मीदों को कमजोर करते हैं. सवाल यह है कि क्या किस्म-किस्म के चुनावी तोहफों के बदले वोट खरीदकर भ्रष्टाचार और खराब गवर्नेंस का राजनैतिक नुक्सान खत्म किया जा सकता है? क्या आम वोटर अब राजनैतिक गवर्नेंस में गुणात्मक बदलावों की बजाए मुफ्त की रियायतों की अपेक्षा करने लगा है? क्या निजी निवेश, औद्योगिक विकास, मुक्त बाजार को बढ़ाने और सरकार की भूमिका सीमित करने की नीतियों के आधार पर चुनाव जीतना अब असंभव है? और अगर कोई सरकार लोकलुभावन नीतियों को साध ले तो खराब प्रशासन या राजनैतिक लूट के खिलाफ पढ़े-लिखे शहरी वोटरों की कुढ़न कोई राजनैतिक महत्व नहीं रखती?

2016 के चुनावी नतीजे 2014 के राजनैतिक बदलाव के उलट हैं. यह पिछड़ी हुई राजनीति की वापसी का ऐलान है. 2014 में वोटरों ने कांग्रेस के भ्रष्ट शासन के खिलाफ न केवल केंद्र में बड़ा जनादेश दिया बल्कि भ्रष्टाचार में डूबी महाराष्ट्र की कांग्रेस-एनसीपी सरकार और खराब गवर्नेंस वाली हरियाणा व झारखंड की सरकार को भी बेदखल किया था. यही वोटर दिल्ली के चुनावों में भी सक्रिय दिखा, लेकिन बंगाल और तमिलनाडु में जो नतीजे आए, वे आश्चर्य में डालते हैं.

गवर्नेंस और पारदर्शिता की कसौटी पर जयललिता और ममता की सरकारों के खिलाफ वैसा ही गुस्सा अपेक्षित था जैसा कि 2014 में नजर आया था. एक मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार के मामले में जेल हो आईं थीं, जबकि दूसरे राज्य की सरकार चिट फंड घोटालों में इस कदर घिरी कि करीबी मंत्रियों के सीबीआइ की चपेट में आने के बाद घोटाले की तपिश मुख्यमंत्री के दरवाजे तक पहुंच गई. माना कि इन राज्यों में मतदाताओं को अच्छे विकल्प उपलब्ध नहीं थे, लेकिन इन सरकारों को दोबारा इतना समर्थन मिलना चुनावों के ताजा तजुर्बों के विपरीत जाता है.

तो क्या ममता और जया ने मुफ्त सुविधाएं और तोहफे बांटकर एक तरह से वोट खरीद लिए और माहौल को अपने खिलाफ होने से रोक लिया? दोनों सरकारों की नीतियों को देखा जाए तो इस सवाल का जवाब सकारात्मक हो सकता है. जयललिता सरकार लोकलुभावन स्कीमों की राष्ट्रीय चैंपियन है. अम्मा कैंटीन (सस्ता खाना) और अम्मा फार्मेसी को कल्याणकारी राज्य का हिस्सा माना जा सकता है लेकिन अम्मा सीमेंट, मिक्सर ग्राइंडर, पंखे, सस्ता अम्मा पानी और नमक आदि सरकारी जनकल्याण की अवधारणा को कुछ ज्यादा दूर तक खींच लाते हैं. लेकिन अम्मा यहीं तक नहीं रुकीं. ताजा चुनावी वादों के तहत अब लोगों को सस्ते फिल्म थिएटर, मुफ्त लैपटॉप, मोबाइल फोन, बकरी, सौ यूनिट तक मुफ्त बिजली, मोपेड खरीदने पर सब्सिडी और यहां तक शादियों के मंगलसूत्र के लिए आठ ग्राम सोना भी मिलेगा. लोगों को इन वादों पर शक नहीं हुआ क्योंकि तमिलनाडु में सरकारी सुविधाओं का लोगों तक पहुंचाने का तंत्र अन्य राज्यों से काफी बेहतर है.

दूसरी ओर, ममता ने नकद बांटने की स्कीमों का बड़ा परिवार खड़ा किया है. इनमें बेरोजगार युवाओं को मासिक भत्ता, लड़कियों के विवाह पर परिवारों को नकद राशि, इमामों को भत्ता, दुर्गा पूजा पंडालों को नकद राशि, क्लबों को नकद अनुदान खास रहे. यकीनन, अम्मा और ममता की कथित उदारता उनकी खराब गवर्नेंस व भ्रष्टाचार को ढकने में सफल रही है, जो शायद गोगोई असम में नहीं कर सके.

औद्योगिक निवेश, उदारीकरण और रोजगार के मामले में बंगाल और तमिलनाडु में कुछ नहीं बदला. इसलिए चुनावों में ये मुद्दे भी नहीं थे. ममता तो सिंगूर में टाटा की फैक्ट्री यानी उद्योगीकरण के खिलाफ आंदोलन से उठीं थीं. उनका यह अतीत बंगाल में निवेशकों को नए सिरे से डराने के लिए काफी था. ममता के राज में निवेशकों के मेले भले ही लगे हों, लेकिन बंगाल में न निवेश आया और न रोजगार.

तमिलनाडु का औद्योगिक क्षरण पिछले छह साल से सुर्खियों में है. चेन्नै के करीब विकसित ऑटो हब, जो नब्बे के दशक में ऑटोमोबाइल दिग्गजों की पहली पसंद था, 2010 के बाद से उजड़ने लगा था. मोबाइल निर्माता नोकिया के निकलने के बाद श्रीपेरुंबदूर का इलेक्ट्रॉनिक्स पार्क भी आकर्षण खो बैठा. बिजली की कमी के कारण तमिलनाडु की औद्योगिक चमक भले ही खो गई हो, लेकिन अम्मा की राजनैतिक चमक पर फर्क नहीं पड़ा. उन्होंने शपथ ग्रहण के साथ ही 100 यूनिट बिजली मुफ्त देने का ऐलान कर दिया.

ममता और जया ने चुनाव जीतने का जो मॉडल विकसित किया है, वह चिंतित करता है क्योंकि पिछले एक दशक में केंद्र से राज्यों को संसाधनों के हस्तांतरण का मॉडल बदला है. राज्यों को केंद्र से बड़ी मात्रा में संसाधन मिल रहे हैं जो उपयोग की शर्तों से मुक्त हैं. केंद्र प्रायोजित स्कीमों के सीमित होने के बाद राज्यों को ऐसे संसाधनों का प्रवाह और बढ़ेगा.


राज्यों को मिल रही वित्तीय स्वायत्तता पूरी तरह उपयुक्त है, लेकिन खतरा यह है कि इन संसाधनों से राज्यों के बीच मुफ्त सुविधाएं बांटने की होड़ शुरू हो सकती है जिसमें ज्यादातर राज्य सरकारें ठोस आर्थिक विकास के जरिए रोजगार और आय बढ़ाने की नीतियों के बजाए सोना, स्कूटर, मकान, मुफ्त बिजली आदि बांटने की ओर मुड़ सकती हैं. जाहिर है, जब राज्य सरकारें लोकलुभावनवाद की दौड़ में उतरेंगी तो केंद्र से सख्त सुधारों व सब्सिडी पर नियंत्रण की उम्मीद करना बेमानी है. केंद्र में भी सरकार बनाने या बचाने के लिए चुनाव जीतना अनिवार्य है. इस जीत के लिए कितनी ही पराजयों से समझौता किया जा सकता है.