Monday, February 27, 2017

सीएजी से कौन डरता है?


सरकारें जीएसटी से सीएजी को क्यों दूर रखना चाहती हैं ? 


जीएसटी यानी भारत के सबसे बड़े कर सुधार पर संवैधानिक ऑडिटर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की निगहबानी नहीं होगी!

यदि संसद ने दखल न दिया तो सीएजी जीएसटी से केंद्र व राज्यों को होने वाले नुक्सान-फायदे पर सवाल नहीं उठा पाएगा! 

डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि सीएजी सुप्रीम कोर्ट से ज्यादा महत्वपूर्ण संस्था है. इसे केंद्र और राज्यों के राजस्व को प्रमाणित करने का संवैधानिक अधिकार है मगर इसे जीएसटी में राजस्व को लेकर सूचनाएं मांगने का अधिकार भी नहीं मिलने वाला. राज्य सरकारें भी कब चाहती हैं कि कोई उनकी निगरानी करे. 

क्या यह पिछली सरकार में सीएजी की सक्रियता से उपजा डर है?

या फिर संवैधानिक संस्थाओं की भूमिका सीमित करने का कोई बड़ा आयोजन?

जीएसटी सरकारों (केंद्र व राज्य) के राजस्व से संबंधित है, जो ऑडिट के संवैधानिक नियमों का हिस्सा हैं. इसी आधार पर सीएजी ने 2जी और कोयला घोटालों की जांच की थी, क्योंकि उनसे मिला राजस्व सरकारी खजाने में आया था.

जीएसटी कानून के प्रारंभिक प्रारूप की धारा 65 के तहत सीएजी को यह अधिकार था कि वह जीएसटी काउंसिल से सूचनाएं तलब कर सकता है. 

पिछले साल अक्तूबर में, केंद्र सरकार के नेतृत्व में चुपचाप इस प्रावधान को हटाने की कवायद शुरू हुई.  सीएजी ने पत्र लिखकर अनुरोध किया था कि धारा 65 को न हटाया जाए क्योंकि संवैधानिक नियमों के टैक्स मामलों का ऑडिट सीएजी की जिंम्मेदारी है. अलबत्ता जीएसटी काउंसिल की ताजा बैठक में केंद्र और राज्य सीएजी को जीएसटी से दूर रखने पर राजी हो गए.  

इस फैसले के बाद केंद्र व राज्यों के राजस्व में संवैधानिक ऑडिटर की भूमिका बेहद सीमित हो जाएगी.   

सरकारें जीएसटी से सीएजी को क्यों दूर रखना चाहती हैं, इस पर शक लाजिमी है. जबकि जिस फॉर्मूले के तहत राज्यों को जीएसटी से होने वाले नुक्सान की भरपाई करेगी, उसके राजस्व के आंकड़ों को प्रमाणित करने का अधिकार सीएजी के पास है.

विवाद जीएसटी नेटवर्क को लेकर भी है, सीएजी को जिसका ऑडिट करने की इजाजत नहीं मिल रही है. 
  • यह नेटवर्क एक निजी कंपनी  (51 फीसदी हिस्सा बैंकों व वित्तीय कंपनियों का और 49 फीसदी सरकार का) के मातहत है जो केंद्र व राज्यों के टैक्स सिस्टम को जोडऩे वाला विशाल कंप्यूटर नेटवर्क बनाएगी व चलाएगी, कर जुटाएगी और राजस्व का बंटवारा करेगी. 
  • इस कंपनी में केंद्र व राज्य सरकारें 4000 करोड़ रु. लगा चुकी हैं. वित्त मंत्रालय का व्यय विभाग इस पर सवाल उठा रहा है. जीएसटी का नेटवर्क बना रही एक कंपनी पर सर्विस टैक्स चोरी का मामला भी बना है, अलबत्ता वित्त मंत्रालय इस नेटवर्क के सीएजी ऑडिट को तैयार नहीं है. 


हैरत नहीं कि सीएजी को जीएसटी से दूर रखने का ऐलान करते हुए वित्त मंत्री ने आयकर कानून का जिक्र किया, जहां सीएजी को विशेष अधिकार नहीं मिले हैं. इनकम टैक्स को लेकर तो सीएजी और सरकार के बीच एक जंग सी छिड़ी है जो सुर्खियों का हिस्सा नहीं बनती. 

सीएजी के गलियारों में सीएजी नब्‍बे के दशक के अंतिम वर्षों किस्से याद किए जा रहे हैं जब सरकार स्वैच्छिक आय घोषणा योजना (वीडीआइएस) लेकर आई थी और वित्त मंत्रालय ने उसके ऑडिट की छूट नहीं दी थी. तब बाकायदा ऑडिटर ने आयकर अधिकारियों के खिलाफ पुलिस में शिकायत की थी. इस समय भी हालात कुछ ऐसे ही हैं.  

सीएजी ताजा इनकम डिस्क्लोजर स्कीम का ऑडिट करना चाहता है लेकिन वित्त मंत्रालय तैयार नहीं है. आयकर कानून में सीएजी के अधिकार सीमित होने के कारण वित्त मंत्रालय इनकम टैक्स के आंकड़े नहीं देता जिस पर हर साल खींचतान होती है.  

यकीनन, पिछले दो साल में सीएजी ने कोई बड़ा चैंकाने वाला ऑडिट नहीं किया (करने नहीं दिया गया) है लेकिन इसके बाद भी तीन मौकों पर सीएजी ने सरकार को असहज किया हैः 

पहला, जब सीएजी ने एलपीजी सिलेंडर छोडऩे की योजना से 22,000 करोड़ रु. की बचत के दावे को खोखला साबित किया था. 

दूसरा, जब सीएजी ने कोयला ब्लॉक नीलामी में छेद पाए थे. 

तीसरा, केजी बेसिन में गुजरात सरकार (2005) के निवेश पर सवाल उठाए थे.


आंबेडकर सीएजी को संघीय वित्तीय अनुशासन रीढ़ बनाने जा रहे थे इसलिए संविधान सभा ने लंबी बहस के बाद राज्यों के लिए अलग-अलग सीएजी बनाने का प्रस्ताव नहीं माना. वे तो चाहते थे कि सीएजी का स्टाफ नियुक्त करने का अधिकार भी सरकार के पास नहीं होना चाहिए लेकिन अब पारदर्शिता के स्थापित संवैधानिक पैमाने भी सरकारों को डराने लगे हैं, खास तौर पर वे लोग कुछ ज्यादा ही डरे हैं जो साफ-सुथरी और ईमानदार राजनीति का बिगुल बजाते हुए सत्ता में आए थे.  

Monday, February 20, 2017

बड़ी मछलियां

क्या नोटबंदी का मकसद राजस्‍व लाना था या फिर इससे हमें 
चीन जैसे नतीजों की उम्‍मीद करनी चाहिए थी 

चीन का सौवां भ्रष्टाचारी ''टाइगर" मंगोलिया की सीमा पर स्थित चीफेंग सिटी से मार्च 2015 में पकड़ा गया था. कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार ने बाकायदा इसका ऐलान भी किया. चीन मेंराष्ट्रपति शी जिनपिंग की दुर्दांत ऐंटी करप्शन एजेंसी सीसीडीआइ (सेंट्रल कमिशन फॉर डिस्पिलिन ऐक्शन) का निशाना बन रहे वीआइपी लोगों को टाइगर ऐंड क्रलाइज (शेर और मक्खी) वर्गों में बांटा जाता है. टाइगर का मतलब है कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े राजनेता व वरिष्ठ सरकारी अफसर (भारत में मुख्यमंत्रीमंत्रियोंराजनैतिक दलों के प्रदेश अध्यक्षोंसरकारी सचिवों समकक्ष) और मक्खियां हैं छोटे सियासी कार्यकर्ता या अफसरान. सीसीडीआइ पिछले करीब छह साल में 1,800 बड़े निशाने लगा चुका है जिनमें 180 राजनैतिक और 139 प्रशासनिक ''टाइगर" पकड़े गए हैं.

नोटबंदी से हमें भी चीन जैसे नतीजों की उम्मीद करनी चाहिए थी. जाहिर है कि काले धन के खिलाफ अभियानों की सफलता इस बात से तय होती है कि कितनी बड़ी मछलियां सजा के जाल में फंसाई गईं.

कालिख सफाई के अभियान राजस्व बढ़ाने के लिए नहीं होते क्योंकि कमाई के लिए सरकार के पास विकल्पों का कोई कमी नहीं है.

नोटबंदी के जाल का मकसद सरकार के लिए राजस्व लाना नहीं बल्कि उन बड़ी राजनैतिकप्रशासनिक व कारोबारी मछलियों को पकडऩा था जिनके सामने कानूनी जाल छोटे पड़ जाते हैं.

इस मामले में नोटबंदी से बड़ी उम्मीदें जायज हैं कि क्योंकिः

भारत में काले धन को लेकर कोई बड़ा और संगठित अभियान पहली बार चलाया गया.
काले धन और भ्रष्टाचार के बड़े मामलों में हसन अली से लेकर रामलिंग राजू तक जांच एजेंसियों के पास नाकामियों का ढेर लगा है.

अलबत्ताहाइ प्रोफाइल मामलों में नोटबंदी का अब तक का नतीजा इस प्रकार हैः

  •         बड़े भ्रष्टाचारियों को तकलीफ के दावों के विपरीत नोटबंदी के तहत न तो बहुत बड़े पैमाने पर कार्रवाई हुई और न ही बड़ी धर-पकड़. चीन में ''शेर व मक्खी" मिलाकर तीन लाख से ज्यादा लोगों के खिलाफ कार्रवाई हो चुकी है. मलेशिया में भी बीते बरस सरकारी अधिकारियों के बड़े घोटाले मिले व भारी नकदी की बरामदगी हुई.
  •      नोटबंदी के बाद बैंकों में जमा के जरिए आयकर विभाग को जानकारियां जरूर मिली हैं लेकिन काले धन को लेकर इस तरह के सूत्र जांच एजेंसियों को पहले भी मिलते रहे हैंमुश्किल उन्हें अदालत में साबित करने की है. इस मामले में मोदी सरकार का रिकॉर्ड पिछली किसी दूसरी सरकार जैसा ही है. सभी बड़े घोटालों में आरोपी जमानत पर रिहा हो चुके हैं. 
  •      नोटबंदी,  भ्रष्टाचारियों और काले धन वालों में वह चीन या मलेशिया जैसा खौफ पैदा क्यों नहीं कर सकी?

बड़ी मछलियां अब तक जाल से बाहर क्यों हैं?

नोटबंदी को अन्य देशों के ऐसी ही अभियानों की रोशनी में देखने पर इस असमंजस का मर्म हाथ लग सकता हैः
  •      भारत के समकक्ष अन्य देशों में भ्रष्टाचार निरोधक अभियान मौसमी नहीं थे. वे सधेनपे-तुले और लक्षित थे जो लगातार चल रहे हैं और नतीजे दे रहे हैं.

  •        दुनिया के किसी भी देश ने भ्रष्टाचारियों को पकडऩे से पहले उन्हें माफी देने से शुरुआत हरगिज नहीं की. भारत नोटबंदी से पहले और इसके दौरान काले धन रखने वालों को दो मौके दिए गए. 
  •     चीनमलेशिया और दक्षिण अफ्रीका की भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसियों ने सीधे बड़े भ्रष्टाचारियों पर हाथ डाला. आम लोगों को कतार में नहीं लगा दिया गया.
  •       भ्रष्टाचार पर कार्रवाई करने में सफल देशों में इन अभियानों का नेतृत्व एक बेहद ताकतवर एजेंसी ने कियाजिसे स्पष्ट कानूनी अधिकार मिले थे जैसे कि दक्षिण अफ्रीका की ऐंटी करप्शन एजेंसी तो राष्ट्रपति जैकब जुमा को ही घेर रही है. भारत में लोकपाल कहां बैठता हैकभी पता चले तो बताइएगा
  •   भ्रष्टाचार निरोधक अभियानों के साथ जरूरी कानूनों और जांच एजेंसियों में पारदर्शिता का पूरा ढांचा तैयार किया गया. मसलनचीन का सीसीडीआइ भ्रष्टाचार में लिप्त अपने अधिकारियों को भी पकड़ रहा है. मलेशिया की ऐंटी करप्शन एजेंसी अफसरों की आय घोषणाओं को खंगाल कर यह जानने की कोशिश कर रही है कि इनकी शानो-शौकत भरी जिंदगी का राज क्या है.

पता नहीं भारत में बड़ी मछलियां जाल में कब फंसेंगी?

काले धन के खिलाफ आम लोगों के त्याग-बलिदान से गढ़ा गया भारत का सबसे बड़ा अभियान इतिहास में यूं ही गुम तो नहीं हो जाएगा?



क्या देश याद रख पाएगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी के बाद 8 फरवरी, 2017 को राज्यसभा में कहा था''बेईमानों के खिलाफ कठोर कार्रवाई से ईमानदारों को ताकत मिलेगी"

Sunday, February 12, 2017

नोटबंदी का बजट


नोटबंदी के नतीजों पर सरकार में सन्‍नाटे के बावजूद कुछ तथ्‍य

 सामने आ ही गए हैं

हिम्मतवर सरकारें अगर बड़े फैसले लेती हैं तो उन्हें फैसलों के नतीजे बताने से हिचकना नहीं चाहिए. नोटबंदी ने रोजगार से लेकर कारोबार तक सबका बजट बिगाड़ दिया तो इससे सरकार को भरपूर टैक्स या फिर रिजर्व बैंक से मोटा लाभांश जरूर मिलने वाला होगा! लेकिन बजट भी गुजर गया अलबत्ता नोटबंदी के फायदे-नुक्सान को लेकर न तो सरकार का बोल फूटा, न ही रिजर्व बैंक ने आंकड़े बताने की जहमत उठाई.

नोटबंदी को बिसारने की तमाम कोशिशों के बावजूद बजट और आर्थिक समीक्षा नोटबंदी से जुड़े कुछ तथ्य सामने लाती है. अगर उन्हें एक सूत्र में बांधा जाए तो हमें एहसास हो जाएगा कि नोटबंदी पर बेखुदी बेसबब नहीं है, कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है.
तीर!
कहावत है जिसकी नाप-जोख नहीं हो सकती, उसे संभालना भी असंभव है. वित्त मंत्री कह चुके हैं कि नकद काले धन का कोई ठोस आकलन उपलब्ध नहीं है. तो 500 और 1000 के नोट बंद करने और 86 फीसदी नकदी को एकमुश्त अवैध करार देने का इतना बड़ा निर्णय किस आकलन पर आधारित था?
आर्थिक समीक्षा की मानें तो करेंसी नोटों का सॉयल रेट (नोटों के गंदे होने और कटने-फटने की दर) इस फैसले का आधार था. सॉयल रेट नोटों के इस्तेमाल की जानकारी देता है. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, 500 रु. से नीचे के मूल्य वाले नोट में सॉयल रेट 33 फीसदी सालाना है यानी 33 फीसदी गंदे कटे-फटे नोट हर साल बदल जाते हैं. 500 रु. के नोट में सॉयल रेट 22 और 1000 रु. के नोट में 11 फीसदी है.
समीक्षा ने दुनिया के अन्य देशों में सॉयल रेट को भारत में बड़े नोटों के प्रचलन पर लागू करते हुए निष्कर्ष निकाला है कि नोटबंदी से पहले करीब 3 लाख करोड़ रु. के बड़े नोट ऐसे थे जिनका भरपूर इस्तेमाल लेन-देन में नहीं होता था. इस राशि को क्या काली नकदी माना जा सकता है जो जीडीपी के दो फीसदी के बराबर है?
इस सवाल पर समीक्षा मौन है अलबत्ता वह नकदी के दो आयाम बताती है.
सफेद धनः रसीद काटकर और टैक्स की घोषणा के बाद कर्मचारियों को दिया गया नकद वेतन या घरों में आकस्मिकता के लिए रखा गया धन.
काला धनः छोटी कंपनियां या व्यापारी नकद में धन रखते हैं और चुनाव में चंदा देते हैं. 
निशाना!
बजट के आंकड़े नोटबंदी के निशाने पर बैठने का प्रमाण नहीं देते. टैक्स के आंकड़ों में एकमुश्त कोई बहुत बड़ी रकम मिलने का आकलन नहीं है, अलबत्ता आंकड़े इतना जरूर बताते हैं कि आयकर संग्रह में बढ़त की दर तेज रहेगी. नोटबंदी के बाद एडवांस टैक्स भुगतान लगभग 35 फीसदी बढ़ा है. अगले साल आयकर संग्रह में लगभग 25 फीसदी की बढ़त की उम्मीद है. यदि आकलन सही उतरे तो दो साल में करीब 1.5 लाख करोड़ रु. का अतिरिक्त आयकर मिल सकता है.
रिजर्व बैंक ने नहीं बताया है कि बड़े नोटों में कितना धन बैंकिंग सिस्टम से बाहर रह गया है इसलिए रिजर्व बैंक से मोटा लाभांश मिलने का आकलन उपलब्ध नहीं है
नुक्सान 
''नोटबंदी से नहीं कोई मंदी" का दम भरने के बावजूद सरकार ने मान लिया है कि ग्रोथ की गाड़ी पटरी से उतर गई है. आर्थिक समीक्षा बताती है कि नोटबंदी के चलते इस साल आर्थिक विकास दर में करीब एक फीसदी (पिछले साल 7.6) की गिरावट होगी. अगले साल भी विकास दर सात फीसदी से नीचे रहेगी. नोटबंदी से रोजगार घटा है, खेती में आय को चोट लगी है और नकद पर आधारित असंगठित क्षेत्र में बड़ा नुक्सान हुआ, लेकिन इसके आंकड़े सरकार के पास उपलब्ध नहीं हैं.
सरकार मान रही है कि नकदी का प्रवाह सामान्य होने के बाद बैंकों से जमा तेजी से बाहर निकलेगी, नोटबंदी से सरकार-रिजर्व बैंक की साख को धक्का लगा है और लोगों में भविष्य के प्रति असमंजस बढ़ा है.
हिसाब-किताब
नोटबंदी मौद्रिक फैसला था इसलिए फायदे-नुक्सान को आंकड़ों में नापना होगा. बजट और समीक्षा को खंगालने पर हमें इसके सिर्फ दो ठोस आंकड़े मिलते हैं.
फायदा
नोटबंदी के बाद इस साल के चार महीनों में और अगले साल के दौरान आयकर संग्रह में लगभग 1.5 लाख करोड़ रु. की बढ़त हो सकती है.
नुक्सान  
2016-17 में नोटबंदी से जीडीपी में एक फीसदी की कमी आएगी जो कि 1.5 लाख करोड़ रु. के आसपास है. रिजर्व बैंक के लिए नोटों की छपाई की लागत और बाजार में नकदी का प्रवाह संतुलित करने के लिए जारी बॉन्डों पर ब्याज को भी इसमें जोडऩा होगा.

अगर परोक्ष नुक्सान को गिनती में न लिया जाए तो  भी आयकर राजस्व में बढ़ोतरी का अनुमान जीडीपी के नुक्सान के बिल्कुल बराबर है.

बाकी आप खुद समझदार हैं.


Monday, February 6, 2017

ट्रंप बिगाड़ देंगे बजट

पिछले दो दशक में दुनिया के सभी आर्थिक उथल पुथल की तुलना में ट्रंप भारत की ग्‍लोबल सफलताओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन रहे हैं

सात-आठ साल पहले अटलांटा (जॉर्जियाअमेरिका) में कोका कोला के मुख्यालय की यात्रा के दौरान मेरे लिए सबसे ज्यादा अचरज वाला तथ्य यह था कि इस ग्लोबल अमेरिकी दिग्गज की करीब पंद्रह सदस्यीय ग्लोबल शीर्ष प्रबंधन टीम में छह लोग भारतीय थे. तब कोका कोला की भारत में वापसी को डेढ़ दशक ही बीता था और सिलिकॉन वैली में भारतीय दक्षता की कथाएं बनना शुरू ही हुई थीं. इसके बाद अगले एक दशक में दुनिया के प्रत्येक बड़े शहर के सेंट्रल बिजनेस डिस्ट्रिक्टयुवा भारतीय प्रोफेशनल्स की मौजूदगी से चहकने लगे क्योंकि भारत के दूरदराज के इलाकों में सामान्य परिवारों के युवा भी दुनिया में बड़ी कंपनियों में जगह बनाने लगे थे.
भारत की यह उड़ान उस ग्लोबलाइजेशन का हिस्सा है जिस पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप मंडराने लगे हैं.
बजटोत्तर अंक में ट्रंप की चर्चा पर चौंकिए नहीं!
बजट तो खर्च हो गया. कभी-कभी सरकार कुछ न करे तो ज्यादा बेहतर होता है. इस बजट में सरकार ने कुछ भी नहीं कियाकोई पॉलिसी एडवेंचरिज्म (नीतिगत रोमांच) नहीं. नोटबंदी के घावों को वक्त के साथ भरने के लिए छोड़ दिया गया है. इसलिए भारतीय अर्थव्यवस्था की बड़ी चिंता फीका बजट नहीं बल्कि एक अति आक्रामक अमेरिकी राष्ट्रपति है जो भारत की सफलताओं पर भारीबहुत भारी पडऩे वाला है.
पिछले 25 साल के आंकड़े गवाह हैं कि अगर भारत ग्लोबल अर्थव्यवस्था से न जुड़ा होता तो शायद विकास दर चार-पांच फीसद से ऊपर न निकलती. ग्लोबलाइजेशन भारतीय ग्रोथ में लगभग एक-तिहाई हिस्सा रखता है.
भारत की ग्रोथ के तीन बड़े हिस्से अंतरराष्ट्रीय हैं. 
पहलाः भारत में विदेशी निवेशजो बड़ी कंपनियांतकनीकइनोवेशन और रोजगार लेकर आया है.
दूसराः भारतवंशियों को ग्लोबल कंपनियों में रोजगार और सूचना तकनीक निर्यात.
तीसराः ारतीय शेयर बाजार में विदेशी निवेशकों का भरपूर निवेश.
डोनाल्ड ट्रंप इन तीनों के लिए ही खतरा हैं. 
विदेशी निवेश (डिग्लोबलाइजेशन)
दुनिया की दिग्गज कंपनियों का 85 फीसदी ग्लोबल निवेश 1990 के बाद हुआ. इसमें नए संयंत्रों की स्थापनानए बाजारों को निर्यातमेजबान देशों की कंपनियों का अधिग्रहण शामिल था. भारत सहित उभरती अर्थव्यवस्थाएं इस निवेश की मेजबान थीं. इसलिए 1995 के बाद से दुनिया के निर्यात में उभरती अर्थव्यवस्थाओं का हिस्सा और चीन-भारत का विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ता चला गया. बहुराष्ट्रीय निवेश का यह विस्तार और भारत का उदारीकरण एक तरह से सहोदर थे इसलिए दुनिया की हर बड़ी कंपनी ने भारतीय बाजार में निवेश किया.
ट्रंप डिग्लोबलाइजेशन के नए पुरोधा हैं. उनकी धमक से बाद भारत में सक्रिय बहुराष्ट्रीय कंपनियों की विस्तार योजनाएं व नए निवेश टल रहे हैं. अमेरिका अगर अपना बाजार बंद करेगा तो दुनिया के अन्य देश भी ऐसी ही प्रतिक्रिया करेंगे. अर्थव्यवस्थाएं संरक्षणवाद की राह पकड़ लेंगी और संरक्षणवाद की नीति युद्ध नीति जैसी होती हैजैसा कि ऑस्ट्रियन अर्थशास्त्री लुडविग वॉन मिसेस मानते थे. सरकार की ताजा आर्थिक समीक्षा भी ट्रेड वार के खतरे की घंटी बजा रही है.
रोजगार (संरक्षणवाद)
भारत के नए मध्यवर्ग की अगुआई सूचना तकनीक ने की है. कंप्यूटरों ने न केवल जिंदगी बदली बल्कि नई पीढ़ी को रोजगार भी दिया. आउटसोर्सिंग पर ट्रंप का नजला गिरने और नए वीजा नियमों के बाद भारत के हजारों मध्यमवर्गीय परिवारों में चिंता गहरा गई है. अमेरिकी वीजा दोबारा मिलना और वहां नौकरी मिलना तो मुश्किल है हीवीजा रहने तक भारत आकर वापस अमेरिका लौटना भी मुश्किल होने वाला है.
सूचना तकनीक व फार्मा भारत की सबसे बड़ी ग्लोबल सफलताएं हैंजो न केवल भारत में विदेशी निवेश लाईं बल्कि बड़े पैमाने पर प्रोफेशनल की कमाई (रेमिटेंस) भी भारत आई जो बाजार में मांग का आधार है. अगले दो साल के भीतर प्रशिक्षित मगर बेकार लोगों की जो भीड़ विदेश से वापस लौटेगी उसके लिए नौकरियां कहां होंगी?
मजबूत डॉलर (शेयर बाजार)
कमजोर डॉलर और सस्ते कर्ज ने भारत के शेयर बाजार को दुनिया भर के निवेशकों का दुलारा बना दिया. सन् 2000 के बाद भारत के वित्तीय बाजार में करीब दस लाख करोड़ रु. का विदेशी निवेश आया. लेकिन ट्रंप के आगमन के साथ ही अमेरिका में ब्याज दरें बढऩे लगीं. ट्रंप की व्यापार व बजट नीतियां डॉलर की मजबूती की तरफ इशारा करते हैं जो रुपए की कमजोरी की वजह बनेगा और भारत के वित्तीय निवेश पर असर डालेगा. यही वजह है कि इस बार शेयर बाजार मोदी के बजट के बजाए ट्रंप के फैसलों को लेकर ज्यादा फिक्रमंद थे.
भारत के लिए जब आक्रामक उदारीकरण के जरिए ग्लोबलाइजेशन के बचे-खुचे मौके समेटने की जरूरत थी तब वित्त मंत्री एक रक्षात्मक बजट लेकर आए हैं जो ग्लोबल चुनौतियों को पीठ दिखाता लग रहा है.

Monday, January 23, 2017

नए टैक्स से पहले


 किस किस तरह के सेस हमसे वसूले जा रहे हैं और सरकार कभी नहीं बताती कि उनका इस्‍तेमाल कहां हो रहा है। 

जीएसटी उस दिन से ही उलझ गया था जब केंद्र सरकार ने वैसा जीएसटी बनाने का इरादा छोड़ दिया था जैसा कि उसे होना चाहिए था. नतीजतनसंसद के गतिरोध को तेजी से पार कर जाने वाला जीएसटी धीमा पड़ता हुआ टल गया है. जुलाई अगली समय सीमा है जो अप्रैल से ज्यादा कठिन दिखती है.
जीएसटी का मतलब है इसके आगे-पीछे कोई दूसरा टैक्ससेस (उपकर) या ड्यूटी नहीं. सिर्फ अकेला पारदर्शी एक या दो टैक्स दरों वाला जीएसटी. लेकिन पांच टैक्स रेट वाला जीएसटी बनाने के बाद केंद्र सरकार इस पर सेस लगाने की तैयारी में जुट गई. यह सेस की सनक ही ढलान की शुरुआत थी क्योंकि अगर केंद्र सरकार टैक्स पर टैक्स थोपने का लालच छोडऩे को तैयार नहीं है तो राज्य क्यों पीछे रहें?

नया बजट विलंबित जीएसटी की छाया में बन रहा है जो जीएसटी की जमीन तैयार करेगा. हम नए सेस और टैक्स की तरफ बढ़ेंइससे पहले यह जानना जरूरी है कि भारत में सेस का मकडज़ाल कितना जटिल है. जो सेस हमसे वसूले गए हैंउनके इस्तेमाल पर सरकार कभी कुछ नहीं बताती. पिछले माह जब लोग बैंकों की लाइनों में लगे थे और संसद ठप थीनियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की एक रिपोर्ट आई थी जो केंद्र सरकार के सेस-राज का सबसे ताजा खुलासा है.

मोबाइल वाला टैक्स
बहुतों को यह जानकारी नहीं होगी कि मोबाइल ऑपरेटर गांवों में फोन और इंटरनेट पहुंचाने के लिए अपने राजस्व पर एक विशेष टैक्स देते हैं. जिसे यूनिवर्सल एक्सेस लेवी कहा जाता है. यह टैक्स हमारे टेलीफोन बिल पर ही लगता है. इसके खर्च के लिए यूनिवर्सल ऑब्लिगेशन फंड (यूएसओ फंड) बनाया गया है.
सीएजी के मुताबिकइस लेवी से 2002-03 से 2015-16 के बीच 66,117 करोड़ रु. जुटाए गएजिसमें केवल 39,133 करोड़ रु. यूएसओ फंड को दिए गए. क्या सरकार इस सवाल का जवाब देगी अगर गांवों में फोन पहुंच चुका है तो फिर यह लेवी क्यों वसूली जा रही है और अगर यह पैसा जमा है तो इसका इस्तेमाल मोबाइल नेटवर्क ठीक करने व कॉल ड्राप रोकने में क्यों नहीं हो सकता?

पढ़ाई वाला टैक्स
2006-07 में उच्च शिक्षा व माध्यमिक शिक्षा का स्तर आधुनिक बनाने के लिए इनकम टैक्स पर एक फीसदी का खास सेस लगाया गया था. 2015-16 तक इस सेस से 64,228 करोड़ रु. जुटाए गए. सीएजी बताता है कि इसके इस्तेमाल के लिए सरकार ने न तो कोई फंड बनाया और न ही किसी स्कीम को यह पैसा दिया. अगर शिक्षा के लिए पर्याप्त धन है तो फिर टैक्सपेयर पर बोझ क्योंदेश को इसके इस्तेमाल का हिसाब क्यों नहीं मिलता?
प्राथमिक शिक्षा के तहत सर्व शिक्षा अभियान और मिड डे मील का पैसा जुटाने के लिए इनकम टैक्स पर दो फीसदी का प्राथमिक शिक्षा सेस भी लगता हैजिसके इस्तेमाल के लिए प्राथमिक शिक्षा कोश बना है. इस कोष को 2004-2015 के बीच जुटाई गई पूरी राशि नहीं दी गई है.

धुआं मिटाने वाला टैक्स
बिजली के साफ-सुथरे और धुआं रहित उत्पादन की परियोजनाओं के लिए 2010-11 में एक क्लीन एनर्जी फंड बना था. इस फंड के वास्ते देशी कोयले के खनन और विदेशी कोयले के आयात पर सेस लगाया जाता हैजो बिजली महंगी करता है. 2010 से 2015 के बीच सरकार ने इस सेस से 15,174 करोड़ रु. जुटाए लेकिन एनर्जी फंड को मिले केवल 8,916 करोड रु. अलबत्ता, 2016 के बजट में सरकार ने इसका नाम बदल क्लीन एन्वायर्नमेंट सेस करते हुए सेस की दर दोगुनी कर दी.

रिसर्च वाला टैक्स
सीएजी की रिपोर्ट में एक और सेस की पोल खोली गई है. हमें शायद ही पता हो कि तकनीकों के आयात (इंपोर्ट ड्यूटी) पर सरकार मोटा सेस लगाती है. रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट सेस कानून 1986 से लागू है जिसके तहत घरेलू तकनीक के शोध का खर्चा जुटाने के लिए तकनीकी आयात पर 5 फीसदी सेस लगता है. सेस की राशि टेक्नोलॉजी डेवलपमेंट बोर्ड की दी जाती है. 1996-97 से 2014-15 तक इस सेस से 5,783 करोड़ रु. जुटाए गए लेकिन बोर्ड के तहत फंड को मिले 549 करोड रु.

सिर्फ यही नहीं

सड़कों के विकास के लिए पेट्रोल-डीजल पर लगने वाला रोड डेवलपमेंट सेस भी पूरी तरह रोड फंड को नहीं मिलता.

पिछली सरकारों के लगाए सेस न तो कम थेन ही उनके हिसाब में गफलत ठीक हो पाई थी लेकिन मोदी सरकार ने अपने तीन बजटों में तीन नए सेस ठूंस दिए. सर्विस टैक्स पर कृषि कल्याण सेस और स्वच्छ भारत सेस लगाया गया जबकि कारों पर 2.5 फीसदी से लेकर 4 फीसदी तक इन्फ्रास्ट्रक्चर सेस चिपक गया. पिछले दो साल में सरकार ने कभी नहीं बताया कि सफाई और खेती के नाम पर लगे सेस का पैसा आखिर किन परियोजनाओं में जा रहा है?

जीएसटी के पटरी से उतरने को लेकर राज्यों को मत कोसिए. इस सुधार को केंद्र सरकार ने ही सिर के बल खड़ा कर दिया है. सेस टैक्स नहीं हैं. यह टैक्सेशन का अपारदर्शी हिस्सा हैं. इन्हें लगाया किसी नाम से जाता है और इस्तेमाल कहीं और होता है. राज्यों को इस पर आपत्ति है क्योंकि सेस उस टैक्स पूल से बाहर रहते हैं जिसमें राज्यों का हिस्सा होता है. केंद्र सरकार का कुल सेस संग्रह 2015-16 में 55 फीसदी बढ़ा है. बीते बरस केंद्र सरकार के पास करीब 1.06 लाख करोड़ रु. का राजस्व संग्रह ऐसा था जिसमें राज्यों का कोई हिस्सा नहीं है.

जीएसटी फायदे तो बाद में लाएगा लेकिन इससे पहले टैक्स की चुभन में बढ़ोतरी और सेस परिवार में किसी नए सदस्य का आगमन होने की पूरी संभावना है. जीएसटी के तहत 18 फीसदी का सर्विस टैक्स लगने वाला है नतीजतन 2017 के बजट में सर्विस टैक्स की दर 1 से 1.5 फीसदी तक बढ़ सकती है या फिर नए सेस लग सकते हैं. इसलिए बजट में राहत की उम्मीद करते हुए किसी बड़े झटके के लिए खुद को तैयार रखना समझदारी होगी.