Monday, September 28, 2009

गलातियों को सुधारने का बाजार

दमी की पेचीगदी भी कम नहीं, वह झीलों को सुखा देता है और मरुस्थल में फूल खिला देता है... मगर इससे पहले कि आप पर्यावरणवादियों की तरह संजीदा हो जाएं पूरी बात पढ़ लीजिये... क्योंकि बात चाहे रेगिस्तान में बहार लाने की हो या झीलों को सुखाने की, मामला दरअसल पैसे का है। समृद्धि के लिए पहले हमने हवा-पानी को बिगाड़ा अब हम इसे सुधारने में पैसा गंवायेंगे और कमायेंगे। आखिर दुनिया को कोई बड़ा काम तो चाहिए न, वरना कमाई व खर्च के नए रास्ते कहां से आएंगे। इसलिए अमेरिकी डॉलर अब अपने एक उपनाम ग्रीनबैक को सार्थक करने वाला है। हो सकता है कि इस सप्ताह पर्यावरण को लेकर आप कुछ ज्यादा चिंतित हो गए हों जब आपने दुनिया के दिग्गजों को बड़े गंभीर और भावनात्मक लहजे में हवा-पानी पर बात करते सुना हो। इसी मुद्दे पर दिसंबर में कोपेनहेगन में दुनिया की पंचायत लगेगी और तब तक यह चख-चख और बढ़ जाएगी। मगर मुगालते में मत रहिये। दरअसल अब मामला हवा पानी को बचाने के अर्थशास्त्र का है। यह पूरी मगजमारी हकीकत में एक नए बाजार से ताल्लुक रखती है जो पर्यावरण को बचाने के लिए तैयार हो रहा है। यह गलतियों के सुधार का बाजार है। जाहिर है कि दुनिया ने प्रकृति को बिगाड़ कर काफी महंगी गलतियां की हैं, इसलिए सुधार भी अब हजार और लाख नहीं बल्कि खरबों डॉलर की कीमत का होगा।
हर चीज की कीमत है...
कुदरत इस बात की फिक्र नहीं करती कि आपकी आर्थिक हैसियत क्या है-अभिनेत्री वूपी गोल्डबर्ग।.... डॉलर पौंड यूरो में सोचने वाली दुनिया को समझ में आ गया है कि उसने अगर करीब 61 ट्रिलियन डॉलर की विश्व अर्थव्यवस्था हासिल की है तो वह हर साल करीब 20 ट्रिलियन डॉलर की कीमत का पर्यावरण भी गंवा रही है। यह नुकसान का मोटा आंकड़ा है जो मौसम के बदलाव से खेती, संपत्ति और जीवन को होने वाला सीधा नुकसान गणित पर आधारित है। पारिस्थितिकी को होने वाले परोक्ष नुकसान, लोगों आव्रजन या पानी या खाने की कमी की गणना इसमें शामिल नहीं है। धरती का तापमान पहले ही करीब 0.6 डिग्री बढ़ चुका है। बाढ़, सूखा व तूफानों की सूरत में मौसम में अप्रत्याशित बदलाव शुरु हो गए हैं और दुनिया के मुनीम नुकसान का आकलन कर हैरत में पड़ रहे हंैं। स्विटजरलैंड की रिइंश्योरेंस कंपनी स्विस री कहती है कि मौसमी आपदाओं से दुनिया हर साल करीब 200 अरब डॉलर की संपत्ति गंवा रही है। एसोसिएशन ऑफ ब्रिटिश इंश्योरर्स ने आंका है कि बढ़ती गर्मी के असर से अगर इस सदी के अंत तक समुद्रों का जल स्तर अगर एक मीटर बढ़ गया तो करीब 1.5 खबर डॉलर की संपत्ति समुद्री तूफानों के सीधे खतरे में पहुंच जाएगी। भारत के संदर्भ में तो यह गुणा भाग काफी भयानक है। अकेला महाराष्ट्र एक साल के सूखे में राज्य का करीब 30 फीसदी कृषि उत्पादन गंवा देता है। कोई लंबा सूखा भारत की खेतिहर अर्थव्यवस्था को कुछ माह में सात अरब डॉलर की चपेट दे सकता है। दरअसल पर्यावरण के नुकसान का हिसाब किताब इतना डरावना है कि अब इसे बचाने का कोई भी हिसाब के किताब छोटा लगता है।
...महंगा है बचाव
जब इस कदर गंवा रहे हैं तो बचाना महंगा पड़ेगा ही। दुनिया पिछले कई वर्षो से खुद को बदलने की लागत हिसाब किताब लगातार बदल रही है। संयुक्त राष्ट्र की समिति अर्थात यूएनएफसीसी ने आंका था कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए 2030 तक दुनिया को 40 से 170 अरब डॉलर खर्च करने होंगे मगर ब्रिटिश शोधकर्ताओं के ताजे आकलन के मुताबिक यह आंकड़ा सही नहीं है, लागत इससे कई गुना ज्यादा होगी। और अगर ऊर्जा, मैन्युफैक्चरिंग, रिटेल, खनन आदि उद्योगों में बड़े बदलावों की लागत जोड़ ली जाए तो कोई भी आंकड़ा छोटा है। यूएनएफसीसी ने आंका था कि बाढ़ रोकने पर करीब 11 अरब डॉलर खर्च होंगे मगर ताजा आकलन कहता है गर्मी के कारण होने वाली पानी की कमी दूर करने की लागत इसमें जोडऩे पर खर्च बहुत बढ़ जाएगा। इसी तरह मौसम से असर से पैदा होने वाली बीमारियों से बचने का खर्च पांच अरब डॉलर से बहुत ज्यादा होगा क्यों कि शुरुआती आकलन में यूएनएफसीसी ने केवल चुनिंदा बीमारियों को आधार बनाया था। इसी तरह जलवायु परिवर्तन के हिसाब से बुनियादी ढांचा ठीक करने पर खर्च 1000 अरब डॉलर, समुद्र तटीय क्षेत्र को बचाने पर खर्च 33 अरब डॉलर और पारिस्थितिकी को बचाने पर 350 अरब डॉलर तक खर्च हो सकता है। गलतियों को सुधारने का बिल कितना बड़ा होगा यह तो वक्त बतायेगा लेकिन गलतियों के सुधार का यह बाजार काफी बड़ा होने वाला है।
दर्द देने वाले अब दवा बेचेंगे...
ग्रीन इन्वेस्टमेंट आने वाले दौर का सबसे दिलचस्प धंधा है और क्लीन टेक्नोलॉजी सबसे हॉट उत्पाद। अमेरिकी ऊर्जा एजेंसी मानती है कि धरती के तापमान में बढ़ोत्तरी रोकने के लिए ऊर्जा क्षेत्र में अगले दो दशक में दो खरब डॉलर का निवेश होगा। विकसित देशों को सिर्फ बाढ़ रोकने, सूखे में उगने वाली फसलों और बीमारियों से बचाव आदि को लेकर तीसरी दुनिया में 16 खरब डॉलर का बाजार दिख रहा है। निवेश शुरु हो चुका है, दक्षिण कोरिया ने इस गलती सुधार बाजार में अपने जीडीपी के दो फीसदी के बराबर निवेश का निर्णय किया है जो कि 107 खरब वॉन है। पर्यावरण को सुरक्षित रखने वाली तकनीकें, उत्पाद, सेवाएं अगले एक दशक में जगह बिकेंगी। अमेरिकी रिसर्च फर्म क्लीनटेक बताती है कि इन तकनीकों को विकसित करने के लिए 2008 में निवेशक दुनिया के बाजार से करीब 8.4 अरब डॉलर जुटा चुके हैं। दरअसल इस गलती सुधार बाजार में करीब 86 फीसदी निवेश निजी क्षेत्र ही करेगा। वही तकनीक बनाएगा और वही खरीदेगा। इस तरह की तकनीकों के लिए चीन अगर एक खरब डॉलर का बाजार है तो भारत भी छोटा बाजार नहीं है। दूसरी तरफ विकासशील देश इस खर्च के बदले कार्बन विनिमय के अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपने लिये मुनाफा देख रहे हैं। अर्थात वह कम प्रदूषण फैलायेंगे और प्रदूषक पश्चिम से मुनाफा कमायेंगे।
कुला मिलाकर यह पूरा खेल काफी दिलचस्प हो चला है। पर्यावरण भविष्य का सबसे बड़ा बाजार है, जिसमें एक टन ऑक्सीजन और कार्बन डाइ आक्साइड से लेकर एक वर्ग किलोमीटर की मिट्टी तक का अपना मूल्य है। दुनिया इस नए हरे भरे हिसाब-किताब में गर्मी सर्दी, हवा- पानी, धुआं-धूल, हरियाली-मरुस्थल, बाढ़-सूखा, जीव-जीवन केवल प्रकृति के रंग ही नहीं हैं, बल्कि अब इनका अपना अर्थशास्त्र है और इन्हें रोकने, बढ़ाने या बचाने की एक मोटी लागत है। इसलिए हवा पानी की चर्चा अब वस्तुत: निवेश, कर्ज, लाभ, हानि, विनिमय, लेन-देन और वित्तीय उपकरणों की चर्चा है। तो देखिये जरा ...हम कितने नासमझ हैं कि हमने खुद को ही बर्बाद कर लिया और हम कितने समझदार हैं कि बर्बादी से उबरने के लिए हमने एक बाजार गढ़ लिया। ....सच में इंसान बेहद पेचीदा जीव है!!!
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Monday, September 21, 2009

पड़ गई न आदत !!!

भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति में सबसे नया परिवर्तन क्या है? ..मंदी को लेकर दिमागी ऊर्जा मत गंवाइये। इस फ्लू में तो हम पूरी दुनिया के साथ ही छींक-खांस रहे हैं। बदलाव दरअसल यह है कि भारत अब एक महंगे उपभोक्ता बाजार वाला मुल्क बन गया है। .. चौंकिये मत! लंबी व स्थाई महंगाई अर्थव्यवस्था का सबसे नया व बड़ा परिवर्तन है। महंगाई अब मौसम के मिजाज पर अपना मूड नहीं बदलती। महंगाई अब मांग व आपूर्ति के समीकरणों पर कान नहीं देती। महंगाई रिजर्व बैंक की मौद्रिक कोशिशों को ठेंगे पर रखती है। उपभोग के बदलते ढंग व बाजार ने महंगाई की गुत्थी को पिछले डेढ़ साल में काफी सख्त कर दिया है। सरकार थक कर निढाल हो गई हैं और हमें महंगाई की आदत पड़ गई है।
..रहे हमेशा संग
एक दो नहीं पूरे अठारह माह... ( महंगाई के ताजे चरण 2008 मार्च में पड़े थे) महंगाई का यह संग कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है। उपभोक्ता मूल्यों की महंगाई पिछले अठारह माह के दौरान औसतन दस फीसदी से ऊपर रही है। यह महंगाई अतीत के मुकाबले अनोखी व वर्तमान से पूरी तरह अप्रभावित है। पिछले साल देश में रिकार्ड अनाज उत्पादन हुआ। औद्योगिक उत्पादन भी बढ़ा (वृद्धि दर कम थी), मगर महंगाई रिकार्ड बनाती रही। यानी कि आपूर्ति कम हो या ज्यादा, महंगाई के ठेंगे से। पिछला साल मंदी, यानी कि मांग कम होने का था। मांग कम हो तो कीमतें घटती हैं मगर महंगाई नहीं घटी। अर्थात न इस पर मांग कम होने की कला चली और न आपूर्ति बढऩे की। महंगाई ने अपना मौसमी चरित्र भी छोड़ दिया। अब वह एक रहस्यमय ताकत के साथ जमी है और बढ़ रही है।
हार गए सूत्रधार
विद्वान कहते हैं कि मुद्रास्फीति यानी महंगाई एक मौद्रिक परिदृश्य है। इस जमात का मानना है कि रिजर्व बैंक मुद्रा आपूर्ति के नल को खोल-बंद कर महंगाई को अपनी उंगलियों पर नचा सकता है। मांग आपूर्ति और मौसमी समीकरण तो बेअसर हुए ही मुद्रा आपूर्ति के सूत्रधार भी इस महंगाई से हार गए। नवंबर 2007 से लेकर अभी हाल तक रिजर्व बैंक कितनी बार पैंतरा बदल चुका है। महंगाई आती देख बैंक ने नवंबर 2007 में मुद्रा आपूर्ति पर सीआरआर का ढक्कन कसा और यह दर बढ़ते-बढ़ते अगस्त 2008 में नौ फीसदी हो गई। मगर इसके बाद उसने सीआरआर घटाई और अप्रैल 2009 में यह पांच फीसदी पर आ गई। रिजर्व बैंक ने करीब अठारह में माह अपना पूरा नीतिगत कत्थक कर लिया मगर महंगाई टस से मस नहीं हुई। अंतत: रिजर्व बैंक ने मान लिया खाने पीने की चीजों की महंगाई पर उसके मौद्रिक मंत्रों का कोई असर नहीं होता।
निवाले के लाले
महंगाई की ताजी प्रकृति हैरतअंगेज है। सारी तेजी मानों निवाले पर पर फट पड़ी है। क्या आपको पता है कि थोक मूल्यों वाली महंगाई, जो अभी शून्य पर थी उसमें खाद्य उत्पादों का सूचकांक करीब 15 फीसदी की वृद्धि दिखा रहा था जो कि इस दशक का सबसे ऊंचा स्तर है। अप्रैल तक बारह माह के दौरान उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर खाने पीने की चीजों में महंगाई दर 13 फीसदी थी जो महंगाई की आग मिले सूखे के ईंधन के बाद 26 फीसदी के आसपास पहुंच रही है। अंतररराष्ट्रीय कारक औद्योगिक उत्पादों की महंगाई बढ़ा सकते हैं क्यों कि कच्चे माल, ईंधन, पूंजी आदि दुनिया के बाजार के इशारे पर नाचते हैं। मगर मगर खाने पीने की बुनियादी चीजों का स्रोत तो देशी है। सरकार कच्चे तेल की कीमतें बढऩे जैसे बोदे तर्कों के पीछे खुद को छिपा लेती है, लेकिन उसके ज्ञानी गुणवंत यह नहीं बता पाते कि पिछले अठारह माह में हर कोशिशें के बावजूद खाने पीने की चीजें सस्ती क्यों नहीं हुईं। जबकि पिछले एक साल के दौरान वह अच्छे कृषि उत्पादन, कर दरों में रियायत, उदार आयात का आदि का ढोल बजाती रही है।
रहस्य क्या है?
पिछले अठारह माह में मांग आपूर्ति, मौद्रिक प्रयास, कर रियायतें, उत्पादन आदि लगभग सभी मोर्चों पर एक साथ बहुत कुछ ऐसा हुआ है जिससे महंगाई घटनी चाहिए थी मगर यह नामुराद कुछ ज्यादा जिद्दी हो गई। आखिर वजह क्या है? दरअसल महंगाई में अब प्रत्यक्ष के बजाय परोक्ष कारक ज्यादा बड़ी भूमिका निभा रहे हैं जो मांग व आपूर्ति या मौद्रिक चश्मे से महंगाई को देखने पर नजर नहीं आते। पहला कारण- देश में लगभग हर तरह के कारोबार की लागत सेवाओं का बड़ा हिस्सा है और माल ढोने से लेकर पैकिंग, वितरण, फोन तक सेवायें भी सैकड़ों किस्म की है। उपभोक्ताओं के उपभोग खर्च में अब आधे से ज्यादा पैसा सेवाओं पर जाता है। कीमतें इनकी भी बढ़ी हैं,जो उत्पादों की महंगाई में जुड़ती हैं मगर हमें नहीं दिखतीं। दूसरा कारण- बुनियादी ढांचे की अपनी एक परोक्ष लागत है। जो महंगी बिजली, खराब सडक़ों, ट्रैफिक में ईंधन की खपत आदि से बनती है और जिंसों व उत्पाद की कीमत में जुड़ जाती है। तीसरा कारण- सरकार बाजार से हार गई है। बाजार अब उसकी नहीं सुनता। सूचनाओं के तेज प्रवाह के कारण व्यापारी बाजार को पहले भांप लेते हैं। जमाखोरी के नए रास्ते व तकनीकें मौजूद हैं। थोक और खुदरा बाजार के बीच की विभाजक रेखा धुंधली हो रही है। रिटेल में प्रतिस्पर्धा और प्रोसेस्ड व पैकेज्ड खाद्य सामग्री के चलन ने मोटी जेब वाले थोक ग्राहकों का एक नया वर्ग खड़ा कर दिया है। जिनके पास सूचना, साधन और सुविधा सब कुछ है।
मूल्यवृद्धि एक पेचीदा आर्थिक तत्व है। कमाई व निवेश के लिए इसका होना जरुरी है, मगर बेहाथ होना जोखिम भरा। जिस देश में 30 फीसदी आबादी के लिए दो जून का जुगाड़ ही जिंदगी हो वहां निवाले का लगातार कीमती होते जाना खतरनाक है। बढ़ती कीमतें हमेशा बढ़ी हुई आय के फायदे चाट जाती हैं। इसलिए महंगाई गरीबी की पक्की दोस्त होती है। गरीबी से निजात मिलने में हमें देर लगेगी क्यों कि हम स्थाई महंगाई आदी हो चले हैं। अमीर खुसरो होते तो कुछ ऐसी पहेली पूछते...... दूर रहे तो भी न भावै, प्यार बढ़ावै बहुत सतावै, रहे हमेशा संग लगाई, कहु सखि पत्नी? नहिं महंगाई।
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Monday, September 14, 2009

खर्चवीरों की किफायत

चरज होता है कि सरकारी खर्च में किफायत की बहस इतनी सतही, बोदी, नपुंसक और अर्थहीन भी हो सकती है। पानी में नहलाने से कभी हाथी का वजन घटता है भला। कुछ सवारियों के उतर जाने से रेल की रफ्तार बढ़ते देखी है आपने? किफायत प्रतीकों में नहीं आंकड़ों में दिखती है। यह नेताओं की समाजवादी चतुरता है और हमारा भोलापन कि राजनीति हमें अक्सर कुछ बड़े लोगों के विलासितापूर्ण खर्चों को कम करने की प्रतीकात्मक बहस में उलझा देती है और सरकार के डायनासोरी खर्च को एक गंभीर और जरुरी बहस से साफ बचा ले जाती है। इस बार फिर ऐसा ही हुआ है।
..कब हुई है किफायत?
भारत की सरकार की किफायत को प्रतीकात्मक इसलिए है क्यों कि शाहखर्ची रोकने या बचत की घोषणा, वित्त वर्ष खत्म होते होते फाइलों के आरामदेह कवर में सो चुकी होती है। बजट के आंकड़ों में सरकार हर साल पहले से ज्यादा खर्चीली नजर आती है। और किफायत की मुहिम भी क्या? गैर योजना खर्च में वही दस फीसदी की कमी, बड़ेे होटलों में सरकारी आयोजनों पर रोक, इकोनॉमी क्लास में हवाई यात्रा आदि। ऐसी कई मुहिम अतीत बन गईं मगर कभी सरकार ने यह नहीं बताया कि इनसे बचत क्या हुई? सब कुछ प्रतीकात्मक है इसलिए जुलाई में सरकार बजट में खर्च को बढ़ाने पर तालियां बटोरती है और सिर्फ दो माह बाद सात सितंबर को किफायत का आदेश जारी कर देती है।
..सोचो मत बस खर्च करो!
भारत की आर्थिक प्रकृति का नियम है कि जो वित्त मंत्री खर्च का जितना बड़ा आंकड़ा बताता है वह बजट पर अपनी पार्टी से उतनी बड़ी तारीफ पाता है। प्रणव मुखर्जी गरजे कि हम पहली बार दस लाख करोड़ रुपये के खर्च का बजट लाए हैं। यह मत पूछिये कि इसमें पूंजी खर्च तो केवल 1,23,606 करोड़ रुपये है। अर्थात सरकार का 90 फीसदी खर्च तो उस खाते में हो रहा है जिसे सरकार खुद विकास से नहीं जोड़ती। वैसे भी जिस सरकार के बजट का 70 फीसदी खर्च ब्याज, सब्सिडी, वेतन, पेंशन आदि गैर योजना मदों में जाता हो उसे किफायत की बहस में नहीं उलझना चाहिए।
... बहस तो दरअसल यह है
सरकार के खर्च को नहीं बल्कि उस खर्च की गुणवत्ता को तीखी बहस की दरकार है। जरा खर्च को परखने के पैमाने बदल दीजिये आप खुद कहेंगे कि यह हो क्या रहा है? कभी खाद पर दी जा रही सब्सिडी को खेती में सरकारी खर्च के समानांतर रखकर देखा है आपने। 2009-10 साल के बजट में सरकार खेती व सिंचाई के विकास पर कुल 11000 करोड़ रुपये खर्च करेगी और उर्वरक सब्सिडी पर करीब 50,000 करोड़!! ..डीजल पर दी जा रही सब्सिडी को बिजली क्षेत्र में सरकार के निवेश से नापिये। बिजली उत्पादन लिए इस साल प्रणव बाबू ने बजट में करीब 57000 करोड़ रुपये का योजना खर्च रखा हैं मगर डीजल पर दी जा रही सब्सिडी 52288 करोड़ रुपये है। इसी तरह एलपीजी व केरोसिन पर सब्सिडी को ग्रामीण विकास पर सरकार के कुल खर्च से तौलिये। यह सब्सिडी 45000 करोड़ रुपये है जब कि इस साल ग्रामीण विकास पर सरकार 43850 करोड़ रुपये खर्च करेगी। इसमें सरकार की चहेती नरेगा भी है। चाहें तो आप निर्यातकों को मिल रही कर रियायतों (44000 करोड़ रुपये) को उद्योग व खनन में सरकार के निवेश (35740 करोड़ रुपये) से नाप लीजिये। इसमें हर आंकड़ा खर्च की प्रासंगिकता, गुणवत्ता और उपयोगिता के सवाल उठा रहा है, जो जानबूझकर बहस से बाहर कर दिये जाते हैं।
किफायत की जरुरत क्या है?
सरकार में किफायत की मौजूदा बहस ही बेमतलब है। सरकार आखिर को किफायत क्यों करे? वह तो खर्च करने के लिए ही तो टैक्स लेती है। इसलिए उसे जमकर खर्च करना चाहिए ताकि बाजार में मांग बढ़े, रोजगार बढ़ें, सुविधायें बढ़ें। मंदी के दौरान दुनिया की सभी सरकारों ने ऐसा किया क्यों कि सरकारें जितना खर्चती हैं, निजी क्षेत्र उससे ज्यादा खर्च करता है। मगर हम दुनिया से फर्क हैं हमारी सरकार भी खर्च बहादुर है लेकिन वह खर्च सब्सिडी जैसे मदों में करती है, जिसका वह श्रेय भी नहीं ले सकती। आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि 2007-08 में जीडीपी के अनुपात में कुल घरेलू निवेश 39.3 फीसदी रहा है इसमें सरकार का योगदान केवल 9.1 फीसदी का था। यानी कि आर्थिक पहिया सरकार के खर्च पर नहीं घूमता।
जीडीपी के अनुपात में सरकार की बचत केवल 4.5 फीसदी है जबकि निजी क्षेत्र व आम लोगों की बचत 33 फीसदी। यानी कि किफायत व सरकार का मामला नहीं जमता। अलबत्ता सरकार अगर अपने खर्च के ढर्रे, प्रकृति, उपयोगिता और प्रासंगिकता पर बहस करे तो बात कुछ बनती है। सरकारी खर्च और किफायत की बहस इस बार थरुरों और कृष्णाओं के पांच सितारा सुइट व हवाई जहाजों के बिजनेस क्लास में फंस गई। हमारे देखते-देखते नेताओं ने एक बार फिर इंच भर नैतिकता के टुकड़े से करोड़ों के फालतू सरकारी खर्च को ढक लिया और हम खुश हो गए कि सरकार खर्च में कमी का चाबुक अपनों पर ही चला रही है। क्या खूब है यह किफायत का यह नया प्रतीकवाद !!!
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Monday, September 7, 2009

मझोले और छोटों की नई दुनिया

अंबानियों की लड़ाई का शोर राजनीति के गलियारों को गुंजा रहा हो। जब टाटा सिंगुर में सताये जाने का मुआवजा मांग रहे हों, जब सत्यम के जमीन जायदाद वाले असत्यम (मेटास) पर नियंत्रण की चख – चख चल रही हो। तो इन नक्‍कारखानों में तूती की आवाज कौन सुने? बड़ों के इस शोर के बीच मझोले और छोटों की अर्थव्यवस्था की तरफ दे ाने की फुर्सत किसे है? कोई देखे या न देखे पर बदलाव तो होता है क्यों कि परिवर्तन किसी टाटा, सत्यम या अंबानी का ट्रेडमार्क नहीं है। उद्योग जगत के बड़ों के नाज नखरे उठाने में मसरुफ सरकार को पता ही नहीं चला और सिर्फ पांच वर्षों में लघु उद्योगों का पूरा स्वरुप ही बदल गया। कभी मैन्युफैक्चरिंग यानी उत्पादन गतिविधियों का केंद्र रहा देश का लघु उद्योग अब सेवा क्षेत्र का स्वर्ग है। छोटे व मझोले उद्योगों की नई गणना बताती है कि देश की ढाई करोड़ से ज्याद लघु इकाइयों में 72 फीसदी इकाइयां अब सेवा क्षेत्र में हैं !!!! लघु उद्योगों की नीतियों पर नजर र ाने वालों को इस आंकड़े पर हैरत होना लाजिमी है क्यों कि सरकार की नीतियों और इस बदलाव में तो पीढिय़ों का अंतर है। सिर्फ यही नहीं यह बदलाव बहुत गहरे अर्थ भी छिपाये हुए है।
.. दिलचस्प नई सूरत?
लघु उद्योगों की दुनिया बड़े पैमाने पर बदल गई है भले ही लघु व मझोले उद्योगों की चौथी गणना के बीते सप्ताह आए आंकड़े बड़ी खबरों के बीच खो गए हों। ज्यादा लोग, कम तकनीक, छोटा उत्पादन.... लघु उद्योगों की अब यह पहचान नहीं रही। सरकार ने इस क्षेत्र के लिए परिभाषा बदली थी जिसके आधार पर लघु मझोले उद्योगों की चौथी गणना में मझोली इकाइयों व सेवा क्षेत्र को भी शामिल किया गया। नतीजे चौंकाने वाले हैं। देश में छोटी व मझोली इकाइयों की तादाद 1.3 करोड़ (2001-02 के आंकड़ों के मुताबिक) नहीं बल्कि दोगुनी यानी 2.6 करोड़ है। यह इकाइयां करीब छह करोड़ लोगों को रोजगार दे रही हैं। लेकिन विसंगति देखिये कि इनमें पांच करोड़ लोगों को रोजगार देने वाली इकाइयां पंजीकृत नहीं हैं यानी कि रोजगार है मगर असंगठित। फिर भी प्रति इकाई रोजगार 01-02 में 4.48 व्यक्ति था वह 06-07 में बढक़र 6.24 व्यक्ति हो गया है।
और हैरतअंगेज सीरत
लघु उद्योगों की नई तस्वीर में दिलचस्प पेचीदगियां हैं मगर सीरत में बदलाव तो आश्चर्यजनक हैं। अब देश की केवल 28 फीसदी लघु इकाइयां विनिर्माण यानी मैन्युफैक्चरिंग के काम लगी हैं यानी कि लघु उद्योगों में इकाई लगाकर उत्पादन करने का दौर खत्म। अब सेवा देना लघु इकाइयों का नया काम है, इसलिए 72 फीसदी इकाइयां तरह तरह की सेवाओं में लगी हैं। लघु उद्योगों में 2001-02 से 06-07 के बीच प्रति इकाई स्थायी निवेश करीब सात लाख रुपये से बढ़ कर 33 लाख रुपये हो गया है, यानी कि यह नई सीरत उद्यमियों को भा रही है।
इस बदलाव के अर्थ
....मगर लघु उद्योगों के पूरे स्वरुप में यह बदलाव बड़ा अर्थपूर्ण है। पहला अर्थ तो यह कि हम रफ्ता-रफ्ता विनिर्माण आधारित अर्थव्यवस्था से सेवा आधारित अर्थव्यवस्था में बदलते जा रहे हैं। लघु उद्योगों को रोजगार का पावर हाउस माना जाता है लेकिन यह पावर हाउस अब इकाई लगाकर नहीं बल्कि सेवायें देकर चल रहा है। उद्यमी अब ठोस उत्पादन करना नहीं चाहते बल्कि अदृश्य सेवायें छोटों की इस बड़ी अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। लेकिन इसके साथ ही निर्यात, उत्पादन और बाजार में कई अहम चीजों की आपूर्ति का ढांचा भी बदल गया। आप मैन्युफैक्चरिंग उत्पादों के महंगे होने और सेवाओं के सस्ते होने के रहस्य को भी इस बदलाव के जरिये खोल सकते हैं। लघु इकाइयां सस्ते सामान बनाकर कीमतों को कम रखने में मदद रखती थीं, अब या तो वह सामान नहीं मिल पाते या बड़ी इकाइयां उन्हें ऊंची लागत पर बना रही हैं। महंगाई का यह एक छिपा हुआ चेहरा है।
नीतियों की गुत्थी
लघु उद्योगों की सूरत और सीरत में यह बदलाव उदारीकरण के बाद बनी लघु उद्योग नीतियों की प्रासंगिकता को कठघरे में ाड़ा कर देता है। लघु इकाइयों के लिए प्रोत्साहन, कर्ज, संरंक्षण, कर रियायत, निवेश, निर्यात आदि की नीतियां इस क्षेत्र मेंं मैन्युफैक्चरिंग की प्रमुखता को निगाह में रखकर बनती रही हैं। इस नई सूरत में अब इन नीतियों को सिरे से बदलना होगा क्यों कि अर्थव्यवस्था में रोजगार के सबसे बड़ा सप्लायर लघु उद्योग सेवा क्षेत्र का दीवाना है। मगर जरा ठहरिये....सरकार के पास तो सेवा क्षेत्र को लेकर कोई समेकित कानून ही नहीं है। ...सेवाओं में गुणवत्ता के सवाल पहले से हैं, ऊपर से छोटी पूंजी वाले लघु उद्योग की सेवाओं में बड़ी हिस्सेदारी इन सवालों को और बड़ा कर देती है। तो सेवायें लेने वाले उपभोकताओं के हित कैसे सुरक्षित होंगे? सरकार लघु उद्योगों को निर्यात में बढ़ावा देती है लेकिन पर लघु उद्योग तो उत्पादन के बजाय सेवाओं की तरफ मुखातिब हैं तो फिर निर्यात सेवाओं का होना चाहिए मगर यहां तो संगठित क्षेत्र से सेवा निर्यात को लेकर कोई रणनीति नहीं है, तो फिर लघु और असंगठित क्षेत्र की कौन सुने?
उदारीकरण ने सिर्फ बड़ों को नहीं बदला है बल्कि छोटे भी बड़े पैमाने पर बदल गए हैं। सरकार को यह दिखता ही नहीं कि लघु उद्योग वक्त के हिसाब से बदले हैं उसकी नीतियां देखकर नहीं। अब तो नीतियों को लघु उद्योगों की नई दुनिया के हिसाब से बदलना होगा। साथ ही उन चुनौतियों से निबटने की नीतियां भी चाहिए जो मैन्युफैक्चरिंग से लघु उद्योगों के दूर जाने से उपजेंगी। यह चुनौतियां रोजगार, आपूर्ति, कीमत और निर्यात सबको प्रभावित करेंगी, क्यों कि इस मुल्क की बहुरंगी अर्थव्यवस्था को सिर्फ बड़े उद्योगों की तलवार नहीं छोटे उद्योगों की सुई (...जहां काम आवै सुई, कहा करै तलवार) भी चाहिए।
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Thursday, September 3, 2009

हवाई नीतियों में फंसा असली खजाना

जमीन का मालिक मगर पैसे में कमजोर, दूसरा पैसे में मजबूत और खजाना तलाशने वालाऔर तीसरा वह जिसने खजाना मिलने से पहले ही खरीदने का सौदा कर लिया। ... यह कहानी है एक खजाने की है जिसमेंं दिलचस्प मोड़ खजाना मिलने के बाद आता है क्यों कि तब नीयत बदलती है। जिसने खजाना निकाला वह ऊंची कीमत वसूलने के हक में, तो जो खरीदने का सौदा पहले ही किये बैठा था उसे लगा धोखा हुआ। और इस बीच जिसकी जमीन थी वह भी आ धमका और उसने कहा कि खजाने की कीमत और बंटवारे का हिसाब वह करेगा। तो अब झगड़ा चालू है। यह कहानी है दरअसल कृष्णा गोदावरी बेसिन की, गैस के झगड़े की और अंबानी भाइयों के बीच विवाद की। इसमें पहला पात्र सरकार है, दूसरी है मुकेश अंबानी की रिलायंस और तीसरे पात्र हैं अनिल अंबानी।
द ग्रेट गैस शो!
इसे झगड़ा नहीं बल्कि प्रहसन या हास्य नाटक कहिये। जिसमें गफलतें ही गफलतें होती हैं और फिर सब अपनी-अपनी तरह से उन्हें ढंकने की कोशिश करते हैं। अरबों रुपये का खेल, अंबानी परिवार का फैमिली ड्रामा, शेयरधारकों की बैठक के बीच फूटा इमोशन , कंपनियों और सियासत से रिश्तों की चर्चायें, दांव पेंच, लंबे अदालती सीन । सब कुछ है इस स्क्रिप्ट में लेकिन ठहरिये यह ड्रामा नहंी है। यह देश की ऊर्जा सुरक्षा का मसला है, जिसे ठोस नीतियों व पारदर्शिता की दरकार है। जो कहीं नजर नहीं आतीं। इसलिए यह पूरा प्रकरण देश की किरकिरी कराने वाले एक ड्रामे में बदल गया है। इस झगड़े के कुछ सूत्र अंबानी परिवार की कलह से जरुर जुड़ते हैं पर वह कलह उतनी अहम नहीं है जितनी अहम है सरकार की गफलत और नीतिगत चूक जिसके कारण गैस क्षेत्र अंबानियों के झगड़े के सुलझने का मोहताज हो गया है।
परिवार का झगड़ा या सरकार का?
अंबानी परिवार का झगड़ा भी कानून के तहत किसी अदालत में हल हो सकता है बशर्ते सरकार के पास नीति साफ हो लेकिन यह सरकार ने अदूरदर्शी नीतियों और औचक कदमों से, गैस के मामले में, इस पारिवारिक झगड़े को एक राष्ट्रीय समस्या बना दिया। 2005 में अंबानी आत्मजों ने यह समझौता किया था कि मुकेश की कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज अनिल की कंपनी रिलायंस नेचुरल रिसोर्स लिमिटेड को 17 वर्ष के लिए 2.34 डॉलर प्रति एमबीटीयू (मिलियन ब्रिटिश क्यूबिक थर्मल यूनिट) पर 280 लाख घन मीटर गैस बेचेगी। जब गैस मिल गई तो उसके साथ मुकेश अंबानी को 2007 में जारी का एक ऑर्डर भी मिल गया जिसमें गैस को 4.20 डॉलर प्रति एमबीटीयू पर बेचने की शर्त रखी गई थी। खजाने निकालने वाले ने इसे पकड़ लिया। मामला मुंबई हाई कोर्ट गया और अदालत ने पुराने समझौते पर ही मुहर लगा दी। विवाद जब सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तब सरकार सोते से जागी और उसने अंबानी परिवार का करार रद्द करने की अर्जी डाल दी। परिवार का झगड़ा परिवार और अदालत जाने, बात तो सरकार की है, जो नीतियों की कलाबाजी खाती रही है और विभिन्न पक्षों को नियम प्रावधानों को अपनी तरह से बखानने का मौका देती रही।
गलतियों की कॉमेडी
केजी बेसिन प्रतिदिन 120 मिलियन क्यूबिक मीटर गैस प्रतिदिन दे सकता है जिससे देश का गैस का प्राकृतिक गैस उत्पादन दोगुना हो जाएगा और इससे दाभोल आकार के 15 बिजली घर चल सकते हैं। मगर जब यह खुलासा हुआ तो साथ ही यह पता लगा कि केजी बेसिन के भीतर से जब गैस निकली तो इसे बांटने बेचने के लिए नीतियों की पाइप लाइन ही नहीं है। फिर क्या था सरकार ने रंग पर रंग बदलने शुरु किये। दस पुरानी गैस तेल खोज नीति के तहत कंपनियों को गैस की कीमत तय करने व मार्केटिंग का अधिकार देने के फैसले से पीछे वह हट गई। तो गैस यूटिलाइजेशन नीति को लेकर बगलें झांकती रही। इस नीति के तहत यह तय होना है कि किस उद्योग कितनी गैस मिलेगी। इस नी िका प्रारुप दिसंबर 2007 में बना, जून 2008 में बदला गया और इस साल फरवरी व अप्रैल में फिर बदलाव हुए। मगर पेंच खत्म नहीं हुए क्यों कि यह नीति सिर्फ रिलायंस के केजी बेसिन उत्पाद बंटवारा समझौते के पर लागू होगी। यानी कि केयर्न, ओएनजीसी, पेट्रोनेट एलएनजी आदि कंपनियां जो गैस निकाल रहीं हैं उसके इस्तेमाल की नीति अभी भी हवा में है।
एक कीमती फार्मूला
गफलत सिर्फ इतनी ही नहीं गैस की कीमत तय करने को लेकर झगड़ा इतना पेचीदा है कि सिर्फ एक प्रावधान पर अदालत की व्याख्या करोड़ों का खेल कर सकती है और इससे न केवल अंबानी परिवारों के लिए सब कुछ बदल सकता है बल्कि आने वाले दौर में गैस क्षेत्र में निवेश से पहले कंपनियों को सोचना भी पड़ सकता है। गैस की कीमत तय करने के फार्मूले से सिर्फ इन विवाद का ही हल नहीं निकलना है बल्कि यह भी तय होना है कि गैस का इस्तेमाल करने वाले उद्योगों ने जो निवेश उसका क्या होगा और आगे कौन कितना निवेश करेगा।
देश को इस बात पर संतोष होना चाहिए था कि अर्से बाद देश में गैस का एक बड़ा खजाना मिला है जो ऊर्जा की चिंताओं कम करते हुए विकास की रफ्तार तेज करेगा लेकिन यहां तो हालत उलटी है ऊर्जा सुरक्षा बढऩे की उम्मीदें एक परिवार के झगड़े की बंधक बन गई हैं। क्यों कि इस दुर्लभ प्राकृतिक संसाधन के न्यायसंगत बंटवारे और तर्कसंगत मूल्यांकन की नीतियों को लेकर सरकार खुद गैस में तैर रही थी। इसलिए ऊर्जा की चिंता छोड़ इस गैस शो का आनंद लीजिये। खजाने की इस कहानी में अभी कुछ और दिलचस्प मोड़ आएंगे।
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