Sunday, March 19, 2023

भव‍िष्‍य की वापसी


 

क्‍या आपको 1980 की प्रस‍िद्ध विज्ञान फंतासी फिल्‍म बैक टु द फ्युचर याद है. रॉबर्ट जेम‍िक्‍स के न‍िर्देशन वाली यह फिल्‍म  कैलीफोर्नि‍या के कस्‍बाई क‍िशोर मार्टी मैकफ्लाई की कहानी है, जि‍सका  वैज्ञाानिक दोस्‍त डॉक्‍टर ब्राउन गलती से एक डेलॉरयेन कार को टाइम मशीन में बदल देता है. इसमें बैठकर मार्टी 50 साल पहले के युग में चला जाता है जहां उसे अपने युवा मां बाप मिलते हैं

यदि आपको यह फिल्‍म याद है तो याद होगा मिस्‍टर फ्यूजन भी. एक छोटा सा न्‍यूक्‍लि‍यर एनर्जी रिएक्‍टर, पुराने जमाने के लालटेन और आज के इमर्जेंसी लाइट जैसा एक उपकरण जिसकी मदद से मार्टी की डे लॉरेयन कार को 1.21 गीगावाट की ऊर्जा की ताकत मिलती है और यह कार समय और स्‍थान से परे पचास साल पीछे चली जाती है. डॉ ब्राउन के इस  न्‍यूक्‍ल‍ियर रिएक्‍टर में प्‍लूटोनियम का नहीं बल्‍क‍ि घरेलू कचरे का इस्‍तेमाल होता है.

वह अस्‍सी के दशक का मध्‍य था एक तरफ लोग इस फ‍िल्‍म से  न्‍यूक्‍लियर फ्यूजन तकनीक का फंतासी कर‍िश्‍मा देख रहे थे तो दूसरी तरफ 1985 में अमेरिका और रुस मिलकर न्‍यूक्‍ल‍ियर  फ्यूजन के परीक्षण की तैयारी कर रहे थे. तब से लंबा वक्‍त बीत गया. वैज्ञानिकों ने प्रयोग पर प्रयोग कर डाले लेक‍िन न्‍यूक्‍ल‍ियर  फ्यूजन की कामयाबी मिलने में 20 वीं और 21 वीं सदी के करीब तीन दशक बीत गए.

 

2022 का साल बीतते बीतते विज्ञान के एक बड़े सपने के सच होने की उम्‍मीद को जगा गया. कैलफोर्न‍िया फेडरल लॉरेंस ल‍िवरमोर लैबरोटरी ने हाइड्रोजन प्‍लाजा और लेजर की मदद से फ्यूजन तकनीक से ऊजा प्राप्‍त करने का सफल परीक्षण कर लिया. विज्ञान की दुनिया इस सफलता से झूम उठी. न्‍यूक्‍ल‍ियर ऊर्जा  मौजूदा तकनीक फ‍िजन पर आधार‍ित है जिसे रेड‍ियोधीर्मी तत्‍वों का इस्‍तेमाल होता है न्‍यूक्‍ल‍ियर फ्यूजन की दीवानगी इसलिए है क्‍यों कि इसके जरिये हाइड्रोजन हीलियम जैसे तत्‍वों के साथ फ‍िजन की तुलना में कई गुना ज्‍यादा ऊर्जा प्राप्‍त की जा सकती है. इससे न तो रेडियोएक्‍ट‍िवटी का डर है और न कार्बन उत्‍सर्जन का. पर्यावरण के सुरक्ष‍ित ऊर्जा को लेकर बदहवास दुनिया के यह खोज किसी वैक्‍सीन से कम नहीं है. 

 

आप कहेंगे कि इकोनॉमिकम में हम न्‍यूक्‍ल‍ियर तकनीक का यह आल्‍हा पंवारा क्‍यों ले आए लेक‍िन दरअसल यह युगबदल खोज ऊर्जा बाजार में एक नई करवट की अगवानी का गीत जैसा है.

रुस के राष्‍ट्रपति की युद्ध लिप्‍सा से ऊर्जा बाजार में जो बडे बदलाव कर रही है उसका एक और नया पन्‍ना जापान में खुल रहा है  

 

लौटने लगी हिम्‍मत

वाकया इस साल सितंबर का है. सुर्ख‍ियों में रुस और यूक्रेन का युद्ध था इस बीच जापान के प्रधानमंत्री फुइमो कशिदा ने चौंका दिया. उन्‍होंने ऐलान किया कि जापान नाभिकीय या परमाणु ऊर्जा में फ‍िर से निवेश करेगा. परमाणु संयत्र शुरु किये जाएंगे नए परमाणु रिएक्‍टर भी लगाये जाएंगे. यह घोषणा होने तक दुनिया में तेल की कीमतें खौल रही थीं. कोयले के भाव तपने लगे थे. ऊर्जा की आपूर्ति के लिए रुस पर निर्भर जापान की इस करवट से ऊर्जा की दुनिया में उलट फेर शुरु हो गया.

बात सिर्फ यही नहीं थी कि जापान की सरकार नाभ‍िकीय ऊर्जा की तरफ लौट रही थी बल्‍क‍ि एनएचके सर्वेक्षण के अनुसार जापान के करीब 48 फीसदी लोग नाभ‍िकीय ऊर्जा के पक्ष में थे. यह घोषणा होते ही यूरेन‍ियम बाजार के तेजड़‍िये अपने अपने टर्मिनल के आगे आ जमे.

नाभ‍िकीय ईंधन के बाद बाजार में मंदी का मौसम हवा हो गया. सितंबर में यूर‍ेन‍ियम की कीमत ने ऊंची उडान भरी. जनवरी 2021 में इसकी कीमत 30 डॉलर प्रत‍ि पौंड थी जो इस साल 64 डॉलर तक दौड़ गई. तब से यूरेन‍ियम 50 डॉलर के आसपास है. क्‍यों कि जापान ही नहीं बल्‍क‍ि यूरोप के मुल्‍क भी न्‍यूक्‍ल‍ियर ऊर्जा की तरफ लौटने वाले हैं

 

हम भी इन तैयार‍ियों की चर्चा पर लौटेंगे लेक‍िन पहले कुछ पीछे चलते हैं और समझते हैं कि नाभ‍िकी ऊर्जा की करवट में जापान की हृदय परिवर्तन इतना महत्‍वपूर्ण क्‍यों है

 

सेंडाई का साया

सेंडाई 2011 - ह दूसरी सुनामी थी जो सेंडाई में जमीन डोलने और पगलाये समुद्र की प्रलय लीला के ठीक सात दिन बाद उठी थी. फुकुश‍िमा के नाभिकीय बिजली संयत्र में आग लग गई. जलते संयंत्र पर हेलीकॉप्‍टर से पानी गिराने के दृश्‍य दुनिया को दहलाने लगे. फटी हुई धरती ( भूगर्भीय दरारें), ज्वालामुखियों की कॉलोनी और भूकंपों की प्रयोगशाला वाले जापान में तब तक  55 न्यूक्लियर रिएक्टर थे यानी जोखिम के बावजूद तेल व गैस पर निर्भरता सीमित रखने और ऊर्जा की लागत घटाने के लिए जापान ने नाभिकीय ऊर्जा पर दांव लगाया था

फुकुश‍िमा के धमाके साथ न्‍यूक्‍ल‍ियर ऊर्जा से दुनिया का विश्‍वास भी हिल गया. लगभग पूरे विश्‍व में परमाणु ऊर्जा की योजनायें फाइलों में बंद हो गईं. पुराने संयंत्रों में उत्‍पादन सीमित कर दिया गया. 1986 में रुस के चेर्नोब‍ेल हादसे के बाद

यूरेन‍ियम का बाजार करीब दस साल लंबी मंदी में चला गया. पूरी दुनिया में ऊर्जा की ले दे मची थी लेक‍िन फुकुश‍िमा के खौफ से सहमी दुनिया ने नाभ‍िकीय ऊर्जा से तौबा कर ली. सनद रहे कि इस हादसे से पहले भारत ने अमेरिका के साथ न्‍यूक्‍ल‍ियर समझौते के साथ बड़ी कूटनीतिक जीत हासिल की थी. मगर 2011 के बाद इस बाजार में अचानक सब कुछ  बदल गया था

 

सेंडाई के हादसे का साया इतना लंबा था कि दुनिया की ऊर्जा में न्‍यूक्‍ल‍ियर बिजली का हिस्‍सा कम होने लगा. वल्‍ड न्‍यूक्‍ल‍ियर एनर्जी स्‍टेटस रिपोर्ट 2022 बताती है कि 2021 में विश्‍व ऊर्जा उत्‍पादन ने नाभि‍कीय ऊर्जा हिस्‍सा चार दशकों पहली बार दस फीसदी से नीचे आ गया. 1996 में यह करीब 18 फीसदी की ऊंचाई पर था.

 

 

इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के आंकड़ो में गोता लगाने पर पता चलता है कि दुनिया के करीब 449 सक्रिय रिएक्‍टर या बिजल घरों ने 2018 में अपनी अध‍िकतम क्षमता छू ली थी जो 397 गीगावाट थी इसके बाद न क्षमता बढी और न रिएक्‍टर. 2010 के बाद अगले तीन साल में 23 रिएक्‍टर में उत्‍पादन बंद हो गया. 2022 के मध्‍य तक बिजली बना रहे रिएक्‍टर की संख्‍या घटकर 411 रह गई थी. 2018 के बाद चीन को छोड़ कर ज्‍यादातर विश्‍व में रिएक्‍टर बंद होने की संख्‍या बढती गई है.

 

 

सेंडाई की दुर्घटना का असर इतना गहरा था कि दुनिया में क्रमश: न्‍यूक्‍ल‍ियर पॉवर प्रोग्राम धीमे पड़ने लगे. न्‍यूक्‍ल‍ियर स्‍टेटस रिपोर्ट बताती है कि 2021 में 33 देशों नाभिकीय ऊर्जा प्रोग्राम थे जिनमें तीन बंद हो चुके हैं. 8 को सीम‍ित कर दिय गया. 10 पर काम रोक दिया गया. केवल 15 कार्यक्रम सक्रिय हैं. नाभिकीय ऊर्जा से किनारा करने के कारण पुराने रिएक्‍टरों का आधुनिकीकरण भी नहीं हुआ और न नई तकनीकों का इस्‍तेमाल किया गया. 

 

नाभ‍िकीय ऊर्जा से इस मोहभंग के बीच केवल चीन सक्रिय ऊर्जा कार्यक्रपर आएगे बढता रहा. 2021 में दुनिया नाभिकीय ऊर्जा का उत्‍पादन 3.9 फीसदी बढा लेक‍िन चीन 11.1 फीसदी. चीन से बाहर नाभिकीय ऊर्जा के उत्‍पादन में बढ़त केवल 2.8 फीसदी थी.

 

अगर युद्ध न होता ..

सितंबर 2022 से अचानक दुनिया में ना‍भि‍कीय ऊर्जा को लेकर होड़ जैसी शुरु हो गई. कोयला, गैस और पेट्रोल की महंगाई से बचने के लिए ही तो इस ऊर्जा का आव‍िष्‍कार हुआ था अलबत्‍ता हादसों और खतरों के कारण इसेस किनारा करना पड़ा. करीब 55 रिएकक्‍टर के सथ  ऊर्जा की बड़ी ताकत रहे जापान ने नए रिएक्‍टर लगाने का एलान किया तो यूरेनियम ऊर्जा की उभरती ताकत चीन ने अगले 15 साल में 150 नए रिएक्‍टर बनाने का एलान कर दिया.

नाभि‍कीय ऊर्जा की नई होड शुरु होने से पहले निमाणाधीान रिएक्‍टर में चीन पहले नंबर पर था.

 

 

 

 

गैस की महंगाई से तप रहे यूरोप ने भी अब नाभिकीय ऊर्जा की वापसी का खाका बनाना शुरु कर दिया है. फ्रांस अपने सभी रिएक्‍टर दोबारा शुरु करने वाला है. जर्मनी जिसने 2011 के बाद नाभिकीय ऊर्जा का उत्‍पादन पूरी तरह बंद करने का निर्णय लिया था वह भी प्रत‍िबंध हटाकर नए सिरे यह सस्‍ती ऊर्जा बनाने के संकेत दे रहा है.

सत्‍ता से बाहर से होने से पहले ब्रिटेन प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसान ने न्‍यूक्‍ल‍ियर ऊर्जा की फाइल फिर खोल दी थी. पिछली सरकारों को इस ऊर्जा कार्यक्रम को विकालांग बना देने का आरोप लगाते हुए प्रधानमंत्री जॉनसन से साइजवेल 810 मिलियन डॉलर सरकारी निवेश का वादा भी किया था.

अमेरिका की रुस वाली ऊर्जा

नाभ‍िकीय ऊर्जा का ताजा होड में अमेरिका का मामला गजब का दिलचस्‍प है. अमेरिका अपने ऊर्जा कार्यक्रम के तहत कार्बन उत्‍सर्जन रोकने के लिए नाभिकीय ऊर्जा का उत्‍पादन दोगुना करने की योजना पर काम कर रहा है. रुस यूक्रेन युद्ध के कारण इस कार्यक्रम को बड़ा झटका लगा है.

अमेरिका के रिएक्‍टर जिस यूरेनियम का इस्‍तेमाल करते हैं वह दुनिया में केवल एक कंपनी बेचती है और वह रुस की सरकारी कंपनी रोसाटोप यानी रश‍ियन स्‍टेट अटॉमिक एनर्जी कार्पोरेशन. हैरत होगी जानकर कि इस कंपनी पर प्रतिबंध नहीं लगाये गए हैं क्‍यों कि यह ग्‍लोबल न्‍यूक्‍ल‍ियर सप्‍लाई चेन का हिस्‍सा है

नए हलेयू (हाई एसे लो इनर‍िच्‍ड यूरेनियम) रिएक्‍टर अमेरिका के ऊर्जा कार्यक्रम की नई पीढी का सबसे बड़ा किरदार हैं. बिडेन प्रशासन इन नए रिएकटरों रुस पर निर्भरता खत्‍म करना चाहता है वह यूरेनियम नए सप्‍लायर की तलाश में हैं.

 

 

खतरों को सीमित कर लिय जाए तो न्‍यूक्‍ल‍ियर दुनिया का सबसे अनोखा ऊर्जा संसाधन है. यह पर्यावरण के लिए सुरक्षि‍त है और इससे बहुत बड़ी क्षमता के बिजली घर लगाये जा सकते हैं.  तो अब हम वापस लौटते हैं मि. फ्यूजन की तरफ यानी बैक टु फ्यूचर वाली कार की तरफ. यह संयोग ही कि पूरी दुनिया जब नाभ‍िकीय ऊर्जा की तरफ लौटने को मजबूर हुई तो इसी बीच आणव‍िक ऊर्जा उद्योग की सबसे बडी तकनीकी तलाश भी पूरी हो रही है. फ्यूजन रिएक्‍टर बनने में समय लगेगा अब परमाणुओं का जटिल विज्ञान नई तकनीकों के साथ वापसी को तैयार है. मर्चेंट बैंकरों और निवेशक नाभि‍कीय ऊर्जा को अगले कुछ वर्षों का सबसे बड़ा निवेश मौका मान रहे हैं

 

एक युद्ध ने कितना कुछ बदला दि‍या है 

 

 

 

डर के आगे जीत है


 

 

इटली के धुर पश्‍च‍िम में सुरम्‍य टस्‍कनी में एक बंदरहगार शहर है ल‍िवोनो

यूरोप के बंदरगाहों पर कारोबारियों की पुरानी खतो किताबत में लिवोनो के बारे में एक अनोखी जानकारी सामने आई

17वीं सदी में  ल‍िवोनो एक मुक्‍त बंदरगाह था. यह शहर यहूदी कारोबार‍ियों का गढ़ था यह शहर जो भूमध्‍यसागर के जरिये पूरी दुनिया में कारोबार करते थे

इन्‍हीं कारोबा‍र‍ियों था इसाक इर्गास एंड सिल्‍वेरा ट्रेड‍िंग हाउस. यह इटली के और यूरोप के अमीरों के लिए भारतीय हीरे मंगाता था

इर्गास एंड सिल्‍वेरा ठीक वैसे ही काम करते थे जैसे आज की राल्‍स रायस कार कंपनी करती है जो ग्राहक का आर्डर आने के बाद उसकी जरुरत और मांग पर राल्‍स रायस कार तैयार करती है.

ल‍िवोनो के यहूदी कारोबारियों के इतिहास का अध्‍ययन करने वाले इतालवी विद्वान फ्रैनेस्‍का टिवोलाटो लिखते हैं कि इर्गास एंड सिल्‍वेरा भारत ग्राहकों की पसंद के आधार पर भारत में हीरे तैयार करने का ऑर्डर भेजते थे. भारतीय व्‍यापारी इटली की मुद्रा लीरा में भुगतान नहीं लेते थे. उन्‍हें मूंगे या सोना चांदी में भुगतान चाहिए थे

इर्गास एंड सिल्‍वेरा मूंगे या सोने चांदी को लिस्‍बन (पुर्तगाल) भेजते थे जहां से बडे जहाज ऑर्डर और पेमेंट लेकर भारत के लिए निकलते थे. मानसूनी हवाओं का मौसम बनते ही लिस्‍बन में जहाज पाल चढाने लगते थे. हीरों के ऑर्डर इन जहाजों के भारत रवाना होने से पहले नहीं पहुंचे तो फिर हीरा मिल पाने की उम्‍मीद नहीं थी.

डच और पुर्तगाली जहाज एक साल की यात्रा के बाद भारत आते थे जहां कारोबारी मूंगे और सोना चांदी को परखकर हीरे देते थे. जहाजों को वापस लिस्‍बन लौटने में फिर एक साल लगता था. यानी अगर तूफान आदि में जहाज न डूबा तो करीब दो साल बाद यूरोप के अमीरों को उनका सामान मिलता था. फिर भी यह दशकों तक यह कारोबार जारी रहा

भारत के सोने की चिड़‍िया था मगर वह बनी कैसे?

भारत में सोने खदानों का कोई इतिहास नहीं है ?

इस सवाल का जवाब लिवोनो के दस्‍तावेजों से  मिलता है.  14 ईसवी के बाद यूरोप और खासतौर पर रोम को भारत के मसालो और रत्‍नो की की लत लग गई थी. रोम के लोग विलास‍िता पर इतना खर्च करते थे  सम्राट टिबेर‍ियस को कहना पडा कि रोमन लोग अपने स्‍वाद और विलास‍िता के कारण देश का खजाना खाली करने लगे हैं. यूरोप की संपत्‍त‍ि भारत आने का यह यह क्रम 17 वीं 18 वीं सदी तक चलता रहा.

18 वीं सदी की शुरुआत में पुर्तगाली अफ्रीका और फिर लैट‍िन अमेरिका से सोना हासिल करने लगे थे. इतिहास के साक्ष्‍य बताते हैं कि 1712 से 1755 के बीच हर साल करीब दस टन सोना लिस्‍बन से एश‍िया खासतौर पर भारत आता था  जिसके बदले जाते थे मसाले, रत्‍न और कपड़े.

यानी भारत को सोने की च‍िड़‍िया के बनाने वाला सोना न तो भारत में निकला था और न लूट से आया था. भारत की समग्र एतिहासिक समृद्ध‍ि केवल विदेशी कारोबार की देन थी.

आज जब भारत में व्‍यापार के उदारीकरण, विदेशी निवेश और व्‍यापार समझौतों को लेकर असमंजस और विरोध देखते हैं तो अनायास ही सवाल कौंधता है कि हम अपने इतिहास क्‍या कुछ भी सीख पाते हैं. क्‍यों कि अगर सीख पाए होते मुक्‍त व्‍यापार संध‍ियों की तरफ वापसी में दस साल न लगते.

 

एक दशक का नुकसान

आखि‍री व्‍यापार समझौता फरवरी 2011 में मलेश‍िया के साथ हुआ था. 2014 में आई सरकार सात साल तक संरंक्षणवाद के खोल में घुस गई इसलिए अगला समझौता के दस साल बाद फरवरी 2022 में अमीरात के साथ हुआ. इस दौरान दुनिया में व्‍यापार की जहाज के बहुत आगे निकल गए.  कोविड के आने तक दुनिया में व्‍यापार का आकार दोगुना हो गया था.

 भारत जिस वक्‍त अपने दरवाजे बंद कर रहा था यानी 2013 के बाद मुक्‍त व्‍यापार से पीछे हटने के फैसले हुए उसके के बाद दशकों में दुनिया की व्‍यापार वृद्ध‍ि दर  तेजी से बढ़ी. अंकटाड की 2021 इंटरनेशनल ट्रेड रिपोर्ट बताती है कि कोविड आने तक दुनिया व्‍यापार में विकसति और विकासशील देशों का का हिस्‍सा लगभग बराबर हो गया था. चीन और रुस के ब्रिक्‍स देश इस बाजार में बड़े हिस्‍सेदार हो गए थे जबकि भारत बड़ा आयातक बनकर उभरा था

 देर आयद मगर दुरुस्‍त नहीं

बाजार बंद रखने का सबसे बडा नुकसान हुआ है. यह कई अलग अलग आंकड़ों में दिखता है निर्यात की दुनिया जरा पेचीदा है. इसमें अन्‍य देशों से तुलना करने कई पैमाने हैं. जैसे कि कि दुनिया के निर्यात में भारत का हिस्‍सा अभी भी केवल 2 फीसदी है. इसमें भी सामनों यानी मर्चेंडाइज निर्यात में हिस्‍सेदारी तो दो फीसदी से भी कम है. सामानों का निर्यात निवेश और उत्‍पादन का जरिया होता है.

विश्‍व न‍िर्यात में चीन अमेरिका और जर्मनी का हिस्‍सा 15,8 और 7 फीसदी है. छोटी सी अर्थव्‍यवस्‍था वाला सिंगापुर भी दुन‍िया के निर्यात हिस्‍सेदारी में भारत से ऊपर है. निर्यात को अपनी ताकत बना रहे इंडोनेश‍िया मलेश‍िया वियतनाम जैसे देश भारत के आसपास ही है. मगर एक बड़ा फर्क यह है कि इनकी

जीडीपी के अनुपात में  निर्यात 45 से 100 फीसदी तक हैं. दुनिया के 130 देशों में निर्यात जीडीपी का अनुपात औसत 43 फीसदी है भारत में यह औसत आधा करीब 20 फीसदी है. 

निर्यात के ह‍िसाब का एक और पहलू यह है कि किस देश के निर्यात  में मूल्‍य और मात्रा का अनुपात क्‍या है. आमतौर पर खन‍िज और कच्‍चे माल का निर्यात करने वाले देशों के निर्यात की मात्रा ज्‍यादा होती है. यह उस देश में निवेश और वैल्‍यूएडीशन की कमी का प्रमाण है. भारत के मात्रा और मूल्‍य दोनों में पेट्रो उत्‍पादों का नि‍र्यात सबसे बड1ा है लेक‍िन इसमें आयातित कच्‍चे माल बडा हिस्‍सा है

इसके अलावा ज्‍यादातर निर्यात खन‍िज या चावल, गेहूं आद‍ि कमॉडिटी का है. मैन्‍युफैक्‍चरिंग निर्यात तेजी से नहीं बढे हैं. बि‍जली का सामान प्रमुख फैक्‍ट्री निर्यात है. मोबाइल फोन का निर्यात ताजी भर्ती हैं लेक‍िन यहां आयाति‍त पुर्जों पर निर्भरता काफी ज्‍यादा है.

पिछले दशकों में निर्यात का ढांचा पूरी तरह बदल गया है. श्रम गहन (कपडा, रत्न जेवरात और चमड़ा) निर्यात पिछड़ रहे हैं. भारत ने रिफाइनिंग और इलेक्ट्रानिक्स में कुछ बढ़त ली है लेकिन वह पर्याप्त नहीं है और प्रतिस्पर्धा गहरी है.

कपड़ा या परिधान उद्योग इसका उदाहरण है जो करीब 4.5 करोड लोगों को रोजगार देता है और निर्यात में 15 फीसदी हिस्सा रखता है. 2000 से 2010 के दौरान वि‍श्व कपडा निर्यात में चीन ने अपना हिस्सा दोगुना (18 से 36%) कर लिया जबकि भारत के केवल 3 फीसदी से 3.2 फीसदी पर पहुंच सका. 2016 तक बंग्लादेश (6.4%) वियतनाम (5.5%) भारत (4%) को काफी पीछे छोड़ चुके थे.

शुक्र है समझ तो आया

इस सवाल का जवाब सरकार ने कभी नहीं दिया कि आख‍िर जब दुनिया को निर्यात बढ रहा तो हमने व्‍यापार समझौते करने के क्‍यों बंद कर दिये. भारत के ग्‍लोबलाइजेशन का विरोध करने वाले कभी यह नहीं बता पाए कि आख‍िर व्‍यापार समझौतों से नुकसान क्‍या हुआ

दुनिया के करीब 13 देशों साथ भारत के मुक्‍त व्‍यापार समझौते और 6 देशों के साथ वरीयक व्‍यापार संध‍ियां इस समय सक्रिय हैं. आरसीईपी में भारत संभावनाओं का आकलन करने वाली भल्ला समिति ने आंकड़ों के साथ बताया है कि सभी मुक्त  व्यापार  समझौते  भारत  के  लिए  बेहद  फायदेमंद रहे हैंइनके  तहत  आयात और निर्यात  ढांचा संतुलित है  यानी कच्चे माल का निर्यात और उपभोक्ता उत्पादों का आयात बेहद सीमित है.

जैसे कि 2009  आस‍ियान के साथ भारत का एफटीए सबसे सफल रहा है. फ‍िलि‍प्‍स कैपटिल की एक ताज रिपोर्ट बताती है कि देश के कुल निर्यात आस‍ियान का हिस्‍सा करीब 10 फीसदी है. आस‍ियान में सिंगापुर, मलेश‍िया इंडोनेश‍िया और वियतनाम सबसे बड़े भागीदार है. अब चीन की अगुआई वाले महाकाय संध‍ि आरसीईपी में इन देशों के शामिल होने के बाद भारत के निर्यात में चुनौती मिलेगी क्‍यों इस संध‍ि के देशों के बीच सीमा शुल्‍क रहित मुक्‍त व्‍यापार की शुरुआत हो रही है.

2004 का साफ्टा संधि जो दक्ष‍िण एश‍िया देशों साथ हुई उसकी हिस्‍सेदारी कुल निर्यात में 8 फीसदी है. यहां बंग्‍लादेश सबसे बडा भागीदार है.

 

कोरिया के साथ व्‍यापार संधि में निर्यात बढ़ रहा है लेक‍िन भारत जापान मुक्‍त व्‍यापार संध‍ि से निर्यात को बहुत फायदा नहीं हुआ. जापान जैसी विकस‍ित अर्थव्‍यवस्‍था को भारत का निर्यात बहुत सीमि‍त है.

अमीरात के साथ मुक्‍त व्‍यापार समझौते के साथ दरवाजे फिर खुले हैं. यह भारत का तीसरा सबसे बडा व्‍यापार भागीदार है लेक‍िन निर्यात में बड़ा हिस्‍सा मिन‍िरल आयल , रिफाइनरी उत्‍पाद, रत्‍न -आभूषण और बिजली मशीनरी तक सीमित है.  इस समझौते के निर्यात का दायरा बड़ा होने की संभावना है

इसी तरह आस्‍ट्रेल‍िया जो भारत के न‍िर्यात भागीदारों की सूची में 14 वें नंबर पर है. उसके साथ ताजा समझौते के बाद  दवा, इंजीन‍ियर‍िंग चमड़े के निर्यात बढ़ने की संभावना है.

व्‍यापार समझौते सक्रिय होने और उनके फायदे मिलने में लंबा वक्‍त लगता है. भारत में इस राह पर चलने के असमंजस में पूरा एक दशक निकाल द‍िया है वियतनाम ने बीते 10 सालों में 15 मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) किये हैं जबकि 20 शीर्ष व्‍यापार भागीदारों में कवेल सात देशों के साथ भारत के मुक्‍त व्‍यापर समझौते हैं. बंगलादेश, इंडोनेश‍िया और वियतनाम से व्‍यापार में वरीयता मिलती है.  यूके कनाडा और यूरोपीय समुदाय के साथ बातचीत अभी शुरु हुई है

मौका भी जरुरत भी

वक्‍त भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था को फिर एक बडे निर्णायक मोड़ पर ले आया है. बीते दो दशक की कोश‍िशों के बावजूद भारत में मैन्‍युफैक्‍चरिग में बहुत बड़ा निवेश नहीं हुआ. रोजगारों में बड़ा हिस्‍सा सेवाओं से ही आया फैक्‍ट्र‍ियों से नहीं. 2011 के बाद आम लोगों की कमाई में बढ़त धीमी पडती गई इसलिए जीडीपी में उपभोग चार्च का हिस्‍सा अर्से से 55 -60 फीसदी के बीच सीमित है.

अब भारत को अगर पूंजी निवेश बढ़ाना है तो उसे अपेन घरेलू बाजार में मांग चाहिए. मांग के लिए चाहिए रोजगार और वेतन में बढ़त.

मेकेंजी की रिपोर्ट बताती है कि  करीब छह करोड़ नए बेरोजगारों और खेती से बाहर निकलने वाले तीन करोड़ लोगों को काम देने के लिए भारत को 2030 तक करीब नौ करोड़ नए रोजगार बनाने होंगे. यदि श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी का असंतुलन दूर किया जाना है तो इनमें करीब 5.5 करोड़ अति‍रिक्त रोजगार महिलाओं को देने होंगे

2030 तक नौ करोड रोजगारों का मतलब है 2023 से अगले सात वर्ष में हर साल करीब 1.2 करोड़ रोजगारों का सृजन. यह लक्ष्य कितना बड़ा है इसे तथ्य की रोशनी में समझा जा सकता है कि 2012 से 2018 के बीच भारत में हर साल केवल 40 लाख गैर कृषि‍ रोजगार बन पाए हैं.

कृषि से इतर बड़े पैमाने पर   रोजगार (2030 तक नौ करोड़ गैर कृषि‍ रोजगार) पैदा करने के लिए अर्थव्यवस्था को सालाना औसतन 9 फीसद की दर से बढ़ना होगा. अगले तीन चार वर्षों में यह विकास दर कम से 10 से 11 फीसदी होनी चाहिए. 

 

यह विकास दर अकेले घरेलू मांग की दम पर हासिल नहीं हो सकती. भारत को ग्‍लोकल रणनीति चाहिए. जिसमें जीडीपी में निर्यात का हिस्‍सा कम से कम वक्‍त में दोगुना यानी 40 फीसदी करना होगा. मैन्‍युफैक्‍चरिंग का पहिया दुनिया के बाजार की ताकत चाहिए.

इस रणनीति के पक्ष में दो पहलू हैं

एक – रुस और चीन के ताजा रिश्‍तों के बाद अमेरिका और यूरोप के बाजारों में चीन को लेकर सतर्कता बढ़ रही है. यहां के बाजारों में भारत को नए अवसर मिल सकते हैं.

दूसरा – संयोग से भारत की मुद्रा यानी रुपया गिरावट के साथ भरपूर प्रतिस्‍पर्धात्‍मक हो गया है

आईएमएफ का मानना है कि भारत अगर ग्‍लोबलाइजेशन की नई मुहिम शुरु करे तो निर्यात को अगले दशक में निवेश और रोजगार का दूसरा इंजन बनाया जा सकता है.

भारत के लिए आत्मनिर्भरता का नया मतलब यह है कि दुनिया की जरुरत के हिसाब, दुनिया की शर्त पर उत्‍पादन करना. यही तो वह सूझ थी जिससे भारत सोने की चिड़‍िया बना था तो अब बाजार खोलने में डर किस बात का है?

 

 

सबसे दर‍िद्र सरकारें


 

 

भारत का कोई शहर कभी भी दुनिया में सबसे सुरक्ष‍ित रहने योग्‍य शहरों की सूची पहले पचास क्‍या सौ में भी नहीं गिना जाता. मर्सेर के मोस्‍ट लिवेबल सिटीज की अद्यतन रैंकिंग (2019) में शाम‍िल 231 शहरों में भारत का पुणे 143वें  नंबर पर है. इससे पहले तो अफ्रीका के ट्यूनी‍सिया ट्यूनिस,  नामीबिया की राजधानी विंढोक और बोत्‍सवाना की राजधान गैबरोने आती है. कोविड से पहले तक कोलंबो की रैंकिंग की भारत से ऊपर थी.

स्‍मार्ट सिटी ?... इस गुब्‍बारे का धागा भी अब नहीं मिलता. स्‍मार्ट सिटी मिशन को नारेबाजी का दैत्‍य खा कर पचा गया. एक स्‍वच्‍छता मिशन भी था जो फोटो खिंचाऊ पाखंड के बाद धीरे धीरे वीआईपी इलाकों तक सीम‍ित हो गया.

इस सूची में राजधानी दिल्‍ली तो 162वें नंबर पर है. बोस्‍न‍िया हर्जेगोविना के सराजेवो और इक्‍वाडोर के क्‍वीटो से भी नीचे. अचरज भी क्‍या जिस देश की राजधानी में सीमाओं पर कूड़े के पहाड़ लोगों का स्‍वागत करते हों. जहां हर साल तीन महीने सांस लेना मुश्‍क‍िल हो, वह शहर रहने लायक कैसे हो सकता है.

वैसे मोस्‍ट लिवेबल सिटीज के पहले दस शहरों में अमेरिका का भी कोई शहर नहीं है. सनफ्रांसिस्‍को के साथ 34 वें नंबर से अमेरिका इस सूची में प्रवेश करता है. अमेरिकी शहर क्‍यों रहने लायक नहीं हैं इस पर हम आगे बात करकं लौटेंगे लेक‍िन कूड़े के पहाड़ और स्‍वच्‍छता मिशन के संदर्भ में अमेरिका का किस्‍सा सुनते हुए भारत की शहरों की दुखती रग पकडते हैं

1890 में अटलांटिक के दोनों तरफ शहर गंदगी से बजबजा रहे थे. शहरों में आना जाना घोड़ागाड‍ियों से होता था. घोडों की लीद के ढेर जमा थे, बदबू और बीमारियां थीं ऊपर से सफाई नदारद. यह घोड़ा लीद संकट यानी हॉर्स मैन्‍यूर क्राइसि‍स गंदगी एक किस्‍म की आपदा बनाई. 1898 में न्‍यूयार्क में जब पहली अंतरराष्‍ट्रीय अरबन प्‍लानिंग कांफ्रेंस हुई तो सबसे बडा एजेंडा था शहरों में फैला गोबर. 

1894 का न्यूयॉर्क इतना गंदा था कि न्यूयॉर्क पुलिस कमीशन के तत्कालीन प्रमुख थियोडोर रूजवेल्ट शहर की सफाई का जिम्मा लेने को राजी नहीं हुए. यही रुजवेल्‍ट बाद में अमेरिका के राष्‍ट्रपति बने

टेडी रुजवेल्‍ट की सलाह पर न्यूयॉर्क के मेयर विलियम स्ट्रांग ने पूर्व कर्नल और सेना में घुड़सवारी दस्तों के विशेषज्ञ जॉर्ज वेरिंग को सिटी क्लीनिंग डिपार्टमेंट का जिम्मा सौंपा. गंदगी के खिलाफ कर्नल वेरिंग ने युद्ध जैसी मुहिम चलाई. शहर के साथ सफाई में भ्रष्‍टाचार को साफ किया. कूड़े को रिसाइकल‍िंग के सफल प्रयोग किये. उनकी मुह‍िम विवादों, तरह-तरह की सख्ती और भारी खर्च से भरी थी. लेकिन 1898 में जब वे क्यूबा में सैनिटेशन का जिम्मा लेने रवाना हुए तब तक न्यूयॉर्क का चेहरा बदल चुका था.

नगरविकास विशेषज्ञ एडवर्ड ग्‍लीजर अपनी किताब ट्रांयम्‍फ आफ द सिटी शहर में ल‍िखते हैं कि सफाई और पेयजल व्‍यवस्‍था से बीमारियां खत्‍म हुईं और 1910 तक जीवन प्रत्याशा 4.7 वर्ष बढ़ गई थी. 1896 तक अमेरिका की म्‍युन‍िसप‍िलटीज पानी सफाई पर इतना बजट खर्च कर रहीं थी जो उस वक्‍त की फेडरल सरकार के रक्षा पर खर्च के बराबर था.

2019 में अमेरिका के राज्‍य और शहर नगरीय व्‍यवस्‍थाओं पर करीब 3.3 खरब डॉलर सालाना खर्च कर रहे थे. अमेरिकी सरकार के आंकड़े बताते हैं कि बडे शहरों में नगर प्रशासन का प्रत‍ि व्‍यक्‍ति खर्च 2000 डॉलर से ज्‍यादा है इसके बाद भी द बिग एपल यानी आज का न्‍यूयार्क रहने योग्‍य शहरों की सूची के शीर्ष बीस में भी नहीं आता. अमेरिका मरते हुए शहरों का देश बन  रहा है  है क्‍यों कि अमेरिका के शहरों के पास बजट कम पड़ रहे हैं .

 भारत की सबसे दरिद्र सरकारें

म्‍युन‍िसपिल‍िटी को या नगर‍ निगम को लोकल गवनर्मेंट ही तो कहा जाता है यानी कि स्‍थानीय सरकार. सेवाओं सुविधाओं और लोगों जीवन स्‍तर तय करने में यह सरकारें सबसे महत्‍वपूर्ण हैं. राजधानियां तो बहुत दूर हैं लोगों को रोज जो  सफाई, पीने का पानी, पार्क, स्‍थानीय सड़कें चाहिए वह इन्‍हीं निचली सरकारों से आती हैं. 1992 में संव‍िधान 73 वें और 74वें संवि‍धान संशोधन के बाद इस स्‍थानीय सरकार का ढांचा पूरी तरह स्‍पष्‍ट  और स्‍थापित हो हो गया था.

गली कूचों तक प्रतिस्‍पर्धी हो चुकी भारतीय राजनीति में इन लोकल सरकारों के चुनाव अब राष्‍ट्रीय सुर्ख‍ियां बनते हैं. देश के नेता इनके नतीजों पर बधाइयां बांटते हैं मगर यह सवाल नहीं पूछे जाते कि  स्‍वच्‍छता मिशन को  शुरु करने वाले प्रधानमंत्री का दफ्तर और इस मिशन का मुख्‍यालय दिल्‍ली के कूड़ा पर्वतों से केवल कुछ क‍िलोमीटर दूर है. पूरी दुनिया में भारत का डंका और डमरु बजाने वाले यह नहीं बता पाते कि आख‍िर इस कूड़ा समस्‍या का समाधान क्‍यों नहीं मिल पाया क्‍यों शहरों की सफाई मिशन पूरी तरह कामयाब नहीं हुआ. क्‍यों शहरों के कुछ इलाकों को छोड़ ज्‍यादातर हिस्‍सा वैसा ही दिखता है.

रिजर्व बैंक ने अपनी ताजा रिपोर्ट में इस सवाल का जवाब दिया है, आंकड़ों के सा‍थ. 2017-18 से 2019-20 के दौरान नगरीय निकायों के वित्‍तीय हालात पर अपनी रिजर्व बैंक ने इस रिपोर्ट में बताया है कि इन स्‍थानीय सरकारों के पास अपने खर्चे के लायक राजस्‍व हैं  नहीं. उनके कुल राजस्‍व में

सभी नगरपालिकाओं का कुल हिसाब बताता है कि उनके कुल राजस्‍व के अनुपात में टैक्‍सों का हिस्‍सा केवल 34-35 फीसदी है. अलग अलग राज्‍यों में इस प्रत‍िशत में बड़ा फर्क है. भारत में जीडीपी के अनुपात में नगरनि‍कायों के अपने राजस्‍व तो एक फीसदी से भी कम हैं

भारत के नगर निकाय अपने अध‍िकाशं खर्च के लिए राज्‍य सरकार और केंद्र के अनुदानों पर निर्भर हैं. जीडीपी के अनुपात में राज्‍यों को मिलने वाले अनुदान उनके टैक्‍स राजस्‍व से भी ज्‍यादा हैं. यदि हर पांच साल में वित्‍त आयोग इनमें बढोत्‍तरी न करे तो नगर निगमों पास सामान्‍य जरुरतों के लायक संसाधन नहीं होंगे

कहने को भारत में नगर निकायों को बाजार से कर्ज लेने की छूट करीब 15 साले पहले मिल गई  है अलबत्‍ता ग्रेटर हैदराबादबिहार और महाराष्‍ट्र के अलाव अन्‍य नगरपालिकायें बांड लाने की हिम्‍मत नहीं जुटा सकी . उनके ज्‍यादातर कर्ज बैंकों से हैं जो खासे महंगे हैं.

 

खर्च कहां से बढेगा

न‍गर निकायों के खर्च का सबसे बड़ा हिस्‍सा  वेतन और प्रशसानिक मदों पर है. यह जीडीपी का काीब 0.61 फीसदी अै जबक पूंजी खर्च यानी शहरों में नई सुविधाओं को बनाने में होने वाला खर्च जीडीपी का केवल 0.44 फीसदी. 

दिल्‍लीचंडीगढ और महाराष्‍ट्र के अलावा देश सभी हिस्‍सों नगर निकायों में प्रति व्‍यक्‍ति राजस्‍व खर्च 2000 रुपये भी कम हैउत्‍तर प्रदेशझारखंड बिहार आदि में तो यह 1500 रुपये भी कम है

 

सड़कें बुहारती नेताई छवियों का फैशन खत्म होते ही गंदगी अपनी जगह मुस्तैद दिखने लगती है 12वीं पंचवर्षीय योजना ने बताया था कि नगरपालिकाओं में प्रति दिन लगभग 1.15-2  लाख टन से ज्यादा कचरा निकलता है और भारत में  कचरा निस्तारण का कोई ठोस इंतजाम नहीं है.

2001 की जनगणना के अनुसारक्लास वन और टू शहरों में 80 फीसदी सीवेज का ट्रीटमेंट नहीं होता. 2011 की जनगणना ने बताया कि शहरों में 50 फीसदी आवास खुली नालियों से जुड़े हैं जबकि 20 फीसदी घरों का पानी सड़क पर बहता है. 80 फीसदी शहरी सड़कों के साथ बरसाती पानी संभालने के लिए  ड्रेनेज नहीं है. 2011 ईशर अहलुवालिया समिति की रिपोर्ट भारतीय नगरीय ढांचे की जरुरतों का आख‍िरी व्‍यवस्‍थ‍ित आकलन था इसने बताया था कि  शहरों में सीवेजठोस कचरा प्रबंधन और बरसाती पानी की नालियों को बनाने के लिए पांच लाख करोड़ रु. की जरूरत है.

सबूत सामने हैं नगरीय पेयजल और बुनियादी सफाई में भारत ब्राजील और रुस से भी बहुत पीछे है. 

दुनिया के विभिन्न शहरों के तजुर्बे बताते हैं कि सफाईसीवेज और कचरा प्रबंधन रोजाना लड़ी जाने वाली जंग है जिसमें भारी संसाधन और लोग लगते हैं. इसमें कोई कारोबारी फायदा भी नहीं होता. इसलिए निजी निवेश भी नहीं आता. भारत के स्‍थानीय निकायों के पास संसाधन ही नहीं तो उनसे किसी अच्‍छी व्‍यवस्‍था की उम्‍मीद भी कैसे की जा सकती है. यह आंकडे विकस‍ित देशों और प्रमुख विकासशील देशों के मुकाबले भारत में नगर निकायों के राजस्‍व का हाल बताते हैं

‍सबसे बडी टैक्‍स चोरी 

अगर आपको लगता है कि नगर न‍िकायों के पास संसाधनों के अवसरों की कमी है तो आपको शायद देश की सबसे बडी टैक्‍स चोरी के बारे में जानकारी नहीं है. यह चोरी है प्रॉपर्टी टैक्‍स की. या आप कहें नगर निकायों की काहिली जो वे यह टैक्‍स वसूल नहीं पाते.

प्रॉपर्टी टैक्‍स वह कर है जो नगर निकायों की आय का प्रमुख स्रोत होना चाहिए. यह टैक्‍स संपत्‍त‍ियों पर लगता है. पूरी दुनिया में सिटी गवर्नमेंट के लिए यह  टैक्‍स का प्रमुख संसाधन है. यूरोप के देश में जहां शहरों का प्रबंधन अमेरिका से भी बेहतर है वहां प्रॉपर्टी टैक्‍स का प्रशासन चुस्‍त है. मगर भारत में यह जीडीपी का केवल 0.5 फीसदी है.  

साल 2017 के  आर्थ‍िक सर्वेक्षण प्रॉपर्टी टैक्‍स पर कुछ जरुरी तथ्‍य दिये थे. सैटेलाइट इमेंजिंग के जरिये प्रॉपर्टी की पड़ताल के बाद इस सर्वे ने बताया था कि बंगलौर और जयपुर जैसे शहरों में प्रॉपर्टी और मकानों की संख्‍या के आधार पर जितने प्रॉपर्टी टैक्‍स की संभावना है उसका केवल 5 से 20 फीसदी हिस्‍सा ही वसूल हो पाता है. 14 वें वित्‍त आयोग ने प्रॉपर्टी टैक्‍स पर अपने अध्‍ययन में बताया था कि भारत में प्रति व्‍यक्‍ति‍ प्रॉपर्टी टैक्‍स की वसूली अध‍िकतम 1677 रुपये और कम से कम 42 रुपये है

केवल 42 रुपये !

भारत में नगरीकरण तेजी से बढा हैं. संपत्‍त‍ियों की खरीद बिक्री में कई गुना इजाफा हुआ. मकानों के लिए कर्ज भी बढे हैं. जो प्रॉपर्टी में बढते निवेश का प्रमाण हैं लेक‍िन इनकी तुलना में नगर‍ निकायों का प्रॉपर्टी टैक्‍स का संग्रह नहीं बढा है.

अध‍िकांश नगर निकायों के पास कर संग्रह का चुस्‍त ढांचा नहीं है. तरह तरह की रियायतें दी गई हैं. संपत्‍ति‍ की अद्यतन सूचनायें नहीं है. टैक्‍स दरों मे संशोधन नहीं हुआ है. नतीजा है कि शहरों में प्रॉपर्टी टैक्‍स की चोरी चरम पर है. 

 

भारत में 2022 में करीब 35 फीसदी आबादी नगरों रहती है. आर्थ‍िक प्रगति और रोजगारों की सभी उम्‍मीदें शहरों से होकर जाती हैं. 2036 तक भारत के करीब 600 मिल‍ियन यानी 60 करोड़ लोग शहरों  रह रहे होंगे. जिन्‍हें पेयजलसफाई और नगरीय सुविधाओं की जरुरत होगी.

विश्‍व बैंक ने अपने एक ताजा अध्‍ययन में कहा है कि भारत को अगले 15 साल में शहरों पर 840 अरब डॉलर खर्च करने होंगे यानी कि करीब 55 अरब डॉलर प्रति वर्ष यानी लगभग 4.5 लाख करोड़ रुपये हर साल खर्च करने होंगे जो भारत के जीडीपी के दो फीसदी से ज्यादा है.  यूनीसेफ ने अपनी 2022 की रिपोर्ट में कहा है कि 2030 तक केवल बुनियादी सफाई और पेयजल पर दुनिया को 105 अरब डॉलर लगाने होंगेअफ्रीका के बाद सबसे बड़ा खर्च भारत जैसे देशों में होगा.

 

 

भारतीय शहरों को न तो केंद्र और राज्‍यों के अनुदानों के जरिये चलाया जा सकता है और न ही सफाई के प्रतीकवाद के जरिये.

स्‍थानीय निकायों के बजट प्रबंधन में तीन बुनियादी बदलाव चाहिए

1.      नगर निकायों को प्रॉपर्टी टैक्‍स आंकने लगाने का पूरा ढांचा आपातकालीन व्‍यवस्‍था की तर्ज बनाना होगा. तभी शहरों में कुछ ठीक हो सकेगा. इसके अलावा तमाम तरह की सेवायें पर राजस्‍व उगाहने की व्‍यवस्‍था करनी होगी

2.      दो भारत के नगरों के बुनियादी ढांचे में निजी निवेश न के बराबर है. नगरीय प्रशासन को अपनी रणनीति बदलकर नगरीय सेवाओं निजी भागीदारी में चलाना होगा

3.      नगरीय संपत्‍त‍ियों का विन‍िवेश या बिक्री के अलावा संसाधन जुटाने का अब कोई तरीका नहीं हैं.

4.      और अब भारत को यूरोप की तरह बडे शहरों में उपभोग खासतौर पर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले उपभोग पर टैक्‍स बढ़ाना होगा

नगरीय प्रशासन को लेकर दुनिया की सबसे ताजा बहस यह है कि इतने भारी बजट के बाद अमेरिका मरते हुए शहरों का देश क्‍यों बन रहा है. डेट्रायटसेंट लुईमिलवाउुकेबाल्‍टीमोरपिट्सबर्ग जैसी शहर मर रहे हैं. इधर तमाम संकटों के बावजूद यूरोप के शहर अमेरिका से अच्‍छे हैं और बेहतर प्रबंधन वाले हैं. अमेरिका अपने नगरीय ढांचे को संभाल नहीं पा रहा है.

भारत फिलहाल अच्‍छे शहरों की हर तरह की बहस से बाहर है. केवल शहरी चुनावों की सुर्ख‍ियां बनती हैं. भारत के शहरी जब तक यह नहीं समझ पाएंगे कि पानी सफाई जैसी जिन सेवाओं के लिए टैक्‍स देते हैं वही सेवायें निजी क्षेत्र से खरीदकर इस्‍तेमाल क्‍यों  करते हैं और इन शहरी सरकारों के चलाने वाले जब तक यह तय नहीं कर पाएंगे कि उनकी जिम्‍मेदारी राजधान‍ियों से कहीं ज्‍यादा है भारत के नगर द्वारों पर कूड़ा आपका स्‍वागत करेगा और बूंद बूंद पानी के लिए टैक्‍स के बाद भी पैसे देन होंगे.