Monday, October 19, 2009

मंदी के बाद की दुनिया

दीवाली मनाई, दुख दलिद्दर को झाड़ू दिखाई, साथ में मंदी खत्म होने की उम्मीद भी नजर आई..तो अब क्या सोच रहे हैं? यही न कि अब तो दुख भरे दिन बीते रे भैया.. मंदी गई तो सब कुछ पहले जैसा होने वाला है? वैसे ही नौ दस फीसदी की मंजिलों को लांघती आर्थिक विकास की गति, बाजार में ढेर सारा पैसा और खूब सारे उत्पाद? यही तो उम्मीद है न???? माफ करिएगा बस यहीं आप कुछ ज्यादा आशावादी हो गए है। मंदी तो जा रही है लेकिन इसके बाद सब कुछ वैसा ही नहीं होने वाला है, जैसा इस नामुराद के आने के पहले था। मंदी के बाद दुनिया हैरतअंगेज ढंग से बदली है और अगर आप बाजार की परख रखते हैं तो आप बदलाव देख सकते हैं। मंदी जैसे जैसे अपने पंजे हटाएगी बाजार की बदली हुई सूरत और मुखर होकर सामने आएगी।
ईजी मनी का सूखता सागर
अब आर्थिक उत्पादन के उस अमेरिकी माडल के दिन लद गए हैं जिसमें सस्ता कर्ज झोंक उद्योगों को खड़ा किया जाता है।1980 से लेकर 2008 तक अमेरिका ईजी मनी में तैरता रहा और उसे देखकर यूरोप, जापान व एशिया के कुछ देशों ने भी यही माडल पकड़ा। दरअसल, पिछले एक दशक में अमेरिकी बैंकों ने कर्ज को अपनी बैलेंस शीट में रखा ही नहीं बल्कि उसे रहस्यमय व जटिल प्रतिभूतियों में बदलकर ऊधो से लेकर माधो तक सबको बेच दिया। खासतौर पर अमेरिका और सामान्यतौर पर पूरी दुनिया में पिछले एक दशक की तेज विकास दर सस्ते कर्ज के ईधन की बदौलत आई है। कभी यह कर्ज बैंकों के जरिए सीधे उद्योगों को गया है तो कभी निवेशकों ने इसके जरिए प्रतिभूतियां खरीदी हैं। हेज फंड, निवेशक बैंक, सब प्राइम मार्टगेज आदि सभी इसी सस्ते कर्ज सागर के जीव जंतु रहे हैं जिन्होंने खूब ऐश की। लेकिन अब यह सब खत्म हो गया। अत्यधिक सस्ते कर्ज को दुनिया अलविदा कहने वाली है क्योंकि वह कर्ज खोखले वित्तीय तंत्र की देन है। इस समय बाजार में धन की भरमार को यानी उदार मौद्रिक नीतियों को देखकर चौंकिए मत.. यह पाइप तो संकट के गड्ढे भरने के लिए खोले गए थे ताकि लेहमनों, बियर स्टन्र्सो सहित दुनिया भर के बैंकों को बचाया जा सके। यह धन प्रवाह उपभोक्ता व उद्योगों के लिए स्नान पान के लिए था ही नहीं जो कि शुभ और सकारात्मक माहौल में इस नदी के किनारे आते हैं संकट के वक्त वह कर्जपान क्यों करेंगे। इसलिए सस्ते कर्ज के बाद भी पूरी दुनिया में कर्ज की मांग लगतार घटी है। उदार मौद्रिक नीति की यह बैसाखियां हटने वाली हैं। इसके बाद अब कर्ज होगा महंगा और कर्ज के व्यापारी होंगे सतर्क क्योंकि कर्ज बाजार के गरम दूध ने उनकी जीभ क्या हलक तक जला दिया है।
उधार प्रेम की कैंची है
कर्ज चाहिए? माफ करिए.. कुछ शर्ते हैं। उपभोक्ता जी .. बैंक अब कुछ इस अंदाज में बात करेंगे।
माफ करिए अब बैंक सस्ता कर्ज लेकर आपके पीछे नहीं दौड़ेंगे। देखा नहीं मंदी के पिछले एक साल में आपको चिढ़ाने झुंझलाने वाली फोन कालें कितनी कम हो गई हैं। दरअसल अमेरिकी उपभोक्ताओं ने सस्ते कर्ज के सहारे दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं को खूब चलाया। यह इस सस्ते कर्ज का खेल था कि अमेरिका में लोगों की व्यक्तिगत बचत दर जो 1970 में दस फीसदी थी 2008 में घटकर दो फीसदी से भी कम हो गई। आखिर बैंक कर्ज देने को तैयार थे तो बचत का झंझट कौन लेता? लेकिन अब न वहां बैंक सस्ता कर्ज दे रहे है और न भारत में। अकेले अमेरिका के 416 बड़े बैंकों को कर्ज न दे पाने वाली सूची में डाल दिया गया है जबकि 80 बैंक बंद हो चुके हैं। पूरी दुनिया के आलिम फाजिल मान रहे हैं कि जब कर्ज नहीं होगा तो अमेरिका व यूरोप के उपभोक्ताओं का खर्च कम होगा जो दुनिया में मांग को उतना नहीं बढ़ने देगा जितनी की उम्मीद है। यह मांग सिर्फ उपभोक्ता उत्पादों की नहीं बल्कि वित्तीय उत्पादों या अचल संपत्ति की भी है। यानी अगर समझदार उद्योग मंदी खत्म होने की झोंक में आंख बंद कर उत्पादन नहंीं बढ़ाएंगे, तो निवेश भी वित्तीय बाजार में अब कुछ सतर्क होकर आएंगे यानी कंजूसी से काम।
धीरे.धीरे.धीरे
ऊपर के विश्लेषण से अंदाज पा रहे हैं आपकी आखिर क्या होने वाला है? ..ठीक समझे आप? भूल जाइए कि मंदी के बाद दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं उसी रफ्तार पर पहुंच जाएंगी जैसे कि वह 2007 में थीं। मांग बढ़ेगी और विकास की गति भी लेकिन धीरे धीरे। इसके कई स्पष्ट कारण हैं। उत्पादक सतर्क हैं, वह अब मांग को बहुत करीब से देखेंगे और मार्जिन पर नजर रखेंगे। घाटे निकालने की कोशिश होगी। ध्यान दीजिए कि पूरी दुनिया में पिछले कुछ वर्षो में जरूरी चीजों के उत्पादन में उतनी वृद्धि नहीं हुई है जितनी कि मांग में। मंदी से उबरने की उम्मीद देखकर जिंस बाजार चढ़ने लगा है। मौसम का परिवर्तन पूरी दुनिया की खेती को परेशान कर रहा है यानी कि उत्पादन कम है। मंदी से उबरती दुनिया अब सतर्क होकर कारोबार करेगी। यानी महंगाई है और बनी रहेगी। तो एक तरफ आसान और सस्ते पैसे की कमी तो दूसरी तरफ आपूर्ति सीमित। आप खुद समझ सकते हैं कि मांग के बल्लियों उछलने की उम्मीद छलावा हैं। इसलिए विशेषज्ञ मंदी से उबरी विश्व अर्थव्यवस्था में विकास की रफ्तार को दुनिया में विकास की रफ्तार को तीन फीसदी से ज्यादा नहीं आंक रहे हैं और भारत में भी फिलहाल अगले एक दो साल छह-सात फीसदी की विकास दर की ही उम्मीद है।
मंदी जा रही है, देश के औद्योगिक उत्पादन ने 7.8 फीसदी की विकास दर दिखाई है। दीवाली से ठीक पहले आया यह आंकड़ा राहत देता है। लेकिन अगर किसी ने दीवाली के बाजार को गौर से देखा हो तो उसे यह जरूर महसूस हुआ होगा कि उम्मीद तो जगी है उत्साह नहीं। लाजिमी भी है मंदी ने इतना मारा है कि उत्साह जुटते वक्त लगेगा। संकटों के बाद सतर्कता बढ़ जाती है। इस संकट के बाद तो बहुत कुछ बदलना चाहिए क्योंकि इस मंदी ने कई पहलुओं पर आईना दिखाया है।. ..माफ कीजिए, हम आपकी खुशियां नहीं घटाना चाहते। हमारी कामना है कि लक्ष्मी आपके घर सदैव विराजें और आपको सभी खुशियों से नवाजें मगर हकीकत की जमीन पर पैर टिकाइए और जरा संभल कर उम्मीदें जगाइए। बाजार बहुत निर्मम है और उसकी तबाही का किस्सा अभी सिर्फ एक साल पुराना हुआ है।
-----------

No comments: