Monday, October 25, 2010

संकट की पूंजी

अर्थार्थ
यह भी खूब रही। भारत, चीन, रूस, ब्राजील वाली दुनिया समझ रही थी कि संकट के सभी गृह नक्षत्र यूरो और डॉलर जोन के खाते में हैं, उनका संसार तो पूरी तरह निरापद है। लेकिन संकट इनके दरवाजे पर भी आ पहुंचा। यह पिछड़ती दुनिया जिस विदेशी पूंजी केजरिए उभरती दुनिया (इमर्जिंग मार्केट) में बदल गई वही पूंजी इनके आंगन में संकट रोपने लगी है। मंदी से हलकान अमेरिका व यूरोप अपने बाजारों को सस्ती पूंजी की गिजा खिला रहे हैं। यह पूंजी लेकर विदेशी निवेशक उभरते वित्तीय बाजारों में शरणार्थियों की तरह उतर रहे हैं। तीसरी दुनिया के इन मुल्कों की अच्छी आर्थिक सेहत ही इनके जी का जंजाल हो गई है। शेयर बाजारों में आ रहे डॉलरों ने इनके विदेशी मुद्रा भंडारों को फुला कर इनकी मुद्राओं को पहलवान कर दिया है। जिससे निर्यातक डर कर दुबक रहे हैं। विदेशी पूंजी की इस बाढ़ से शेयर बाजारों और अचल संपत्ति का बाजार गुब्बारा फिर फूलने लगा है। कई देशों में मुद्रास्फीति (भारत में पहले से) मंडराने लगी है। हमेशा से चहते विदेशी निवेशक अचानक पराए हो चले हैं। कोई ब्याज दरें बढ़ाकर इन्हें रोक रहा है तो कोई सीधे-सीधे विदेशी पूंजी पर पाबंदिया आयद किए दे रहा है। 1997 के मुद्रा संकट जैसे हालात उभरते बाजारों की सांकल बजा रहे हैं।
कांटेदार पूंजी
पूंजी का आना हमेशा सुखद ही नहीं होता। दुनिया अगर असंतुलित हो, पूंजी अचानक कांटे चुभाने लगती है। ताजी मंदी और उसके बाद ऋण संकट के चलते अमेरिका व यूरोप के केंद्रीय बैंकों ने अपने बाजारों में पैसे का मोटा पाइप खोल दिया। ब्याज दरें तलहटी (अमेरिका में ब्याज दर शून्य) पर आ गईं ताकि निवेशक और उद्योगपति सस्ता कर्ज ले अर्थव्यवस्था को निवेश की खुराक देकर खड़ा करें। अव्वल तो इस सस्ते कर्ज से इन देशों में कोई बड़ा निवेश नहीं हुआ और जो हुआ वह भी निर्यात के लिए था, मगर वहां दाल गलनी मुश्किल थी क्योंकि कमजोर युआन की खुराक पचा कर चीन
 दुनिया के बाजार में पसीने छुड़ा रहा है। इसलिए यह सस्ते डॉलर अंतत: वित्तीय बाजार के निवेशकों के काम आए। पिछले एक डेढ़ साल से यह विदेशी पूंजी भारत, चीन, ब्राजील जैसे बाजारों की तरफ बह रही है जो निरापद है और तेज दौड़ रही है। सिर्फ विदेशी निवेशक ही क्यों इन देशों के उद्यमी सस्ते डॉलरों की नदी विदेशी मुद्रा कर्ज (ईसीबी) की बाल्टी भर लाए। विश्व की फाइनेंशियल स्टेबिलिटी रिपोर्ट बताती है कि अगर विकसित देशों के बाजार से सिर्फ 10 फीसदी निवेश भी उभरते बाजारों की तरफ जाता है तो करीब 485 बिलियन डॉलर इन देशों में पहुंच जाएंगे। ...यह आकलन सही बैठता दिख रहा है क्योंकि एशिया में चीन, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया और हांगकांग के विदेशी मुद्रा भंडार 25 से 39 फीसदी तक बढ़े हैं।

पेंचदार मुश्किलें
इन तेज दौड़ती अर्थव्यवस्थाओं का हाजमा इतना भी ठीक नहीं कि पूंजी की इतनी तगड़ी खुराक पचा लें। विदेशी पूंजी अब यहां तितरफा मुश्किल है। सबसे पहला नतीजा विदेशी मुद्रा विनिमय दर में असंतुलन के तौर पर पर सामने आया है। बढ़ते विदेशी मुद्रा भंडारों के साथ उभरती इनकी मुद्राएं भी मजबूत हो रही हैं। मसलन मार्च 2009 से लेकर अब तक अफ्रीकी रैंड 45 फीसदी, कोरियाई वॉन 41 फीसदी, ब्राजीली रिएल 40 फीसदी, पोलिश जॉल्टी 34 फीसदी और इंडोनेशियाई रुपया 32 फीसदी बढ़ चुका है। निर्यात पर निर्भर पूर्वी एशियाई देशों के लिए घरेलू मुद्रा की मजबूती संकट से कम नहीं है। विश्व व्यापार में सुस्ती के कारण निर्यात कमजोर है और ऊपर से मुद्राओं की मजबूती के कारण इनके बाजारों में आ रहे डॉलर अंतत: अचल संपत्ति बाजार में पहुंच रहे हैं जिनसे संकट का पहिया घूम कर वर्ष 1997 वाली स्थिति में पहुंच सकता है। मुद्राओं की मजबूती संभालने के लिए अपने विदेशी मुद्रा भंडारों को बढ़ाना एक विकल्प है लेकिन इससे मुश्किल बढ़ जाती है। डॉलर खरीदने के बदले छोड़ी गई घरेलू मुद्रा बाजार में मुद्रास्फीति बढ़ा रही है। जिसे दूर करने के लिए देश अपने बजटों से बांड जारी कर तरलता वापस खींचते (स्टरलाइजेशलन) हैं। हालांकि यह प्रक्रिया अंतत: बजटों को घाटे में और अर्थव्यवस्था को ऊंची ब्याज दर का दर्द देती है। इसलिए विदेशी पूंजी की आवक के कारण जहां पूर्वी एशिया व दक्षिण अमेरिकी देश मुद्रा बाजार में विसंगति से परेशान हैं तो चीन भारत जैसे देश मुद्रास्फीति से।
पाबंदियों की दीवार
कल्पना कीजिए कि अगर विकसित देशों के वित्तीय बाजारों के कुल निवेश (485 अरब डॉलर) का दस फीसदी भी भारत के बाजार में आ जाए तो क्या दशा होगी। भारत को भी शायद वही करना पड़ेगा जो कि दो सप्ताह पहले ब्राजील ने किया। उसने अपने सरकारी बांडों में विदेशी निवेश पर टैक्स दोगुना कर दिया। थाइलैंड ने विदेशी निवेशकों को मिली रियायत वापस ले ली। यह पूंजी की आवक पर पाबंदियों के उदाहरण हैं। वित्तीय दुनिया इन्हें कैपिटल कंट्रोल के नाम से जानती है। जो कि उदार पूंजी वाली दुनिया के लिए सबसे बड़ा और अप्रत्याशित कदम होते हैं। इन पाबंदियों के तमाम नाम रूप हो सकते हैं। मसलन देश में पूंजी बनाए रखने की न्यूनतम समयसीमा, विदेशी निवेश पर टैक्स, निवेश की सीमा आदि। दुनिया को इनका अच्छा तजुर्बा है। वर्ष 1991 में चिली ने इस तरह की पाबंदियां लगाईं थीं, 1997 में मलेशिया, 2006 में थाइलैंड, 2007 में कोलंबिया, 2009 में ताइवान इसी क्रम में हैं। ब्राजील व थाइलैंड के कदमों के जरिए इन कैपिटल कंट्रोल का दौर लौट रहा है। मुद्रास्फीति को लेकर चीन भारत के रास्ते पर चल निकला है। चीन में युआन का अवमूल्यन रणनीतिक है, यानी मुद्रा की मजबूती समस्या नहीं है लेकिन डॉलरों के बदले छोड़े गए युआन से मुद्रास्फीति बढ़ रही है जो कई तरह से मुश्किल बनेगी। इसलिए चीन ने बीते सप्ताह ब्याज दर बढ़ाकर दुनिया को चौंका दिया।
यकीनन एशिया में इतिहास अपने आप को दोहरा रहा है। लेकिन दुनिया के सामने ताजा संकट बेहद जटिल और नई किस्म का है। पिछला संकट एशिया के देशों की अपनी अनुभवहीनता (ऊंची ब्याज दर, अनियंत्रित पूंजी बाजार, अचल संपत्ति में तेजी और वित्तीय निवेश जुटाने की होड़) से उपजा था। इस बार की चुनौती यूरोप व अमेरिका की गलतियों से आई है। सत्तानवे के मुकाबले आज का विश्व कुछ ज्यादा असंतुलित और जटिल है। इस बार पूर्व और पश्चिम मिलकर समाधान की तरफ नहीं, बल्कि इलाजों के टकराव की तरफ मुखातिब हैं। जिसमें एक की दवा दूसरे के लिए कुपथ्य है। विकसित देशों के सामने अपनी अर्थव्यवस्थाओं को सस्ती पूंजी की खुराक देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है जबकि उभरती अर्थव्यवस्थाओं को संकट से बचने के लिए पूंजी की आवक पर पाबंदियां लगानी होंगी। नियंत्रणों का मतलब होगा डॉलर में कमजोरी और जिंस बाजार में तेजी और निर्यात को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए मुद्रा अवमूल्यन की चौतरफा होड़। ...ऋण संकट से जूझती और मंदी में पिसती दुनिया इस घातक होड़ के लिए कतई तैयार नहीं है।
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