Monday, April 4, 2011

खुशी का हिसाब-किताब

दो अप्रैल की रात ग्यारह बजे अगर भारत के किसी भी शहर में अगर कोई प्रसन्नता का राष्ट्रीय उत्पादन नाप रहा होता तो हम उस समय दुनिया में खुशी सबसे बड़े उत्पादक साबित होते। यह सौ टंच सामूहिक खुशी थी यानी कि नेशनल हैपीनेस इंडेक्स में अभूतपूर्व उछाल। हैपीनेस इंडेक्‍स या सकल राष्ट्रीय प्रसन्ऩता जैसे शब्द जीत के जोश में नहीं गढ़े गए है बल्कि हकीकत में पूरी दुनिया प्रसन्ऩता की पैमाइश को विधियों और आंकड़ों की बोतल में कैद करने का बेताब है। कसरत कठिन है क्यों कि समाज की प्रसन्नता का यह शास्त्र बड़ा मायावी है, आय व खर्च के आर्थिक आंकड़ों में इसका आधा ही सच दिखता है। प्रसन्न समाज का बचा हुआ रहस्य गुड़ खाये गूंगे की खुशी की तरह गुम हो जाता है। प्रसन्नता,  दरअसल आनंद के गहरे दार्शनिक स्तरों से शुरु होकर, समृद्धि, प्रगति के आर्थिक पैमानों, सुविधाओं के सामाजिक सरोकारों और संतुष्टि व समर्थन के राजनीतिक मूल्यों तक फैली है जिसका गुप्त मंत्र साधने की कोशिश अब सरकारें कर रही हैं। मनोविज्ञान, समाजशास्त्र , अर्थशास्त्र, सांख्यिकी, जन नीति व प्रशासन और राजनीति सबको एक सार कर सामूहिक प्रसन्न्ता को अधिकतम बनाने वाला फार्मूला तैयार करने की कोशिश शुरु हो चुकी है। इस समय आधा दर्जन से अधिक बड़े देश अपने लोगों की प्रसन्नता का स्तर ठोस ढंग से चाहते हैं। क्यों कि हर व्यक्तिगत, सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक उपक्रम का अंतिम मकसद तो एक संतुष्ट और प्रसन्न‍ समाज ही है और यह कतई जरुरी नहीं कि प्रसन्न समाज बहुत समृद्ध  भी हो।
प्रसन्‍नता का अर्थशास्त्र
आर्थिक समृद्धि, खुशी की गारंटी नहीं है यह बहस तो तब से ही शुरु हो गई थी जब विश्‍व में पहली बार राष्ट्रींय आय की गणना शुरु हुई। 1930 की महामंदी के बाद अमेरिका को राष्ट्रीय आय नापने का ढांचा देने वाले प्रख्यात अर्थविद सिमोन कुजनेत्स ने ही कहा था कि किसी देश की खुशहाली केवल राष्ट्रीय आय के आंकड़ों से नहीं नापी जा सकती। मगर दुनिया 1970 अर्थशास्त्री रिचर्ड ईस्टंरलिन के सनसनीखेज खुलासे के बाद
 इस पर गंभीर हुई कि तेज विकास और ऊंची कमाई लोगों की खुशी या संतुष्टि बढ़ना जरुरी नहीं है। ईस्टरिलन के पास एक अनूठा शोध (ईस्टरलिन पैराडॉक्स) था, जिसके मुताबिक अमेरिका में 1946 के मुकाबले 1970 में लोगों की खुशी में कोई इजाफा नहीं हुआ। जबकि इस दौरान कमाई और सुविधायें खूब बढ़ी थीं। राष्ट्रीय के आय के आंकड़े राष्ट्रीय प्रसन्ननता से तालमेल नहीं कर रहे थे। यूरोप व जापान में ऐसे अध्ययनों के बाद सवाल और गहरे हो गए। 37 देशों पर आधारित ईस्टरलिन का ताजा अध्ययन पिछले साल दिसंबर में आया जिसने समृद्धि बनाम सामाजिक संतुष्टि की विसंगति को मजबूत कर दिया। करीब पचास साल तक इस मुद्दे से मगजमारी करने के बाद दुनिया निष्कर्ष पर पहुंच रही है कि गरीबी दूर होना खुशी की पहली शर्त है मगर अमीरी से खुशी नहीं आती। विशेषज्ञ मानते हैं कि प्रति व्‍यक्ति आय के 10000 पाउंड (7.20 लाख रुपये) सालाना पर पहुंचने के बाद वह नौबत आ जाती है जहां कि पैसे व खुशी का रिश्ता टूट जाता है और लोग हर जरुरी चीज होने पर भी खुश नहीं महसूस करते।
मुस्कान की नाप जोख
प्रसन्नता अमूर्त है, नापना मुश्किल है मगर विज्ञान और अर्थशास्त्र कोशिश में है क्यों कि नाप जोख कर यह ही तय होगा कि खुशी बढ़ाने के लिए क्या किया जाए। मनोविज्ञानियों व अर्थशास्त्री सैकड़ों प्रयोगों के जरिये यह जांचने में जुटे हैं कि कहां कौन कितना खुश है और किस किस वजह से। एक सीधा तरीका लोगों से पूछने का है कि वह कितने खुश हैं। वर्ल्ड वैल्यूज सर्वे, अमेरिका का जनरल सोशल सर्वे, ब्रिटिश हाउसहोल्ड पैनल सर्वे इसी तरह से सीधे सवाल पूछते हैं। जबकि एक दूसरे तरीके ( अर्थशास्त्री क्रूगर और मनोविद शवार्त्ज व केमैन) में लोगों से उनके पिछले दिन की घटनाओं और उनसे उपजे भावों तनाव, आराम, खुशी, मोहभंग को याद करने को कहा जाता है जिसे डे रिकसंस्ट्रक्शन मेथड (डीआरएम) कहते हैं। इन सर्वेक्षणों में निजी संबंधो, परिवार मित्र से लेकर सरकारी नीतियों, सुविधाओं, सार्वजनिक जीवन, आर्थिक स्तर को शामिल किया जाता है। नतीजे चौंकाने वाले हैं, स्कैंडीनेविया देशों के लोग खुशी नापने वाले सर्वेक्षणों में ज्याधदा प्रसन्न निकले हैं जबकि फ्रांस ब्रिटेन अमेरिका के लोग अपेक्षाकृत कम। खुशी नापने की बात अब शोध व बौद्धिक बहस विमर्श से बाहर निकल रही है क्यों कि सरकार और राजनीति इनमें रुचि ले रहे हैं आखिर उनका तो पूरा खेल ही लोगों की प्रसन्नता परं टिका है।
खुशहाली की गारंटी
सरकारों को सकल राष्ट्रीय प्रसन्नता ( ग्रॉस नेशनल हैपीनेस-जीएनएच)  नापने का रास्ता 1972 में भूटान नरेश जिग्मे सुंग वांगचुक ने दिखाया था। भूटान स्टडीज सेंटर के मुखिया करमा उपा और कनाडियन डॉक्टर माइकल पेनॉक ने राष्ट्रीय प्रसन्‍न्‍ता नापने का एक फार्मूला निकाला जो संशोधित होते होते अब अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरुन, फ्रांस के राष्ट्र पति निकोलस सरकोजी के दफ्तरों तक जा पहुंचा है। दुनिया के कम से कम आधा दर्जन देशों की सरकारें लोगों की खुशी नापने का उचित फार्मूला तलाश रही हैं। अमेरिका श्रम आंकड़ा ब्यूरो डे रिकंस्ट्रेशन मेथड के जरिये यह जानने की कोशिश करेगा कि लोग अपना समय कैसे बिताते हैं। कोशिश लोगों को खुश रखन वाले कामों को पकड़ने की है। कैमरुन तो कहते हैं कि सरकार का काम केवल लोगों की जेब में पैसा रखना ही नहीं बल्कि लोगों के दिल में खुशी भरना है। ब्रिटेन, टोनी ब्लेयर के जमाने से हैपीनेस पॉलिसी पर बहस कर रहा है। अगले कुछ वर्षों में ब्रिटेन सहित कुछ देशों ने नेशनल हैपीनेस इंडेक्स या चियर मीटर जैसी नीतिया आ सकती हैं क्‍यों कि आर्थिक व सामाजिक विकास के प्रयासों को प्रामाणिक बनाने के लिए राजनेताओं को इसकी जरुरत है। हो सकता है इस दशक के अंत तक शानदार सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी)  वाले देश नहीं बल्कि शानदार सकल     राष्ट्रीय प्रसन्नता (जीएनएच) वाले देश, नीति बनाने वालों का आदर्श बन जाएं।
 प्रसन्नता की खोज का यह आयोजन बड़ा अद्भुत है। इसमें एक तरफ, प्रसन्नता का अर्थ ही जीवन ( अरस्तू) या शब्दातीत परम आनंद जैसे गूढ़ दार्शनिक पहलू हैं तो दूसरी तरफ बस एक कुर्सी मेज, एक कटोरा फल, वायलिन वाली (आइंस्टीन) बेफिक्री है तो तीसरी तरफ एक बड़े समाज को सभी सुविधाओं से लैस कर खुश रखने की जद्दोजहद है। बहरहाल दुनिया अब खुश आदमी की कमीज तलाशने निकल पडी है, वैसे कौन जाने कि हमें ऐसा खुश आदमी मिले जिसके पास कमीज ही न हो !! लेकिन खुशी तो होगी और इस खुशी का राज भी होगा जिसकी तलाश है क्यों कि लोगों का खुश रहना एक सामाजिक जरुरत है, एक राजनीतिक अनिवार्यता है और एक बडा कारोबार भी है। विश्‍व कप जीत के बाद रविवार की रात उमड़ा सामूहिक उल्लास दरअसल इन्हीं व्यक्तिगत, कारोबारी, सामाजिक और राजनीतिक तत्वों से मिलकर बना था।.... इंडिया खुश हुआ!!!!
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