Monday, May 9, 2011

आतंक का अकाउंट

दमी दो और खात्मे का खर्च 57 लाख करोड़ रुपये (1.3 ट्रिलियन डॉलर, अमेरिकी सरकार के मुताबिक) !!! और अगर स्वतंत्र आकलनों (अर्थशास्त्री जोसफ स्टिगलिज) को मानें तो ओसामा-सद्दाम निबटान परियोजना की लागत बैठती है 120 लाख करोड़ रुपये (तीन ट्रिलियन डॉलर)। अर्थात दूसरे विश्व युद्ध बाद सबसे कीमती लड़ाई। .. यकीनन यह इंसाफ बला का महंगा है । दस साल और कई देशों के जीडीपी से ज्यादा पैसा झोंकने के बाद का अंकल सैम जिस न्यांय पर झूम उठे हैं वह दरअसल आतंक पर जीत को नहीं बल्कि इस अद़ृश्य दुश्मन की ताकत को ज्यादा मुखर करता है। आतंक की आर्थिक कीमत का मीजान लगाते ही यह बात आइने की तरह साफ हो जाएगी कि आतंक को पोसना (पाकिस्तान, अफगानिस्तान) या आतंक से बचना (भारत) या फिर आतंक से आर-पार करना (अमेरिका इजरायल), में सफलताओं का खाता नुकसानों के सामने पिद्दी सा है। आतंक कब का एक आर्थिक विपत्ति भी बन चुका है मगर दुनिया इस दुश्मन से अंधी गली में अंदाज से लड़ रही है। उस पर तुर्रा यह कि इस जंग को किसी फतह पर खत्म नहीं होना है। इसलिए ओसामा व सद्दाम पर जीत से दुनिया निश्चिंत नहीं बल्कि और फिक्रमंद हो गई है। भारी खर्च और नए खतरों से भरपूर यह जीत दरअसल हार जैसी लगती है।
इंसाफ का हिसाब
अगर अमेरिका न होता तो ओसामा पाक डॉक्टरों की देख रेख में किडनी की बीमारी से मरा होता और सद्दाम बगदाद के महल में आखिरी सांस लेता। दो दुश्मनों को मारने पर 57 लाख करोड़ रुपये खर्च करना किस नत्थू खैरे के बस का है? इसके बावजूद आतंक ने अमीर अमेरिका से कम कीमत नहीं वसूली। एक ट्रिलियन डॉलर अर्थात 44 लाख करोड़ रुपये की चोट (संपत्ति की बर्बादी, मौतें और बीमा नुकसान आदि) देने वाले 9/11 के जिम्मेदार को सजा देने के लिए अमेरिका को दस साल और 444 अरब डॉलर फूंकने पड़े। दरअसल आतंक के खिलाफ 1.3 ट्रिलियन डॉलर की अंतरराष्ट्रीय अमेरिकी मुहिम तीन
अभियानों से बनी थी। टारगेट ओसामा यानी ऑपरेशन इंड्योरिंग फ्रीडम (ओईएफ) जो अफगानिस्तान पर केंद्रित था और फिलीपींस से जिबाउटी (पूर्वी अफ्रीका) तक आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई भी इसी मुहिम में शामिल थी। दूसरी मुहिम टारगेट सद्दाम यानी ऑपरेशन इराकी फ्रीडम (ओआईएफ) थी जबकि तीसरा अभियान ऑपरेशन नोबल ईगल था जिसके तहत अमेरिका ने अपनी घरेलू सुरक्षा चुस्त की। लेकिन जब व मंदी व घाटे अमेरिका के अमीर होने की परिभाषा बदल दी तो यह महंगी जंग व्हाइट हाउस के गले में फंसने लगी। दो साल पहले अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिगलिज ने इस जंग के खर्च को कठघरे में खड़ा किया तो व्हाइट हाउस के पास सिर्फ सुरक्षा की दुहाई थी। मगर दबाव तो था ही इसलिए ओसामा को खात्मे से एक माह पहले ही अमेरिकी कांग्रेस ने आतंक के खिलाफ अभियान पर खर्च की पड़ताल की थी। जिसके मुताबिक अफगान युद्ध पर 444 अरब डॉलर, ईराक युद्ध पर 806 अरब डॉलर और घरेलू सुरक्षा पर 29 अरब डॉलर लगे थे। खर्च का ब्योरा, यह कहते हुए दुनिया के सामने रखा गया कि राष्ट्रपति ने जुलाई 2011 से अफगानिस्तान से फौजों की वापसी का ऐलान कर दिया है। अर्थात इस महंगे अभियान से, ओबामा, आजिज आ गए थे और लादेन को हासिल करने से पहले ही अफगानिस्तान से वापसी का ऐलान कर चुके थे।
बदहाली का बिल
आतंक का पोसने का आर्थिक नुकसान और भी भयानक है। आतंक का शेर अब पाकिस्तान का मांस नोच रहा है। स्वात, बुनेर, शांगला, निचली डीर और मलाकंद इलाकों को एक-डेढ़ दशक पहले तक दुनिया, मीठे आड़ुओं, लजीज खुबानियों, रसीले बेरों और स्वादिष्ट आलूबुखारों के लिए जानती थी, लेकिन वहां अब हर साल औसत 2000 आतंकी हमले होते हैं, बम व बारुद उगते हैं और आतंक निर्यात होता है। पश्चिमी सीमांत (एनडब्लूएफपी) और फाटा (फेडरली एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल एरिया) के इन इलाकों में आतंक के कारण 35 अरब (पाकिस्तानी) रुपये की खेती बर्बाद हो चुकी है। स्वात, गिल्गिट बाल्टिस्तान में 60 अरब रुपये का पर्यटन उद्योग तबाह है। उद्योग तबाह हैं, दुनिया के तमाम देशों का पाकिस्तान में निवेश शून्य हो गया है और भारत का पड़ोसी हर साल करीब छह अरब डॉलर का निर्यात गंवा रहा है। विभिन्न आकलनों के मुताबिक, आतंक के दोस्ती में पाकिस्तान, 2004-09 के बीच, 2083 अरब रुपये की तबाही का बिल भर चुका है। 2008 में लगभग दीवालिया हो गया पाकिस्तान आईएमएफ से मिली नौ अरब डॉलर की मदद से बच पाया था। दहाई में महंगाई और केवल ढाई फीसदी की विकास दर के साथ पाकिस्तान आतंक को पाल कर बदहाल होने की अप्रतिम दास्तान है।
नुकसान की दर
ब्रितानी राजनीतिक विशेषज्ञ पॉल विलकिंसन की यह बात भारत के लिए बड़ी मौजूं है कि आतंक से लडऩा गोलकीपर जैसा काम है। कितने भी अच्छे बचाव किये हों मगर गोलकीपर को छकाकर जाल में चिपक जाने वाली किक ही याद रखी जाती है। आतंकी हमलों की गिनती में भारत दुनिया में बहुत ऊपर है लेकिन सरकारों के पास आतंक के आर्थिक असर का कोई हिसाब नहीं है। आतंक ने 1993 में घाटी से बाहर निकल कर जब मुंबई में धमक दर्ज कराई, तब कश्मीर को विकास की पटरी से पूरी तरह उतर चुका था। घाटी में आतंक के आर्थिक असर का इतिहास हर तरह की तबाही, पलायन से लेकर बैंक लूट तक फैला है। दरअसल आतंक का आर्थिक असर हमने पहली बार 26/11 को समझा जब इस हमले ने अकेले बीमा उद्योग को ही 500 करोड़ की चोट दी। यह बात अलग हे कि आतंक के मारे पंजाब और असम आज तक विकास की मुख्यधारा में कायदे से तैर नहीं पाए हैं और कश्मीर कब सामान्य होगा यह कोई नहीं जानता। अलबत्ता यह सब जानते हैं कि नक्सलवाद देश के कई राज्यों को गहरे आर्थिक घाव दे रहा है। भारत आतंक से जूझने वाला अपनी तरह का अनोखा देश है। हम अरबों फूंक कर किसी काल्पनिक महायुद्ध के लिए हथियार जुटा रहे हैं जबकि एक परोक्ष युद्ध हमें प्रतिदिन घायल कर रहा है।
 आतंक के असर की आर्थिक बैलेंस शीट, इससे लड़ाई के तरीकों और नतीजों पर गहरे संदेह पैदा करती है। इस लड़ाई में अब तक तो आतंक का ही आतंक रहा है। इस जंग में दुश्मन अदृश्य है। लड़ाई की वजहें पेचीदा हैं। आम लोग निशाना हैं। बस लड़ते जाना है यानी कि जंग खत्म होने का मौका पता नहीं कब आना है। तभी तो हिसाब किताब के माहिर वारेन बफेट ने कहा था कि आतंक से लड़ाई कभी जीती नहीं जा सकती। बात भी सही है ओसामा को निबटाकर जंग खत्म़ कहां हुई है, ओबामा के ड्रोन अब अब्दुल्ला औलाकी की तलाश में यमन पर मिसाइलें न्यो़छावार कर रहे हैं। ... ओसामा और ओबामा की इस जंग में आखिर जीता कौन? .. पता चले तो जरुर बताइयेगा !
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1 comment:

Atul kushwah said...

Dear Sir, Pranam. Very excellent presentation. This article is like coining a new adjective.Regards- Atul Kushwah