Monday, August 8, 2011

घोटालों की रोशनी


घोटालों के कीचड़ के बीच भी क्या हम उम्मीद के कुछ अंखुए तलाश सकते हैं? भ्रष्टाचार के कलंक की आंधी के बीच भी क्या कुछ बनता हुआ मिल सकता है? यह मुमकिन है। जरा गौर से देखिये घोटालों के धुंध के बीच हमारी संवैधानिक संस्थाओं की ताकत लौट रही है। कानूनों की जंग छूट रही है और आजादी के नए पहरुए नए ढंग से अलख जगा रहे हैं। घोटालों के अंधेरे के किनारों से झांकती यह रोशनी बहुत भली लगती है। यह रोशनी सिर्फ लोकतंत्र का सौभाग्य है।
संविधान की सत्ता
डा. अंबेडकर ने संविधान बनाते समय कैग (नियंत्रक व महालेखा परीक्षक) को देश के वित्तीय अनुशासन की रीढ़ कहा था मगर व्यावहारिक सच यही है कि पिछले छह दशक के इतिहास में, कैग एक उबाऊ, आंकड़ाबाज और हिसाबी किताबी संस्थान के तौर पर दर्ज था। ऑडिट रिपोर्ट बोरिंग औपचारिकता थीं और कैग की लंबी ऑडिट टिप्पणियों पर सरकारी विभाग उबासी लेते थे। कारगिल युद्ध के दौरान ताबूत खरीद, विनिवेश पर समीक्षा के कुछ फुटकर उदाहरण छोड़ दिये जाएं तो देश को यह पता भी नहीं था कि कैग के पास इतने पैने दांत हैं। एक ऑडिट एजेंसी को, मंत्रियों को हटवाते (राजा व देवड़ा), प्रधानमंत्री की कुर्सी हिलाते और मुख्यमंत्रियों (सीडब्लूजी) के लिए सांसत बनते हमने कभी नहीं देखा था। कैग अब भ्रष्टाचारियों को सीबीआई
की तरह डराता है। घोटालों की अब कैग जांच की मांग होती है। यह अंबेडकर की उम्मीदों वाले कैग का पुनर्जन्म है। याद नहीं पड़ता कि सुप्रीम कोर्ट इतना ताकतवर पहले कब दिखा था। आपातकाल के कुछ प्रसंगों को छोड़ दें तो न्यायपालिका को लोग सिर्फ देर और अंधेर के लिए याद करते थे। भ्रष्टाचार ने अदालत को उसकी संवैधानिक ताकत लौटा दी है। मंत्रियों को जेल भेजता, जांच एजेसियों लताड़ता, अधिकारियों को हटाता, पीएमओ को सवालों में घेरता, राज्यपालों को संविधान सिखाता और जंग लगे कानूनों को नकारता सुप्रीम कोर्ट, एक शुभ परिदृश्य है। इसकी सक्रियता से चिढऩे वाले सिर्फ डरपोक हैं। लोकायुक्तों के नाम अब सरकारी डायरियों में भी लोकायुक्तों मुश्किल से मिलते हैं। मगर लोकायुक्त की रिपोर्ट जब एक मुख्यमंत्री (येदुरप्पा) को खा जाए और दूसरे मुख्यमंत्री (शीला दीक्षित) की जान की सांसत बन जाए तो हमे मानना चाहिए कि कलंक की कथायें हमें हमारी लोकतांत्रिक संस्थायें वापस लौटा रही हैं। यह सौदा महंगा जरुर है मगर उम्मीद जगाता है।
कानूनों का पुनरुद्धार
अगर ग्रेटर नोएडा के किसान न भड़कते तो सरकारें सौ साल पुराने जंगी कानून के सहारे जमीन लेकर बिल्डरों को बांटती रहतीं। कानूनों में बदलाव हर बदलते देश की जरुरत है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम संकटों के बाद ही सुधार की तरफ बढ़ते हैं। मगर ध्वंस के सहारे ही सही निर्माण तो शुरु हुआ है। आर्थिक सुधारों के शुरुआती दौर के बाद देश में कानूनों की नई पीढ़ी लाने का काम बस्तों में बंद हो गया। इसलिए कहीं कानूनों के तहत लूट हुई तो कहीं लूट को रोकने वाले कानून ही नहीं थे। सुप्रीम कोर्ट में सरकार नहीं बल्कि उसकी विधि व्यवस्था और नीतियों का ढांचा लताड़ खा रहा है। पारदर्शिता से प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन तक और ऊर्जा से लेकर दूरसंचार तक कानूनों व नीतियों की पूरी जमात कठघरे में है और सरकार को अब इन्हें नए सिरे लिखना पड़ेगा। कंपनियों को मनमाने ढंग से स्पेक्ट्रम बांट कर घोटाले गढऩे के बाद अब नए स्पेक्ट्रम कानून की तैयारी शुरु हुई है। आर्थिक पारदर्शिता और कालेधन पर कानूनों की नई पीढ़ी का ख्याल घोटालों की बाढ़ के बाद आया। शिक्षा और चिकित्सा घोटालों के बाद नियामक तंत्र को चुस्त करने की कोशिश शुरु हुई है। सियासत चाहे जो न नुकर करे मगर ताकत दिखाती संवैधानिक संस्थायें सरकारों को कई नए कानूनों व नीतियों पर मजबूर कर देंगी। लोकपाल शायद उनमें से एक होगा। कानून, अराजकता शुरु होने से पहले ही बनने चाहिए मगर कई बार व्यवस्थायें ठोकर खाकर सीखतीं है। हम भी उनमें से एक हैं।
पहरेदारों की ताकत
भ्रष्टाचार की आंधी ने निगहबानी के तरीके बदल दिये हैं। पहरुओं की एक पूरी नई पीढ़ी मैदान में आ जमी है जो कालिख के खेल कर सामने ला रही है और सक्रिय संवैधानिक संस्थाओं का आंख कान बन गई। उड़ीसा के लांजीगढ़ में निजी कंपनी वेदांत की मनमानी पर अदालत का हथौड़ा चलवाने का काम एक स्वयंसेवी संगठन ने किया था, उसके बाद वन्य भूमि पर आदिवासियों के हक से जुड़े कानूनों पुनरोद्धार भी शुरु हुआ। टू जी घोटाले में केंद्रीय मंत्री और कारपोरेट दिग्गजों को जेल पहुंचाने वाली अदालती मुहिम एक स्वयंसेवी संस्था की थी। विकीलीक्स ने दुनिया को सच बताने के एक नए तरीके से परिचित कराया। तरीका इतना बेबाक और असरदार था कि सच के पारंपरिक पहरुओं यानी अखबारों व समाचार चैनलों को अपनी इस नई पीढ़ी को सर पर उठाकर घूमना पड़ा। घोटालों की कालिख, सच बोलने, सुनने के आग्रह बढ़ा रही है और सच बताने के पारंपरिक मॉडल टूट रहे हैं। लोकपाल को लेकर सरकार से जूझते स्वयंसेवी संगठनों की शुरुआती हार पर निराश होने की जरुरत नहीं है यह एक आदर्श जद्दोजहद है जो लंबे समय तक और लगातार चलेगी और चलनी चाहिए।
बदलाव हमेशा गिफ्ट पैक में बंध कर नहीं आते। संकट, अनिश्चिततायें व भ्रम अक्ससर बहुत कीमती तोहफे देकर जाते हैं। बड़े दलों की कमजोरी से उभ्री गठजोड़ की राजनीति ने चुनाव आयोग को स्वतंत्र कर दिया और टी एन शेषन के जरिये चुनाव सुधर गए। नवें दशक के आर्थिक संकट ने हमें दूसरी आजादी यानी आर्थिक सुधार दिये थे। भ्रष्टाचार से घिरी नरसिम्हाराव सरकार बस सिर्फ इन्हीं सुधारों के कारण अविस्मरणीय हो गई है। मनमोहन सिंह की सरकार ने भ्रष्टाचार को पाल पोस कर कैग जैसी संवैधानिक संस्थाओं को नई भूमिका और सुप्रीम कोर्ट की सराहनीय सक्रियता का मौका दिया है। इसमें कोई शक नहीं कि सरकारें संवेदनशील, पारदर्शी, जिम्मेदार और दूरदर्शी होनी चाहिए लेकिन अगर कच्चा माल ही खोटा हो तो आप क्या करेंगे। राजनीतिक सरकारों का कच्चा माल, क्वालिटी बुरी तरह खराब है। जिसे सुधरने में वक्तर लगेगा। ऐसे मौकों पर ही संवैधानिक संस्थाओं की ताकत ही मसीहा बन जाती है। यह ताकत केवल लोकतंत्र की नियामत है। .... किस्मत से हमारे पास भरा पूरा लोकतंत्र है।
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