Monday, September 5, 2011

सोने का क्या होना है ?

सोने के सिक्‍कों का प्रचलन !! फिर से ??... अमेरिका के राज्य यूटॉ ने बीते माह एक कानून पारित कर सोने व चांदी के सिक्‍कों का इस्तेमाल कानूनी तौर पर वैध कर दिया !!! सरकारें यकीनन बदहवास हो चली हैं। मगर हमें बेचैन होने से पहले  दूसरी तस्वीर भी देख लेनी चाहिए। बीते सप्तांह सोना ऐतिहासिक ऊंचाई पर जाने के बाद ऐसा टूटा कि (तीन दिन में 200 डॉलर) कि नया इतिहास बन गया। निवेशक कराहते हुए नुकसान गिनते रह गए।... वित्तींय संकटों के तूफान में सोना अबूझ हो चला है। अनोखी तेजी व गिरावट, मांग व आपूर्ति की पेचीदा गणित और सरकारों की ऊहापोह ने सोने की गति को रोमांचक और रहस्‍यमय बना दिया है। डॉलर, यूरो, येन की साख घटते देख, निवेशक सोने पर दांव लगाये जा रहे हैं  और सोने का उत्पादन तलहटी पर है और यह धातु वर्तमान मौद्रिक प्रणाली फिट भी नहीं होती। इसलिए असमंजस चरम पर है। सोने का इतिहास जोखिम भरा है, भविष्‍य अनिश्चित है मगर संकटों का वर्तमान इसे चमका रहा है। दुनिया में सोना नहीं बल्कि यह सवाल ज्यादा चमक रहा हे कि सोने का अब क्या होना है ??
अतीत की परछाईं
सोने को अतीत की रोशनी में परखना जरुरी है। आधुनिक होती दुनिया सोने से दूरी बढ़ाती चली गई है। पंद्रह अगस्त 1971 को अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने अमेरिकी डॉलर सोने की करीब 2000 वर्ष पुरानी गुलामी से आजाद किया था। अमेरिका में गोल्ड स्टैंडर्ड खत्म होते सरकारों की गारंटी वाली बैंक मुद्रा का जमाना आ गया। गोल्ड स्टैंडर्ड का मतलब था कि कागज की मुद्रा के मूल्य के बराबर सोना लेने की छूट। जबकि इनकी जगह आए बैंकनोट (तकनीकी भाषा में फिएट करेंसी या लीगल टेंडर) सरकारी की गारंटी वाले दस्तावेज हैं, जिनको नकारना गैर कानूनी है। चीन के तांग व सोंग (607 से 1200 ईपू) शासनकालों के दौरान आई नोटों की यह सूझ
बांड, शेयर से होती हुई इलेक्टा्निक मु्द्रा तक फैल गई और वित्ती य तंत्र की सूरत ही बदल गई। यह लाजिमी भी था क्यों कि कारोबार, कर्ज, खर्च, भुगतानों और निवेश की विशालकाय व फैलती व्यवस्था एक जिंस (कमॉडिटी) पर चल नहीं सकती थी। इसलिए 1971 के बाद से 2000 हर जगह सोना मौद्रिक प्रणाली रिटायर होकर जेवरात तक सिमट गया1 यूं तो दुनिया के दस प्रमुख देशों (भारत इनमें शामिल) के भंडारों में करीब 22000 टन सोना अभी भी है, मगर इसका मौद्रिक महत्व अब नगण्य है। 1970 व 1980 में सोने में तेजी के दो उफान और तेल संकटों ( खाड़ी युद्धों) के दौरान सोना खूब चमका मगर इसे लेकर आज इतना असमंजस कभी नहीं था। इसलिए एक दशक पहले बैंक आफ इंगलैंड ने सोना बेचकर इस पीली धातु का जलवा खत्म कर दिया था। अगर यह वित्तीय संकट न आता तो विततीय बाजारों के लिए सोना लगभग सो चुका था।
वर्तमान की बेचैनी
संकटों में सोने का पहले भी चमका हे लेकिन इस बार बात कुछ फर्क है। यूटॉ ( अमेरिकी राज्यल) सोने के सिक्के चला रहा है। अमेरिकी सरकार की आधिकारिक टकसाल चांदी के सिक्को की मांग से परेशान है। अमेरिका के पारंपरिक निवेश फंड जिनमें बीमा व पेंशन कंपनिया शामिल हैं अब सोने में निवेश कर रही हैं। दुनिया के सबसे बडे गोल्ड ईटीएफ (एक्सचेंज ट्रेडेड फंड), एसपीडीआर गोल्डह शेयर्स में निवेश 58 अरब डॉलर से ऊपर है जो कि दुनिया के कई बैंकों के सोने भंडार की कीमत से भी ज्या दा है। सबसे ज्या,दा तो हैरत यह है कि कई बड़े हेज फंड सोने में निवेश कर रहे हैं। यह अनदेखी ‘गोल्ड रश’ है, जिसे कुछ सैद्धांतिक चर्चायें भी हवा दे रही हैं। विश्व बैंक के मुखिया रॉबर्ट जो‍एलिक सुझाव दे चुके हैं कि मुद्रासफीति व अंतरराष्ट्रीय मुद्राओं के मूल्यां।कन में अब सोने को आधार बनाया जाना चाहिए। अर्थात 1971 से पहले गोल्ड् स्टैंडर्ड वाले दौर की वापसी। यह सूझ दरअसल डॉलर, यूरो की गिरावट व कर्ज संकट से निकली है यकीनन डॉलर के अलावा विश्व के पास दूसरी रिजर्व करेंसी नहीं है। जोएलिक के समर्थक कह रहे हैं कि सोने को मुद्राओं के मूल्यांकन का सूचनात्मक आधार तो बनाया ही जा सकता है।
भविष्य् का असमंजस
वैसे विश्व बैंक के मुखिया की सूझ खारिज हो चुकी है क्यों कि सोने की मांग व आपूर्ति का परिदृश्य मौद्रिक प्रणाली में सोने की वापसी के माफिक नहीं है। अब तक निकाला गया सारा सोना दुनिया में मौजूद है, जिसकी कीमत 8000 बि‍लियन डॉलर आंकी जाती है जबकि विश्व कुल विदेशी मुद्रा भंडार (9600 बिलियन डॉलर) के हैं। निजी लोगों के पास उपलब्‍ध सोना सरकारी भंडारों से जयादा है। 2001 के बाद से दुनिया में सोने का खनन लगातार गिरा है। उत्पादन अब अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे देशों से निकल कर अफ्रीका व एशिया के अस्थिर व जोखिम भरे देशों में केंद्रित हो रहा है। बाजार को आपूर्ति सिर्फ जेवरात के सक्रैप से मिल रही है। मौद्रिक प्रणाली सोने से इसलिए परहेज करती हे क्‍यों कि अगर इस धातु की मौद्रिक अहमियत बढ़ी तो इसकी आपूर्ति मांग को पूरा नहीं कर पाएगी। सोने का मानक अपनाते ही सरकारों की नोट छापने की ताकत सीमित हो जाएगी जो कि आर्थिक ग्रोथ को रोकेगी।
 सोना एक मनोवैज्ञानिक सुरक्षा है। सोने का अपना कोई मूल्य, रिटर्न या विनिमय नहीं है। अन्य संपत्तियों की कीमत घटने पर ही इसकी कीमत बढ़ती है। यह हमेशा संकट में चमकता है और यह संकट तो अभूतपूर्व है, इसलिए चमक बेजोड़ है। कागजी नोटों की गारंटी देने वाली सरकारों के बदहाल साख के कारण सोने के भविष्य की बहस निवेश से निकल कर नीतियों तक आ गई है। मगर हकीकत यह है कि तमाम दीवानगी के बावजूद सोना विश्व के कुल पूंजी निवेश में दो फीसदी से भी कम का हिस्सेददार है। वित्तीय कारोबार की दुनिया सोने को बहुत पीछे छोड़ आई है। विश्व का विशालकाय मौद्रिक तंत्र अब चाहकर भी इस पीली धातु की तरफ नहीं लौट सकता। इसलिए दुनिया को ताजे संकट का हल सोना नाम की इस आदिम विरासत (बारबेरिक रेलिक- बकौल जॉन मेनार्ड केंज) में नहीं बल्कि अपनी आधुनिक सूझ से निकालना होगा। रही बाजार की तो वहां जोखिम भरी तेजी सुलग रही है। बुलबुला कभी भी फूट सकता है। सोने के खेल में अब हाथ क्या कंधे तक जलने का खतरा है।
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