Monday, December 19, 2011

सुधारों की समाधि

मंदी से जूझने की तैयारी कर रहे हैं न, भारत के आर्थिक सुधारों की समाधि पर दो फूल चढा दीजिये, शांति मिलेगी। अब हम दुनिया की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्‍यवस्‍था नहीं बल्कि सबसे तेजी से गिरती अर्थव्‍यवस्‍था हैं। सिर्फ तीन माह में भारत का औद्योगिक उत्‍पादन सर के बल जमीन में उलटा धंस गया है। है कोई दुनिया की उभरती अर्थव्‍यवस्‍था जो इतनी तेज गिरावट में हमसे मुकाबला कर सके। हमारे पास ग्रोथ में गिरावट, घरेलू मुद्रा का टूटना और महंगाई तीनों एक साथ मौजूद हैं। इस आर्थिक सत्‍यानाश के लिए ग्रीस, इटली (संप्रभु कर्ज संकट) या अमेरिका (रेटिंग में गिरावट) को मत कोसिये। हम पर कर्ज का पहाड़ नहीं लदा था, कोई बैंक नहीं डूबा, बाढ़, भूकंप नहीं फट पड़े, सरकारें नहीं गिरीं। हमारी मुसीबतों की महागाथा तो आर्थिक सुधारों के शून्‍य, बहुमत वाली लुंज पुंज सरकार और अप्रतिम भ्रष्‍टाचार ने लिखी है। पिछले दो साल में भारत के आर्थिक सुधारों को भयानक लकवा लगा है इसलिए जरा मौसम बिगड़ते ही पूरी अर्थव्‍यव्‍स्‍था कई पहिये एक साथ रुकने लगे। दुर्भाग्‍य देखिये कि 2011 भारत के आर्थिक सुधारों का बीसवां बरस था और सुधारों के सूत्रधार ही गद्दीनशीन थे मगर उनके निजाम ने ही ग्रोथ के पांव काट कर उसे अपाहिज बना दिया।
उम्‍मीदों का गर्भपात  
ग्रोथ तो पिछली छह तिमाही से तिल तिल कर मर रही है, कोई देखे तब न। संसद स्‍थायी शूनयकाल में है और मनमोहन सरकार दो साल से आर्थिक सुधारों का शोक गीत गा रही है। इस सरकार के पांच आर्थिक सुधार गिनाना मुश्किल है अलबत्‍ता सुधारों के गर्भपात की सूची आनन फानन में बन सकती है। कुछ बड़ी दुर्घटनायें इस प्रकार

हैं। - - सरकार ने कभी एक मैन्‍युफैक्‍चरिंग पॉलिसी बनाई थी। इरादा नेक था, कयों कि देशी कारखानों की सप्‍लाई लाइन चीन के पास पहुंच चुकी है और नए रोजगारों का जुगाड़ जरुरी था। लेकिन सरकार के सहयोगियों ने इस नीति की गर्दन मरोड़कर उसे फाइलों में दफना दिया और उद्योग की उम्‍मीदों का आधा दम निकल गया। बीमा और बैकिंग क्षेत्र में सुधारों के नए दौर की फाइल ही नहीं खुली उलटे संसदीय समितियों ने ताजी रिपोर्टों ने उम्‍मीदों की गर्दन मरोड दी। राहुल गांधी चाहते थे, तो भूमि अधिग्रहण कानून का मसौदा तुरत फुरत बन गया। लेकिन राहुल अपनी आदत के मुताबिक मुद्दा छेड़कर उससे कट लिये तो सरकार ने भी संसदीय समिति को मसौदा थमाकर छुट्टी पा ली। इससे साथ पुनर्वास नीति भी लटक गई। जब यही पता नहीं कि जमीन लेने का कानून कैसा होगा तो जब यही पता नहीं कि कारखाना, सड़क पुल और मकान बनाने में निवेश कौन करेगा? दूरसंचार घोटाले के कारण नई स्‍पेक्‍ट्रम नीति और कानून की फाइल खुली थी मगर जब लगा कि घोटाले से जान नहीं बचनी तो सिब्‍बल साहब स्‍पेक्‍ट्रम छोड़ गूगल फेसबुक को कानून पढ़ाने लगे। नाभिकीय ऊर्जा के लिए प्रधानमंत्री का सपना कुडनकुलम और जैतापुर में दम तोड़ रहा है। रिटेल में विदेशी निवेश खोलना और फिर पीछे हटना सुधारों के शोक गीत का अंतिम छंद था। यूपीए दो की सरकार अब तक की सबसे बड़ी सुधार शून्‍य सरकार बन गई है।
संकटों का सूत्रपात
सुधारों की अनुपस्थिति और फैसलों में सुस्‍ती संकट की जमीन तैयार करती है। भारत के कई क्षेत्र संकट की तरफ बढ़ चले हैं और पिछले एक दशक की सभी सफल कथायें त्रासदी में बदल रही हैं। दूरसंचार क्रांति के बाद यह पहला मौका है जब पिछले तीन महीनों में टेलीकॉम कंपनियों के नए ग्राहकों की संख्‍या में कोई बढ़ोत्‍तरी नहीं हुई अलबत्‍ता मोबाइल सेवा की दरें बढने लगी हैं। थ्रीजी क्रांति का उद्घाटन एक घोटाले (रोमिंग) ने किया है। उड्डयन क्षेत्र में सफलता को हड़तालों, महंगे ईंधन और एयर इंडिया के कुप्रबंधन ने दागी कर दिया। मगर सरकार इस मंत्रालय के जरिये चुनावी सौदे (अजित सिंह को उड्डयन मंत्रालय) कर रही है। ऊर्जा क्षेत्र सुधारों का कसार्इखाना है। पिछले बीस साल में बिजली की हालत नहीं सुधरी। उपभोक्‍ता व उद्योग दोनों डीजल फूंक कर तमाशा देख रहे हैं। कोयला, नाभिकीय ऊर्जा, ताप और पनबिजली सभी में एक साथ खतरे के बल्‍ब जल रहे हैं। दो लाख करोड़ घाटे में दबे राज्‍य बिजली बोर्ड अब कई बैंकों को बर्बाद करने वाले हैं जिनसे उन्‍होंने कर्ज ले रखा है। बैंकों में फंसे हुए कर्जों (एनपीए) का संकट गहरा रहा है, ब्‍याज दरें उपभोक्‍ताओं को करंट मार रही हैं और बैंकों के मार्जिन घट रहे हैं। सरकार के पास बैंकों उन्‍हें उबारने के लिए पूंजी भी नहीं है। बैंकिग, दूरसंचार, भवन निर्माण और रिटेल नए रोजागरों के सबसे बड़े स्रोत हैं लेकिन सबमें एक साथ डरावना सन्‍नाटा पसर गया है। खेती शुरु से सरकार नीतियों वरीयता पर है नहीं इसलिए खाद्य उत्‍पादों की महंगाई भारत खेतों की सबसे बड़ी पैदावार है।
चुनाव की बात
सरकार और विपक्ष को अंदाज नहीं हो होगा कि मंदी के बीच मधयावधि चुनाव की बात सुनकर अर्थव्‍यवस्‍था का दिल किस तरह बैठ जाता है। पिछले दो साल में इस देश में केवल सियासत हुई है। संसद बंद रही है और भ्रष्‍टाचार के कीर्तिमानी प्रकरणों से सरकार की साख मिट्टी में मिल गई है। हम अनोखे देश हैं जहां देश के प्रधानमंत्री को यह बताना (उद्योगपतियों कानूनविदों की सरकार को चिट्टी) पड़ा कि, महोदय, सरकार नजर नहीं आती। हालात सुधरने को लेकर वित्‍त मंत्री दिलासा सौ फीसदी खोखला है। ग्रोथ में यह गिरावट और नीतियों का यह शून्‍य अगले तीन साल तक खत्‍म नहीं होने वाला, क्‍यों कि केंद्र से लेकर राजयों तक केवल सियासत होगी, सुधारों की फिक्र कौन करेगा। 2012 से लेकर 2014 तक भारत में सिर्फ चुनाव ( एक दर्जन प्रमुख राजयों और फिर लोकसभा) होने हैं। इस बीच अगर मध्‍यावधि की नौबत आ गई तो फिर क्‍या कहना। बदकिस्‍मती से मंदी ने हमें उस समय पकड़ा जब चुनाव का कैलेंडर का खुलने वाला है इसलिए गवर्नेंस का घाटा और नीतियों का शून्‍य बढ़ता जाएगा।
  भारत की ग्रोथ का सफर 1991 में नहीं 2003 में शुरु हुआ था। इक्‍यानवे से लेकर 2000 तक सुधारों की जो खुराक अर्थव्‍यवस्‍था को मिली , उसके बूते हम करीब आठ साल तक चल गए। इस ईंधन का चुकना और दुनिया की आबोहवा का बिगड़ना एक साथ हुआ, इसलिए गाड़ी चिचियाकर अचानक रुक गई। उदारीकरण के साथ फला फूला भ्रष्‍टाचार भी इसी दौरान उभर आया और हर क्षेत्र में घोटालों ने हमारों सफलताओं को शर्मिंदगी से भर दिया। अब हमारे पास एक बिखरी, बदहवास और साख शून्‍य सरकार है जिसे दूर का नहीं सूझता और विपक्ष को विघ्‍न में मजा आता है। इसलिए जो न हो जाए सो कम है। हमारे रहनुमाओं ने हमें ग्रोथ के शिखर से उतार कर मंदी के चौराहे पर खड़ा कर दिया है। जब तक वे जागेंगे तक तक हम बहुत कुछ गंवा चुके होंगे।
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