Monday, June 25, 2012

मुसीबतों का पॉवर हाउस



नियति के देवता ने अमेरिका व यूरोप की किस्मत में शायद जब अमीरी के साथ कर्ज लिखा था या अफ्रीका को खनिजों के खजाने के साथ अराजकता की विपत्ति भी बख्शी थी तो ठीक उसी समय भारत की किस्मत में भी उद्यमिता के साथ ऊर्जा संकट दर्ज हो गया था। अचरज है कि पिछले दो दशक भारत के सभी प्रमुख आर्थिक भूकंपों का केंद्र ईंधन और बिजली की कमी में मिलता है।  मसलन , महंगाई की जड़ में  महंगी (पेट्रो उत्पाद व बिजली)  ऊर्जा!, रुपये की तबाही की पीछे भारी ऊर्जा (पेट्रो कोयलाआयात ! बजटों की मुसीबत की वजह बिजली बोर्डों के घाटे!, बैंकों के संकट का कारण बिजली कंपनियों की देनदारी ! पर्यावरण के मरण की जिम्मेदार डीजली बिजली और अंततऊर्जा की किल्लत की वजह से ग्रोथ की कुर्बानी!....  ऊर्जा संकट का बड़ा  खतरनाक भंवर अर्थव्यवस्था की सभी ताकतों को एक एक कर निगल रहा है। और कारणों की छोडि़ये, हम तो अब तो  लक्षणों का इलाज भी नहीं कर पा रहे हैं।
कितने शिकार
2016 में कच्चा तेल ही नहीं बल्कि कोयले की दुनियावी कीमत बढ़ने पर भी हमारा दिल बैठने लगेगा। बारहवी पंचवर्षीय योजना का मसौदा व ताजा आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि चार साल बाद भारत (246 अरब टन के घरेलू भंडार के बावजूदअपनी जरुरत का एक चौथाई (करीब 23 फीसद) कोयला आयात करेगा। तब तक 80 फीसद तेल और 28 फीसद गैस की जरुरत के लिए विदेश पर निर्भर हो चुके होंगे। इस कदर आयात के बाद रुपये के मजबूत होने का मुगालता पालना बेकार है। महंगाई का ताजा जिद्दी दौर भी बिजली कमी की पीठ
पर सवार है। हालिया दो साल में बिजलीपेट्रोल की कीमतें सबसे ज्‍यादा बढ़ी और  महंगाई के थोक मूल्य सूचकांक में ईंधन का हिस्सा पिछले एक साल में 19 से बढ़कर 23 फीसद हो गया। इसमें पेट्रो उत्‍पाद  ही नहींकोयला और बिजली की बेतहाशा महंगाई शामिल है। आयात पर निर्भरता के कारण ईंधन व बिजली की महंगाई पर अब हमारा नियंत्रण नहीं रहा है। राज्यों के बजटों पर भी बिजली गिरी है जो पलटकर बैंकों को मार रही है। बिजली क्षेत्र पर सरकारी रिपोर्टें कहती हैं कि करीब एक लाख करोड़ रुपये घाटे पर बैठी राज्‍यों की बिजली कंपनियां (ताजा आंकड़ों में)  80,000 करोड़ रुपये के बैंक कर्ज में डूबी हैं। बिजली बोर्डों के डिफॉल्ट होने का खतरा पुख्ता है इसलिए बैंक कर्ज देने से तौबा कर चुके हैं। डीजली बिजली से आबो हवा को नुकसान किसी आंकड़े का मोहताज नहीं है। एक उदाहरण काफी है कि इसी अप्रैल में तमिलनाडु में जब बिजली की कमी करीब 24 फीसदी थी तो वहां डीजल की बिक्री 28 फीसदी (पेट्रो प्‍लानिंग सेल-पेट्रोलियम मंत्रालय ) बढ़ गई। लेकिन इतना सब गंवाने के बावजूद 15 से 17000 मेगावाट की बिजली की मासिक किल्‍लत कायम है और आर्थिक विकास को खा रही है।
नीम अंधेरा
सत्रह माह में दूसरा मौका हैजब बिजली घरों के पास चार दिन का कोयला बचा  और 5000 मेगावाट उत्पादन ठप होने की नौबत आ गई। पिछले साल फरवरी में भी 18 बिजली घरों का यही हाल था। मगर इस घोर संकट के बाद भी प्रधानमंत्री बीते सप्ताह की बैठक में कोल इंडिया को कोयले का उत्पादन बढ़ाने पर राजी नहीं कर सके। नकदी में देश की सबसे अमीर कंपनी (54980 करोड रुपये) कोल इं‍डिया बीते बरस 39 करोड़ टन के लक्ष्‍य के मुकाबले केवल 36 करोड़ टन कोयला निकाल पाई, नतीजतन 42000 मेगावाट की तैयार परियोजनायें कोयले की कमी के कारण उत्‍पादन शुरु नहीं कर पातीं। कोयले की किल्‍लत के कारण ताप बिजली घरों की उतपादन क्षमता (प्‍लांट लोड फैक्‍टर) 79 फीसद से घटकर 74 फीसद रह गई है। कोयला उत्‍पादन बढ़ाने की राह में पर्यावरण मंत्रालय तनकर खड़ा हो गया, खदाने बंद हो गईं और छह करोड़ टन कोयला उत्‍पादन की उम्‍मीद दफन हो गई। अब अगर कोयला आयात हो तो रुपया भुगतेगा और बिजली न बने तो जनता। इस सबके बावजूद कोई कंपनी विदेश से कोयला लाकर बिजली बनाना चाहते तो उसे निरंतर घाटे के लिए तैयार रहना होगा। बिजली की कीमतें सियासतपरस्‍त हैं। प्रत्‍येक बिजली कंपनी 80 पैसे से 1.93 रुपये प्रति यूनिट का नुकसान उठाती है। एनटीपीसी का हाल नहीं सुना आपने!. देश सबसे बड़ी बिजली कंपनी का मुनाफा 2010-11 में केवल एक फीसदी बिजली क्षेत्र में पहले उत्‍पादन क्षमताओं में निवेश की कमी थी, जब निवेश आया तो कोयले की कमी पड़ गई। इसलिए देश में बिजली उत्‍पादन क्षमता बढ़ाने की मंजिल कभी नहीं मिलती। इस मार्च में निबटी ग्‍याहरवीं योजना में 78,700 मेगावाट की उत्‍पादन क्षमता जुड़नी थीबीच योजना में लक्ष्‍य घटाकर 62,374 मेगावाट किया गया है अंतत: केवल 46000 मेगावाट की क्षमता तैयार हो सकी। अब जिसे जरुरत होगी वह सस्‍ते डीजल से जनरेटर दौड़ायेगा। यही वजह है कि पिछले एक दशक की ग्रोथ का बहुत बड़ा हिस्‍सा इसी डीजली बिजली से आया है। और डीजल तो सस्‍ता ही रहेगा क्‍यों कि प्रणव मुखर्जी के राष्‍ट्रपति भवन  में विराजने के बाद भी कई चुनाव आने हैं। दरअसल भारत में पेट्रो उत्‍पादों की मांग मे कमी और बिजली की आपूर्ति में बढ़ोत्‍तरी की जरुरत है। मगर ऊर्जा क्षेत्र में नीतियों का तमाशा देखिये कि डीजल व डीजल की कारों की कीमत कम और बिजली की कमी बनाये रख कर पेट्रो उत्‍पादों की मांग बढ़ाई जाती है जबकि बिजली की मांग को घटाने के लिए शाम को  बाजार बंद (उत्‍तर प्रदेश) कराने जैसे अहमक फैसले होते हैं।
  कुछ नीतियां या क्षेत्र का शायद बुनियादी रुप से बदकिस्‍मत होते हैं। भारत में ऊर्जा क्षेत्र शायद अकेला नमूना है जहां सब्सिडीसियासतपरस्‍त नीतियांनौकरशाहीभ्रष्टाचारसार्वजनिक उपक्रमों का एकाधिकार आदि सभी पुराने आर्थिक धतकरम बेखटके धमाचौकड़ी करते हैं। पेट्रो कीमत और बिजली सुधारों की शुरुआत को दो दशक बीत रहे है मगर सारी मुसीबतें की जस की तस है। भरोसा करना मुश्किल है कि दुनिया की आर्थिक ताकतों में शुमार होने को बेताब एक मुल्‍क सिर्फ ऊर्जा नी‍तियों की विफलता के कारण विदेशी मुद्रा की कमी और महंगाई से लेकर बैंकों के कर्ज तक, इतने बहुआयामी संकट पाल रहा है। उद्यमिता के धनी भारत को बड़ा बनने के लिए बहुत बड़े सुधारों की जरुरत नही हैं और डूबने के लिए बहुत जटिल संकट भी नहीं चाहिए। सिर्फ चौबीस घंटे की बिजली हमें तरक्‍की की रोशनी दे सकती है और ऊर्जा की किल्‍लत का नीम अंधेरा हमें किसी भी सीमा तक डुबा सकता है। कहीं इतिहास यह न लिखे कि डेढ अरब की आबादी के मुल्‍क की आर्थिक सुरक्षा सिर्फ इसलिए जोखिम में पड़ गई कि उसके पास बिजली नहीं थी ??




1 comment:

raghav said...

Millions of tonnes of coal illegally exported by the coal mafia's of goa, karnataka, orrisa, jharkhand and assam. If this production was used for compensating the deficit power supply we could have averted this kind of crisis by atleast a few years. Still i believe that the answer to such problems lay in non-conventional energy resources that needs lots of research by the IITs and DRDOs and the NTPCs etc which the india inc is least bothered about. It was an amazing insight into how power crisis is the epicentre for all the economic issues.