यह बजट आर्थिक विकास के उस मॉडल को आंकडा़शुदा श्रद्धांजलि है जिसने भारत का एक दशक बर्बाद कर दिया।
खेद प्रगट का करने
इससे भव्य तरीका और क्या हो सकता है कि एक पूरे बजट को ‘वी आर सॉरी’ का आयोजन में बदल
दिया जाए। यूपीए का दसवां बजट पछतावे की परियोजना है। यह बजट आर्थिक विकास के उस
मॉडल को आंकडा़शुदा श्रद्धांजलि है जिसने भारत का एक दशक बर्बाद कर दिया।
प्रायश्चित तो मौन व सर झुकाकर होते हैं और इसलिए बजट से कोई उत्साह आवंटित नहीं
हुआ। चिदंबरम खुल कर जो नहीं कह सके उसे आंकडों के जरिये बताया गया। यह बजट पिछले
एक दशक के ज्यादातर लोकलुभावन प्रयोगों को अलविदा कह रहा है। वह स्कीमें जिन्हें
यूपीए कभी गेम चेंजर मानती थी अंतत: जिनके कारण ग्रोथ व वित्तीय संतुलन का घोंसला
उजड़ गया।
रिचर्ड बाख ने लिखा
है कि किसी के पास कुछ भी करने की ताकत हो सकती है लेकिन यथार्थ को बनाना और मिटाना
संभव नहीं है। सरकारें चाहे कितनी ही ताकतवर व हठी क्यों न हों सच बनाने व मिटाने
की क्षमता उनके पास भी नहीं है। इसलिए लाख चुनाव सर पर टंगा हो मगर चिदंबरम झूठा
बजट पेश नहीं कर सके। इस बजट में मनरेगा मंत्र नहीं जपा गया, भारत निर्माण गुम हो
गया, राजीव इंदिरा मिशन व अभियान आंकडों में छिप गए। नई नवेली गेम चेंजर यानी कैश
सबिसडी और खाद्य सुरक्षा भी आई गई हो गई। ऐसा सब इसलिए हुआ क्यों कि इन्क्लूसिव
ग्रोथ की असफलता का सच ढंकने के लिए आंकडों की चादर तक नहीं बची थी।
भारी खर्च वाली लोकलुभावन
स्कीमें यूपीए के आर्थिक विकास के मॉडल का आधार थीं। इस बजट के आंकडे इस मॉडल से
पीछा छुड़ाने की जद्दोजहद बयान करते हैं और सरकार की गलती का स्वीकार बखानते हैं।
इन्हीं आंकड़ों सहारे चिदंबरम की पछतावा परियोजना कुछ भरोसेमंद भी हो सकी है। इस
वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे को बजट
जीडीपी के अनुपात में 5.2 फीसदी पर रोकना करिश्मे से कम नहीं है। यह काम चिदंबरम
ने बड़ी निर्ममता के साथ किया है । इस वित्त वर्ष में सरकार के विकास खर्च यानी योजना व्यय में 17.8
फीसदी की कटौती हुई जो हाल के वर्षों में अप्रत्याशित है और चुनाव की तरफ जाती
सरकार के लिए तो अनोखी ही कही जाएगी। सरकार की नूरे नजर मनरेगा ने करीब 4000 करोड़
रुपये ‘बचाये’ जबकि प्रधानमंत्री
ग्राम सड़क योजना 12000 करोड़ रुपये बचा लाई। इंदिरा आवास योजना ने लगभग 1800 करोड
की बचत की और सर्व शिक्षा अभियान ने 1000 करोड़ रुपये की कंजूसी दिखाई। दरअसल प्रणव
मुखर्जी के नॉर्थ ब्लॉक से विदा होने के बाद चिदंबरम ने सरकार के इन्क्लूसिव
ग्रोथ बजट को बेरहमी से काट डाला। इससे जो बचत निकली उसकी रोशनी में ही बजट के
आंकडों की साख बन पाई है।
नए वित्त वर्ष में
वित्त मंत्री और बेरहम होंगे। चिदंबरम ने अगले साल घाटे में जोरदार कटौती आंकी
है। बजट में राजस्व के आकलन दिखावा हैं क्यों कि मंदी के दौर में राजस्व बढ़ने
की उम्मीद किसे है। चिदंबरम की पूरी गणित खर्च में भारी कटौती पर टिकी है। यूपीए
राज की सभी चमकदार स्कीमों को पिछले साल के बराबर या कम पैसा मिला है, जिसमें आगे
और कटौती होगी। सबिसडी का बिल कुछ राहत देगा क्यों कि डीजल अब बाजार के हवाले है।
चिदंबरम का हिसाबी बजट कहता है कि कांग्रेस जब अपना घोषणापत्र लिख रही होगी तब
उसके गेम चेंजर प्रयोग दरअसल अंतिम सांसे गिन रहे होंगे।
भारी खर्च वाली स्कीमों
का मॉडल तर्कसंगत सूझ से नहीं बलिक पूर्वाग्रह से उपजा था। बजट के आंकडे गवाह हैं
कि सरकार का तंत्र पैसे खर्च करने में भी सक्षम नहीं है। सर्व शिक्षा अभियान में
केंद्र व राज्य का संयुक्त बजट पिछले तीन साल में 21000 करोड़ रुपये से 60,000 करोड
रुपये हो गया लेकिन ताजा हालत यह है कि इसका 60 फीसदी भी खर्च नहीं हो पाया है। इन
स्कीमों ने देश के संघीय वित्तीय ढांचे को भी बर्बाद कर दिया। राज्यों को हाशिये पर फेंक कर सीधे
पंचायतों व स्वयंसेवी संस्थाओं को आवंटन की नीति ने राज्य सरकारों को सामाजिक विकास के केंद्रीय मॉडल का विरोधी बना
दिया। स्कीमों खर्च के ऑडिट व मूल्यांकन की भरोसमंद व्यवस्था नहीं थी इसलिए
इन्क्लूसिव ग्रोथ अंतत: लूट की ग्रोथ में बदल गई।
यह भी एक संयोग ही है
कि भारत की राजकोषीय फिसलन की शुरुआत 2004-05 में चिदंबरम के बजट से हुई थी, जब
उन्होंने घाटा कम करने के लक्ष्य यूपीए एक के आखिरी बजट तक बढ़ा दिये। लेकिन कर्ज माफी से लंदा फंदा यूपीए एक का आखिरी
यानी 2008-09 का बजट तो राजकोषीय संतुलन के लिए काला बजट साबित हुआ। प्रणव मुखर्जी के
बजटों ने इस मुसीबत को बढ़ने से नहीं रोगा और अंतत: यूपीए के दस बजटों ने सब कुछ
अस्त व्यस्त कर दिया। चिदंबरम इने बजट में उन्हीं दागों को धोने की कोशिश की है।
भारत व ग्रीस में
बड़ी समानता है। दोनों देशों ने दुनिया को दिखाया है कि सरकारें तबाही भी ला सकती
हैं। भारत व ग्रीस को उनकी सरकारों ने वित्तीय धतकरमों और भ्रष्टाचार ने बर्बाद
किया। फर्क सिर्फ इतना है कि ग्रीस छोटा है और वित्तीय बाजार पूरी तरह खुला है
इसलिए दीवालिया हो गया। हम बडे हैं और
वित्तीय बाजार सीमित से रुप से खुला है इसलिए पूरी तरह डूबे नहीं। ग्लोबल साख के
मामले में भारत ग्रीस से सिर्फ एक दर्जा ऊपर है। एक अमेरिकी पत्रिका के मजाकिया पात्र केल्विन थ्रूप ने ठीक ही कहा था
कि अगर आम लोग सरकारों जैसा काम करें तो उनहें जेल में बंद कर दिया जाएगा।
चिदंबरम तो एक
पछतावा बजट पेश कर मुक्त हो गए लेकिन एक उभरती ग्लोबल ताकत अपने बेशकीमती दस साल
गंवा कर लगभग वहीं खड़ी है जहां वह 1991 में थी। भारत को विकास के लक्ष्य बदलने व
घटाने होंगे और अपने सपनों को काटना छांटना होगा कि क्यों कि 120 करोड़ लोगों के
मुल्क का नया सफर दरअसल उस तलहटी से शुरु हो रहा है जहां विकास दर केवल 4.5 फीसदी
है। आर्थिक महाशक्ति बनने की मंजिल से दूरी अब दोगुनी हो गई है।
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5 comments:
AS usual toooo gud
Sir, what is "post export EPCG Scheme" and how is it different from the EPCG scheme ?
Regards,
Sansar Lochan
thanks Smita
Dear Lochan
Post export EPCG
Scheme gives the exporters a choice to import or locally procure capital goods (CG) on duty payment and claim the duty back (the portion not taken as Cenvat credit), as and when exports take place, by way of transferable duty credits that can be used for payment of customs duty on imported goods or excise duty on locally procured goods.
while EPCG
allows exporters to import machinery and equipment at affordable prices so that they can produce quality products for the export market.The facility is available against the commitment or obligation of Export.
Thank you so much Sir.
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