Monday, July 22, 2013

जोखिम का जखीरा


बेसिर पैर नीतियों, रुपये की कमजोरी, किस्‍म किस्‍म के घोटालों और कंपनियों की ऐतिहा‍सिक भूलें अर्थात 2008 के बाद के सभी धतकरमों का ठीकरा बैंकों के सर फूटने वाला है।
बैंकों को अर्थव्‍यवस्‍था का आईना कहना पुरानी बात है, नई इकोनॉमी में बैंक किसी देश की आर्थिक भूलों का दर्दनाक प्रायश्चित होते हैं फिर बात चाहे अमेरिका हो, यूरोप हो या कि भारत की। अलबत्‍ता भारतीय बैंकों को तबाह होने के लिए पश्चिम की तर्ज पर वित्‍तीय बाजार की आग में कूदने करने की जरुरत ही नहीं है, यहां तो बैंक अपने बुनियादी काम यानी कर्ज बांटकर ही मरणासन्‍न्‍ा हो जाते हैं, वित्‍तीय बाजार के रोमांच की नौबत ही नहीं आती। भारतीय बैंक निजी व सरकारी उपक्रमों को मोटे कर्ज देकर गर्दन फंसाते हैं और फिर बकाये का भुगतान टाल कर शहीद बन जाते हैं। बर्बादी की यह अदा भारतीय बैंकिंग का बौद्धिक संपदा अधिकार है। भारतीय बैंक अब जोखिम का जखीरा हैं जिन के खातों में बकाया कर्जों का भारी बारुद जमा है।  बैंकों बचाने की जद्दोजहद जल्‍द ही शुरु होने वाली है। खाद्य सुरक्षा के साथ बैंक सुरक्षा का बिल भी जनता को पकड़ाया जाएगा।
भारत में बैंक कर्ज वितरण की दर जीडीपी की दोगुनी रही है। अधिकांश ग्रोथ बैंकों के कर्ज से निकली है, इसलिए सरकारी व निजी क्षेत्र के सभी पाप बैंकों के खातों में दर्ज हैं। जैसे अमेरिकी बैंकों ने डूबने के लिए पेचीदा वित्‍तीय उपकरण चुने थे या यूरोपीय बैंक सरकारों को कर्जदान के जरिये वीरगति को प्राप्‍त हुए थी भारत में यही हाल कारपोरेट डेट रिस्‍क्‍ट्रचरिंग (सीडीआर) का है जो अब देशी बैंकिंग उद्योग की सबसे
बड़ी दरार है। इस प्रणाली के तहत वक्‍त पर कर्ज देनदारी कठिन होने की हालत में कुछ अतिरिक्‍त ब्‍याज पर कर्ज वसूली आगे लिए टाल दी जाती है। भारत में कर्ज भुगतान टालने की शुरुआत 2008 में बिल्‍डरों से हुई थी। मंदी के पैर जमते ही दूसरी दिग्‍गज कंपनियों ने भी देनदारी टालने यानी कर्ज पुनर्गठन का दबाव बनाना शुरु कर दिया। बड़ी कंपनियो के बड़े रसूख के आगे बैंक भीगी बिल्‍ली बन जाते हैं इसलिए कारपोरेट कर्जों की वसूली टालने के रिकार्ड बन रहे हैं। सीडीआर की प्रणाली के तहत इस जून तक लगभग 2.5 खरब रुपये के कंपनी कर्जों का पुनर्गठन हो चुका है। इसके अलावा करीब 1.7 खरब रुपये के कर्जों की देनदारी बैंकों व कर्जदाताओं के बीच सीधे समझौतों के आधार पर टाली गई है। इस काम में धातु, भवन निर्माण, अचल संपत्ति, बिजली, दूरसंचार कंपनियां सबसे आगे हैं लेकिन सीडीआर की सुविधा के 400 बड़ी निजी कंपनियों और सरकारी उपक्रमों तक सीमित है। बैंक देनदारी का पुनर्गठन सबको सुलभ नहीं है इसलिए फंसे हुए कर्ज (एनपीए) बढ़ते जा रहे हैं। शेयर बाजार में सूचीबद्ध 40 बैंको के  एनपीए 1.8 खरब रुपये के रिकार्ड स्‍तर पर हैं जो पिछले साल से 36 फीसद ज्‍यादा है।
रिजर्व बैंक ने ताजी फाइनेंशियल स्‍टे‍बिलिटी रिपोर्ट में बैंकों का संकट बढ़ने की आशंका को दोहराया है जबकि अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष भारतीय बैंकों पर खतरे का ढोल पूरी दुनिया में पीट रहा है क्‍यों कि  बकाया कर्जों का पुनर्गठन ही समस्‍या नही हैं, कर्ज संपत्तियों की क्‍वालिटी भी बुरी तरह खराब है। तमाम कर्जों के पीछे पर्याप्‍त जमानत नहीं है। कंपनियों को मनमाने आकलन पर कर्ज दे दिये गये हैं अथवा पिछले बकाये के बावजूद नए कर्ज बांटे गए हैं। यही वजह है कि रिजर्व बैंक ने कारपोरेट देनदारी के पुनर्गठन के लिए शर्तें कड़ी कर दीं। बैंको को अब भुगतान टालने के बदले ज्‍यादा पूंजी सुरक्षित रखनी होगी और 2015 के बाद पुनर्गठित कर्ज फंसे हुए कर्ज (एनपीए) की श्रेणी में चले जाएंगे। रिजर्व बैंक की इस सख्‍ती से बैंकों की समस्‍या दोगुनी हो गई। अब उन्हें नई पूंजी जुगाड़नी होगी और पुनर्गठन सीमित होने फंसे हुए कर्ज की गठरी भारी होती जाएगी। कर्ज पुनर्गठन के मामले में स्‍टेट बैंक, पंजाब नेशनल बैंक सहित दस सबसे बड़े बैंकों के ताजा वित्‍तीय नतीजे, इनकी मुसीबतों का ऐलान हैं। सरकारी बैंकों की हालत ज्‍यादा बुरी है लेकिन कर्ज के मामले में अब निजी बैंकों की बैलेंस शीट भी घायल हो रही हैं। वित्‍तीय रे‍टिंग फर्म फिच मानती है कि अगले दो साल में 1.26 खरब रुपये के कर्जों का पुनर्गठन और करना होगा, इसलिए बैंकों लेकर हर तरफ खतरे के बल्‍ब जल उठ हैं।
बैंक अर्थव्‍यवस्‍था की सबसे कमजोर नस इसलिए हैं क्‍यों कि तीन चार साल की मंदी, महंगाई व गिरते रुपये ने बैंकों के हर हिस्‍से को घायल किया है। मंदी, घाटे व रुपये में कमजोरी  के कारण कंपनियों के बकाया कर्ज बढ़े तो दूसरी तरफ ब्‍याज दर बढ़ने से कर्ज की मांग घट गई।  महंगाई के कारण बैंक डिपॉजिट पर रिटर्न घट गया जिससे जमा भी टूट रहा है। इस बीच सरकारें खर्च चलाने के लिए बैंकों के उधार पर ज्‍यादा निर्भर हो गई हैं। अब बैंको के मुनाफे ठप हैं, कर्ज फंस रहे हैं, जमा घट रहा है और जो पूंजी उपलब्‍ध है वह सरकारी बांडो में जा रही है। भारतीय बैंकों को नए अंतरराष्‍ट्रीय नियमों (बेसल थ्री) के तहत 2018 तक करीब 16 अरब डॉलर की पूंजी जुटानी है जो इस बहुत बड़ी चुनौती है। यही वजह है शेयर बाजार  में निवेशक भारतीय बैंकों से कन्नी काट रहे हैं।   
2008 के बाद के सभी धतकरमों अर्थात बेसिर पैर नीतियों, रुपये की कमजोरी, किस्‍म किस्‍म के घोटालों और कंपनियों की ऐतिहा‍सिक भूलों का ठीकरा बैंकों के सर फूटने वाला है। बैंकों की बदहाली बता रही हैं कि साल बीतने तक देश में विदेशी निवेश आए या नहीं लोगों को सस्‍ता खाना मिले या नहीं लेकिन सरकार को कुछ बैंकों को बचाने के लिए बजट से उद्धार पैकेज जरुर देना होगा। क्‍यों कि भारत में सभी बड़े बैंक सरकारी हैं जिन्‍हें जनता के पैसे से उबार लिया जाता है। अर्थात अरबों के कारपोरेट कर्ज की देनदारी को मिनटों में टाल देने वाले बैंकों को उबारने की कीमत फिर वही आम लोग चुकायेंगे जिनके कर्ज की एक मामूली किश्‍त चूकने पर बैंक उनका जीना मुश्किल कर देते हैं।


2 comments:

Anonymous said...

anshuman ji how simply you explain these things, that is your quality

योगेश कुमार 'शीतल' said...

जटिल विषय पर आसान भाषा में लिखा गया लेख.