Monday, July 29, 2013

गरीबी की गफलत


गरीबी में कमी न स्‍वीकारने का राजनीतिक आग्रह भारत में इतना मजबूत है कि जीवन जीने की लागत की ईमानदार पैमाइश तक नहीं होती।

योजना आयोग के मसखरेपन का भी जवाब नहीं। जब उसे राजनीति को झटका देना होता है तो वह गरीबी घटने के आंकड़े छोड़ देता है और देश की लोकलुभावन सियासत की बुनियाद डगमगा जाती है। गरीबी भारत के सियासी अर्थशास्‍त्र का गायत्री मंत्र है। यह देश का सबसे बड़ा व संगठित सरकारी उपक्रम है जिसमें हर साल अरबों का निवेश और लाखों लोगों के वारे-न्‍यारे होते है। भारत की सियासत  हमेशा से मुफ्त रोजगार, सस्‍ता अनाज देकर वोट खरीदती है और गरीबी को बढ़ता हुआ दिखाने की हर संभव कोशिश करती है ताकि गरीबी मिटाने का उद्योग बीमार न हो जाए। गरीबी में कमी न स्‍वीकारने का राजनीतिक आग्रह भारत में इतना मजबूत है कि जीवन जीने की लागत की ईमानदार पैमाइश तक नहीं होती। यही वजह है कि योजना आयोग, जब निहायत दरिद्र सामाजिक आर्थिक आंकड़ो के दम पर गरीबी घटने का ऐलान करता है तो सिर्फ एक भोंडा हास्‍य पैदा होता है।
भारत गरीबी के अंतरविरोधों का शानदार संग्रहालय है जो राजनीति, आर्थिकी से लेकर सांख्यिकी तक फैले हैं। आर्थिक नीतियों का एक चेहरा पिछले एक दशक से गरीबी को बढ़ता हुआ
बताने में लगा है ताकि इसे दूर करने का विशाल बजट जायज साबित हो सके। इसी झोंक में गारंटियां गढ़ी गईं और मनरेगा बनी जिसमें गरीबी की रेखा से बाहर आने का कोई प्रावधान नहीं है। अधिकांश आबादी को सस्‍ते अनाज की सूझ भी इसी सोच का चरम है। आंकड़ों में भी निवेश हुआ है ताकि ग्रोथ बेअसर साबित हो और गरीबी की सियासत का माल पानी बंद न हो।
तेंदुलकर समिति (2009) का विवादित फार्मूला गरीबी नापने के पैमानों में सबसे नया है। सुरेश तेंदुलकर से पहले तक गरीबी की रेखा सामान्‍य सेहत के लिए न्‍यूनतम पोषण (कैलोरी इनटेक) के मूल्‍यांकन पर आधारित थी, तेंदुलकर ने इसमें शिक्षा व स्‍वास्‍थ्‍य के खर्च को भी जोड़ा और जिंदगी जीने की लागत को उपभोग खर्च के पंचवर्षीय सर्वेक्षण पर आधारित किया। आर्थिक व व्‍यावहारिक धरातल पर यह आकलन दकियानूसी इसलिए है क्‍यों कि भारत में लोगों की आय का कोई सर्वेक्षण नहीं है। उपभोग खर्च पर आधारित गरीबी की नाप कामचलाऊ होती है और वह भी पांच साल में एक बार आने वाले आंकड़े से निकलती है जिसमें रोजमर्रा की महंगाई शामिल नहीं है इसलिए तेंदुलकर के फार्मूले निकली गरीबी रेखा हास्‍यास्‍पद हो जाती है। सितंबर 2011 में जब योजना आयोग ने इस फॉर्मूले के सहारे गांव व शहरों के लिए 26 व 32 रुपये प्रतिदिन की तकनीकी गरीबी रेखा तय की थी तो गरीबी घटने का हल्‍ला हो गया। अब रंगराजन समिति नया फार्मूला बना रही है जो गरीबी में कमी दिखाने की हिमाकत शायद ही करेगा।
योजना आयोग के पास तेंदुलकर फार्मूला ही एकलौता आधिकारिक पैमाना है जो गरीबी को घटता हुआ दिखा सकता है इसलिए गाहे बगाहे इसे चमका कर यह बताने की कोशिश होती है कि आर्थिक प्रगति से भी गरीबी घटती है। इस फार्मूले के अलावा निधर्नता को नापने के सभी ताजा प्रयास गरीबी को बढ़ता हुआ दिखाने की होड़ में बदल गए हैं। एन सी सक्‍सेना व सेनगुप्‍ता समितियां आबादी में गरीबों के प्रतिशत को अफ्रीकी देशों के बराबर 70 से 77 फीसद तक ले गईं थीं। आने वाला सामाजिक आर्थिक जाति सर्वेक्षण गरीबी के सभी आंकड़ो का पितामह होगा, जिसमें  बेघर, कच्‍चे घर वाले, निरक्षर, भूमिहीन, अनुसूचित जाति व जनजा‍ति भी गरीबी की रेखा से नीचे होंगे। इस सर्वे के नतीजों के बाद भारत की गरीबी शायद अपने सबसे दानवी आकार में नजर आएगी।
सरकारें जानबूझ कर उन दूसरे आंकड़ों व अध्‍ययनों को भी नकारती रही हैं, जो गरीबी, कुपोषण व बेकारी के लिए विशाल स्कीमों से पहले तथ्‍यसंगत सर्वेक्षणों का आग्रह करते हैं। एंगस डेल्‍टन व ज्‍यां ड्रेज का महत्वपूर्ण शोध, उपभोग व स्‍वास्‍थ्‍य के सरकारी सर्वेक्षणों के आधार पर पोषण व गरीबी के रिश्‍ते को सवालों में घेरता है। भारत में अमीर गरीब सभी आय वर्गों में खाने यानी पोषण पर खर्च घट रहा है। न्‍यूट्रीशन आंकड़े देश के विभिन्‍न हिस्‍सों व आय वर्गों में पोषण की सही तस्‍वीर सामने नहीं लाते, इसलिए सस्‍ते अनाज का भ्रष्‍ट तंत्र बनाने के बजाय सरकार को राष्‍ट्रीय परिवार स्‍वास्‍थ्‍य सर्वे को प्रभावी व चुस्‍त करना चाहिए ताकि आय व पोषण के रिश्‍ते को गांवों तक पकड़ा जा सके और सही लोगों तक सस्‍ता भोजन पहुंच सके। ठीक इसी तरह एंड्रयू फॉस्‍टर व मार्क रोजेनविग का कीमती अध्‍ययन सिद्ध करता है कि भारत में रोजगार बढ़ने का प्रमुख स्रोत खेती नहीं बल्कि गैर कृषि गतिविधियां हैं। नतीजतन रोजगारों की मांग व आपूर्ति के लिए व्‍यापक, नियमित व तर्कसंगत अध्‍ययन की जरुरत है। अलबत्‍ता खाद्य सुरक्षा व मनरेगा के लिए इन हकीकतों की तलाश पर धूल डालना अनिवार्य हो गया है।

गरीबी भारत की लोकलुभावन राजनीति की पारंपरिक बुनियाद है, तेज ग्रोथ व आय में बढ़ोत्‍तरी के ताजा दौर ने सरकारों की दुविधा बढ़ा दी है क्‍यों कि ग्रोथ और गरीबी दोनों को बढ़ता हुआ बताना जटिल नीतिगत असमंजस है। देश का हर मुख्‍यमंत्री अब ग्रोथ बेचता है, अपने कार्यकाल में गरीबी बढ़ने से इंकार करता है लेकिन गरीबी के नाम पर केंद्र से संसाधन लेने में आगे रहता है। गरीबी नापने के सभी फार्मूले उन पैमानों पर सही है जिनका वह इस्‍तेमाल करते हैं लेकिन गरीबी में कमी या बढ़त की सही तस्‍वीर मिलना असंभव इसलिए है क्‍यों कि बुनियादी आंकड़ों में झोल है। हाउसहोल्‍ड इनकम, पोषण का स्‍तर, रोजगार, जीवन जीने की लागत और बढ़ती-घटती महंगाई से इन सबका अंतरसंबंध नापकर गरीबी का प्रासंगिक व ठोस आंकड़ा मिल सकता है। इसके लिए तेज रफ्तार आंकड़ा संग्रह चाहिए जो सूचना तकनीक के सूरमा भारत के लिए मुश्किल भी नहीं है लेकिन इन बुनियादी आंकड़ों को गरीब बनाये रखना ही तो सियासत है, ताकि गरीबी में कमी या बेशी की भरोसेमंद तस्‍वीर कभी न सामने आ सके।  गरीबी को लेकर गफलत, ‍भारत में बहुतों की अमीरी का जरिया जो है। 

1 comment:

Amrish yash said...

garibo ko kya taklif hai aur kya dava unhe di jani chahiye, ye sab bade log hi decide karte hai